Book Title: Agam 09 Ang 09 Anuttaropapatik Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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अनुत्तरौपपातिकदशा कहने का तात्पर्य यह कि धन्य अनगार कर्मनिर्जरा के अनन्य कारण तपश्चरण में इस प्रकार तन्मय हो गए कि अपने शरीर से भी निरपेक्ष हो गए। उनको शरीर का मोह भी लेशमात्र नहीं रहा। उन्होंने कठोर से कठोर तप अंगीकार किये। अतः उनके किसी अङ्ग में भी मांस और रुधिर अवशिष्ट नहीं रहा। सर्वत्र केवल अस्थि, चर्म और नसाजाल ही देखने में आता था। सदेह होकर भी वे विदेह दशा प्राप्त करने में समर्थ हो गए। कटि, उदर एवं पसलियों आदि का वर्णन
१२–थण्णस्स कडिपत्तस्स इमेयारूवे जाव' से जहा जाव' उट्टपादे इ वा जरग्गपाए इ वा महिसपाए इ वा जाव सोणियत्ताए।
धण्णस्स उयरभायणस्स इमेयारूवे जाव से जहा जाव' सुक्कदिए इ वा, भजणयकभल्ले इ वा कट्ठकोलंवए इ वा एवामेव उदरं सुक्कं जाव।
धण्णस्स पासुलियाकडयाण इमेयारूवे जाव से जहा जाव' थासयावली इ वा, पाणावली इ वा, मुंडावली इ वा जाव।
धण्णस्स पिट्ठिकरंडयाणं इमेयारूवे जाव से जहा जाव कण्णावली इ वा गोलावली इ वा वट्टयावली इ वा एवामेव जाव।
धण्णस्स उरकडयस्स अयमेयारूवे जाव से जहा जाव" चित्तकट्टरे इ वा वीणयपत्ते इ वा तालियंटपत्ते इ वा एवामेव जाव।
धन्य अनगार की कटिपत्र (कमर) का तपस्याजनित रूप-लावण्य इस प्रकार का हो गया था— जैसे—ऊँट का पैर हो, बूढ़े बैल का पैरा हो और बूढ़े महिष (भैंसे) का पैर हो । उसमें अस्थि, चर्म और शिराएँ ही शेष रह गई थीं, मांस और शोणित उसमें नहीं रह गया था।
धन्य अनगार के उदर-भाजन (पेट) का तपोजन्य रूप-लावण्य इस प्रकार का हो गया था— जैसे सूखी क हो, चणकादि भूनने का खप्पर हो, आटा गूंदने की कठौती हो। इसी प्रकार धन्य अनगार का पेट भी सूख गया था। उसमें मांस और शोणित नहीं रह गया था।
धन्य अनगार की पसलियों का तपस्या के कारण लावण्य इस प्रकार का हो गया था— जैसे स्थासकों की आवली हो अर्थात् जैसे ढलान पर एक-दूसरे के ऊपर रक्खी हुई दर्पणों के आकार की पंक्ति हो, पाणावली हो अर्थात् एक-दूसरे पर रखे हुए पान-पात्रों (गिलासों) की पंक्ति हो, मुण्डावली अर्थात् स्थाणु-विशेष प्रकार के खूटों की पंक्ति हो। जिस प्रकार उक्त वस्तुएँ गिनी जा सकती हैं. उसी प्रकार धन्य अनगार की पसलियाँ भी गिनी जा सकती थीं। उनमें अस्थि, चर्म और शिराएँ ही शेष रह गई थीं। मांस और शोणित उनमें नहीं रह गया था।
धन्य अनगार के पृष्ठकरण्ड (रीढ का ऊपरी भाग) का स्वरूप ऐसा हो गया था— जैसे मुकुटों के कांठे अर्थात् मुकुटों की किनारियों के कोरों के भाग हों, परस्पर चिपकाए हुए गोल-गोल पत्थरों की पंक्ति हो, अथवा
१ से १५ – वर्ग ३, सूत्र १०.