Book Title: Agam 09 Ang 09 Anuttaropapatik Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 60
________________ ततीय वर्ग के सदृश इस प्रकार कहने लगी "हे पुत्र ! तू मुझे इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ, मनाम (मनगमता), आधारभूत, विश्वासपात्र, सम्मत, बहुमत, अनुमत, आभूषणों की पेटी के तुल्य, रत्नस्वरूप, रत्नतुल्य, जीवित के उच्छ्वास के समान और हृदय को आनन्ददायक एक ही पुत्र है। उदुम्बर (गूलर) के पुष्प के समान तेरा नाम सुनना भी दुर्लभ है, तो तेरा दर्शन दुर्लभ हो इसमें तो कहना ही क्या ? अतः हे पुत्र ! तेरा वियोग मुझसे एक क्षण भी सहन नहीं हो सकता। इसलिए जब तक हम जीवित हैं तब तक घर ही रह कर कुल वंश की अभिवृद्धि कर । जब हम कालधर्म को प्राप्त हो जाएँ और तुम्हारी उम्र परिपक्व हो जाय तब, कुल वंश की वृद्धि करके तुम निरपेक्ष होकर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पास मुण्डित होकर अनगार धर्म को स्वीकार करना।" तब धन्यकुमार ने अपने माता-पिता से इस प्रकार कहा "हे माता-पिता ! अभी आपने जो कहा कि हे पुत्र ! तू हमें इष्ट, कान्त, प्रिय आदि है यावत् हमारे कालगत होने पर तू दीक्षा अंगीकार करना इत्यादि। परन्तु हे माता-पिता ! यह मनुष्य जीवन जन्म, मरण, रोग, व्याधि, अनेक शारीरिक और मानसिक दुःखों की अत्यन्त वेदना से और सैंकड़ों व्यसनों (कष्टों) से पीड़ित है। यह अध्रुव अनित्य और अशाश्वत है । सन्ध्याकालीन रंगों के समान, पानी के परपोटे (बुदबुदे) के समान, कुशाग्र पर रहे हुए जल-बिन्दु के समान, स्वप्न-दर्शन के समान तथा बिजली की चमक के समान चंचल और अनित्य है। सड़ना, पड़ना, गलना और विनष्ट होना इसका धर्म (स्वभाव) है। पहले या पीछे एक दिन अवश्य ही छोड़ना पड़ता है; तो हे माता-पिता ! इस बात का निर्णय कौन कर सकता है कि हममें से कौन पहले जायगा (मरेगा) और कौन पीछे जायगा ? इसलिए हे माता-पिता ! आप मुझे आज्ञा दीजिये। आपकी आज्ञा होने पर मैं श्रमण भगवान् महावीर के पास प्रव्रज्या अंगीकार करना चाहता हूँ।" जब धन्यकुमार की माता भद्रा सार्थवाही उसे समझाने-बुझाने में समर्थ नहीं हुई, तब उसने धन्यकुमार को प्रव्रज्या लेने की आज्ञा दे दी। जिस प्रकार थावच्चापुत्र की माता ने कृष्ण से छत्र चामरादि की याचना की, उसी प्रकार भद्रा ने भी जितशत्र राजा से छत्र चामर आदि की याचना की, तब जितशत्रु राजा ने भद्रा सार्थवाही से कहा-'देवानप्रिये! तुम निश्चिन्त रहो। मैं स्वयं धन्यकुमार का दीक्षा-सत्कार करूँगा। तत्पश्चात् जितशत्रु राजा ने स्वयं ही धन्यकुमार का दीक्षा-सत्कार किया। जिस प्रकार कृष्ण ने थावच्चापुत्र का दीक्षामहोत्सव सम्पन्न किया था। तत्पश्चात् धन्यकुमार ने स्वयं ही पंचमुष्टिक लोच किया यावत् प्रव्रज्या अंगीकार की। धन्यकुमार भी प्रव्रजित होकर अनगार हो गया। ईर्या-समिति, भाषा-समिति से युक्त यावत् गुप्तब्रह्मचारी हो गया। विवेचन इस सूत्र में धन्यकुमार को किस प्रकार वैराग्य उत्पन्न हुआ, इस विषय का वर्णन किया गया है। जब श्रमण भगवान् महावीर स्वामी काकन्दी नगरी में पधारे तो नगर की परिषद् के साथ धन्यकुमार भी उनके दर्शन करने और उनसे उपदेशामृत पान करने के लिए उनकी सेवा में उपस्थित हुआ। उपदेश का धन्यकुमार पर ऐसा प्रभाव पड़ा कि वह तत्काल ही सम्पूर्ण सांसारिक भोग-विलासों को ठोकर मार कर अनगार बन गया। इस सूत्र में हमें चार उदाहरण मिलते हैं। उनमें से दो धन्यकुमार के विषय में हैं और शेष दो में से एक जितशत्र राजा का कोणिक राजा से तथा चौथा दीक्षा-महोत्सव का कृष्ण वासुदेव द्वारा किये हुए थावच्चापुत्र के दीक्षा-महोत्सव से हैं। ये सब 'औपपातिकसूत्र', 'भगवतीसूत्र' तथा 'ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्र' से लिए गए हैं। इन सब का उक्त सूत्रों में विस्तृत वर्णन मिलता है। अतः जिज्ञासु को इन आगमों का एक बार अवश्य स्वाध्याय करना चाहिए। ये सब आगम ऐतिहासिक दृष्टि से भी अत्यन्त उपयोगी हैं। यहाँ उक्त वर्णनों को दोहराने की आवश्यकता

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