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अनुत्तरीपपातिकदशा
वह स्पष्टतया मुनिराज के जाति निरपेक्ष होकर सब कुलों में गोचरी जाने के सामान्य नियम का सूचक है। सनातन जैनशासन की पहले से ही यह प्रणाली रही है।
विलमिव पन्नगभूएणं
जैसे पन्नग - सर्प जब बिल में प्रवेश करता है तो सीधा ही उसमें उतर जाता है, ठीक उसी प्रकार स्वादेन्द्रिय के ऊपर जय पाने के इच्छुक मुनिराज प्राप्त प्रासुक खाद्य वस्तु को मुख में डालते ही निगल जाते हैं, परन्तु एक जबड़े से दूसरे जबड़े की तरफ ले जाकर चबाते नहीं; अर्थात् खाद्य का रस न लेने के कारण वे निगल जाते हैं। ऐसा अभिप्राय 'बिलमिव पन्नग' इत्यादि वाक्य का है।
इसका मूल आशय यही है कि मुनि की भोजन में आसक्ति नहीं होनी चाहिए। लेशमात्र भी रस - लोलुपता नहीं होनी चाहिए। केवल संयम पालन के लिए शरीर निर्वाह के लक्ष्य से ही उसे आहार करना चाहिए । सामाइयमाइयाई
इस वाक्य से सूचित होता है कि सामायिक से लेकर ग्यारह अंगों का अध्ययन किया। ग्यारह अंगों में प्रथम नाम आचारांग सूत्र का आता है। अतः प्रस्तुत में 'आयारमाइयाइं' अर्थात् आचारांग वगैरह ग्यारह अंगों का निर्देश होना उचित है, तब 'सामाइयमाइयाई' ऐसा निर्देश क्यों ? इसका समाधान इस प्रकार है.
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आचार अंग के प्रथम वाक्य से ही अनारंभ की चर्चा है और इधर सामायिक में भी अनारंभ की चर्चा तथा चर्या प्रधान है; अत: आचार अंग तथा सामायिक दोनों में असाधारण साम्य है, एकरूपता है, अतः 'आयारमाइयाई ' के स्थान में 'सामाइयमाइयाई' ऐसा निर्देश असंगत नहीं है। अथवा मुनिराज प्रथम सामायिक स्वीकार करता है और उसमें अनारंभधर्मप्ररूपक आचार अंग का भी समावेश हो जाता है; इस कारण भी ऐसा निर्देश असंगत प्रतीत नहीं होता । अथवा साम अर्थात् सामायिक तथा आजाइयं अर्थात् आचारांगसूत्र । आचारांग की नियुक्ति में जिस गाथा में आयार, आचाल इत्यादि शब्दों को 'आचार' का पर्याय बताया गया है, उसी गाथा में ' आजाति' शब्द को भी आचार अंग का पर्याय बताया है। अतः 'सामाइय' का अर्थ सामायिक और आचारांग इत्यादि (ग्यारह अंग ) बराबर संघटित होता है । इस प्रकार योजना करने से 'सामायिक' का ग्रहण हो जाएगा और आचार अंग भी। साथ ही
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'आइय' शब्द से आदिक अर्थात् दूसरे शेष अंग भी आ जायेंगे। अथवा इस पद का अर्थ इस प्रकार करना चाहिए -सामायिक से प्रारम्भ करके ग्यारह अंग सामायिकादिकानि । दोनों पदों के बीच में जो मकार है वह 'अन्नमन्नं ' प्रयोग की तरह अलाक्षणिक है।