Book Title: Agam 09 Ang 09 Anuttaropapatik Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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अनुत्तरौपपातिकदशा
उक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि धन्य अनगार का तप-अनुष्ठान आत्मशुद्धि के लिये ही था । शरीरमोह से वे सर्वथा मुक्त हो गये थे । यह भी इस वर्णन से सिद्ध होता है कि उत्कृष्ट तप ही आत्म शुद्धि की सामर्थ्य रखता है और इसी के द्वारा कर्मों की निर्जरा भी हो सकती है। यहाँ यह अवश्य स्मरणीय है कि समीचीन तप सम्यग्ज्ञान और सम्यग्दर्शनपूर्वक ही हो सकता है। सम्यग्ज्ञान और सम्यग्दर्शन के अभाव में किया जाने वाला तप बालतप है। उससे ही कोटि की देवगति भले प्राप्त हो जाए किन्तु वैमानिक जैसी उच्च देवगति भी प्राप्त नहीं होती । ऐसी स्थिति में उससे मुक्ति जैसे सर्वोत्कृष्ट, लोकोत्तर एवं अनुपम पद की प्राप्ति तो हो ही कैसे सकती है।
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धन्य मुनि की नासिका नेत्र एवं शीर्ष
१४—धण्णस्स णं अणगारस्स नासाए जाव' से जहा जाव' अंबगपेसिया इ वा, अंबाडगपेसिया इ वा, माउलुंगपेसिया इ वा तरुणिया एवामेव जावरे ।
धण्णस्स णं अणगारस्स अच्छीणं जाव' से जहा जाव' वीणाछिड्डे इ वा, वद्धीसगछिड्डे इ वा, पभाइयतारिगा इ वा एवामेव जाव' ।
धण्णस्स कण्णाणं जाव' से जहा जाव' मूलाछल्लिया इ वा, वालुंकछल्लिया इ वा कारेल्लयछल्लिया इवा, एवामेव जाव' ।
धण्णस्स सीसस्स जाव" से जहा जाव" तरुणगलाउए इ वा, तरुणगएलालुए इ वा सिण्हालए इ वा तरुणए जाव [ छिण्णे आयवे दिण्णे सुक्के समाणे मिलायमाणे ] चिट्ठड़, एवामेव जावर सीसं सुक्कं लुक्खं निम्मंसं अट्ठ-चम्म- छिरत्ताए पण्णायइ, नो चेव णं मंस-सोणियत्ताए ।
एवं सव्वत्थ । नवरं, उयर - भायण - कण्ण- जीहा - उट्ठा एएसिं अट्ठी न भण्णइ, चम्म छिरत्ताए पण्णायइ त्ति भण्णइ ।
धन्य अनगार की नासिका का तपोजन्य रूप लावण्य इस प्रकार का गया था— जैसे— आम की सूखी फाँक हो, आम्रातक अर्थात् एक फल विशेष (आमडे) की सूखी फाँक हो, मातुलिंग अर्थात् बिजौरे की सूखी फाँक हो—उन कोमल फाँकों को काट कर, धूप में सुखाने पर, जिस प्रकार वे मुरझा जाती हैं, सिकुड़ जाती हैं, उसी प्रकार धन्य अनगार की नाक भी मांस और शोणित से रहित होकर सूख गई थी।
धन्य अनगार की आँखों का तपोजन्य रूप लावण्य इस प्रकार का हो गया था जैसे वीणा का छिद्र हो, वद्धीसक अर्थात् बांसुरी का छिद्र हो, प्राभातिक तारक अर्थात् प्रभातकाल का प्रभाहीन तारा हो। इस प्रकार धन्य अनगार की आँखें भी मांस और शोणित से रहित हो कर अन्दर की ओर धँस गई थीं तथा वे प्रकाश-हीन- तेजोहीन हो गई थीं। अर्थात् आँखों में कीकी की मात्र टिमटिमाहट ही दिखलाई देती थी।
धन्य अनगार के कानों का तपोजन्य रूप लावण्य इस प्रकार का हो गया था— जैसे-मूले की कटी हुई लम्बी-पतली छाल हो, ककड़ी (चीभड़ा) की कटी हुई लम्बी-पतली छाल हो या करेले की कटी हुई लम्बीपतली छाल हो। इसी प्रकार धन्य अनगार के कान भी सूख गए थे। उनमें मांस और शोणित नहीं रह गया था ।
१ - १२. देखिए वर्ग ३, सूत्र १०.