Book Title: Antkruddasha Sutra
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 164
________________ वर्ग ६ अध्ययन ३ - उपसर्ग मुक्त १३६ ***kkakekkekakakekkkkkkkkkkkkkkkkkekekkkkkkkkkkkekekckerkenkekekkkkkkkkkkakeeke********* धर्मद्वेषी अपना राग अलग ही आलाप रहे थे - 'देखोजी! यह धर्म के धोरी अकेले ही हैं जो अभी मुद्गरपाणि के हाथ की चटनी बन जाएंगे। भगवान् की भक्ति तो जैसे ये ही करते हैं।' अस्तु! सुदर्शन रास्ते-रास्ते निर्भय होकर चल रहे थे। भय से रास्ता छोड़ना या पलायन करना ठीक नहीं है। वैसे ही 'काट कुत्ते! मैं दवा जानता हूँ।' या 'आ बैल! मुझे मार' वाली बात भी उनमें नहीं थी कि मुद्गरपाणि को अपनी ओर से चलाकर ललकारते कि मैं भगवान् महावीर का भक्त हूँ, तू मेरे सामने तो आ! मैं देखता हूँ तेरे मुद्गर में कितनी ताकत है? सुदर्शन को देख कर मुद्गरपाणि यक्ष को क्रोध आया, वह इसलिए कि आगे तो जो भी उसके चंगुल में आये थे वे बेचारे रोते-कलपते, चीखते-चिल्लाते, प्राणों की भीख मांगते थे और वह यक्ष उन्हें बेरहमी से परलोक पहुँचा देता था, पर आज यह कोई अलग ही फरिश्ता सामने आया है। न तो डर है, न मरने की छाया ही। ___ मैं अभी देख लेता हूँ।' इस भावना से वह मुद्गर उठाता है पर उठे हुए हाथ नीचे नहीं आ पाते। इधर से जोर नहीं चलता तो पीछे से जमाऊँ? पर यह क्या? मुद्गर का वार ही नहीं हो पाता। सुदर्शन के शांत सौम्य मुख पर मुद्गरपाणि की दृष्टि केन्द्रित हो गई। उसने जीवन में पहली बार ऐसा निर्भय व्यक्ति देखा था, जो मौत से भी नहीं डरता। अप्रमत्त सुदर्शन में ऐसी दिव्य शक्ति का आविर्भाव हो गया था कि यक्ष का बल नाकाम हो गया। ___ गजसुकुमाल जगजगते खीरे सिर पर डाले जाते हुए देख कर भी भयभीत नहीं बने, सुदर्शन ने मुद्गरपाणि यक्ष का भय नहीं माना। जैनों में ऐसे-ऐसे जुझारों का जमघट रहा है। अतः जैन इतिहास से अनभिज्ञ ही जैनधर्म को कायरों का धर्म कह सकता है। - सुदर्शनजी ने अपनी शक्ति तोल कर ही माता-पिता से आज्ञा मांगी थी। वे जानते थे कि मुद्गरपाणि यक्ष का उपसर्ग अवश्यंभावी है। उपसर्ग आते देख कर उन्होंने व्रत प्रतिलेखन किया। उन्होंने आर्त होकर चीख पुकार नहीं मचाई कि - _ 'हे भगवन्! मैं आपके दर्शन को आ रहा था कि बीच में क्या मुसीबत आ गई? आपकी सेवा में तो अनेक देव आते रहते हैं, किसी न किसी को जल्दी भेजिये। मैं मारा जाऊँगा, तो आपकी भी बदनामी होगी। हाय! माता-पिता ने पहले ही मना किया था, मैंने. उनकी बात नहीं मानी। अब तो मारे गए, कैसे बचेंगे?' सुदर्शन श्रमणोपासक की निर्भयता जैन इतिहास का एक स्वर्णिम पृष्ठ है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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