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वि य तव अंतियाओ करयल संपुडेणं गिण्हइ, गिण्हित्ता सुलसाए गाहावइणीए अंतिए साहरइ । तं तव चेव णं देवई ! एए पुत्ता, णो चेव सुलसाए गाहावइणीए । कठिन शब्दार्थ - करयलसंपुडेणं - हाथों में, तव अंतियं - तुम्हारे पास में, साहरईलाकर रखता, पसवसि - प्रसव करती ।
भावार्थ - हरिनैगमेषी देव, सुलसा की अनुकम्पा के लिए उन मरे हुए बालकों को अपने दोनों हाथों में उठा कर तुम्हारे पास ले आता था । उसी समय तुम भी नौ मास साढ़े सात रात. बीतने पर सुन्दर और सुकुमार पुत्रों को जन्म देती थी । तुम्हारे पुत्रों को दोनों हाथों से उठा कर हरिनैगमेषी देव, सुलसा के पास रख देता था । इसलिए हे देवकी! अतिमुक्तक अनगार के वचन सत्य हैं। ये सभी पुत्र तुम्हारे ही हैं, सुलसा के नहीं। इन सभी को तुमने ही जन्म दिया है, सुलसा ने नहीं ।
अन्तकृतदशा सूत्र
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में भगवान् अरिष्टनेमि ने देवकी देवी के समाधान के लिए नाग की पत्नी सुलसा का निन्दू मृतवन्धया होना, उसका हरिनैगमेषी देव की आराधना करना, हरिनैगमेषी देव का प्रसन्न होकर देवकी देवी के पुत्रों को सुलसा के पास पहुँचाना तथा ला के मृतपुत्रों को देवकी देवी के पास पहुँचाना आदि का वर्णन किया गया है।
जिन दिनों देवकी का विवाह हो रहा था, जीवयशा अपनी ननद देवकी का सिर गूंथ रही थी। जीवयशा के देवर, कंस के छोटे भाई अतिमुक्तक अनगार गोचरी के लिए पधारे तो वैवाहिक राग रंग में मस्त जीवयशा ने उनसे कहा- देवरजी ! घर पर तो बहिन का विवाह है, आप क्या घर - घर गोचरी फिरते हो? इस प्रकार अभद्र चेष्टा करने लगी, तब अतिमुक्त अनगार ने जीवयशा से कहा - " तू जिस देवकी के विवाह के उत्सव में बेभान हो रही है, इसकी सातवीं संतान तुझे 1. वैधव्य देगी।" जीवयशा ने कंस से कहा तथा उसने वसुदेवजी की प्रथम सात संतानें मांग ली। उनमें से अनीकसेन आदि छह तो चरमशरीरी थे तथा सातवीं संतान श्रीकृष्ण को गुप्त रूप से अन्यत्र भेजा गया, उसी प्रसंग का वर्णन करते हुए भगवान् देवकी से फरमाते हैं
से हरिनैगमेषी देव प्रसन्न हो गया। वह
सुलसा की इकरंगी भक्ति- बहुमान एवं सेवा-शु -शुश्रूषा सुलसा पर अनुकम्पा करके तुम्हें और सुलसा को साथ-साथ ऋतुमती करने लगा। तुम दोनों साथ-साथ ही गर्भ धारण करती, गर्भ का वहन करती तथा साथ ही प्रसव करती थी। जब सुलसा के मृत संतान का जन्म होता तब हरिनैगमेषी देव उसे उठा कर तुम्हारे पास ले आता था
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