Book Title: Antim Tirthankar Ahimsa Pravartak Sargnav Bhagwan Mahavir Sankshipta
Author(s): Gulabchand Vaidmutha
Publisher: Gulabchand Vaidmutha
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यता से विचर सकते हैं । विश्वशांति के लिये इसी धर्म ने अहिंसा एवं दया का सुन्दर पाठ संसार को पढ़ाया है। इस धर्म की अहिंसा में ही मानव सभ्यता, विश्वव्यापी सुख और अपूर्व शान्ति की निर्मल धारा बहती है। प्राचीन से प्राचीन ऋषियों के सिद्धान्तों में इस धर्म की छटाओंका स्थान स्थान में उल्लेख पाया जाता है । इसीसे प्रतीत होता है कि यह धर्म बहुत ही प्राचीन और विश्वव्यापी धर्म है । इसकी प्रचीनता के विषय में अनेक प्रमाण मिलते हैं जिनमें से कुछएकका संक्षिप्त उल्लेख यहां किया जाता है।
१. राजा शिवप्रसाद सितारे हिन्द ने अपने ' भूगोल हस्तामलक' में लिखा है कि अढाई हजार वर्ष पहिले दुनिया का अधिक भाग जैन धर्म का उपासक था।
२. ऐतिहासिक प्रमाणों से भी सिद्ध होता है कि वेदकाल के पूर्व भी जैन धर्म का अस्तित्व था। इसीलिये वेदों की ऋचाओं में जैनियों के तीर्थंकरों के नाम आते हैं, जैसे:(i) यजुर्वेद (अध्याय २६) 'ॐ रक्ष रक्ष अरिष्ट नेमि
स्वाहा ' अर्थात, हे अरिष्ट नेमि भगवान हमारी रक्षा करो ॥ ( नेमि नाथ जिन्हें अरिष्ट नोमि भी
कहते हैं जैनियों के २२ वें तीर्थंकर हैं )। (ii) यजुबर्दे (अध्याय २६) 'ॐ नमोहन्तो ऋपमों'।
अर्थात अर्हन्तनामधारी ऋषभदेव को नमस्कार हो । ऋषभदेव जी जैनियों के प्रथम तर्थिकर हैं जिन्हें अदिनाथजी भी कहते हैं और अर्हन्त श्री नवकाउमंग का पहला पद है ।
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