Book Title: Agam 09 Ang 09 Anuttaropapatik Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Agam Prakashan Samiti

Previous | Next

Page 84
________________ तृतीय वर्ग संपत्तेणं अणुत्तरोववाइयदसाणं तच्चस्स वग्गस्स अयमढे पण्णत्ते। आर्य सुधर्मा ने कहा हे जम्बू ! धर्म की आदि करने वाले, धर्म-तीर्थ की स्थापना करने वाले, स्वयं ही सम्यग् बोध को पाने वाले, लोक के नाथ, लोक में प्रदीप, लोक में प्रद्योत करने वाले, अभय देने वाले, शरण के दाता, नेत्र देने वाले, धर्म-मार्ग के दाता, धर्म के दाता, धर्म के उपदेशक, धर्म के उत्तम आचरण द्वारा चार गति का अन्त करने वाले धर्मचक्रवर्ती, अप्रतिहत तथा श्रेष्ठ ज्ञान-दर्शन के धर्ता, स्वयं राग-द्वेष के विजेता. अन्यों को रागद्वेष पर विजय दिलाने वाले, स्वयं बोध को पाने वाले तथा दूसरों को बोध देने वाले, स्वयं मुक्त तथा दूसरों को मुक्त करने वाले, स्वयं तिरे हुए तथा दूसरों को तारने वाले तथा उपद्रव रहित, अचल, रोग-रहित, अन्त-रहित, अक्षय, बाधा-रहित एवं पनरागमन से रहित. सिद्धिगतिनामक स्थान को समीचीनता से प्राप्त करने वाले श्रमण भगवान महावीर ने अनुत्तरौपपातिकदशा के तृतीय वर्ग का यह अर्थ कहा है। विवेचन प्रस्तुत सूत्र उपसंहार-रूप है। इस सूत्र से सर्वप्रथम यही बोध मिलता है कि प्रत्येक शिष्य को देव-गुरु-धर्म के प्रति पूर्णरूप से अनुराग होना चाहिए और गुरु-भक्ति द्वारा सद्गुणों को प्रकट करना चाहिए। जैसे अन्तिम सूत्र में श्री सुधर्मास्वामी ने, उपसंहार करते हुए, श्रमण भगवान् महावीर के सद्गुणों को प्रकट किया है। वे अपने शिष्य जम्बू से कहते हैं कि हे जम्बू ! इस सूत्र को उन भगवान् ने प्रतिपादित किया है जो आदिकर हैं अर्थात् श्रुत-धर्म-सम्बन्धी शास्त्रों के अर्थप्रणेता हैं, तीर्थङ्कर हैं अर्थात् (तरन्ति येन संसारसागरमिति, तीर्थम्-प्रवचनम्, तदव्यतिरेकादिह सङ्घः तीर्थम्, तस्य करणशीलत्वात्तीर्थकरस्तेन) जिसके द्वारा लोग संसार रूपी सागर से पार हो जाते हैं उसको तीर्थ कहते हैं। वह तीर्थ भगवत्प्रवचन है और उससे अभिन्न होने के कारण संघ भी तीर्थ कहलाता है। उसकी स्थापना करने वाले महापुरुष ने ही इस सूत्र के अर्थ का प्रकाश किया है। यह प्रकट करके आगम की प्रामाणिकता प्रकट की है। इसी उद्देश्य से सुधर्मास्वामी भगवान् के 'नमोत्थु णं' में प्रदर्शित सब गुणों का दिग्दर्शन यहां कराते हैं। जब कोई व्यक्ति सर्वज्ञ और सर्वदर्शी हो जाता है, उस समय वह अनन्त और अनुपम गुणों का धारण करने वाला हो जाता है। उसके पथ का अनुसरण करने वाला भी एक दिन उसी रूप में परिणत हो सकता है। अतः प्रत्येक व्यक्ति को उनका अनुकरण यथाशक्ति अवश्य करना चाहिए। भगवान हमें संसारसागर में अभय प्रदान करने वाले हैं और शरण देने वाले हैं अर्थात् (शरणम्-त्राणम्, अज्ञानोपहतानां तद्रक्षास्थानम्, तच्च परमार्थतो निर्वाणम्, तद्ददाति इति शरणदः) अज्ञान-विमूढ व्यक्तियों की एकमात्र रक्षा के स्थान निर्वाण को देने वाले हैं, जिसको प्राप्त कर आत्मा सिद्ध-पद में अपने प्रदेश में स्थित हो जाता है। भगवान् को 'अप्रतिहत-ज्ञान-दर्शन-धर' भी बताया गया है। उसका अभिप्राय यह है (अप्रतिहते कटकुड्यपर्वतादिभिरस्खलितेऽविसंवादके वा क्षायिकत्वाद् वरे-प्रधाने ज्ञान-दर्शने केवललक्षणे धारयतीति-अप्रतिहतवरज्ञान-दर्शनधरस्तेन) अर्थात् किसी प्रकार से भी स्खलित न होने वाले सर्वोत्तम केवलज्ञान और केवलदर्शन को धारण करने वाले सर्वज्ञ और सर्वदर्शी भगवान् की जब शुद्ध चित्त से भक्ति की जायेगी तो आत्मा अवश्य ही निर्वाण-पद प्राप्त कर तन्मय हो जायेगा। ध्यान रहे कि इस पद की प्राप्ति के लिए सम्यग्ज्ञान-दर्शन और चारित्र के सेवन की अत्यन्त आवश्यकता है। जब हम किसी व्यक्ति की भक्ति करते हैं तो हमारा ध्येय सदैव उसीके समान बनने का होना चाहिए। तभी हम उसमें सफल हो सकते हैं। पहले कहा जा चुका है कि कर्म ही संसार के कारण हैं। उनका क्षय करना मुमुक्षु का पहला ध्येय होना चाहिए। जब तक कर्म अवशिष्ट रहते हैं तब तक

Loading...

Page Navigation
1 ... 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134