Book Title: Agam 09 Ang 09 Anuttaropapatik Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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टिप्पण
राजगृह
राजगृह, भारत का एक सुन्दर, समृद्ध और वैभवशाली नगर था। मगध जनपद की राजधानी तथा जैनसंस्कृति और बौद्ध-संस्कृति का मुख्य केन्द्र था। इस पुण्यधाम पावन नगर में भगवान् महावीर ने १४ वर्षावास किये थे तथा दो सौ से अधिक समवसरण हुए थे। हजारों-लाखों मानवों ने यहाँ पर भगवान् महावीर की वाणी श्रवण की थी और श्रावकधर्म तथा श्रमणधर्म स्वीकृत किया था। यह नगर प्राचीन युग में क्षितिप्रतिष्ठित नाम से प्रसिद्ध था, उसके क्षीण होने के बाद वहीं पर ऋषभपुर नगर बसा। उसके नष्ट होने पर कुशाग्रपुर नगर बसा । जब यह नगर भी जल गया तब राजा श्रेणिक के पिता राजा प्रसेनजित ने राजगृह बसाया, जो वर्तमान में "राजगिर" नाम से प्रसिद्ध है। इसका दूसरा नाम गिरिव्रज भी था, क्योंकि इसके आस-पास पाँच पर्वत हैं । राजगिर बिहार प्रान्त में पटना से पूर्वदक्षिण और गया से पूर्वोत्तर में स्थित है । बौद्ध ग्रन्थों में भी राजगृह का बार-बार उल्लेख उपलब्ध होता है। सुधर्मा
भगवान् महावीर के पंचम गणधर और जम्बूस्वामी के गुरु थे। उनका पूर्व परिचय इस प्रकार है-- वे कोल्लाग संनिवेश के रहने वाले, अग्निवैश्यायन गोत्रीय ब्राह्मण थे। इनके पिता का नाम धम्मिल तथा माता का नाम भद्दिला था। वे वेद के प्रखर ज्ञाता और अनेक विद्याओं के परम विज्ञाता थे। पाँच-सौ शिष्यों के पूजनीय, वन्दनीय और आदरणीय गुरु थे। जन्मान्तर-सादृश्यवाद में उनको विश्वास था। "पुरुषो वै पुरुषत्वमश्रुते पशवः पशुत्वम्" अर्थात् मरणोत्तर जीवन में पुरुष, पुरुष ही होता है और पशु, पशु रूप में ही जन्म लेता है। साथ ही सुधर्मा को वेदों में जन्मान्तर वैसादृश्यवाद के समर्थक वाक्य भी मिलते थे, जैसे— "शृगालो वै एष जायते, यः सपुरीषो दह्यते"। सुधर्मा दोनों प्रकार के परस्पर विरुद्ध वाक्यों से संशयग्रस्त हो गये थे। __भगवान् महावीर ने पूर्वापर वेद-वाक्यों का समन्वय करके जन्मान्तर-वैसादृश्य सिद्ध कर दिया। अपनी शंका का सम्यक् समाधान हो जाने पर सुधर्मा को भगवान् ने वेदवाक्यों से ही समझाया, उनकी भ्रान्ति का निवारण कर दिया। ५० वर्ष की आयु में उन्होंने दीक्षा ली, ४२ वर्ष तक वे छद्मस्थ रहे। महावीरनिर्वाण के १२ वर्ष बाद वे केवली हुए और १८ वर्ष केवली अवस्था में रहे।
गणधरों में सुधर्मास्वामी का पांचवां स्थान था। वे सभी गणधरों में दीर्घ-जीवी थे। अतः भगवान् ने तो उन्हें गण-समर्पण किया ही था किन्तु अन्य गणधरों ने भी अपने-अपने निर्वाण समय पर अपने-अपने गण सुधर्मास्वामी को समर्पित किए थे। आगम में प्रायः सर्वत्र सुधर्मा का उल्लेख मिलता है। जम्बू
आर्य सुधर्मा के परम शिष्य तथा आर्य प्रभव के प्रतिबोधक। आगमों में प्रायः सर्वत्र जम्बू एक परम जिज्ञासु के रूप में प्रतीत होते हैं।
जम्बू राजगृह नगर के समृद्ध, वैभवशाली-इभ्य-सेठ के पुत्र थे। पिता का नाम ऋषभदत्त और माता का नाम धारिणी था। जम्बूकुमार की माता ने जम्बूकुमार के जन्म से पूर्व स्वप्न में जम्बूवृक्ष देखा था, अतः पुत्र का नाम