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वर्ग ५ अध्ययन १ - वासुदेव निदानकृत होते हैं
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वासुदेव निदानकृत होते हैं
(५३) "तं णो खलु कण्हा! एवं भूयं वा भव्वं वा भविस्सइ वा जण्णं वासुदेवा चइत्ता हिरण्णं जाव पव्वइस्संति।"
“से केणठेणं भंते! एवं वुच्चइ - ण एवं भूयं वा जाव पव्वइस्संति?"
"कण्हाइ! अरहा अरिट्ठणेमी कण्हं वासुदेवं एवं वयासी - एवं खलु कण्हा! सव्वे वि य णं वासुदेवा पुव्वभवे णियाणकडा, से एएणडेणं कण्हा एवं वुच्चइण एवं भूयं जाव पव्वइस्संति।
कठिन शब्दार्थ - णी एवं भूयं वा भव्वं वा भविस्सइ वा - ऐसा कभी हुआ नहीं, होता नहीं और होगा भी नहीं, पव्वइस्संति - दीक्षित होंगे, पुव्वभवे - पूर्वभव में, णियाणकडानिदानकृत - नियाणा करने वाले।
भावार्थ - 'हे कृष्ण! ऐसा कभी हुआ नहीं, होता नहीं और होगा भी नहीं कि वासुदेव अपने भव में संपत्ति छोड़ कर प्रव्रजित हो जाय। नहीं, वासुदेव दीक्षा लेते ही नहीं, कभी ली नहीं और भविष्य में लेंगे भी नहीं।
यह सुन कर कृष्ण-वासुदेव ने पूछा - 'हे भगवन्! इसका क्या कारण है?' . - भगवान् ने कहा - 'हे कृष्ण! सभी वासुदेव पूर्व-भव में निदानकृत (नियाणा करने वाले) होते हैं। इसलिए मैं ऐसा कहता हूँ कि ऐसा कभी हुआ नहीं, होता नहीं और होगा भी नहीं कि वासुदेव अपनी संपत्ति को छोड़ कर दीक्षा लें।'
विवेचन - सभी वासुदेव पूर्व के मनुष्य भव में संयम ग्रहण किए हुए होते हैं। प्रतिवासुदेव के जीव के साथ किसी न किसी कारण से उनका वैरानुबंध हो जाता है। यहां तो वे संयमी होने के कारण अनिष्ट नहीं कर पाते पर आगामी भव में उसका वैर वसूलने का संकल्प ही वह निदान है जो सभी वासुदेव करते ही हैं और इसी कारण वे वासुदेव के भव में संयम लेने में असमर्थ रहते हैं।
श्री स्थानांग सूत्र में निदान भूमियां व निदान के कारण बताये हैं। तीर्थंकर चरित्र में कथानक भी उपलब्ध है।
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