Book Title: Agam 09 Ang 09 Anuttaropapatik Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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अनुत्तरौपपातिकदशा
राष्ट्रदन्त का अर्थ है, जिसने राष्ट्र का दमन किया हुआ है अर्थात् जिसने राष्ट्र देश को अपने वश में किया हुआ है। एक नाम 'पुण्णसेण' भी आता है, जिस प्रकार उसके पुण्यसेन अथवा पूर्णसेन ऐसे दो उच्चारण असंगत नहीं, इसी प्रकार प्रस्तुत प्रथम वर्ग में और द्वितीय वर्ग में आए हुए 'लट्ठदन्त' तथा 'राष्ट्रदन्त' ऐसे भिन्न-भिन्न उच्चारण असंगत नहीं। इस प्रकार विचार करने से लट्ठदन्त नाम के दो व्यक्तियों की सम्भावना की जा सकती है और इसी तरह से २३ की संख्या में संगति हो सकती है।
इसके सम्बन्ध में एक दूसरी युक्ति भी है, वह यह है
पिता का नाम तो एक श्रेणिक ही ठीक है, परन्तु माताएँ इन दोनों की अलग-अलग हो सकती हैं। यद्यपि दोनों की माता का नाम धारिणी मूलपाठ में दिया हुआ है, परन्तु ये धारिणी नाम वाली दो रानियाँ भी हो सकती हैं। श्रेणिक राजा के कई रानियाँ थीं यह तो निर्विवाद है, तो दो रानियों का समान नाम भी होना असंभव नहीं। वर्तमान में भी कई कुटुम्बों में ऐसा होना बहुत सम्भवित है। हमारे एक परिचित पंजाबी जैन घराने में दो भाईयों की पत्नियों का एक ही नाम 'निर्मला' है, तब एक बड़ी निर्मला और एक छोटी निर्मला ऐसा विभाग करके व्यवहार चलाया जाता है। इसी प्रकार राजा श्रेणिक के समान नाम वाली दो रानियाँ मान लेने से प्रथम वर्ग के लट्ठदन्त की माता धारिणी थी और द्वितीय वर्ग के लट्ठदन्त की माता कोई दूसरी धारिणी थी, ऐसा समझ लेने पर एक जैसा नाम पुत्रों का हो और माताएं अलग-अलग हों यह समाधान भी असंगत नहीं बल्कि संगत और संभव है। अथवा एक धारिणी के ही लट्ठदंत नाम के दो पुत्र हो सकते हैं । तात्पर्य यह कि किसी भी प्रकार से दो लट्ठदन्त होने चाहिए।
विशेषज्ञ इस सम्बन्ध में अन्य कोई समाधान उपस्थित करेंगे तो उसका स्वागत होगा। गुणसिलए : गुण-शिलक
'गुण-शिलक' शब्द में शिलक का 'शि' ह्रस्व है, यह ध्यान में रहे। 'गुणशिल' अथवा 'गुण-शिलक' शब्द का अर्थ इस प्रकार होना चाहिए
'गुणप्रधानं शिलं यत्र तत् गुणशिलकम्'। 'शिल' अर्थात् खेत में पड़े हुए अनाज के कणों को - दानों को - एकत्रित करना।
जो लोग त्यागी, भिक्षु, मुनि और संन्यासी होते हैं, उनमें कुछ ऐसे भी होते हैं कि वे अनाज के जो दाने खेत में स्वतः गिरे हुए मिलते हैं, उनको ही एकत्रित करके अपनी आजीविका चलाते रहते हैं।
इस प्रकार की चर्या से साधु संन्यासी का बोझ समाज पर कम पड़ता है। गुण प्रधान शिल जहाँ मिलता हो वह 'गुण-शिलक' है। शिल के द्वारा जीवन चलाने का नाम ऋत है।
शिल द्वारा अपना जीवन व्यतीत करने वाले 'कणाद' नाम के एक ऋषि हो गए हैं। उनका 'कणाद' नाम, 'कणों को- अनाज के दानों को एकत्रित करके, 'अद' खानेवाला यथार्थ है।
'उञ्छं शिलं तु ऋतम्' – अमर कोश, १९ वैश्य वर्ग, काण्ड २, श्लोक २ । 'कणिशाद्यजैनं शिलम्, ऋत तत्' - अभिधान, मर्त्यका०, श्लोक ८६५-८६६ ।
'गुणसिल' शब्द की दूसरी व्युत्पत्ति इस प्रकार भी की जा सकती है— 'गुणाः शिरसि यस्य यस्मिन् वा तत् गुणशिरः।' इसका प्राकृत रूप गुणसिल सहज सिद्ध है। 'गुणशील' शब्द भी इस उद्यान के लिए प्रयुक्त होता है। उद्यान के गुणों के सदा विद्यमान रहने के कारण उसे 'गुणशील' भी कहा जाता है।