Book Title: Agam 09 Ang 09 Anuttaropapatik Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 92
________________ परिशिष्ट- टिप्पण शास्त्रों में गणधर गौतम का परिचय इस प्रकार का दिया गया है। वे भगवान् के ज्येष्ठ शिष्य थे। सात हाथ ऊँचे थे। उनके शरीर का संस्थान और संहनन उत्कृष्ट प्रकार का था । सुवर्ण रेखा के समान गौर वर्ण थे । उग्रतपस्वी, महातपस्वी, घोरतपस्वी, घोरब्रह्मचारी और विपुल तेजोलेश्या से सम्पन्न थे। शरीर में अनासक्त थे। चौदह पूर्वधर थे । मति, श्रुत, अवधि और मन: पर्याय—चार ज्ञान के धारक थे। सर्वाक्षरसन्निपाती थे। वे भगवान् महावीर के समीप में उकड आसन से नीचा सिर करके बैठते थे। ध्यानमुद्रा में स्थिर रहते हुए, संयम और तप से आत्मा को भावित करते विचरते थे । गणधर गौतम के जीवन की एक विशिष्ट घटना का उल्लेख इस प्रकार है उपासकदशांग में वर्णन है कि जब आनन्द श्रावक ने अपने को अमुक मर्यादा तक के अवधिज्ञान प्राप्ति की बात उनसे कही तो उन्होंने कहा- इतनी मर्यादा तक का अवधिज्ञान श्रावक को नहीं हो सकता। तब आनन्द ने कहा— मुझे इतना स्पष्ट दिख रहा है। अतः मेरा कथन सद्भूत है। यह सुनकर गणधर गौतम शंकित हो गए और अपनी शंका का निवारण करने के लिए भगवान् के पास पहुँचे। भगवान् ने आनन्द की बात को सही बताया और आनन्द श्रावक से क्षमापना करने को कहा। गौतमस्वामी ने आनन्द के समीप जाकर क्षमायाचना की। विपाकसूत्र में मृगापुत्र राजकुमार का जीवन वर्णित है। उसमें उसे भयंकर रोगग्रस्त कहा गया है। उसके शरीर से असह्य दुर्गन्ध आती थी, जिससे उसे तलघर में रखा जाता था। एक बार गणधर गौतम मृगापुत्र को देखने गए। उसकी बीभत्स रुग्ण अवस्था देखकर चार ज्ञान के धारक, चतुर्दशपूर्वी और द्वादशांग वाणी के प्रणेता गणधर गौतम ने कहा"मैंने नरक तो नहीं देखे, किन्तु यही नरक है।" — विपाकसूत्र गौतम के सम्बन्ध में एक और घटना प्रचलित है, जिसका उल्लेख मूल में तो नहीं, किन्तु उत्तरकालीन साहित्य में है । ५७ उत्तराध्ययनसूत्र के १० वें अध्ययन की नियुक्ति में भगवान् महावीर के मुख से इस प्रकार कहलवाया गया है 'अष्टापद सिद्धपर्वत है, अतः जो चरम शरीरी है, वही उस पर चढ़ सकता है, दूसरा नहीं," भगवान् का उक्त कथन सुनकर जब देव समवसरण से बाहर निकले, तब 'अष्टापद सिद्धपर्वत है' ऐसी आपस में चर्चा कर रहे थे । गौतम गणधर ने देवों की यह बातचीत सुनी। गणधर गौतम द्वारा प्रतिबोधित शिष्यों को केवलज्ञान हो जाता था, पर गौतम को नहीं होता था, इससे गौतम खिन्न हो गए। तब भगवान् ने कहा- " गौतम ! मेरे शरीर त्याग के पश्चात् मैं और तुम समान हो जाएंगे। तू अधीर मत बन । " इस प्रकार भगवान् के कहने पर गौतम को संतुष्टि न हुई, अधृति बनी ही रही। भगवान् की उक्त बात सुनने पर भी गणधर गौतम अष्टापद पर गए और जब वहाँ से लौटकर भगवान् के पास आए, तब भगवान् ने कहा— " किं देवाणं वयणं गिज्झं अहवा जिणवराणं ?" अर्थात् देवों का वचन मान्य है, अथवा जिनवरों का ? भगवान् के इस कथन को सुनकर गौतम ने अपने आचरण के लिए क्षमा मांगी। — पाइय टीका, पृ. ३२३ उत्तराध्ययन के टीकाकार आचार्य नेमिचन्द्र ने भी गौतम की अष्टापद सम्बन्धी उक्त कथा का अवतरण लिया है। उसमें लिखा है :-" तत्थ गोयमसामिस्स सम्मत्तमोहणीयकम्मोदयवसेण चिंता जाया'मा णं न सेज्झिज्जामि' fa"I नेमिचन्द्र टीका, पृ. १५४ 44

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