Book Title: Agam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 02
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 21
________________ विषयानुक्रम शाला गाथा संख्या विषय ४२००,४२०१ निर्दिष्ट-अनिर्दिष्ट के आधार पर क्रीतकृत के प्रकार। ४२०२-४२१० विशोधिकोटि विषयक अथवा अविशोधिकोटि विषयक क्रीतकृत का स्वरूप। तद्विषयक आचार्यों के मत-मतान्तर। उससे संबंधित सहस्रानुपातिविष और मेरु महीधर का दृष्टान्त। ४२११ उद्गमकोटि के भेद तथा विशोधिकोटि के भेद के आधार पर प्रत्येकभंग और मिश्रभंगक का निरूपण। ४२१२-४२१७ रजोहरण आदि उपकरण खरीदने योग्य कुत्रिकापण। उसके स्वरूप का वर्णन। क्रायक और ग्राहक के आधार पर वस्तु के मूल्य का निर्धारण। ४२१८ कुत्रिकापण की उत्पत्ति कैसे? उनका वर्णन। ४२१९-४२२३ प्राचीन काल में किन-किन नगरों में कुत्रिकापण की सुविधा? ४२२४-४२२८ प्रव्रज्या ग्रहण करने वाले मुमुक्षु के लिए सात निर्योगों का निर्देश। उनको आचार्य आदि को देने की व्यवस्था कब और कैसे? ४२२९-४२३२ एक बार दीक्षा लेकर गृहवास में जाने पर पुनः प्रव्रज्या में अभ्युत्थान की सिद्धि कैसे? शिष्य की जिज्ञासा। इस प्रसंग में वीरणसढक का दृष्टान्त। अभ्युत्थान के दो प्रकार तथा उनका स्वरूप। सूत्र १५ ४२३३,४२३४ प्रव्रज्या ग्रहण करने वाली निर्ग्रन्थी के लिए निर्योग ग्रहण की संख्या तथा उनको कब और कैसे आचार्य आदि को देने की व्यवस्था। सूत्र १६,१७ ४२३५,४२३६ प्रथम समवसरण काल (वर्षाकाल) में वस्त्र ग्रहण की अकल्पनीयता तथा दूसरे वर्षाकाल में कल्पनीयता। सोपधिकशैक्षलक्षण द्रव्य कब, कहां ग्राह्य और अग्राह्य ? ४२३७-४२४१ शिष्य की जिज्ञासा-उद्देश कृत वस्त्र की अकल्पनीयता में क्या आधाकर्म आदि पन्द्रह उद्गम दोष वस्त्र का ग्रहण कल्पनीय हो सकता है ? आचार्य द्वारा समाधान। ४२४२-४२४५ समवसरण के उद्देशों की विधि निक्षेपों के द्वारा व्याख्या। गाथा संख्या विषय ४२४६-४२४८ क्षेत्र और काल से प्राप्त-अप्राप्त की चतुर्भगी। उसका स्वरूप। ४२४९-४२५१ वर्षा ऋतु योग्य कल्प से अधिक उपधि लेने की आज्ञा। उसका कारण और उससे संबंधित कुटुम्बी का दृष्टान्त। ४२५२-४२५८ वर्षाऋतु योग्य अधिक उपकरण नहीं रखने से होने वाली संयमविराधना-आत्मविराधना आदि दोष। ४२५९-४२६२ वर्षाऋतु योग्य अधिक उपकरण रखने में आपवादिक कारण। वर्षा ऋतु के योग्य उपकरण। ४२६४-४२६६ प्रथम समवसरण में वर्षाऋतु योग्य उपकरण लिए जा सकते हैं या नहीं? शिष्य की शंका। यदि लिए जा सकते हैं तो उनका क्रम तथा तद्विषयक उत्सर्ग-अपवाद मार्ग की विधि। ४२६७-४२७१ वर्षा ऋतु में आने वाले व्याघात तथा तन्निमित्तक उपकरणों की गवेषणा करने के स्थानों का क्रमशः विवेचन। ४२७२-४२७६ कारणवश वर्षा क्षेत्र से बाहर जाने और वस्त्रादि ग्रहण करने में गुणवृद्धि । वर्षा काल में जाने की दूरी का प्रमाण तथा कारण वश वस्त्रग्रहण करने के १६ दोष। प्रथम समवसरण में उन दोषों की वर्जना नहीं। ४२७७-४२७९ दर्पवश प्रथम समवसरण में गृहीत पात्र-वस्त्र परिष्ठापनीय तथा प्रायश्चित्त। ४२८०-४२८४ किस काल में, किस विधि से तथा कितने मास पर्यन्त चौमासे में रहना चाहिए, उसका निरूपण तथा उसके कारण। ४२८५ वर्षावास के तीन प्रकार। ४२८६ ज्येष्ठावग्रह-उत्कृष्ट वर्षावास का कालमान। ४२८७ चातुर्मास के बाद विहार के काल का निर्धारण अन्यथा प्रायश्चित्त। ४२८८-४२९० वर्षावास क्षेत्र को छोड़कर श्रमण श्रमणियों के अन्य ग्राम, नगरों में वस्त्रादि ग्रहण करने की विधि। ४२९१-४२९६ अशिव, दुर्भिक्ष आदि कारणों से चतुर्मास के बाद विहार न होने पर वस्त्रग्रहण का प्रतिषेध । समयावधि में वस्त्रग्रहण का निर्देश। ४२९७-४३०० ऋतुबद्धकाल में वस्त्रादि ग्रहण की विधि और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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