Book Title: Agam 09 Ang 09 Anuttaropapatik Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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तृतीय वर्ग
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'भंते ! उस देवलोक से च्यवन कर धन्य देव कहाँ जायगा, कहाँ उत्पन्न होगा ?"
" हे गौतम! महाविदेहवर्ष से सिद्ध होगा । "
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श्री सुधर्मास्वामी ने कहा— हे जम्बू ! इस प्रकार श्रमण यावत् निर्वाणसंप्राप्त भगवान् महावीर ने तृतीय वर्ग के प्रथम अध्ययन का यह अर्थ कहा है।
|| प्रथम अध्ययन समाप्त ॥
विवेचन —- प्रस्तुत सूत्र में धन्य अनगार की अन्तिम समाधि का वर्णन किया गया है और उसके लिए सूत्रकार ने धन्य अनगार की स्कन्दक संन्यासी से उपमा दी है। ज्ञान ध्यान तप त्याग में लीन बने हुए धन्य अनगार को एक समय मध्य रात्रि में जागरण करते हुए विचार उत्पन्न हुआ कि मुझमें अभी तक उठने की शक्ति विद्यामान है और शासनपति श्रमण भगवान् महावीर भी अभी तक विद्यमान हैं, अतः यह सब अनुकूल सुविधाएँ रहते ही मैं इस जीवन की चरम साधना क्यों न कर लूं। इस विचार के आते ही उन्होंने प्रातःकाल श्रमण भगवन्त की आज्ञा प्राप्त की और आत्म-विशुद्धि के लिए पञ्च महाव्रतों का पुनः पाठ पढ़ा तथा उपस्थित श्रमणों और श्रमणियों से क्षमा याचना कर तथारूप स्थविरों के साथ शनैः शनैः विपुलगिरि पर चढ़ गये। वहाँ पहुंचकर उन्होंने कृष्ण-वर्णी पृथिवी - शिलापट्ट पर प्रतिलेखना कर दर्भ का संस्तारक बिछाया और पद्मासन लगाकर बैठ गये। फिर दोनों हाथ जोड़े और उनसे शिर पर आवर्तन किया। इस प्रकार पूर्व दिशा की ओर मुख कर 'नमोत्थुणं' के पाठ द्वारा पहले सब सिद्धों को नमस्कार किया, फिर उसी से श्री श्रमण भगवान् महावीर को भी नमस्कार किया। कहा- " भगवन् ! वहाँ विराजमान आप सब कुछ देख रहे हैं, अतः मेरी वन्दना स्वीकार करें। मैंने पहले ही आपके समक्ष अष्टादश पापों का त्याग किया था। अब मैं आप की साक्षी से उनका फिर से जीवन भर के लिए परित्याग करता हूँ । साथ ही साथ अब अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य पदार्थों का भी आजीवन परित्याग करता हूँ। अपने संयम सहायक शरीर का भी अन्तिम रूप से व्युत्सर्ग करता हूँ। अब पादपोपगमन नामक अनशन धारण करता हूँ।" इस प्रकार श्री श्रमण भगवान् को वन्दन कर और उनको साक्षी बना कर संथारा ग्रहण किया और उसी के अनुसार विचरने लगे। उन्होंने सामायिक आदि से लेकर एकादश अङ्गों का अध्ययन किया, नव मास पर्यन्त दीक्षापर्याय में रहे और एक मास तक अनशन व्रत में व्यतीत किया । साठभक्त अशन- छेदन कर आलोचना-प्रतिक्रमणपूर्वक उत्तम समाधिमरण प्राप्त किया।
यहाँ कहा गया है कि धन्य मुनि ने साठ भक्तों का परित्याग किया तो जिज्ञासा हो सकती है कि भक्त किसे कहते हैं ? उत्तर यह है कि प्रत्येक दिन के दो भक्त अर्थात् आहार या भोजन होते हैं। इस प्रकार एक मास के साठ भक्त हो जाते हैं । इस विषय में वृत्तिकार का कहना है कि " प्रतिदिनं भोजनद्वयस्य परित्यागात्त्रिंशत दिनैः षष्ठिर्भक्तानां त्यक्ता भवति ।" इस प्रकार जब धन्य अनगार ने एक मास पर्यन्त अनशन धारण किया तो साठ भक्तों के परित्याग में कोई सन्देह नहीं रहता । तत्पश्चात् शरीर का परित्याग कर धन्य अनगार सर्वोत्कृष्ट दिव्यलोक सर्वार्थसिद्ध विमान में उत्पन्न हुए इत्यादि कथन स्पष्ट है।
जब उनके साथ गए स्थविरों ने देखा कि धन्य अनगार अपनी इह - लीला संवरण कर स्वर्ग को प्राप्त हो गये हैं तो उन्होंने परिनिर्वाण - प्रत्ययिक कायोत्सर्ग किया अर्थात् 'परिनिर्वाणम्-मरणं यत्र, यच्छरीरस्य परिष्ठापनं तदपि परिनिर्वाणमेव, तदेव प्रत्ययो - हेतुर्यस्य स परिनिर्वाणप्रत्यय:' भाव यह है कि मृत्यु के अनन्तर जो ध्यान किया जाता