Book Title: Agam 09 Ang 09 Anuttaropapatik Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 70
________________ तृतीय वर्ग ३५ धन्य अनगार की जीभ की तपस्या के कारण ऐसी अवस्था हो गई थी— जैसे—वड का सूखा पत्ता हो, पलाश का सूखा पत्ता हो, शाक अर्थात् सागवान वृक्ष का सूखा पत्ता हो। इसी प्रकार धन्य अनगार की जीभ भी सूख गई थी, उसमें मांस नहीं रह गया था और शोणित भी नहीं रह गया था । विवेचन — इस सूत्र में धन्य अनगार की भुजाओं, हाथों, हाथ की अंगुलियों, ग्रीवा, चिबुक, होठों और जिह्वा का उपमा अलंकार से वर्णन किया गया है। उनकी भुजाएँ अन्यान्य अंगों के समान ही तप के कारण सूख गई थीं और ऐसी दिखाई देती थीं जैसी शमी, अगस्तिक अथवा बाहाया वृक्षों की सूखी हुई फलियाँ होती हैं। 'बाहाया' शब्द के अर्थ का निर्णय करना कठिन है। यह किस वृक्ष की और किस देश में प्रचलित संज्ञा है, कहना मुश्किल है । वृत्तिकार श्री अभयदेवसूरि ने भी इसका अर्थ वृक्षविशेष ही लिखा । सम्भवतः उस समय किसी प्रांत में यह नाम लोकप्रचलित रहा हो । यही दशा धन्य अनगार के हाथों की भी थी। उनका भी मांस और रुधिर सूख गया था तथा वे इस तरह दिखाई देते थे जैसा सूखा गोबर ( छाणा - कंडा ) होता है अथवा सूखे हुए वट और पलाश के पत्ते होते हैं। हाथ की अंगुलियों में भी अत्यन्त कृशता आ गई थी। अंगुलियाँ कभी रक्त और मांस से परिपूर्ण थीं, वे अब सूखकर एक निराली रूक्षता एवं क्षीणता धारण कर रही थीं। सूख जाने से उनकी यह हालत हो गई थी जैसे—एक कलाय, मूंग अथवा माष (उड़द की फली — जिसे कोमल अवस्था में ही तोड़कर धूप में सुखा दिया गया हो। पहले वाला मांस और रुधिर उनमें देखने को भी शेष नहीं रह गया था। यदि उनको कोई पहचान सकता था तो केवल अस्थि और चर्म से ही, जो उनमें अवशिष्ट रह गये थे । 'बाहु' शब्द यद्यपि संस्कृत भाषा में उकारान्त है, तथापि प्राकृत भाषा में स्त्रीलिंग की विवक्षा होने पर वह आकारान्त हो जाता है। अतः सूत्र में आया हुआ 'बाहाणं' पद प्राकृतव्याकरण की दृष्टि से शुद्ध है। सूत्र इस प्रकार है— बाहोरात् ॥ ८ ॥ १ ॥ ३६ ॥ बाहुशब्दस्य स्त्रियामाकारान्तादेशो भवति, बाहाए जेण धरिओ एक्काए ॥ स्त्रियामित्येव । वामे अरो बाहू' | ग्रीवा में भी अन्य अवयवों के समान मांस और रुधिर का अभाव हो गया था । अतः वह स्वभावतः लम्बी दिखाई देती थी । सूत्रकार ने उसको उपमा लम्बे मुख वाले सुराही आदि पात्रों की दी है। इसके लिए सूत्र में एक ‘उच्चस्थापनक' पद आया है, जो इसी प्रकार का एक पात्र होता है। यह दशा धन्य अनगार के चिबुक की थी। जो चिबुक कभी मांस और रुधिर से परिपूर्ण था, उसकी तपश्चर्या कारण यह दशा हो गई थी कि जैसे—एक सूखे हुए तुम्बे या हकुब (एक प्रकार की वनस्पति) के फल की होती है अथवा वह ऐसी दिखाई देती है, जैसे—एक आम की गुठली हो । जो ओठ पहले बिम्बफल के समान रक्त वर्ण थे वे तप के कारण सूखकर बिल्कुल विवर्ण हो गये थे। उनकी आकृति अब इस प्रकार हो गई थी जैसी सूखी हुई मेंहदी की गुटिका होती है। जिह्वा भी सूखकर वटवृक्ष के पत्ते के समान अथवा पलाश (ढाक) के पत्ते के समान नीरस और रूखी हो गई थी। आचार्य हेमचन्द्रकृत प्राकृतव्याकरण १.

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