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अन्तकृतदशा सूत्र
करयल जाव कटु कण्हं वासुदेवं एवं वयासी - इच्छामि णं देवाणुप्पिया! तुब्भेहिं अब्भणुण्णाया समाणी अरहओ अरि?णेमिस्स अंतिए मुंडा जाव पव्वयामि। अहासुहं देवाणुप्पिए!
भावार्थ - इसके बाद पद्मावती रानी धार्मिक रथ पर चढ़ कर द्वारिका नगरी की ओर लौटी और अपने भवन के पास आ कर धार्मिक रथ से नीचे उतरी, फिर जहाँ कृष्ण-वासुदेव थे, वहाँ गई। उनके सामने हाथ जोड़ कर इस प्रकार बोली - "हे देवानुप्रिय! मैं भगवान् अरिष्टनेमि से दीक्षा अंगीकार करना चाहती हूँ। इसलिए आप मुझे दीक्षा लेने की आज्ञा प्रदान करें।"
पद्मावती रानी की उपर्युक्त बात सुन कर कृष्ण-वासुदेव ने कहा - 'हे देवानुप्रिये! जिस प्रकार तुम्हें सुख हो, वैसा कार्य करो।'' पद्मावती का दीक्षा-महोत्सव
(५७) ___तए णं से कण्हे वासुदेवे कोडुंबिय पुरिसे सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी - खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! पउमावई देवीए महत्थं णिक्खमणाभिसेयं उवट्ठवेह, उवट्ठवित्ता एवं आणत्तियं पच्चप्पिणह। तए णं ते कोडुंबिया जाव पच्चप्पिणंति। ___ कठिन शब्दार्थ - महत्थं - विशाल, णिक्खमणाभिसेयं - निष्क्रमणाभिषेक, उवट्ठवेहतैयारी करो।
भावार्थ - इसके बाद कृष्ण-वासुदेव ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और कहा - 'हे देवानुप्रियो! पद्मावती देवी के लिए शीघ्र ही दीक्षा-महोत्सव की विशाल तैयारी करो और तैयारी हो जाने पर मुझे सूचना दो।' ___कृष्ण वासुदेव की उपर्युक्त आज्ञा पा कर सेवक पुरुषों ने दीक्षा-महोत्सव सम्बन्धी व्यवस्था कर के उसकी सूचना कृष्ण-वासुदेव को दी। - तए णं से कण्हे वासुदेवे पउमावई देविं पट्टयं दुरूहइ, दुरूहित्ता अट्ठसएणं सोवण्णकलसेणं जाव णिक्खमणाभिसेएणं अभिसिंचइ, अभिसिंचित्ता सव्वालंकार विभूसियं करेइ, करित्ता पुरिससहस्सवाहिणी सिवियं दुरूहावेइ, दुरूहावित्ता बारवईए
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