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वर्ग ६ अध्ययन ३ - अर्जुन अनगार की प्रतिज्ञा
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अर्जुन अनगार की प्रतिज्ञा
(७२) तए णं से अज्जुणए अणगारे जं चेव दिवसं मुंडे जाव पव्वइए तं चेव दिवसं भगवं महावीरं वंदइ णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता इमं एयारूवं अभिग्गहं उग्गिण्हइ"कप्पड़ मे जावज्जीवाए छटुं छठेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं अप्पाणं भावमाणस्स विहरित्तए" त्ति कटु अयमेयारूवं अभिग्गहं उग्गिण्हइ, उग्गिण्हित्ता जावजीवाए जाव विहरइ।
कठिन शब्दार्थ - मुंडे - मुण्डित, पव्वइए - प्रव्रजित, एयारूवं - इस प्रकार, अभिग्गहअभिग्रह, उग्गिण्हइ - धारण किया, छठें छटेणं - बेले-बेले, तवोकम्मेणं - तप कर्म से।
__ भावार्थ - अर्जुन अनगार जिस दिन प्रव्रजित हुए, उसी दिन श्रमण-भगवान् महावीर स्वामी को वन्दन-नमस्कार कर के ऐसा अभिग्रह धारण किया - 'मैं यावज्जीवन अन्तर-रहित बेले-बेले पारणा करता हुआ और तपस्या से अपनी आत्मा को भावित करता हुआ विचरूंगा' - ऐसा अभिग्रह ले कर अर्जुन अनगार विचरने लगे। - विवेचन - भगवान् के मुखारविंद से धर्मकथा सुन कर अत्यंत आनंदित आह्लादित अर्जुनमाली ने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी से निवेदन किया - 'हे भगवन्! गांठ को ग्रंथि कहते हैं। आपके वचनों में माया, मिथ्यात्व, मृषा आदि की कोई गांठ - ग्रंथि नहीं होने से ये निग्रंथ प्रवचन हैं। मैं आपके इन शुभ वचनों पर श्रद्धा, प्रतीति, रुचि करता हूं। ये मुझे अच्छे लगे। बहुत अच्छे लगे। मेरी आत्मा संयम स्वीकार करने को तैयार है। मैं श्री चरणों में प्रव्रज्या की याचना करता हूं। आपकी छत्र छाया में कर्म चकचूर करने को मैं पूरी तरह तैयार हूं।' ___ भगवान् ने कृपा की - 'हे देवानुप्रिय! जैसा सुख हो वैसा करो।' अब देरी किस बात की? पत्नी कालधर्म को पहले ही प्राप्त कर चुकी थी। वे अपने प्रभु या अधिष्ठाता स्वयं थे, संघ की साक्षी वहां थी ही। भगवान् से दीक्षा की आज्ञा प्राप्त होने पर वे अर्जुनमाली गुणशील उद्यान के ईशान कोण में गए। अपने हाथ से मस्तक के सभी केशों का दीक्षा प्रायोग्य छोड़ कर लुंचन किया। दीक्षार्थी का वेश, पात्र, रजोहरण आदि धारण किये। मुनि के रूप में उनका जन्म हो गया। वे पांचों समिति समित, तीनों गुप्ति गुप्त हो गए। निग्रंथ प्रवचन को आगे रख कर प्रत्येक प्रवृत्ति में सावधान एवं सजग बन गये।
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