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विषयानुक्रम गाथा संख्या विषय ४३८० मूत्र, मल तथा वमन आदि का निरोध करने से
उत्पन्न होने वाली शारीरिक व्याधियां। ४३८१,४३८२ विवक्षित गांव में वसति की याचना कब, कैसे?
और प्रवेश विधि। ४३८३ उपाश्रय नहीं मिलने पर शून्यगृह आदि में रहने
का विधान। ४३८४ शून्यगृह आदि में लोगों का आवागमन होने पर
आहार करने की विधि, तत्पश्चात् गांव प्रवेश का
कथन। ४३८५,४३८६ रात्री में वसति प्रवेश विधि और गच्छ प्रवेश की
विधि। ४३८७ आचार्य के लिए तीन संस्तारक भूमियों का
निर्धारण। वसति के तीन प्रकार और उनका
स्वरूप। ४३८८ शयनविधि के उल्लंघन में प्रायश्चित्त और
अधिकरण आदि दोष। ४३८९ संस्तारक ग्रहण काल में वेटिका उत्क्षेपण का
विधान। ४३९० वेटिका उठाने से होने वाले लाभ। ४३९१ संस्तारकग्रहण काल में माया करने के दोष और
प्रायश्चित्त। ४३९२-४३९५ मायाकरण के प्रकार और प्रायश्चित्त। ४३९६ धर्मकथा करने से होने वाले गुण। ४३९७ मायावी निद्रालु का लक्षण और उसे प्रायश्चित्त। ४३९८,४३९९ रत्नाधिक मुनियों का संस्तारक ग्रहण करने का
क्रम। ४४०० इच्छापूर्वक अभिग्रह ही अनुमत। ४४०१ अपावृत मुनि पर अनुग्रह क्यों? ४४०२,४४०३ क्षुल्लक को उचित स्थान में सुलाने का कारण। ४४०४ वैयावृत्यकर और शैक्ष को किसके पास रखा
जाए? ४४०५-४४०९ किस मुनि को किस वसति में सोना चाहिए तथा
परस्पर शयनभूमि के आदान-प्रदान की विधि। ४४१० कलहशील दो मुनियों को एक साथ रखने का
निषेध। ४४११-४४१३ समागत प्राघूर्णक को यथायोग्य संस्तारकभूमि
देने की विधि। 'रंगभूमी में ऋद्धिमान् पुरुषों' का उदाहरण।
गाथा संख्या विषय
सूत्र २० ४४१४ मुनि के लिए वाचिक कृतिकर्म और वंदन करने
का विधान। ४४१५
कृतिकर्म के प्रकार। ४४१६-४४२० निग्रंथ-निग्रंथियों को पार्श्वस्थ, अन्यतीर्थिक,
गृहस्थ, यथाच्छंद, अन्यतीर्थिनी और संयतीवर्ग को अभ्युत्थान करने से आने वाला प्रायश्चित्त
और संभावनीय दोषों का वर्णन। ४४२१-४४२६ प्राघूर्णक, आचार्य, अभिषेक, भिक्षु और क्षुल्लक
के आने पर अभ्युत्थान न करने पर प्रायश्चित्त
विधि। ४४२७ भिन्नमास आदि द्वितीय आदेश का प्रवर्तन क्यों?
उसका समाधान। ४४२८,४४२९ बाल साधु को गुरुतम प्रायश्चित्त क्यों ? उसका
समाधान। ४४३०-४४३६ प्राघूर्णक और आचार्य के प्रति अभ्युत्थान नहीं
करने पर होने वाली हानि। इस विषय में दास राजा का दृष्टांत और उसका प्रशस्त-अप्रशस्त
उपनय। ४४३७ स्वगच्छ के आचार्य का देखकर अनेक कार्यों में
व्याप्त साधुओं द्वारा अभ्युत्थान नहीं करने पर
प्रायश्चित्त। ४४३८ शिष्यों द्वारा आचार्य का अभ्युत्थान करने की
विधि। ४४३९-४४४२ अभ्युत्थान करने से विनय, आदि अनेक लाभों
की चर्चा। ४४४३-४४४६ चंक्रमण करते हुए, प्रस्रवण भूमी और संज्ञाभूमी
से आने पर साध्वियों, श्रावकों, असंज्ञियों, संज्ञिनी स्त्रियों, राजा, अमात्य तथा संघ आदि के साथ आने पर आचार्य का अभ्युत्थान नहीं करने
पर भिन्न-भिन्न प्रायश्चित्त और उनका कारण। ४४४७
चंक्रमण करते हुए आचार्य का अभ्युत्थान क्यों ?
शिष्य का प्रश्न। ४४४८ जीव का स्पन्दन निष्कारण नहीं तो चंक्रमण
क्यों ? ४४४९ योग संग्रह के प्रकार। उपयुक्त योग गुणकारी। ४४५० समितियों और गुप्तियों में स्थित मुनि सचेष्ट और
अगुप्तिजनक प्रमाद का निरोध करता है।
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