Book Title: Agam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 02
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 18
________________ १६ बृहत्कल्पभाष्यम् गाथा संख्या विषय ३९१७ द्रव्य कृत्स्न वस्त्र और भाव कृत्स्न वस्त्र का अलग-अलग समाविष्टी। सूत्र ९ ३९१८ कृत्स्न, अकृत्स्न, भिन्न-अभिन्न की चतुर्भगी। ३९१९ अभिन्न में भी उत्सर्ग और अपवाद विषयक चर्चा। ३९२०,३९२१ शिष्य द्वारा प्रश्न-क्या इससे पुनरुक्त दोष नहीं? आचार्य द्वारा समाधान। ३९२२,३९२३ पुनः शिष्य द्वारा प्रश्न-क्या वस्त्र छेदन से उत्पन्न शब्द तथा पक्ष्म से वायु काय की हिंसा नहीं ? ३९२४-३९२६ वस्त्र का छेदन सदोष है। इसलिए वह वांछनीय नहीं। जीव के चेष्टाओं के साथ वस्त्र के छेदन की तुलना उपयुक्त नहीं। ३९२७-३९३४ वस्त्र छेदन विषयक शिष्य के प्रश्न आचार्य का आगमिक संदर्भो में समाधान। ३९३५ कर्मबंध के तीन हेतु। ३९३६ राग आदि परिणामों की तीव्रता आदि की द्वारगाथा। ३९३७ हिंसादि करने में रागादिक की तीव्रता-मन्दता से कर्मबंध की तीव्रता और अल्पता का निरूपण। ३९३८,३९३९ ज्ञात-अज्ञात में हिंसा करने पर कर्मबंध में महान् अंतर की प्ररूपणा। ३९४०,३९४१ क्षायोपशमिक भाव और औदयिक भाव आदि में वर्तन करने वाले के भावों के नानात्व के कारण कर्मबंध की विचित्रता। ३९४२ अधिकरण के चार प्रकार। उनके नाम तथा संक्षेप में दो प्रकार। ३९४३-३९४६ अधिकरण का भागी कौन ? वस्तुओं का निर्माण करने-कराने में दोनों की सहभागिता। जैसा परिणाम वैसा कर्मबंध। . ३९४७ निर्वर्तना और संयोजना अधिकरण कब? ३९४८ समस्त संहननों में प्राणी छहस्थानगत कैसे? ३९४९ वीर्य के तीन प्रकार। उनके बंधी-अबंधी होने का निरूपण। ३९५० सभी जीव बंधक नहीं। बंधक होने पर भी समान रूप और असमानरूप बंधक कौन? ३९५१ कौनसा व्यापार अदोषवान् ? ३९५२-३९५५ किनारी फाड़ देनी आवश्यक अथवा रखनी आवश्यक ? शिष्य द्वारा स्वमत प्रस्तुत करते हुए प्रश्न, आचार्य का समाधान। गाथा संख्या विषय ३९५६ वस्त्र गुणकारी अगुणकारी कब ? ३९५७-३९६० शिष्य का प्रश्न हमारे लिए लक्षणयुक्त वस्त्र के ग्रहण का क्या प्रयोजन? द्रमक का दृष्टान्त देते हुए आचार्य द्वारा समाधान। ३९६१ वस्त्रप्रमाण के दो प्रकारों का निरूपण। ३९६२-३९६५ जिनकल्पिक तथा स्थविरकल्प की उपधि के प्रकार तथा उनका प्रमाण। ३९६६-३९६८ जिनकल्पिक के जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट उपधि की संख्या और उनका प्रमाण। जिनकल्पिक की शय्या का आकार-प्रकार और सोने की विधि अथवा ध्यान विधि। ३९६९-३९७२ स्थविरकल्पी मुनियों के कल्प का मध्यम, उत्कृष्ट प्रमाण तथा पात्रक बंध और रजस्त्राण का प्रमाण। ३९७३-३९७६ काल विभाग के तीन प्रकार। ग्रीष्म, शिशिर और वर्षाऋतु के आश्रित पटलों की उत्कृष्ट, मध्यम, जघन्य के आधार पर उनकी संख्या एवं उनका माप। इसी प्रकार काल विभाग के आधार पर तीन प्रकार के पटलक। पात्र की संख्या का परिमाण। ३९७७-३९७९ रजोहरण का स्वरूप और उसका प्रमाण। ३९८०-३९८३ संस्तारक, उत्तरपट्ट, चोलपट्टक, ऊन की निषद्या, सूत की निषद्या, मुखवस्त्रिका, गोच्छक, पात्रप्रत्युपेक्षणिका और पात्रस्थापनक के प्रमाण का निरूपण। ३९८४,३९८५ स्थविरकल्पी मुनि के लिए तीन वस्त्र ग्रहणीय। शीत आदि सहन करने में असमर्थ होने पर सात वस्त्र ग्रहणीय की आज्ञा। ३९८६,३९८७ भिक्षु किस प्रकार वस्त्रों को धारण करे? उनका लक्षण। ३९८८,३९८९ गणचिंतक द्वारा प्रमाणातिरिक्त उपधि रखने का कारण। ३९९० उपधि की अधिकता अथवा हीनता से लगने वाले दोष। ३९९१,३९९२ वस्त्र परिकर्म की सकारण-निष्कारण पद के साथ चतुर्भगी। कारण में विधिपूर्वक परिकर्म की शुद्ध, शेष तीनों में प्रायश्चित्त। ३९९३-३९९६ विभूषा निमित्त उपधि का प्रक्षालन करने वाला प्रायश्चित्त का अधिकारी और प्रक्षालन के कारणों का निरूपण। www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only

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