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अन्तकृतदशा सूत्र
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देवकी की शंका .. तयाणंतरं च णं तच्चे संघाडए बारवईए णयरीए उच्चणीय जाव पडिलाभेइ, पडिलाभित्ता एवं वयासी-किण्णं देवाणुप्पिया! कण्हस्स वासुदेवस्स इमीसे बारवईए णयरीए दुवालस-जोयण-आयामाए णव-जोयणविच्छिण्णाए पच्चक्खं देवलोगभूयाए समणा णिग्गंथा उच्चणीयमज्झिमाई कुलाई घरसमुदाणस्स भिक्खायरियाए अडमाणा भत्तपाणं णो लभंति, जण्णं ताई चेव कुलाई भत्तपाणाए भुजो-भुजो अणुप्पविसंति?। ..
__कठिन शब्दार्थ - दुवालस-जोयण-आयामाए - बारह योज़न लम्बी, णवजोयण विच्छिण्णाए - नौ योजन चौड़ी, पच्चक्खं - प्रत्यक्ष, देवलोगभूयाए - देवलोक (स्वर्गपुरी) के समान, भत्तपाणं - आहार पानी, णो लभंति - प्राप्त नहीं होता, भुज्जो-भुज्जो - बार- . बार, अणुप्पविसंति - प्रवेश करते हैं।
भावार्थ - इसके बाद तीसरा संघाड़ा भी उसी प्रकार देवकी महारानी के घर आया। देवकी महारानी ने उसे भी उसी आदरभाव से सिंहकेसरी मोदक बहराया। इसके बाद वह विनय पूर्वक पूछने लगी - 'हे भगवन्! कृष्ण-वासुदेव जैसे महाप्रतापी राजा की बारह योजन लम्बी
और नौ योजन चौड़ी स्वर्गलोक के सदृश इस द्वारिका नगरी के ऊँच-नीच और मध्यम कुलों में सामुदायिक भिक्षा के लिए घूमते हुए श्रमण-निर्ग्रन्थों को आहार-पानी नहीं मिलता है क्या? जिससे एक ही कुल में बार-बार आना पड़ता है। ___ विवेचन - समणा - श्रमण - समभावों से मुनि ‘समन' है, कषायों को दबाते रहते हैं सो ‘शमन' है, तप संयम में श्रम करने वाले होने से 'श्रमण' हैं। ... . ___णिग्गंथा - निग्रंथ - माया, मिथ्यात्व आदि की जिनके गांठ नहीं है जो सरल हैं। बिना गांठ वाले संत निग्रंथ कहलाते हैं। ____ न तो गरिष्ठ पदार्थों में रुचि तथा रूखे-सूखे पदार्थों में अरुचि के कारण धन्ना (संपन्न) सेठों के ही जाने की भावना और न ही पूंजीपतियों से द्वेष के कारण केवल गरीबों के यहां ही जाना, ऐसी दुर्भावनाओं से वे मुनि मुक्त थे। गोचरी के समान उपदेश के लिए भी आगमकार भगवंत गरीब अमीर को एक ही तराजू में तोलते हैं -
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