Book Title: Agam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 02
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 19
________________ विषयानुक्रम १७ गाथा संख्या विषय ३९९७,३९९८ मूर्छापूर्वक महामूल्य, अल्पमूल्य वस्त्रों का उपयोग नहीं करने वाला प्रायश्चित्त का भागी। ३९९९,४००० पात्र विषयक विवेचन। ४००१-४००४ प्रमाणातिरिक्त पात्र को धारण करने अथवा अप्रमाणयुक्त पात्र को धारण करने पर लगने वाले दोष और प्रायश्चित्त। - ४००५-४०११ हीन प्रमाण वाले तथा ऊन अर्थात् अभरित पात्र से लगने वाले दोष और प्रायश्चित्त विधि। ४०१२ खरड़े भाजन को धोने तथा न धोने से दोष। ४०१३ पात्र प्रमाण का विवेचन। ४०१४,४०१५ उत्कृष्ट पात्र का उपयोग कब? ४०१६,४०१७ अज्ञानवश हीनाधिक प्रमाण वाला पात्र धारण करने पर प्रायश्चित्त तथा प्रमाणयुक्त असंप्राप्ति में रखने का अपवाद। ४०१८,४०१९ ऋद्धिगौरव क्या है? शिष्य की शंका आचार्य द्वारा उसका समाधान। ४०२०-४०२५ महत्तर भाजन ग्रहण करने का कारण। पात्र के लक्षण-अलक्षण तथा उसके लाभ और हानि। ४०२६ अपलक्षणयुक्त पात्रों को धारण करने पर प्रायश्चित्त का विधान। ४०२७,४०२८ पात्र के तीन प्रकार। प्रत्येक के तीन अवान्तर प्रकार। उनके ग्रहण के विपर्यास में प्रायश्चित्त तथा आज्ञाभंग आदि दोष। ४०२९ पात्र को लाने वाला कौन? आचार्य का उत्तर। पात्र को लाने की उत्सर्ग-अपवाद विधि। ४०३० पात्र का गवेषी कौन? ४०३१-४०३३ पात्र प्राप्ति की गवेषणा का कालमान। तथा उसके विविध प्रकारों की ग्रहणविधि। ४०३४-४०३६ पात्र मिलने के स्थान तथा वहां से ग्रहण करने की विधि। ४०३७-४०४२ किन-किन से भावित पात्र कल्पनीय-अकल्पनीय और कल्पनीय की ग्रहण विधि। ४०४३-४०५० पात्रग्रहण संबंधी जघन्य यतना। तत्संबंधी गुरुलघु प्रायश्चित्त। कारण-अकारण में यतना का स्वरूप और अल्पपरिकर्म और सपरिकर्म की कल्प्याकल्प्यविधि। ४०५१,४०५२ असत् के प्रकार। उनकी व्याख्या। असत् में कौन से यथाकृत पात्रों की कल्पनीयता। तद्विषयक प्रायश्चित्त का निरूपण। गुण-अगुण की परिभाषा। गाथा संख्या विषय ४०५३-४०५८ प्रमाणयुक्त पात्र के न मिलने पर उपयोगपूर्वक पात्र का छेदन तथा अल्पपरिकर्म तथा सपरिकर्म पात्र का ग्रहण। ४०५९,४०६० अल्पपरिकर्म तथा सपरिकर्म पात्र के मुख का प्रमाण तथा उसके तीन प्रकार। ४०६१-४०६३ मुनि को मात्रक ग्रहण करने की अनुज्ञा है या नहीं? शिष्य की जिज्ञासा। आचार्य का समाधान। ४०६४ मात्रक अग्रहण के दोष। तद्विषयक द्वार गाथा। ४०६५,४०६६ मात्रक को ग्रहण न करने पर प्रायश्चित्त विधि तथा लगने वाले दोष। 'वारत्तग' का दृष्टांत। ४०६७-४०६९ मात्रक का प्रमाण तथा उसकी उपयोगिता। ४०७०-४०७२ प्रमाण से छोटे और बड़े मात्रक रखने से होने वाले दोष। ४०७३-४०७५ हीनाधिक मात्रक में भक्तपान लाने से प्राप्त होने वाला प्रायश्चित्त। मात्रक में परिभोग के अधिकारी। ४०७६,४०७७ मात्रक के लेप की विधि। सूत्र १० ४०७८,४०७९ निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों के भिन्न-भिन्न उपधि की विवचेना। ४०८०-४०८३ आर्यिकाओं की ओघ उपधि के पचीस प्रकार। ४०८४-४०९१ निर्ग्रन्थियों के शरीर को ढांकने में काम आने वाली ग्यारह प्रकार की ओघ-उपधियों का उपयोग, प्रमाण और उनका स्वरूप। ४०९२ उपधि का संक्षेप में दो प्रकार संघातिम और असंघातिम। ४०९३-४०९९ जिनकल्पिक, स्थविरकल्पिक साधु तथा आर्यिकाओं की उपधि का जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट विभाग। उग्गहवत्थ-पदं सूत्र ११ ४१००-४१०४ निर्ग्रन्थ को अवग्रहान्तक और अवग्रह पट्ट को धारण करने पर आने वाला प्रायश्चित्त तथा आज्ञाभंग आदि दोष। अपवाद स्वरूप रखने की आज्ञा और उनकी संख्या। सूत्र १२ ४१०५-४११० साध्वियों को अवग्रहान्तक और पट्टक धारण न करने पर प्रायश्चित्त। उनका उपयोग न करने पर www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only

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