Book Title: Agam 09 Ang 09 Anuttaropapatik Sutra Stahanakvasi Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana Publisher: Agam Prakashan SamitiPage 72
________________ तृतीय वर्ग धन्य अनगार के शीर्ष (मस्तक) का तपोजन्य रूप-लावण्य इस प्रकार का हो गया था— जैसे—सूखा तुम्बा हो, सूखा सूरणकन्द हो, सूखा तरबूज हो—इन कोमल फलों को काट कर धूप में सुखाने पर जैसे ये सूख जाते हैं, मुरझा जाते हैं, वैसे ही धन्य अनगार का मस्तक भी मांस और शोणित से रहित होने के कारण सूख गया था, मुरझा गया था। उसमें अस्थि, चर्म और शिराएँ ही शेष रह गई थीं। धन्य अनगार के तपःपूत देह के समस्त अङ्गों का यह सामान्य वर्णन है। विशेषता यह है कि पेट, कान, जीभ, और होठ इन अवयवों में अस्थि का वर्णन नहीं कहना चाहिए। केवल चर्म और शिराओं से ही इनकी पहिचान होती थी। विवेचन इस सूत्र में धन्य अनगार के पूर्वोक्त अङ्गों के समान ही उपमा अलङ्कार से नासिका, कान, नेत्रों और शिर का वर्णन किया गया है। अर्थ मूल पाठ से ही स्पष्ट है।। इस सूत्र में अनेक प्रकार के कन्दों, मूलों और फलों से धन्य अनगार के अवयवों की उपमा दी गई है। उनमें से आम्रातक, मूलक बालुंकी और कारेल्लक ये कन्द और फल विशेषों के नाम हैं । आलुक एक प्रकार का कन्द होता है, जो वर्तमान युग में आलू' के नाम से प्रसिद्ध है। इस प्रकार सूत्रकार ने धन्य अनगार के पैर से लेकर शिर तक सब अङ्गों का वर्णन कर दिया है इसमें विशेषता केवल इतनी ही बतलाई गई है कि उदर-भाजन, जिह्वा, कान, और ओठों के साथ अस्थि शब्द का अन्वय नहीं करना चाहिए क्योंकि इनमें अस्थियाँ नहीं होती हैं। शेष सब अंगों के साथ सुक्कं, लुक्खं, णिम्मंसं, इत्यादि सब विशेषणों का प्रयोग करना चाहिए। धन्य मुनि की आन्तरिक तेजस्विता १५–धण्णे णं अणगारे सुक्केणं भुक्केणं लुक्खेणं पायजंघोरुणा, विगयतडिकरालेणं कडिकडाहेणं, पिट्ठिमवस्सिएणं उदरभायणेणं जोइजमाणेहिं पासुलियकडएहिं, अक्खसुत्तमाला इव गणेजमाणेहिं पिट्टिकरंडगसंधीहिं, गंगातरंगभूएणं उरकडग-देशभाएणं, सुक्सप्पसमाणेहिं बाहाहिं, सिढिलकडाली विव लंबतेहि य अग्गहत्थेहिं, कंपणवाइए विव वेवमाणीए सीसघडीए पव्वायवयण-कमले उब्भडघडमुहे उच्छुद्धणयणकोसे जीवंजीवेणं गच्छइ, जीवंजीवेणं चिट्ठइ, भासं भासित्ता गिलाइ, भासं भासमाणे गिलाइ, भासं भासिस्सामि त्ति गिलाइ।से जहानामए इंगालसगडिया इ वा। जहा खंदओ तहा, जाव' हुयासणे इव भासरासिपलिच्छण्णे तवेणं तेएणं अईव अईव तवतेयसिरीए उवसोभेमाणे उवसोभेमाणे चिट्ठइ। घोर तपस्वी वह धन्य अनगार मांस आदि के अभाव के कारण सूखे और भूख के कारण बुभुक्षित एवं पैर आदि अवयवों के कृशतर हो जाने के कारण रूक्ष दिखाई देते थे। उनका कटिभाग कटाह (कच्छप की पीठ अथवा भाजनविशेष—कढ़ाई) सरीखा विकृत एवं मांसहीन होने के कारण हड्डियां ऊपर दिखाई देने से विकराल दृष्टिगोचर होता था। मांस-मज्जा और शोणित के अभाव में पीठ से लगे पेट से, निर्मांस होने के कारण स्पष्ट दिखलाई देने वाली पसलियों से, मांस और मज्जारहित होने से रुद्राक्ष की माला के मणकों के समान स्पष्ट गिने जाने योग्य पृष्ट-करडंग (रीढ़) की सन्धियों से, गङ्गा की तरङ्गों के तुल्य स्पष्ट दिखने वाली अस्थियों के कारण उनके वक्षस्थल का भाग १. देखिए अणुत्तरोववाइयदसा वर्ग ३, सूत्र ८.Page Navigation
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