Book Title: Agam 09 Ang 09 Anuttaropapatik Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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तृतीय वर्ग
दिसं पाउब्भूए, तामेव दिसं पडिगए।
तदनन्तर श्रेणिक राजा ने श्रमण भगवान् महावीर से इस अर्थ को सुनकर, उस पर विचार कर एवं तुष्ट होकर श्रमण भगवान् महावीर की तीन बार प्रदक्षिणा की, वन्दन किया तथा नमस्कार किया। वन्दन करके तथा नमस्कार करके जहाँ धन्य अनगार थे, वहाँ आया। आकर धन्य अनगार की प्रदक्षिणा की, उन्हें वन्दन किया, नमस्कार किया। वन्दन करके, नमस्कार करके वह इस प्रकार कहने लगा
"हे देवानुप्रिय ! आप धन्य हो, आप पुण्यशाली हो, आप कृतार्थ हो, आप सुकृतलक्षण हो, हे देवानुप्रिय! आपने मनुष्य-जन्म और मनुष्य-जीवन को सफल किया।"
यह कहकर उसने धन्य अनगार को वन्दन किया, नमस्कार किया। वन्दन करके, नमस्कार करके, जहाँ श्रमण भगवान् महावीर थे, पुनः वहाँ पहुँचा। पहुँच कर श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन तथा नम वन्दन तथा नमस्कार करके जिस दिशा से आया था, उसी दिशा की ओर चला गया।
विवेचन इस सूत्र का अर्थ मूल पाठ से ही स्पष्ट है। फिर भी वक्तव्य इतना अवश्य है कि जिसमें जो गुण हों उनका निसङ्कोच-भाव से वर्णन करना चाहिए और गुणवान् व्यक्ति का धन्यवाद आदि से उत्साह बढ़ाना चाहिए, जैसे श्रमण भगवान् महावीर ने किया। उन्होंने धन्य अनगार के अति उग्रतर तप का यथातथ्य वर्णन किया और उसकी सराहना की।
इस सब वर्णन से दूसरी शिक्षा हमें यह मिलती है कि एक बार जब संसार से ममत्व-भाव त्याग दिया तो सम्यक् तप के द्वारा आत्म-शुद्धि अवश्य कर लेनी चाहिए। क्योंकि तपश्चरण ही कर्म-निर्जरा का एकमात्र प्रधान उपाय है। यही संसार के सुखों को त्यागने का फल है। जो व्यक्ति साधु बन कर भी ममत्व में फंसा रहे, उसको उस त्याग से किसी प्रकार की भी सफलता की आशा नहीं करनी चाहिए। ऐसा करने से तो वह कहीं का नहीं रहता और उसके इह-लोक और पर-लोक दोनों ही बिगड़ जाते हैं। धन्य अनगार ने हमारे सामने एक आदर्श उदाहरण उपस्थित किया है। उन्होंने जब एक बार गृहस्थ के सारे सुखों को त्याग कर साधु-वृत्ति अंगीकार कर ली तो उसको सफल बनाने के लिए उत्कृष्ट से उत्कृष्ट तप किया और मुनिजनों को अपने कर्त्तव्य द्वारा बता दिया कि किस प्रकार तप के द्वारा आत्म-शद्धि होती है और कैसे उक्त तप से आत्मा सशोभित किया जाता है।
तीसरी शिक्षा जो हमें इससे मिलती है, वह यह कि जब किसी व्यक्ति की स्तुति करनी हो तो उस में वास्तव में जितने गुण हों उन्हीं का वर्णन करना चाहिए। कहने का अभिप्राय यह है कि जितने गुण उस व्यक्ति में विद्यमान हों उन्हीं को लक्ष्य में रख कर स्तुति करना उचित है, न कि और अविद्यमान गुणों का आरोपण करके भी। क्योंकि ऐसी स्तुति कभी-कभी हास्यास्पद बन जाती है। अतः झूठी प्रशंसा कर निरर्थक ही किसी को बाँसों पर नहीं चढ़ाना चाहिए। अत्युक्तिपूर्ण प्रशंसा से प्रशंसनीय व्यक्ति को आत्मभ्रान्ति हो सकती है, उसके विकास की गति अवरुद्ध हो सकती है। यही तीन शिक्षाएँ हैं, जो हमें इस सूत्र से मिलती हैं।
धन्य मुनि वास्तव में यथार्थनामा सिद्ध हुए। स्वयं तीर्थंकर देव अपने मुखारविन्द से जिसकी भूरि-भूरि प्रशंसा करें उससे अधिक धन्य अन्य कौन हो सकता है?