Book Title: Agam 09 Ang 09 Anuttaropapatik Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 100
________________ परिशिष्ट-टिप्पण ६५ १२॥ वर्षों तक घोर तप किया। कठोर साधना की। केवलज्ञान पाकर ४२ वर्षों तक जन-कल्याण के लिए धर्मदेशना की। ७२ वर्ष की आयु में पावापुरी में भगवान् का परिनिर्वाण हुआ। बौद्ध साहित्य के ग्रन्थों में भगवान् महावीर को दीर्घतपस्वी निग्गण्ठ नातपुत्त कहा गया है। स्थविर, वृद्ध । शास्त्रों में तीन प्रकार के स्थविर कहे गए हैं - (१) वयःस्थविर -६० वर्ष या इससे अधिक की आयु वाला भिक्षु वयःस्थविर है। (२) प्रव्रज्यास्थविर - २० वर्ष या इससे अधिक दीक्षापर्याय वाला भिक्षु प्रव्रज्यास्थविर है। (३) श्रुतस्थविर – स्थानांग, समवायांग आदि के ज्ञाता भिक्षु को श्रुतस्थविर कहते हैं। सिलेस-गुलिया : श्लेष-गुटिका 'श्लेष' शब्द का वास्तविक अर्थ है – चिपकना, चोंटना । जब किसी कागज के दो टुकड़ों को चिपकाना होता है तब गोंद आदि का उपयोग किया जाता है। वह श्लेष है। प्रतीत होता है, कि प्रस्तुत प्रसंग में 'श्लेष' शब्द का अर्थ गोंद आदि चिपकाने वाली वस्तु है। 'श्लेष' अर्थात् गोंद की गुटिका अर्थात् वटिका (बत्ती)। इसका अर्थ हुआ— गोंद की लम्बी-सी बत्ती । यह अर्थ यहाँ पर संगत बैठता है। टीकाकार ने इसका 'श्लेष्मणो गुटिका' अर्थ किया है। इसके अनुसार यदि 'कफ की गुटिका' का अर्थ प्रस्तुत में लागू करना हो तो इस प्रकार घटाना होगा - जैसे कफ की कोई लम्बी बत्ती-सी गुटिका कहीं पड़ी हुई फीकी-सी होती है वैसे ही धन्यकुमार के होंठ हो गए थे। किन्तु 'श्लेष' शब्द, कफ अर्थ का वाचक नहीं मिलता। अमरकोषकार ने तथा आचार्य हेमचन्द्र ने कफ के जो पर्याय बताये हैं, वे इस प्रकार हैं - मायुः पित्तं कफः श्लेष्मा। -द्वि. कां. १६, मनुष्य वर्ग श्लोक ६२. पित्तं मायुः कफः श्लेष्मा वलाशः स्नेहभूः खरः। ___-अभि. मर्त्य का., श्लोक ४६२. आचार्य हेमचन्द्र के कथनानुसार - कफ, श्लेष्मन्, वलाश, स्नेहभू और खर, ये पाँच नाम श्लेष्म के हैं। इसमें 'श्लेष' शब्द नहीं आया है। धन्य अनगार : धन्यदेव मनुष्य गति या तिर्यंच गति से जो प्राणी देवगति में जन्म लेता है, उसका वहाँ कोई नया नाम नहीं होता। परन्तु उसके पूर्व जन्म का ही नाम चलता रहता है। धन्य मुनि का नाम धन्य देव पड़ा। दर्दुर मरकर देव हुआ, तो उसका नाम भी दर्दुर देव हुआ। मालूम होता है, कि देव जाति में मानव जाति के समान नामकरण-संस्कार की कोई प्रथा नहीं है। वहाँ पर मनुष्य-कृत अथवा पशुयोनि-प्रसिद्ध नाम का ही प्रचलन है। चाउरंत : चतुरन्त 'चाउरंत' शब्द का अर्थ-चार अन्त । सारी पृथ्वी चार दिशाओं में आ जाती है। जिस प्रकार चक्रवर्ती राजा क्षत्रिय-धर्म का उत्तम रीति से पालन करता हुआ, उन चारों दिशाओं का अन्त करता है-चारों दिशाओं पर विजय पाता है, सारी पृथ्वी पर अपना प्रभुत्व स्थापित करता है, उसी प्रकार भगवान् महावीर ने चार अन्त वाले - मनुष्यगति, देवगति, तिर्यंचगति और नरकगति रूप - संसार पर, वास्तविक लोकोत्तर धर्म का पालन करते हुए

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