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अन्तकृतदशा सूत्र *************************************************************
प्रश्न - तब सोमिल दुर्गति में क्यों जायेगा, जब कि उसने सहायता दी है?
उत्तर - प्रत्येक को अपनी भावना के अनुसार फल मिलता है। यदि सोमिल शुभ-भावना से उत्तम आहार बहराता तथा उसका अशुभ परिणमन हो कर गजसुकुमालजी का प्राणान्त भी हो जाता, तब भी उसको शुभ भावों के कारण उत्तम फल मिलता। नहीं तो आहार बहराने वाला यदि अशुभ परिणामों से खराब आहार देवे और मुनि को उसका शुभ परिणमन हो तब भी दाता को अशुभ फल ही मिलेगा। सोमिल की भावना अपना प्रतिशोध लेने की थी। गजसुकुमालजी ने समता भाव रख लिया तथा मुक्त हो गए। इनके स्थान पर कोई कच्चे मन का साधक होता तथा अंगारों से डर कर भाग खड़ा होता, तो उन्माद दीर्घकालिक रोगातक या केवली प्ररूपित धर्म से विच्युति होते क्या समय लगता? अतः सोमिल ने अपने क्रूर अध्यवसायों के कारण ही अशुभ फल पाया।
भ्रात मुनि घातक कौन? तए णं से कण्हे वासुदेवे अरहं अरिट्ठणेमि एवं वयासी - “केस णं भंते! से पुरिसे अप्पत्थियपत्थिए जाव परिवज्जिए, जे णं ममं सहोयरं कणीयसं भायरं गयसुकुमालं अकाले चेव जीवियाओ ववरोविए?" तए णं अरहा अरिट्ठणेमी कण्हं वासुदेवं एवं वयासी - “मा णं कण्हा! तुमं तस्स पुरिसस्स पओसमावज्जाहिं। एवं खलु कण्हा! तेणं पुरिसेणं गयसुकुमालस्स अणगारस्स साहिज्जे दिण्णे।"
कठिन शब्दार्थ - पओसमावज्जाहिं - क्रोध (द्वेष) मत करो।
भावार्थ - यह सुन कर कृष्ण वासुदेव ने भगवान् अरिष्टनेमि से पूछा - 'हे भगवन्! मृत्यु को चाहने वाला लज्जा आदि से रहित वह पुरुष कौन है, जिसने मेरे सहोदर लघुभ्राता गजसुकुमाल अनगार का अकाल में ही प्राण-हरण कर लिया?' भगवान् ने कहा - 'हे कृष्ण! तुम उस पुरुष पर क्रोध मत करो, क्योंकि उस पुरुष ने गजसुकुमाल अनगार को मोक्ष प्राप्त करने में सहायता दी है।' ... "कहण्णं भंते! तेणं पुरिसेणं गयसुकुमालस्स णं साहिज्जे दिण्णे? तए णं अरहा अरिहणेमी कण्हं वासुदेवं एवं वयासी - “से णूणं कण्हा! तुम ममं पायवंदए हव्वमागच्छमाणे बारवईए णयरीए एगं पुरिसं पाससि जाव अणुप्पवेसिए।
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