Book Title: Agam 09 Ang 09 Anuttaropapatik Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 65
________________ अनुत्तरौपपातिकदशा करने मात्र से भी थक जाते थे। जैसे सूखी लकड़ियों से भरी हुई गाड़ी, पत्तों से भरी हुई गाड़ी, पत्ते, तिल और सूखे सामान से भरी हुई गाड़ी, एरंड की लकड़ियों से भरी हुई गाड़ी, कोयले से भरी हुई गाड़ी, ये सब गाड़ियाँ धूप में अच्छी तरह सुखाकर जब चलती हैं, खड़-खड़ आवाज करती हुई चलती हैं और आवाज करती हुई खड़ी रहती हैं, इसी प्रकार जब धन्य अनगार चलते, तो उनकी हड्डियाँ खड़-खड़ आवाज करतीं और खड़े रहते हुए भी खड़-खड़ आवाज करतीं। यद्यपि वे शरीर से दुर्बल हो गये थे, तथापि वे तप से पुष्ट थे। उनका मांस और खून क्षीण हो गया था। राख के ढेर में दबी हुई अग्नि की तरह वे तप से, तेज से और तपस्तेज की शोभा से अतीव-अतीव] शोभित हो रहे थे। विवेचन सूत्र स्पष्ट है। इसका सम्पूर्ण विषय सुगमतया मूलार्थ से ही ज्ञात हो सकता है। उल्लेखनीय केवल इतना है कि यद्यपि तप और संयम की कसौटी पर चढ़कर धन्य अनगार का शरीर अवश्य कृश हो गया, किन्तु उससे उनका आत्मा अलौकिक बलशाली हो गया था, जिसके कारण उनके मुख का प्रतिदिन बढ़ता हुआ तेज अग्नि के समान देदीप्यमान हो रहा था। धन्य मुनि की शारीरिक दशा : पैर और अंगुलियों का वर्णन १०–धण्णस्स णं अणगारस्स पायाणं अयमेयारूवे तवरूवलावण्णे होत्था - से जहानामए सुक्कछल्ली इ वा कट्ठपाउया इ वा जरग्गओवाहणा इवा, एवामेव धण्णस्स अणगारस्स पाया सुक्का लुक्खा निम्मंसा अट्ठिचम्मछिरत्ताए पण्णायंति, नो चेवणं मंससोणियत्ताए। धण्णस्स णं अणगारस्स पायंगुलियाणं अयमेयारूवे तवरूवलावण्णे होत्था से जहानामए कलसंगलिया इ वा मुग्गसंगलिया इ वा माससंगलिया इ वा, तरुणिया छिण्णा, उण्हे दिण्णा, सुक्का समाणी मिलायमाणी चिट्ठति, एवामेव धण्णस्स पायंगुलियाओ सुक्काओ [लुक्खाओ निम्मंसाओ अट्ठिचम्मछिरत्ताए पण्णायंति, नो चेवणं मंस] सोणियत्ताए। धन्य अनगार के पैरों का तपोजनित रूप-लावण्य (देखाव) इस प्रकार का हो गया था— जैसे- वृक्ष की सूखी छाल हो, काठ की खड़ाऊं हो अथवा पुराना जूता हो। इस प्रकार धन्य अनगार के पैर सूखे थे—रूखे और निर्मांस थे। अस्थि (हड्डि), चर्म और शिराओं से ही वे पहिचाने जाते थे। मांस और शोणित (रक्त) के क्षीण हो जाने से उनके पैरों की पहिचान नहीं होती थी। धन्य अनगार के पैरों की अंगुलियों का तपोजनित रूप-लावण्य इस प्रकार का हो गया था—जैसे— कलाय (मटर) की फलियाँ हों, मूंग की फलियाँ हों, उड़द की फलियाँ हों, और इन कोमल फलियों को तोड़कर धूप में डाल देने पर जैसे वे सूखी और मुर्शायी हो जाती हैं, वैसे ही धन्य अनगार के पैरों की अंगुलियाँ भी सूख गई थीं, रूक्ष हो गई थीं और निर्मांस हो गई थीं, अर्थात् मुरझा गई थीं। उनमें अस्थि, चर्म और शिराएँ ही शेष रह गई थीं, मांस और शोणित उनमें (प्रायः) नहीं रह गया था। विवेचन यहाँ सूत्रकार ने धन्य अनगार की शारीरिक दशा में कितना परिवर्तन हो गया था, इस विषय का प्रतिपादन किया है। तप करने से उसके दोनों चरण इस प्रकार सूख गये थे जैसे सूखी हुई वृक्ष की छाल, लकड़ी की खड़ाऊं अथवा पुरानी सूखी हुई जूती हो। उनके पैरों में मांस और रुधिर नाम मात्र के लिए भी दिखाई नहीं देता था। केवल हड्डी, चमड़ा और नसें ही देखने में आती थीं। पैरों की अंगुलियों की भी यही दशा थी। वे भी कलाय, मूंग

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