Book Title: Agam 09 Ang 09 Anuttaropapatik Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 61
________________ २६ न जान कर संक्षेप कर दिया गया। दीक्षा की अनुमति प्राप्त करने के प्रसंग में ब्रैकेट में जो पाठ-मूल और अर्थ में दिया गया है वह जमाली के प्रसंग का है, अतएव उनमें 'अम्मापियरो' (माता-पिता) का उल्लेख है किन्तु धन्य कुमार के विषय में घटित नहीं होता, अतः यहाँ केवल माता का ही ग्रहण करना चाहिए। इस प्रकरण में पिता का कहीं उल्लेख नहीं है। पाठकों को यह ध्यान में रखना चाहिए । अनुत्तरौपपातिकदशा धन्य मुनि की तपश्चर्या ६ए णं से धणे अणगारे जं चेव दिवसे मुंडे भवित्ता जाव [ अगाराओ अणगारियं ] पव्वइए, तं चैव दिवस समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी— एवं खलु इच्छामि णं भंते ! तुब्भेहिं अब्भणुण्णाए समाणे जावज्जीवाए छट्ठछट्टेणं अणिक्खित्तेणं आयंबिलपरिग्गहिएणं तवोकम्मेणं अप्पाणं भावेमाणे विहरित्तए । छट्ठस्स वि य णं पारणयंसि कप्पेइ मे आयंबिलं पडिगाहेत्तए नो चेव णं अणायंबिलं । तं पि य संसट्टं नो चेव णं असंसङ्कं । तं पियणं उज्झिय- धम्मियं नो चेव णं अणुज्झियधम्मियं । तं पिय जं अण्णे बहवे समण - माहण - अतिहि-किवणवणीमगा नावकंखंति । अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंधं करेह । तणं से धणे अणगारे समणेणं भगवया महावीरेणं अब्भणुण्णाए समाणे हट्ठ-तुट्ठ जावज्जीवाए छट्ठछट्टेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं अप्पाणं भावेमाणे विहरइ । तदनन्तर धन्य अनगार जिस दिन प्रव्रजित हुए यावत् गृहवास त्याग कर अगेही बने, उसी दिन श्रमण भगवान् महावीर को वंदन किया, नमस्कार किया तथा वंदन और नमस्कार करके इस प्रकार बोले भंते! आप से अनुज्ञात होकर जीवन पर्यन्त निरन्तर षष्ठ-बेला तप से तथा आयंबिल के पारणे से मैं अपनी आत्मा को भावित करते हुए विचरण करना चाहता हूँ। षष्ठ तप के पारणा में भी मुझे आयंबिल ग्रहण करना कल्पता है, परन्तु अनायंबिल ग्रहण करना नहीं कल्पता । वह भी संसृष्ट हाथों आदि से लेना कल्पता है, असंसृष्ट हाथों आदि से लेना नहीं कल्पता । वह भी उज्झितधर्म वाला (त्याग देने फेंक देने योग्य) ग्रहण करना कल्पता है, अनुज्झितधर्म वाला नहीं कल्पता । उसमें भी वह भक्त-पान कल्पता है, जिसे लेने की अन्य बहुत से श्रमण, माहण (ब्राह्मण), अतिथि, कृपण और वनीपक ( भिखारी) इच्छा न करें। धन्य अनगार से भगवान् ने कहा— हे देवानुप्रिय ! जैसे तुम्हें सुखकर हो, वैसा करो, परन्तु प्रमाद मत करो। अनन्तर वह धन्य अनगार भगवान् महावीर से अनुज्ञात होकर यावत् हर्षित एवं तुष्ट होकर जीवन पर्यन्त निरन्तर षष्ठ तप से अपने आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे । विवेचन — इस सूत्र में धन्य अनगार की आहार और शरीर विषयक अनासक्ति का तथा रसनेन्द्रियसंयम का विशेष रूप से प्रतिपादन किया गया है। वे दीक्षा प्राप्त कर इस प्रकार धर्म में तल्लीन हो गये कि दीक्षा के दिन से उनकी प्रवृत्ति उग्र तप करने की ओर हो गई। उसी दिन निर्णय कर उन्होंने भगवान् से निवेदन किया – भगवन् ! मैं आपकी आज्ञा से जीवन भर षष्ठ (बेले) तप का आयंबिल पूर्वक पारणा करूँ। उनकी इस तरह की धर्मरुचि

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