Book Title: Agam 09 Ang 09 Anuttaropapatik Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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अनुत्तरौपपातिकदशा दिख पड़ता था। उनकी भुजाएँ, सूखे हुए सर्प के तुल्य लम्बी एवं सूखी थीं। लोहे की घोड़े की लगाम के तुल्य उनके अग्रहस्त कांपते हए थे। कम्पनवात-ग्रस्त रोगी के तुल्य उनका मस्तक कांपता रहता था। उनका मुख-कमल म्लान हो गया था। होठों के सूख जाने से उनका मुख टूटे मुखवाले घड़े के समान विकृत दृष्टिगोचर होता था। उनके नयनकोष अन्दर की ओर धंस गये थे। दीर्घ तप से इस प्रकार क्षीण होकर वह धन्य अनगार अपने शरीर के बल से नहीं; परन्तु अपने आत्मबल से ही गमन करते थे। अपने आत्मबल से ही खड़े होते थे और बैठते थे। भाषा बोलकर वे थक जाते थे, बोलते समय भी उन्हें थकावट का अनुभव होता था, यहाँ तक 'मैं बोलूंगा' इस विचार मात्र से ही वे थक जाते थे। जिस समय वह चलते तो उनके शरीर की हड्डियां ऐसी शब्द करती थीं जैसे कोई कोयलों से भरी गाड़ी हो, इत्यादि।
जो दशा स्कन्दक की हो गई थी, वही दशा धन्य अनगार की भी हो गई थी। फिर भी वे राख के ढेर से ढंकी आग के समान अन्दर ही अन्दर आत्म-तेज से प्रदीप्त हो रहे थे। वह धन्य अनगार तप से, तेज से और तपस्तेज की शोभा-आभा से अत्यन्त सुशोभित होकर (अपनी साधना में स्थिर थे, अडिग थे और अडोल थे)।
विवेचन यहाँ एक ही सूत्र में सूत्रकार ने प्रकारान्तर से धन्य अनगार के सब अवयवों का वर्णन किया है। धन्य अनगार के पैर, जङ्घा और उरू मांस आदि के अभाव में अत्यन्त सूख गये थे और निरन्तर भूखे रहने के कारण बिल्कुल रूक्ष हो गये थे। चिकनाहट उन में नाम मात्र के लिये भी शेष नहीं थी। कटि मानो कटाह (कच्छप की पीठ अथवा भाजन-विशेष—हलवाई आदि की कढ़ाई) था। वह मांस के क्षीण होने से तथा अस्थियों के ऊपर उठ जाने से इतना भयङ्कर प्रतीत होता था जैसे नदी के ऊँचे तट हों—दोनों ओर ऊँचे और बीच में गहरे। पेट बिलकुल सूख गया था। उस में से यकृत् और प्लीहा भी क्षीण हो गये थे। अतः वह स्वभावतः पीठ के साथ मिल गया था। पसलियों पर का भी मांस बिल्कुल सूख गया था और वे एक-एक अलग-अलग गिनी जा सकती थी। यही हाल पीठ के उन्नत प्रदेशों का भी था । वे भी रुद्राक्ष की माला के दानों के समान सूत्र में पिरोये हुए भी जैसे अलग-अलग गिने जा सकते थे। उर के प्रदेश ऐसे दिखाई देते थे, जैसी गङ्गा की तरङ्गे हों। भुजाएँ सूख कर सूखे हुए साँप के समान हो गई थीं। हाथ अपने वश में नहीं थे और घोड़े की ढीली लगाम के समान अपने आप ही हिलते रहते थे। शिर की स्थिरता भी लुप्त हो गई थी। वह शक्ति से हीन होकर कम्पन-वायु रोग वाले पुरुष के शिर के समान कांपता ही रहता था। इस अत्युग्र तप के कारण जो मुख कभी खिले हुए कमल के समान शोभायमान था, अब मुरझा गया था। ओंठ सूखने के कारण विकृत-से हो गये थे। इससे मुख फूटे हुए घड़े के मुख के समान विकराल दिखाई देता था। उनकी दोनों आँखें भीतर धंस गई थीं। शारीरिक बल बिलकुल शिथिल हो गया था। वे केवल आत्मिक शक्ति से ही चलते थे और खड़े होते थे। इस प्रकार सर्वथा दुर्बल होने के कारण उनके शरीर की यह दशा हो गई थी कि भाषण करने में भी उनको अतीव खेद प्रतीत होता था, थकावट होती थी। कुछ कहते भी थे तो अत्यन्त कष्ट के साथ। शरीर साधारणतः इस प्रकार खचपचा गया था कि जब वे चलते थे तो अस्थियों में परस्पर रगड़ लगने के कारा चलती हुई कोयलों की गाड़ी के समान शब्द उत्पन्न होने लगता था। तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार स्कन्दक मुनि का शरीर तप के कारण अत्यन्त क्षीण हो गया था, उसी प्रकार धन्य अनगार का शरीर भी क्षीण, कृश एवं निर्बल हो गया था। किन्तु शरीर क्षीण होने पर भी उनकी आत्मिक दीप्ति बढ़ रही थी। उनकी अवस्था ऐसी हो गई थी जैसे भस्म से आच्छादित अग्नि होती है। उनका आत्मा तप के तेज से और उत्पन्न कान्ति से अलौकिक सुन्दरता धारण कर रहा