Book Title: Agam 09 Ang 09 Anuttaropapatik Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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परिशिष्ट
- टिप्पण
६७
आचार्य हरिभद्र आयामाम्ल, आचाम्ल एवं आचामाम्ल शब्दों का प्रयोग करते हैं ।
उक्त पुरानी व्याख्याओं से ज्ञात होता है, कि आयंबिल में ओदन (चावल), उड़द और सत्तू इन तीन अन्नों का भोजन के रूप में प्रयोग होता था और स्वादजय की दृष्टि से यह उपयुक्त था।
आज तो प्रायः आयंबिल में बीसों चीजों का उपयोग किया जाता है। यह किस प्रकार शास्त्रविहित है ? यह विचारने योग्य है ।
स्वाद-जय की साधना करने वाले विवेकी साधकों को शास्त्रीय व्याख्या पर ध्यान देना आवश्यक है। परन्तु उक्त शब्द 'अम्ल' शब्द का जो प्रयोग किया गया है, और उसका जो चतुर्थ रस अर्थ बताया गया है, उसका भोजन के साथ क्या सम्बन्ध है ? यह मालूम नहीं पड़ता । संशोधक विद्वान् इस पर विचार करें।
क्योंकि आयंबिल भोजन की सामग्री में खटाई का कोई सम्बन्ध मालूम नहीं पड़ता, अतः अम्ल शब्द से जान पड़ता है कि श्री हरिभद्रसूरि से भी पूर्व समय में आयंबिल में कदाचित् छाछ का सम्बन्ध रहा हो।
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बौद्धग्रन्थ मज्झिमनिकाय में १२ वें महासीहनादसुत्त में बुद्ध की कठोर तपस्या का वर्णन है । उसमें बुद्ध को 'आयामभक्षी' अथवा 'आचामभक्षी' कहा गया है। वहाँ आयाम शब्द का अर्थ मांड किया गया है। इस प्राचीन उल्लेख से मालूम होता है, कि आयाम का मांड अर्थ था और आयामभक्षी कहे जाने वाले तपस्वी केवल मांड ही पीते थे। जैन परिभाषा में आयाम शब्द से ओदन, उड़द एवं सत्तू लिया गया है। परन्तु ये तीन आयाम के अर्थ में नहीं समाते। याद रखना चाहिए कि श्री हरिभद्र आदि आचार्यों ने आयाम का मुख्य अर्थ मांड ही बताया है।
- आवश्यकनिर्युक्तिवृत्ति, गाथा १६०३ - आचार्य सिद्धसेनकृत प्रवचनसारोद्धार वृत्ति —आर्य देवेन्द्रकृत श्राद्धप्रतिक्रमण वृत्ति
संसृष्ट गृहस्थ भोजन कर रहा हो और मुनिराज गोचरी के लिए गृहस्थ के घर पहुँचे, तब भोजन करते हुए दाता का हाथ साग, दाल, चावल वगैरह से या उसके रसदार जल से लिप्त हो – संसृष्ट हो और वह दाता उसी संसृष्ट हाथ सेभिक्षा देने को तत्पर हो तो ऐसे भिक्षान्न को संसृष्ट अन्न कहते हैं । प्रस्तुत में धन्य अनगार को ऐसे संसृष्ट हाथ से दिए हुए अन्न के लेने का संकल्प है। शास्त्रों में इसका अनेक भंग करके विवेचन किया गया है।
उज्झतधर्मिक
जो खाद्य तथा पेय वस्तु केवल फेंकने लायक है, जिसको कोई भी खाना-पीना पसन्द नहीं करता, ऐसे खाद्य या पेय को उज्झितधर्मिक कहा जाता है ।
उच्च, नीच, मध्यम कुल
प्रस्तुत में उच्च, नीच वा मध्यम शब्द कोई जाति या वंश की अपेक्षा से विवक्षित नहीं हैं, मात्र सम्पत्तिमान् कुल को लोग उच्च कुल कहते हैं, सम्पत्तिविहीन कुल को नीच कहते हैं और साधारण कुल को मध्यम कहा जाता है । जाति या वंश की विवक्षा होती तो प्रस्तुत में मध्यम शब्द की संगति नहीं हो सकती। जैन शासन में आचार तथा तत्त्व की दृष्टि से जातीयता अपेक्षित उच्च-नीच भाव सम्मत नहीं है। जैन शासन गुणमूलक है, किसी भी जाति का व्यक्ति जैन धर्म का आचरण कर सकता है। प्रस्तुत में उच्च, नीच और मध्यम कुल में भिक्षाभ्रमण का जो उल्लेख है