Book Title: Agam 09 Ang 09 Anuttaropapatik Sutra Stahanakvasi Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana Publisher: Agam Prakashan SamitiPage 43
________________ अनुत्तरोपपातिकदशा किच्चा उद्रं चन्दिमसोहम्मीसाण जाव ["सणंकुमार-माहिंद-बंभ-लंतग-महासुक्क-सहस्साराणयपाणयारणच्चुए कप्पे नवगेवेजयविमाणपत्थडे उड्ढे दूरं वीईवइत्ता"] विजय-विमाणे देवत्ताए उववण्णे। तए णं थेरा भगवंता जालिं अणगारं कालगयं जाणित्ता परिणिव्वाणवत्तियं काउस्सग्गं करेंति, करित्ता पत्तचीवराइं गेण्हंति। तहेव उत्तरंति जाव[जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छंति, समणं भगवं महावीरं वंदंति नमसंति, वंदित्ता नमसइत्ता एवं वयासी एवं खलु देवाणुप्पियाणं अतेवासी जाली नामं अणगारे पगइभदए पगइविणीए पगइउवसंते पगइपयणुकोह-माण-माया-लोभे मिउमद्दवसंपन्ने अल्लीणे भद्दए विणीए।से णं देवाणुप्पिएहि अब्भणुण्णाए समाणे सयमेव पंच महव्वयाणि आरोवित्ता, समणा य समणीओ य खामेत्ता, अम्हेहिं सद्धिं विपुलं पव्वयं तं चेव निरवसेसं जाव आणुपुव्वीए कालगए,] इमे य से आयारभंडए। "भंते"! त्ति भगवं गोयमे जाव["समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता"] एवं वयासी भगवान् महावीर राजगृह नगरी में पधारे । राजा श्रेणिक यह जानकर भगवान् के दर्शन करने के लिए चला। जाली कमार ने भी मेघ कमार की तरह भगवान के दर्शन करने के लिए प्रस्थान किया। दर्शन करने के पश्चात् मेघ कुमार की तरह जाली कुमार ने भी माता-पिता की अनुमति लेकर प्रव्रज्या स्वीकार कर ली। स्थविरों की सेवा में रह कर ग्यारह अंगों का अध्ययन किया। उसने स्कन्दक मुनि की तरह गुणरत्नसंवत्सर नामक तप किया। इस प्रकार चिन्तना तथा आपृच्छना के संबंध में जो वक्तव्यता (वर्णन) भगवतीसूत्र में है, वही वक्तव्यता जाली कुमार के सम्बन्ध में भी समझनी चाहिए। वह स्थविरों के साथ विपुलगिरि पर गया। विशेष यह है कि सोलह वर्षों तक जाली कुमार ने श्रमण पर्याय का पालन किया। आयुष्य के अन्त में मरण प्राप्त करके वह ऊर्ध्वगमन करके चन्द्र सौधर्म ईशान (यावत् सनत्कुमार माहेन्द्र ब्रह्मलोक लान्तक महाशुक्र सहस्रार आनत प्राणत आरण और अच्युत कल्पों को और नवग्रैवेयक विमानों को लांघकर) विजय नामक अनुत्तर विमान में देवरूप से उत्पन्न हुआ। उस समय भगवन्त स्थविरों ने जाली अनगार को दिवंगत जानकर उनका परिनिर्वाणनिमित्तक कायोत्सर्ग किया। इसके पश्चात् उन्होंने (स्थविरों ने) जाली अनगार के पात्र एवं चीवरों को ग्रहण किया और फिर विपुलगिरि से नीचे उतर आये। (यावत् उतरकर जहाँ श्रमण भगवान् महावीर विराजे हुए थे वहाँ आये। भगवान् को वन्दनानमस्कार करके उन स्थविर भगवन्तों ने इस प्रकार कहा- भगवन् ! आपके शिष्य जाली अनगार, जो कि प्रकृति से भद्र, विनयी, शान्त, अल्प क्रोध-मान-माया-लोभवाले, कोमलता और नम्रता के गुणों से युक्त, इन्द्रियों को वश में रखने वाले, भद्र और विनीत थे, वे आपकी आज्ञा लेकर स्वयमेव पाँच महाव्रतों का आरोपण करके साधुसाध्वियों को खमा कर हमारे साथ विपुल पर्वत पर गये थे यावत् वे संथारा करके कालधर्म को प्राप्त हो गये हैं।) ये उनके उपकरण (वस्त्र, पात्र) हैं। इसके बाद गौतमस्वामी ने श्रमण भगवान् महावीर को वन्दना-नमस्कार करके इस प्रकार पूछा५ – “एवं खलु देवाणुप्पियाणं अन्तेवासी जाली नामं अणगारे पगइभहए।सेणं जाली अणगारेPage Navigation
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