Book Title: Alankar Chintamani
Author(s): Ajitsen Mahakavi, Nemichandra Siddhant Chakravarti
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 16
________________ प्रस्तावना पर निर्भर है। अतः अलंकारशास्त्रियोंने मनके ओजको अलंकारोंके अस्तित्वका कारण माना है। __ वस्तुतः अलंकार किसी भी विषयको उक्तिवैचित्र्य रूपमें कहनेके साधन हैं। कविकी यह स्वाभाविक धारणा होती है कि वह अपनी रचनाको रोचक बनानेका यत्न करे। किसी बातको सीधे ढंगसे यथातथ्य रूपमें कह देनेका उतना व्यापक प्रभाव नहीं पड़ता, जितना कल्पनामिश्रित अतिरंजित वाणी द्वारा व्यक्त करनेसे प्रभाव पड़ता है । कवियोंकी इसी प्रवृत्तिके कारण अलंकारशास्त्रियोंने अलंकारके मूलमें अतिशयोक्ति, वक्रोक्ति या औपम्यको ग्रहण किया है। निःसन्देह अलंकार काव्यमें रसके उत्कर्षक एवं सौन्दर्यका परिवर्द्धन करने वाले आवश्यक उपादान हैं। कविकी सौन्दर्यप्रियताके कारण ही काव्यमें अलंकारोंका अस्तित्व पाया जाता है। अलंकारोंका मनोवृत्तियोंसे घनिष्ठ सम्बन्ध है। कवि अपने रुचिवैशिष्ट्यके अनुसार अलंकारका प्रयोग कर अपनी रचनामें चारुता उत्पन्न करता है । अलंकार द्वारा एक व्यक्तिके हृदयकी अनिर्वचनीय रसानुभूति दूसरे व्यक्ति के हृदयमें संक्रमित होती है। हमारे जीवनकी रसानुभूतियाँ केवल सूक्ष्म, सुकुमार एवं अनन्त वैचित्र्यशील ही नहीं होती किन्तु हृदयके गहन अन्तराल में अनिर्वचनीय आह्लादका संचार करती हैं। इस अनिर्वचनीयको वचनीय करनेकी चेष्टा असाधारण भाषा द्वारा की जाती है—यतः अभिव्यक्तिका साधन भाषा ही है। कवि भाषा द्वारा जिस अन्तर्लोकका परिचय देना चाहता है, वह परिचय साधारण भाषा द्वारा नहीं दिया जा सकता। इसके लिए हृदय को स्पन्दित करनेवाली विशेष भाषाकी अपेक्षा होती है। इस विशेष भाषाका नाम ही सालंकार भाषा है। ___अलंकार कविकी विशेष भाषाके धर्म होते हैं। इन्हीं के प्रयोग द्वारा वह अपनी अनुभूतिको प्रेषणीय बनाता है। काव्यानुभूति, स्वानुरूप चित्र, स्वानुरूप वर्ण, स्वानुरूप झंकार लेकर ही आत्माभिव्यक्ति करती है। जब तक कवि अपनी काव्यानुभूति को विशेष भाषामें मूर्त नहीं कर पाता, तब तक मर्मस्पर्शी काव्यका प्रणयन सम्भव नहीं होता। रस समाहित हृदयके स्पन्दनको अभिव्यक्त करनेके लिए असाधारण भाषा अपेक्षित है। और इस असाधारण भाषाको काव्योचित विशेषोक्ति या अलंकार समन्वित विशेषोक्ति कहा जा सकता है । कलाका प्रधान कार्य व्यक्तिविशेषके भावोंको सार्वजनीन बनाना है। यह सार्वजनीन या साधारणीकरणको प्रक्रिया तथ्य निरूपण मात्रसे नहीं हो सकती । इसके लिए अलंकृत भाषाका प्रयोग करना आवश्यक है। अलंकारके अभाव में रचनामें मनोज्ञता नहीं आ सकती है और न वह रचना सहृदय-संवेद्य ही हो सकती है। यह सत्य है कि अलंकार काव्यका कलापक्षीय धर्म है। पर वाणी में सौन्दर्य और चारुता अलंकार द्वारा ही उत्पन्न होती है। शब्दालंकार भाषाके संगीत धर्मके अन्तर्गत हैं और अर्थालंकार चित्र धर्मके । इन [२] For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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