Book Title: Agam 09 Ang 09 Anuttaropapatik Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 31
________________ प्रस्तुत आगम की भाषा और विषय अत्यधिक सरल होने के कारण उस पर न नियुक्तियाँ लिखी गयीं, न भाष्य लिखा गया और न चूर्णियाँ ही। सर्वप्रथम आचार्य अभयदेव ने ही इस पर संस्कृत भाषा में वृत्ति लिखी है, जो शब्दार्थप्रधान और सूत्रस्पर्शी है, वृत्ति का ग्रन्थमान १९२ श्लोक प्रमाण है। वह वृत्ति सन् १९२० में आगमोदय समिति सूरत से प्रकाशित हुई और उसके पूर्व सन् १८७५ में कलकत्ता से धनपतसिंह ने प्रकाशित की थी। इस आगम का अंग्रेजी अनुवाद १९०७ में, L.D. Bar Nett से प्रकाशित हुआ है। पी. एल. वैद्य ने प्रस्तावना के साथ सन् १९३२ में इसका प्रकाशन करवाया। सन् १९२१ में इसका केवल मूलपाठ आत्मानन्द सभा भावनगर से प्रकाशित हुआ है। विक्रम संवत् १९९० में भावनगर से ही अभयदेववृत्ति के साथ गुजराती अनुवाद का एक संस्करण निकला। वीर संवत् २४४६ में आचार्य अमोलकऋषि ने हिन्दी में बत्तीस आगमों के प्रकाशन के साथ इसका भी प्रकाशन करवाया था। १९४० में गोपालदास जीवाभाई पटेल ने जैन साहित्य प्रकाशन समिति अहमदाबाद से और श्रमणी विद्यापीठ घाटकोपर, बम्बई से इसके मूल के साथ गुजराती अनुवाद प्रकाशित हुए हैं। आचार्य श्री घासीलालजी म. ने संस्कृत टीका के साथ हिन्दी और गुजराती अनुवाद सन् १९५९ में जैन शास्त्रोद्धार समिति, राजकोट (सौराष्ट्र) से प्रकाशित करवाया। आचार्य श्री आत्मारामजी म. ने विवेचन युक्त एक शानदार संस्करण 'जैन शास्त्रमाला कार्यालय, लाहौर' से सन् १९३६ में प्रकाशित किया है। श्री विजयमुनि शास्त्री ने मूल हिन्दी टिप्पण व वृत्ति के साथ सम्पादित कर एक मनमोहक संस्करण प्रकाशित किया है। इस प्रकार आज तक अनुत्तरौपपातिकदशा के अनेक संस्करण प्रकाशित हुए हैं जिनकी अपनी महत्ता है। प्रस्तुत संस्करण अनुत्तरौपपातिकदशा का एक अभिनव संस्करण है। इसमें शुद्ध मूलपाठ है, अर्थ तथा संक्षेप में विवेचन भी है, जो आगम के मूलभाव को स्पष्ट करता है। परिशिष्ट में टिप्पण दिये गये हैं जो बहुत ही सम्पूर्ण हैं। पारिभाषिकशब्दकोष, अव्ययपद, क्रियापद, शब्दार्थ देने से आगम के गुरुगंभीर रहस्य सहज रूप से समझे जा सकते हैं। परमविदुषी साध्वीरत्न स्वर्गीया महासती श्री उज्वलकुमारीजी के नाम से जैन समाज भलीभांति परिचित है। उन्हीं की सुशिष्या हैं धर्मभगिनी साध्वी मुक्तिप्रभाजी। गुरुणी की तरह उनमें भी प्रतिभा है। उनके द्वारा सम्पादित प्रस्तुत आगम में उनकी प्रतिभा यत्र-तत्र प्रस्फुटित हुई है। इस संस्करण की अपनी एक विशिष्टता है। इसमें परमादरणीय युवाचार्य श्री मधुकरमुनिजी की मधुर परिकल्पना को मूर्तरूप देने का सफल प्रयास किया गया है। बहिन मुक्तिप्रभाजी का यह प्रथम प्रयास प्रशंसनीय है। इसमें विद्वद्वरेण्य कलमकलाधर श्री शोभाचन्द्रजी भारिल्ल का प्रकाण्ड पाण्डित्य भी स्पष्ट रूप से प्रतिबिम्बित हुआ है। श्रमण-संघ के मनीषी मूर्धन्य मुनिगणों की वर्षों से यह परिकल्पना थी कि आगम के गुरुगंभीर रहस्यों को युगानुकूल सरल-सरस भाषा में प्रस्तुत किया जाय। आगम-बत्तीसी को शानदार रूप से प्रकाशित किया जाए, जिससे शोधार्थियों को और आत्मार्थियों को लाभ हो। मेरे परम श्रद्धेय गुरुदेव उपाध्याय श्री पुष्करमुनिजी म., जो युवाचार्य श्री मधुकरमुनिजी के अभिन्न साथी हैं, समय-समय पर मुझे प्रेरणा प्रदान करते रहे हैं। जब युवाचार्यश्री ने इस भगीरथ कार्य को सम्पन्न करने का दृढ़ संकल्प किया तो गुरुदेवश्री को हार्दिक आह्लाद हुआ। श्रमणसंघ के सन्त व सतीवृन्द तथा विज्ञों के अपूर्व सहयोग से यह कार्य युवाचार्यश्री के कुशल निर्देशन से आगे बढ़ रहा है। मुझे आशा ही नहीं अपितु दृढ़ विश्वास है कि युवाचार्यश्री का यह प्रशस्त श्रुतसेवा का कार्य युग-युग तक उन्हें यशस्वी बनाएगा। प्रस्तुत अनुत्तरौपपातिकदशा आगम-माला की एक सुन्दर बहुमूल्य मणि है जो भूले-भटके मानवों को दिव्य आलोक प्रदान करेगी। भौतिकवाद के स्थान पर अध्यात्मवाद की प्रतिष्ठा करेगी। पूर्व प्रकाशित आचारांग, उपासकदशा और ज्ञाताधर्मकथा की भाँति यह आगम भी जन-जन के मन को लुभायेगा, विद्वानों एवं सर्वसाधारण जिज्ञासुजनों में समुचित प्रतिष्ठा प्राप्त करेगा, यही मंगल कामना है। जैन स्थानक -देवेन्द्रमुनि शास्त्री नीमच सिटी(मध्यप्रदेश) दि० २०-३-१९८१ [२८]

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