Book Title: Agam 09 Ang 09 Anuttaropapatik Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Agam Prakashan Samiti

Previous | Next

Page 64
________________ तृतीय वर्ग २९ उसको ग्रहण करते थे। - इस प्रकार वे अपनी प्रतिज्ञा पर दृढ रहे और उसी के अनुसार आत्मा को दृढ और निश्चल बनाकर संयममार्ग में प्रसन्नचित्त होकर विचरते रहे । भिक्षा में उनको जो कुछ भी आहार प्राप्त होता था उसको वे इतनी अनासक्ति से खाते थे जैसे एक सर्प सीधा ही अपने बिल में घुस जाता है अर्थात् वे भोजन को स्वाद लेकर न खाते थे, प्रत्युत संयमनिर्वाह के लिए शरीररक्षा ही उनको अभीष्ट थी। "बिलमिव पण्णगभूतेणं' शब्द का वृत्तिकार यह अर्थ करते हैं—“यथा बिले पन्नगः पार्श्व संस्पर्शनात्मानं प्रवेशयति तथायमाहारं मुखेन संस्पृशन्निव रागविरहितत्वादाहारयति" अर्थात् जैसे सर्प पार्श्वभाग का स्पर्श न करके ही बिल में प्रवेश करता है, उसी प्रकार धन्य मुनि बिना किसी आसक्ति के आहार करके संयम के योगों में अपनी आत्मा को दृढ करते थे। इतना ही नहीं बल्कि अप्राप्त ज्ञान आदि की प्राप्ति के लिए भी सदा प्रयत्नशील रहते थे। ९-तए णं समणे भगवं महावीरे अण्णया कयाइ कायंदीओ नयरीओ सहसंबवणाओ उजाणाओ पडिणिक्खमइ। पडिणिक्खमित्ता बहिया जणवय-विहारं विहरइ। तए णं से धण्णे अणगारे समणस्स भगवओ महावीरस्स तहारूवाणं थेराणं अंतिए सामाइयमाइयाई एक्कारस अंगाइं अहिज्जइ, अहिज्जित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ। तए णं से धण्णे अणगारे तेणं उरालेणं जहा खंदओ जाव [विउलेणं पयत्तेणं पग्गहिएणं कल्लाणेणं सिवेणं धन्नेणं मंगल्लेणं सस्सिरीएणं उदग्गेणं उदत्तेणं उत्तमेणं उदारेणं महाणुभागेणं तवोकम्मेणं सुक्केलुक्खे निम्मंसे अट्ठि-चम्मावणद्धे किडिकिडियाभूए किसे धमणिसंतए जाए यावि होत्था, जीवंजीवेणं गच्छइ, जीवंजीवेणं चिट्ठइ, भासं भासित्ता वि गिलाइ, भासं भासमाणे गिलाइ, भासिस्सामीति गिलायइ।से जहानामए कट्ठसगडिया इ वा पत्तसगडिया इ वा पत्त-तिल-भंडगसगडिया इ वा एरंडकट्ठसगडिया इ वा इंगालसगडिया इ वा उण्हे दिण्णा सुक्का समाणी ससई गच्छइ, ससई चिट्ठइ, एवामेव धण्णे वि अणगारे ससई गच्छइ, ससइं चिट्ठइ, उवचिए तवेणं, अवचिए मंस-सोणिएणं, हुयासणे विव भासरासि-पडिच्छण्णे तवेणं, तेएणं, तव-तेयसिरीए अईव अईव उवसोभेमाणे ] उवसोभेमाणे चिट्ठइ। अनन्तर श्रमण भगवान् महावीर अन्यदा कदाचित् काकन्दी नगरी के सहस्राम्रवन उद्यान से निकले और बाहर जनपदों में विहार करने लगे। धन्य अनगार ने श्रमण भगवान् महावीर के तथारूप स्थविरों के पास सामायिक आदि ग्यारह अङ्गों का अध्ययन किया और इसके पश्चात् वह संयम और तप से अपने आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे। तब वह धन्य अनगार उस उदार तप से स्कन्दक की तरह यावत् [उदार, विपुल, प्रदत्त, प्रगृहीत, कल्याणरूप, शिवरूप, धन्यरूप, मंगलरूप, श्रीसम्पन्न, उत्तम उदग्र-उत्तरोत्तर वृद्धियुक्त, उदात्त-उज्ज्वल, उत्तम उदार और महान् प्रभावशाली तप से शुष्क हो गये, रूक्ष हो गये, मांस रहित हो गये, उनके शरीर की हड्डियाँ चमड़े से ढकी हुई रह गईं। चलते समय हड्डियाँ खड़खड़ करने लगीं। वे कृश दुबले हो गये। उनकी नाड़ियाँ सामने दिखाई देने लगीं। वे केवल अपने आत्मबल से ही गमन करते थे, आत्मबल से ही खड़े होते थे तथा वे इस प्रकार दुर्बल हो गये कि भाषा बोलकर थक जाते थे, भाषा बोलते समय थक जाते थे और भाषा बोलने के पहले, 'मैं भाषा बोलूंगा' ऐसा विचार

Loading...

Page Navigation
1 ... 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134