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भावार्थ - उस काल उस समय श्रमण भगवान् महावीर स्वामी वहाँ पधारे। उनके पधारने का समाचार जान कर राजगृह नगर के राज मार्ग आदि स्थानों में बहुत-से मनुष्य एक-दूसरे से कहने लगे - 'हे देवानुप्रिय! श्रमण भगवान् महावीर स्वामी यहाँ पधारे हैं, जिनके नाम - गोत्र श्रवण से भी महाफल होता है, तो दर्शन करने, वाणी सुनने तथा उनके द्वारा प्ररूपित विपुल अर्थ ग्रहण करने से जो फल होता है, उसका तो कहना ही क्या ? अर्थात् वह तो अवर्णनीय है।'
सुदर्शन सेठ की शुभ भावना
अन्तकृतदशा सूत्र
तए णं तस्स सुदंसणस्स बहुजणस्स अंतिए एयमट्ठे सोच्चा णिसम्म अयं अज्झत्थिए जाव समुप्पण्णे - एवं खलु समणे भगवं महावीरे जाव विहरइ । तं गच्छामि णं समणं भगवं महावीरं वंदामि णमंसामि एवं संपेहेइ, संपेहित्ता जेणेव अम्मापय तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता करयल-परिग्गहियं दसहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्टु एवं वयासी- "एवं खलु अम्मयाओ! समणे भगवं महावीरे जाव विहरइ । तं गच्छामि णं समणं भगवं महावीरं वंदामि णमंसामि जाव पज्जुवासामि । "
भावार्थ - बहुत से मनुष्यों के मुख से भगवान् के पधारने का समाचार सुन कर सुदर्शन सेठ के हृदय में इस प्रकार विचार उत्पन्न हुआ 'श्रमण भगवान् महावीर स्वामी राजगृह नगर के बाहर गुणशीलक उद्यान में पधारे हैं। इसलिए मुझे उचित है कि मैं भगवान् को वन्दन करने जाऊँ।' इस प्रकार विचार कर अपने माता-पिता के पास आये और हाथ जोड़ कर इस प्रकार 'हे माता - पिता! श्रमण भगवान् महावीर स्वामी यहाँ पधारे हैं। इसलिए मैं उन्हें वन्दन नमस्कार करने के लिए जाना चाहता हूँ।'
बोले
सुदर्शन और माता-पिता का संवाद
तणं तं सुदंसणं सेट्ठि अम्मापियरो एवं वयासी - "एवं खलु पुत्ता! अज्जुणए मालागारे जाव घाएमाणे विहरइ, तं माणं तुमं पुत्ता! समणं भगवं महावीरं वंदए णिग्गच्छाहि । मा णं तव सरीरयस्स वावत्ती भविस्सइ । तुमं णं इह गए चेव समणं भगवं महावीरं वंदाहि णमंसाहि । "
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