Book Title: Agam 09 Ang 09 Anuttaropapatik Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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प्रस्तावना
अनुत्तरौपपातिकदशा : एक अनुचिन्तन
(प्रथम संस्करण से) जैन आगम साहित्य भारतीय साहित्य की विराट् निधि का एक अनमोल भाग है। वह अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य के रूप में उपलब्ध है। अंगप्रविष्ट साहित्य के सूत्र रूप में रचयिता गणधर हैं और अर्थ के प्ररूपक साक्षात् तीर्थंकर होने के कारण वह मौलिक व प्रामाणिक माना जाता है। द्वादशांगी-अंगप्रविष्ट है। तीर्थंकरों के द्वारा प्ररूपित अर्थ के आधार पर स्थविर जिस साहित्य की रचना करते हैं वह अनंगप्रविष्ट है। द्वादशांगी के अतिरिक्त जितना भी आगम साहित्य है वह अनंगप्रविष्ट है, उसे अंगबाह्य भी कहते हैं। जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण ने यह भी उल्लेख किया है कि गणधरों की प्रबल जिज्ञासाओं के समाधान हेतु तीर्थंकर त्रिपदी-उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य का उपदेश प्रदान करते हैं। उस त्रिपदी के आधार पर जो साहित्य-निर्माण किया जाता है वह अंगप्रविष्ट है और भगवान् के मुक्त व्याकरण के आधार पर जिस साहित्य का सृजन हुआ है वह अनंगप्रविष्ट है।
स्थानाङ्ग, नंदी २ आदि श्वेताम्बर साहित्य में यही विभाग प्राचीनतम है। दिगम्बर साहित्य में भी आगमों के यही दो विभाग उपलब्ध होते हैं - अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य। अंगबाह्य के नामों में कुछ अन्तर है।
अंगप्रविष्ट का स्वरूप सदा सर्वदा सभी तीर्थंकरों के समय नियत होता है। वह ध्रुव है, नियत है, शाश्वत है। उसे द्वादशांगी या गणिपिटक भी कहते हैं। अंग-साहित्य बारह विभागों में विभक्त है ५ - (१) आचार (२) सूत्रकृत (३) स्थान (४) समवाय (५) भगवती (६) ज्ञाताधर्मकथा (७) उपासकदशा (८) अन्तकृद्दशा (९) अनुत्तरौपपातिकदशा (१०) प्रश्नव्याकरण (११) विपाक (१२) दृष्टिवाद।
दृष्टिवाद वर्तमान में अनुपलब्ध है।
अनुत्तरौपपातिकदशा नौवां अंग है। प्रस्तुत आगम में ऐसे महान् तपोनिधि साधकों का उल्लेख है जिन्होंने उत्कृष्टतम तप की साधना-आराधना कर आयु पूर्ण होने पर अनुत्तर विमानों में जन्म ग्रहण किया। विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित और सर्वार्थसिद्ध ये पाँच अनत्तर विमान हैं। अन्य सभी विमानों में श्रेष्ठ होने से इन्हें 'अनत्तर' विमान कहा है। अनत्त उत्पन्न होने वाले अनुत्तरौपपातिक कहे जाते हैं। प्रथम वर्ग में दस अध्ययन हैं, इसलिए इसे अनुत्तरौपपातिकदशा कहा है। १. गणहर थेरकयं वा, आएसा मुक्त-वागरणओ वा। धुव-चल विसेसओ वा अंगाणंगेसु नाणत्तं ॥
- विशेषावश्यक भाष्य, गा. ५५२ नंदीसूत्र, ४३. ३. (क) षट्खण्डागम भाग ९, पृ. ९६ (ख) सर्वार्थसिद्धि पूज्यपाद १-२० (ग) राजवार्तिक-अकलंक १-२०
(घ) गोम्मटसार जीवकाण्ड, नेमिचन्द्र, पृ. १३४. (क) समवायांग, समवाय १४८, मुनि कन्हैयालालजी म. सम्पादित, पृ. १३८. (ख) नन्दीसूत्र, ५७. समवायांग प्रकीर्णक समवाय सूत्र ८८. तत्रानुत्तरेषु विमानविशेषेषूपपातो-जन्म अनुत्तरोपपात:स विद्यते येषां तेऽनुत्तरौपपातिकास्तप्रतिपादिका दशा: दशाध्ययनप्रतिबद्धप्रथमवर्गयोगाद्दशाः ग्रन्थ-विशेषोऽनुत्तरौपपातिकदशास्तासां च सम्बन्धसूत्रम् ।
- अनुत्तरौपपातिकदशा अभयदेववृत्ति [१७]