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... अन्तकृतदशा सूत्र ****************************************
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वाले, अधोआरामगृह अथवा ऊपर से ही ढका अधोविकट गृह या वृक्ष के नीचे बने स्थान में ही रहना कल्पता है। तीन प्रकार के संस्तारक ग्रहण कर सकता है-पृथ्वी शिला, काष्ठ शय्या
और पहले से बिछा संस्तारक। आने-जाने वालों के प्रति उपेक्षा भाव रख कर अपने ज्ञान-ध्यान में लीन रहता है। उपाश्रय में आग लग जावे तो भी निर्भयता पूर्वक अपने ध्यान में लीन रहता है। कोई प्राणान्त करने को तत्पर हो तो भी उसे पकड़ता नहीं है। पाँव में कंकर-कांटा लग जाय तथा मच्छर आदि काटे तो भी बाधा नहीं देता है। सूर्यास्त के बाद एक कदम भी नहीं चलता है। हिंसक पशुओं से डर कर पथ परिवर्तन नहीं करता है। इन्द्रिय प्रतिकूल सर्दी, गर्मी आदि से बचने के लिए अन्यत्र गमन नहीं करता है। विशेष वर्णन के लिए श्री अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ, ब्यावर से प्रकाशित श्री भगवती सूत्र भाग १ पृ० ४२५ देखना चाहिए।
प्रश्न - बारह भिक्षु-प्रतिमाओं को वहन करने में कुल कितना समय लगता है? ..
उत्तर - चूंकि प्रतिमाधारी कहीं भी एक-दो रात्रि से अधिक नहीं ठहर सकते। अतः यह तो स्पष्ट ही है कि प्रतिमा धारण ऋतुबद्ध (शेष) काल के आठ महीनों में ही हो सकता है। एक के बाद दूसरी, तीसरी इस प्रकार अनुबद्ध प्रतिमा धारण का भी वर्णन गौतम, स्कन्दक आदि के वर्णन में हुआ है। अतः सात प्रतिमाओं में सात मास, आठवीं, नववीं, दसवीं, में ७४३-२१ दिन, ग्यारहवीं प्रतिमा अहोरात्रि की बेले के तप से तथा बारहवीं प्रतिमा एक रात्रि की बेले को बढ़ा कर तेले के तप से होती हैं। इस प्रकार ७ मास २३ दिन में प्रतिमा का आराधन होता है।
प्रश्न - फिर दूसरी द्विमासिकी यावत् सातवीं सप्तमासिकी क्यों कही गई है?
उत्तर - कालमान की अपेक्षा उपरोक्त संज्ञा नहीं समझना, सप्तमासिकी का अर्थ 'सातवीं मासिकी प्रतिमा' करना चाहिए।
प्रश्न - दूसरी आदि प्रतिमाओं की पहली की अपेक्षा क्या विशेषता है?
उत्तर - आगे की प्रतिमाओं में दत्तियों की संख्या बढ़ जाती है तथा रात्रि में अमुक आसनों से रहना होता है। विस्तृत वर्णन के लिए श्री दशाश्रुतस्कन्ध की आठवीं दशा देखनी चाहिए। प्रत्येक साधु को प्रतिमावहन की अनुज्ञा नहीं दी जाती है। संहनन-धृति युक्त, अतिशयपराक्रमी, संयम में तल्लीन, शुद्ध आत्मा - जिसे गुरु की अनुज्ञा प्राप्त हो गई हो - ऐसा महान् बल सम्पन्न साधु ही प्रतिमा धारण कर सकता है। साध्वियाँ इन प्रतिमाओं को धारण नहीं कर सकती। वैसे तो कम से कम उनतीस वर्ष की वय पर्याय, कम से कम बीस वर्ष की दीक्षा पर्याय, नववें पूर्व की तीसरी आचार वस्तु तक का ज्ञान तथा गच्छ में रह कर प्रतिमाओं का पूर्वाभ्यास आदि विशेषताएं होना अनिवार्य है।
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