Book Title: Agam 09 Ang 09 Anuttaropapatik Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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विक्रम पूर्व दूसरी शताब्दी माना है। बौद्ध दीक्षा का उल्लेख'थेराअपदान' व अट्ठकथा में है। पिटक साहित्य में थेराअपदान की रचना सबसे बाद की मानी जाती है और अट्ठकथा तो उससे भी बाद की रचना है। ८३ अतः अभय का जैनधर्मी होना ही अधिक तर्कसंगत व प्रमाण पुरस्सर है।
प्रस्तुत आगम के प्रथम वर्ग के दश अध्ययनों में से सातवाँ अध्ययन लष्टदन्त राजकुमार का है और द्वितीय वर्ग में भी तीसरा अध्ययन लष्टदन्त राजकुमार का है। दोनों की माता धारिणी और पिता श्रेणिक सम्राट् है। इसकी संगति क्या है ? यह अन्वेषणीय है। सम्भव है लष्टदन्त नाम के दो राजकुमार रहे हों, एक प्रथम और एक द्वितीय। महासती मुक्तिप्रभाजी ने टिप्पण में इस सम्बन्ध में विचार किया है।
तृतीय वर्ग में धन्यकुमार, सुनक्षत्रकुमार, ऋषिदास, पेल्लक, रामपुत्र, चन्द्रिक, पृष्टिमात्रिक, पेढालपुत्र, पोट्टिल्ल और वेहल्ल इन दश कुमारों का वर्णन है।
धन्यकुमार काकन्दी की भद्रा सार्थवाही के पुत्र थे। चारों ओर वैभव अठखेलियाँ कर रहा था। किन्तु भगवान् महावीर के त्याग-वैराग्य से छलछलाते हुए पावन प्रवचनों को श्रवण कर संयम के कठोर-मार्ग पर एक वीर सेनानी की भाँति बढ़ते हैं। उनके तपोमय जीवन का अद्भुत वर्णन इसमें किया गया है। धन्य अनगार के तपवर्णन को पढ़कर किस का सिर श्रद्धा से नत नहीं होगा ! मज्झिमनिकाय के महासिंहनादसुत्त ४ में तथागत बुद्ध ने अपने किसी एक पूर्वभव में इस प्रकार की उत्कृष्ट तप:साधना की थी। बुद्ध ने छह वर्ष तक जो तप तपा था वह भी कुछ इस तरह से मिलता-जुलता है। कविकुलगुरु कालिदास ने भी कुमारसम्भव ५ में पार्वती के उग्र तप का सजीव वर्णन किया है। उन सभी वर्णनों को पढ़ने के पश्चात् जब हम धन्यकुमार के वर्णन को पढ़ते हैं तो ऐसा स्पष्ट लगता है कि धन्यकुमार का वर्णन अधिक सजीव है। उन्होंने जीवनभर छ?-छ? तप करने की प्रतिज्ञा की थी। पारणे में केवल आचाम्ल व्रत के रूप में रूक्ष भोजन ग्रहण करते थे। कोई गृहस्थ जिस अन्न को बाहर फेंकने के लिए प्रस्तुत होता उसे लेकर २१ बार पानी से धोकर वे उसे ग्रहण करते और उसी पानी का उपयोग करते। तप से उनका शरीर अस्थिपंजर हो गया था। देखिये उनके तप का आलंकारिक वर्णन-जिसमें व्यावहारिक उपमाओं का प्रयोग हुआ है और वर्ण्य विषय में सजीवता आ गई है। उनके प्रस्तुत कथन में पर्याप्त सार्थकता के दर्शन होते हैं—'अक्खसुत्तमाला विवगणेज्जमाणेहिं पिट्टिकरंडगसंधीहि, गंगातरंगभूएणं उरकडगदेसभाएणं, सुकसप्पसमाणेहि बाहाहिं, सिढिलकडाली-विव लंबंतेहि य अग्गहत्थेहिं, कंपमाणवाइए विव वेवमाणीए सीसघडीए' अर्थात् 'तपस्वी धन्य मुनि की पीठ की हड्डियाँ अक्षमाला की भांति एक-एक गिनी जा सकती थीं. वक्षःस्थल की हडियां गंगा की लहरों के समान अलग-अलग दिखलाई पडती थीं। भजायें सूखे हुए सांप की तरह कृश हो गई थीं। हाथ घोड़े के मुँह बाँधने के तोबरे के समान शिथिल होकर लटक गये थे और सिर वातरोगी के सिर की भाँति काँपता रहता था।'
इस तरह इसमें अनेक उपमाएँ और दृष्टान्त भरे पड़े हैं।
कितने ही लोगों का मानना है कि आगम-साहित्य नीरस है। आगमों की कथाएँ एक-सी शैली, वर्ण्यविषय की समानता तथा कल्पना और कलात्मकता के अभाव में पाठकों को मुग्ध नहीं करती हैं। उनमें अतिप्राकृतिक तत्त्वों की भरमार है। पर उनका यह मानना पूर्ण रूप से उचित नहीं है। उसमें आंशिक सच्चाई हो सकती है। ऊपर-ऊपर से आगम को पढ़ने के कारण ही उनमें यह धारणा पैदा हुई हो, पर जब हम गहराई में अवगाहन करते हैं तो उन कथाओं से नूतन-नूतन तथ्य उपाटित होते हैं। भारतीय संस्कृति की संरचना और भारतीय प्राच्य विद्याओं के विकसन में उनका अपूर्व योगदान रहा। ८१. आगमयुग का जैनदर्शन, पृ. २८, प्रकाशक-सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा ८२. थेराअपदान : भद्दियवगो, अभयत्थेरअपदानं ८३. खुदकनिकाय खण्ड ७, नालन्दा, भिक्षु जगदीश काश्यप ८४. बोधिराजकुमारसुत्त, दीर्घनिकाय कस्सपसिंहनादसुत्त ८५. कुमारसम्भव सर्ग - पार्वतीप्रकरण
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