Book Title: Agam 09 Ang 09 Anuttaropapatik Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 63
________________ २८ अनुत्तरौपपातिकदशा मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखना की, फिर पात्रों की और वस्त्रों की प्रतिलेखना की। तत्पश्चात् पात्रों का प्रमार्जन किया, प्रमार्जन करके पात्रों को लेकर जहाँ श्रमण भगवान महावीर विराजमान थे, वहाँ आये, वहाँ आकर भगवान को वन्दन-नमस्कार करके इस प्रकार निवेदन किया-भगवन ! आज मेरे बेले के पारणे का दिन है. सो आपकी आज्ञा कन्दी नगरी में ऊँच, नीच और मध्यम कल में भिक्षा की विधि के अनुसार भिक्षा लेने के लिए जाना चाहता हूँ। श्रमण भगवान् महावीर ने धन्य अनगार से कहा—हे देवानुप्रिय ! जिस प्रकार तुम्हें सुख हो उस प्रकार करो, विलम्ब न करो। न की आज्ञा प्राप्त हो जाने पर धन्य अनगार भगवान के पास से, सहस्राम्रवन उद्यान से निकले। निकल कर शारीरिक त्वरा (शीघ्रता) और मानसिक चपलता से रहित एवं आकुलता व उत्सुकता से रहित युग (धूसरा) प्रमाण भूमि को देखते हुए ईर्यासमितिपूर्वक काकन्दी नगरी में आये। वहाँ उच्च, नीच और मध्यम कुलों में यावत् घूमते हुए आयंबिल-स्वरूप रूक्ष आहार ही धन्य अनगार ने ग्रहण किया। यावत् सरस आहार ग्रहण करने की आकांक्षा नहीं की। अनन्तर धन्य अमगार ने सुविहित, उत्कृष्ट प्रयत्न वाली गुरुजनों द्वारा अनुज्ञात एवं पूर्णतया स्वीकृत एषणा से गवेषणा करते हुए यदि भक्त प्राप्त किया, तो पान प्राप्त नहीं किया और यदि पान प्राप्त किया तो भक्त प्राप्त नहीं किया। (ऐसी अवस्था में भी) धन्य अनगार अदीन, अविमन अर्थात् प्रसन्नचित्त, अकलुष अर्थात् कषायरहित, अविषादी अर्थात् विषादरहित, अपरिश्रान्तयोगी अर्थात् निरन्तर समाधियुक्त रहे। प्राप्त योगों (संयम-व्यापारों) में यतना (उद्यम) वाले एवं अप्राप्त योगों की घटना-प्राप्त्यर्थ यत्न जिसमें है इस प्रकार के चारित्र का उन्होंने पालन किया। वह यथाप्राप्त समुदान अर्थात् भिक्षान्न को ग्रहण कर काकन्दी नगरी से बाहर निकले, भगवान् के निकट आए, यावत् श्रमण भगवान् महावीर स्वामी की सेवा में उपस्थित होकर गमनागमन सम्बन्धी प्रतिक्रमण किया, भिक्षा लेने में लगे हुए दोषों का आलोचन किया। उन्हें आहार-पानी दिखलाया। अनन्तर धन्य अनगार ने श्रमण भगवान् महावीर से अनुज्ञात होकर अमूर्छित यावत् गृद्धि-रहित भोजन में राग से रहित अर्थात् अनासक्त भाव से इस प्रकार आहार किया, जिस प्रकार सर्प बिल में प्रवेश करते समय बिल के दोनों पार्श्व भागों को स्पर्श न करके मध्यभाग से ही उसमें प्रवेश करता है। अर्थात् धन्य अनगार ने सर्प जैसे सीधा बिल में प्रवेश करता है उस तरह स्वाद की आसक्ति से रहित होकर आहार किया। आहार करके संयम और तप से यावत् आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे। विवेचन यहाँ सूत्रकार ने धन्य अनगार के दृढ प्रतिज्ञा-पालन का वर्णन किया है। प्रतिज्ञा ग्रहण करने के अनन्तर वह जब भिक्षा के लिए नगर में गए तो ऊँच, मध्य और नीच अर्थात् सधन, निर्धन एवं मध्यम घरों में आहार-पानी के लिए अटन करते हुए जहाँ उज्झित आहार मिलता था वहीं से ग्रहण करते थे। उन्हें बड़े उद्यम से प्राप्त होने वाली, गुरुओं से आज्ञप्त, उत्साह के साथ स्वीकार की हुई एषणा-समिति से युक्त भिक्षा में जहाँ भोजन मिला, वहाँ पानी नहीं मिला तथा जहाँ पानी मिला वहाँ भोजन नहीं मिला। इस पर भी धन्य अनगार कभी दीनता, खेद, क्रोध आदि कलुषता और विषाद अनुभव नहीं करते थे, प्रत्युत निरन्तर समाधि-युक्त होकर, प्राप्त योगों में अभ्यास बढ़ाते हुए और अप्राप्त योगों की प्राति के लिए प्रयत्न करते हुए जो कुछ भी भिक्षावृत्ति में प्राप्त होता था

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