Book Title: Agam 09 Ang 09 Anuttaropapatik Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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तृतीय वर्ग
या उड़द की उन फलियों के समान हो गई थीं। जो कोमल-कोमल तोड़कर धूप में डाल दी गई हों मुरझा गई हों। उनमें भी मांस और रुधिर नहीं रह गया था। धन्य मुनि की जंघाएँ, जानु और उरू
११–धण्णस्स अणगारस्स जंघाणं अयमेयारूवे तवरूवलावण्णे होत्था से जहानामए काकजंघा इवा, कंकजंघा इ वा, ढेणियालियाजंघा इ वा जाव[सुक्काओ लुक्खाओ निम्मंसाओ अट्ठिचम्मछिरत्ताए पण्णायंति, नो चेवणं मंस] सोणियत्ताए।
धण्णस्स अणगारस्स जाणूणं अयमेयारूवे तवरूवलावण्णे होत्था से जहानामए कालिपोरे इ वा मयूरपोरे इ वा ढेणियालियापोरे इवा एवं जाव[धण्णस्सअणगारस्स जाणू सुक्का निम्मंसा अट्ठिचम्मछिरत्ताए पण्णायंति, नो चेवणं मंस] सोणियत्ताए।
धण्णस्स उरुस्स अयमेयारूवे तवरूवलावण्णे होत्था से जहानामए बोरीकरीले इ वा सल्लइकरीले इ वा, सामलिकरीले इ वा, तरुणिए उण्हे जाव [ दिण्णे सुक्के समाणे मिलायमाणे] चिट्ठइ, एवामेव धण्णस्स अणगारस्स ऊरू जाव[सुक्का लुक्खा निम्मंसा अट्ठिचम्मछिरत्ताए पण्णायंति, नो चेव णं मंस] सोणियत्ताए। ___ धन्य अनगार की जंघाओं (पिंडलियों) का तपोजनित रूप-लावण्य इस प्रकार का हो गया था—जैसे—काक पक्षी की जंघा हो, कंक पक्षी की जंघा हो, ढेणिक पक्षी (टिड्डे) की जंघा हो। यावत् [धन्य अनगार की जंघा सूख गई थीं रूक्ष हो गई थीं, निर्मांस हो गई थीं अर्थात् मुरझा गई थीं। उनमें अस्थि, चर्म और शिराएँ ही शेष रह गई थीं, मांस और शोणित उनमें प्रायः नहीं रह गया था।]
धन्य अनगार के जानुओं (घुटनों) का तपोजन्य रूप-लावण्य इस प्रकार का हो गया था—जैसे—काली नामक वनस्पति का पर्व (सन्धि या जोड़) हो, मयूर पक्षी का पर्व हो, ढेणिक पक्षी का पर्व हो। यावत् [धन्य अनगार के जानु सूख गए थे, रूक्ष हो गए थे, निर्मांस हो गए थे, अर्थात् मुरझा गए थे। उनमें अस्थि, चर्म और शिराएँ ही शेष रह गई थीं, मांस और शोणित उनमें प्रायः नहीं रह गया था।]
धन्य अनगार की उरूओं-सांथलों का तपोजन्य रूप-लावण्य इस प्रकार का हो गया था जैसे- वदरी, शल्यकी तथा शाल्मली वृक्षों की कोमल कोपलें तोड़ कर धूप में डालने से सूख गई हों मुरझा गई हों। इसी प्रकार धन्य अनगार की उरू भी [सूख गई थीं, मुरझा गई थीं, उनमें मांस और शोणित नहीं रह गया था]।
विवेचन प्रस्तुत सूत्र में धन्य अनगार की जङ्घा, जानु और उरूओं का वर्णन किया गया है। तीव्रतर तप के प्रभाव से धन्य अनगार की जाएं मांस और रुधिर के अभाव में ऐसी प्रतीत होती थीं मानो काकजना नामक वनस्पति की—जो स्वभावतः शुष्क होती है—नाल हों। अथवा यों कहिए कि वे कौवे की जवाओं के समान ही क्षीण निर्मांस हो गई थीं। उनकी उपमा कङ्क और ढंक पक्षियों की जवाओं से भी दी गई है। इसी प्रकार उनके जानु भी उक्त काकजङ्घा वनस्पति की गांठ के समान अथवा मयूर और ढंक नामक पक्षियों के सन्धि-स्थानों के समान शुष्क हो गये थे। दोनों उरू मांस और रुधिर के अभाव में सूख कर इस तरह मुरझा गये थे जैसे प्रियंगु वदरी, कर्कन्धू, शल्यकी या शाल्मली वनस्पतियों की कोमल-कोमल कोंपले तोड़कर धूप में सुखाने से मुरझा जाती हैं।