Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[१७] अनुलोमलिपि [१८] ऊर्ध्वधनुर्लिपि [१९] दरदलिपि [२०] खास्यलिपि [२१] चीनलिपि [२२] हुलिपि [२३] मध्याक्षर विस्तर लिपि [२४] पुष्पलिपि [२५] देवलिपि [२६] नागलिपि [२७] यक्षलिपि [२८] गंधर्वलिपि [२९] किन्नरलिपि [३०] महोरगलिपि [३१] असुरलिपि [३२] गरुडलिपि [३३] मृगचक्रलिपि [३४] चक्रलिपि [३५] वायुमरुलिपि [३६] भौवदेवलिपि [३७] अंतरिक्षदेवलिपि [३८] उत्तरकुरुद्वीपलिपि [३९] अपदगौडादिलिपि [४०] पूर्वविदेहलिपि [४१] उत्क्षेपलिपि [४२] निक्षेपलिपि [४३] विक्षेपलिपि [४४] प्रक्षेपलिपि [ ४५] सागरलिपि [ ४६] वज्रलिपि [ ४७ ] लेखप्रतिलेखलिपि [४८] अनुद्रतलिपि [४९] शास्त्रापर्त्तलिपि [५० ] गणावर्त्तलिपि [५१] उत्क्षेपावर्त्तलिपि [५२] विक्षेपावर्त्तलिपि [ ५३ ] पादलिखितलिपि [ ५४ ] द्विरुत्तरपदसंधिलिखितलिपि [५५] दशोत्तरपदसंधिलिखितलिपि [ ५६ ] अध्याहारिणीलिपि [ ५७ ] सर्वरुत्संग्रहिणीलिपि [ ५८ ] विद्यानुलोमलिपि [ ५९ ] विमिश्रितलिपि [६०] ऋषितपस्तप्तलिपि [६१] धरणीप्रेक्षणलिपि [ ६२] सर्वोषधनिस्यंदलिपि [ ६३ ] सर्वसारसंग्रहणलिपि [ ६४ ] सर्वभूतरुद्रग्रहणी लिपि ।
इन लिपियों के सम्बन्ध में आगमप्रभाकर पुण्यविजयजी म. ' का यह अभिमत था कि इनमें अनेकों नाम कल्पित हैं । इन लिपियों के सम्बन्ध में अभी तक कोई प्राचीन शिलालेख भी उपलब्ध नहीं हुआ है, इससे भी यह प्रतीत होता है कि ये सभी लिपियाँ प्राचीन समय में ही लुप्त हो गईं। या इन लिपियों का स्थान ब्राह्मीलिपि ने ले लिया होगा। मेरी दृष्टि से अठारह देशीय भाषा और लिपियाँ ये दोनों पृथक्-पृथक् होनी चाहिए । भरत के नाट्यशास्त्र में सात भाषाओं का उल्लेख मिलता है— मागधी, आवन्ती, प्राच्या, शौरसेनी, बहिहका, दक्षिणात्य और अर्धमागधी। जिनदासगणिमहत्तर ने निशीथचूर्णि में मगध, मालवा, महाराष्ट्र, लाट, कर्नाटक, द्रविड, गौड, विदर्भ इन आठ देशों की भाषाओं को देशी भाषा कहा है। 'बृहत्कल्पभाष्य' में आचार्य संघदासगण' ने भी इन्हीं भाषाओं का उल्लेख किया है। 'कुवलयमाला में उद्योतनसूरि ने गोल्ल, मध्यप्रदेश, मगध, अन्तर्वेदि, कीर, ढक्क, सिन्धु, मरू गुर्जर, लाट, मालवा, कर्नाटक, ताइय (ताजिक) कोशल, मरहट्ट और आंध्र इन सोलह भाषाओं का उल्लेख किया है। साथ ही सोलह गाथाओं में उन भाषाओं के उदाहरण भी प्रस्तुत किये हैं। डा. ए. मास्टर' का सुझाव है कि इन सोलह भाषाओं में औड्र और द्राविडी भाषाएँ मिला देने से अठारह भाषाएँ, जो देशी हैं, हो जाती हैं।
प्रथम अध्ययन के अध्ययन से महावीरयुगीन समाज और संस्कृति पर भी विशेष प्रकाश पड़ता है। उस समय की, भवन निर्माणकला, माता- पिता-पुत्र आदि के पारिवारिक सम्बन्ध, विवाहप्रथा, बहुपत्नीप्रथा, दहेज प्रसाधन, आमोद-प्रमोद, रोग और चिकित्सा, धनुर्विद्या, चित्र और स्थापत्यकला, आभूषण, वस्त्र, शिक्षा और विद्याभ्यास तथा शासनव्यवस्था आदि अनेक प्रकार की सांस्कृतिक सामग्री भी इसमें भरी पड़ी हैं।
द्वितीय अध्ययन में एक कथा है- धन्ना राजगृह का एक लब्धप्रतिष्ठ श्रेष्ठी था । चिर प्रतीक्षा के पश्चात् उसको एक पुत्र प्राप्त होता है। श्रेष्ठी ने पंथक नाम के एक सेवक को उसकी सेवा में नियुक्त किया । राजगृह के बाहर एक भयानक खंडहर में विजय चोर रहता था । वह तस्कर विद्या में निपुण था। पंथक की दृष्टि
१. 'भारतीय जैन श्रमण संस्कृति अने लेखनकला' पृ. ५ २. भरत ३-१७-४८ ३. निशीथचूर्णि
४. बृहत्कल्पभाष्य - १, १२३१ की वृत्ति
५. 'कुवलयमाला का सांस्कृतिक अध्ययन' पृ. २५३-५८
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६. A. Master - B. SOAS XIII-2, 1950. PP. 41315