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गाथा संख्या विषय ३७५० वसति के अभाव में एक वसति में श्रमण-श्रमणी
को रहने का विवेक। ३७५१ एक वसति में रात्री प्रवास की विधि। ३७५२
वहां परस्पर आलाप संलाप आदि करने पर
निष्पन्न प्रायश्चित्त। ३७५३ वहां स्थित साधुओं की उच्चार, प्रस्रवण विधि। ३७५४ अधिक दिन वहां प्रवासित होना हो तो अन्य
वसति की गवेषणा आवश्यक। ३७५५,३७५६ आगाढ़ कारण हो तो गणधर का दिन-रात में भी
आर्या उपाश्रय में जाना कल्पनीय। ३७५७ महर्द्धिक कौन? ३७५८ गणधर तथा प्रव्रजित महर्द्धिक के आर्या उपाश्रय
में जाने से लाभ। ३७५९ महर्द्धिक को देख अस्थिर साध्वी में स्थिरता। ३७६०,३७६१ दीक्षित राजकुमारों का दृष्टान्त। ३७६२,३७६३ परीषह पराजित प्रथम राजकुमार को आचार्य
द्वारा अनुशिष्टि। ३७६४ द्वितीय राजकुमार की निर्भयता। ३७६५-३५६७ तृतीय राजकुमार की रक्षा हेतु आचार्य द्वारा आर्या ।
उपाश्रय में भेजने की विधि। ३७६८ ग्लान साध्वी और प्रतिचरक साधु की चतुर्भंगी। ३७६९-३७७३ अपवाद में ग्लान साध्वी की साधु द्वारा परिचर्या
की विधि। ३७७४-३७७६ परिचारक साधु में आवश्यक गुण। ३७७७ ग्लान आर्या के परिचर्या में साधु द्वारा की जाने
वाली क्रियाएं। ३७७८-३७८० ग्लान आर्या के प्रतिचर्या में परिचारक का
आवश्यक ज्ञान। ३७८१
परिचारक साधु की उपाश्रय आदि में रहने की
विधि। ३७८२,३७८३ आगाढ़ कारण में परिचारक की रात्री में आर्या
उपाश्रय में रहने की विधि। ३७८४ आर्या का परिचारक साधु तीर्थंकरों की आज्ञा में। ३७८५,३७८६ स्वस्थ होने पर साध्वी को स्वगण में पुनः
स्थापित करने की विधि। ३७८७ ग्लान आर्या की चिकित्सा में साधु का समाधि
संधान। ३७८८ असहिष्णु मुनि यतनापूर्वक चिकित्सा करे। ३७८९-३७९२ ग्लान आर्या का परिचारक साधु से संलाप।
बृहत्कल्पभाष्यम् गाथा संख्या विषय ३७९३ साधु यदि असहिष्णु हो तो ग्लान आर्या के प्रति
उसका कर्तव्य। ३७९४-३७९६ असहिष्णु साधु की यतना का विवेचन। ३७९७-३७९९ असहिष्णु साध्वी की काम याचना सुनने पर भी
परिचारक साधु मेरु की भांति अप्रकंप रहे। ३८०० असहिष्णु साध्वी की भर्त्सना कर पुनः संयम में
स्थापित करने का प्रयास आवश्यक। ३८०१
प्रतिपक्ष वसति में जाने का निषेध। निग्गंथ उवस्सयं पदं
सूत्र २ ३८०२ पूर्वसूत्र से प्रस्तुत सूत्र का संबंध। ३८०३ आर्या द्वारा ग्लान साधु की परिचर्या का उल्लेख। ३८०४ असहिष्णु आर्या द्वारा साधर्मिक साधु आदि की
मार्गणा।
चम्मं पदं
सूत्र ३ ३८०५ ब्रह्मचर्य व्रत की पीड़ा से बचने का उपाय। ३८०६
प्रस्तुत सूत्र के प्रारंभ का हार्द। ३८०७,३८०८ श्रमणियों के लिए सलोम चर्म विषयक आरोपणा
व प्रायश्चित्त। ३८०९-३८११ सलोम चर्म के उपयोग से होने वाली
__ आत्मविराधना व संयमविराधना। ३८१२-३८१४ सलोम-निर्लोम चर्म के उपयोग से संयतियों में
होने वाले दोष। ३८१५ चर्म विषयक अपवाद पद कल्पनीय। ३८१६,३८१७ अपवादों का उल्लेख। ३८१८,३८१९ अपवाद में चर्म ग्रहण की यतना तथा परिभोग की
विधि।
३८२०
३८२१
३८२२ ३८२३ ३८२४
सूत्र ४ निर्ग्रन्थ को परिभुक्त प्रातिहारिक सलोम चर्म । कल्पनीय। उत्सर्गतः निर्ग्रन्थ को भी सलोम चर्म अकल्पनीय तथा शुषिर सलोमचर्म के प्रकार। पुस्तकपंचक तथा तृणपंचक का स्वरूप। वस्त्रपंचक तथा दुःप्रत्युपेक्ष्य दूष्यपंचक का स्वरूप। अप्रत्युपेक्ष्य दूष्यपंचक तथा चर्म पंचक का स्वरूप। साधु-साध्वियों को सलोम तथा निर्लोम चर्म के ग्रहण से निष्पन्न प्रायश्चित्त।
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