Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
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के रूप में एक होने पर भी भिन्न-भिन्न प्रकार का प्रतीत होता है । ज्ञान-पिण्डस्वरूप सर्वत्र एक ही आत्मा है। वही मनुष्य, पशु, पक्षी तथा वृक्ष आदि में अनेक रूपों में परिलक्षित होता है। मूलकार ने इसका कोई नामोल्लेख नहीं किया । नियुक्तिकार भद्रबाहु ने इसे 'एकात्मवाद' कहा है। टीकाकार आचार्य शीलांक ने इसे 'एकात्म-अद्व तवाद' कहा है।
नियतिवाद कुछ लोगों की यह मान्यता थी कि भिन्न-भिन्न जीव जो सुख और दुःख का अनुभव करते हैं, यथाप्रसंग व्यक्तियों का जो उत्थान-पतन होता है, यह सब जीव के अपने पुरुषार्थ के कारण नहीं होता। इन सबका करने वाला जब जीव स्वयं नहीं है, तब दूसरा कोन हो सकता है ? इन सबका मूल कारण नियति है । जहाँ पर, जिस प्रकार तथा जैसा होने का समय आता है, वहाँ पर, उस प्रकार और वैसा ही होकर रहता है। उसमें व्यक्ति के पुरुषार्थ, काल अथवा कर्म आदि कुछ भी परिवर्तन नहीं कर सकते । जगत् में सब कुछ नियत है, अनियत कुछ भी नहीं । सूत्रकृतांग सूत्र के द्वितीय श्रुतस्कंध में इस वाद के सम्बन्ध में इस प्रकार कहा गया हैकुछ श्रमण तथा ब्राह्मण कहते हैं कि जो लोग क्रियावाद की स्थापना करते हैं और जो लोग अक्रियावाद की स्थापना करते हैं, वे दोनों ही नियतिवादी हैं। क्योंकि नियतिवाद के अनुसार क्रिया तथा अक्रिया दोनों का कारण नियति है। इस नियतिवाद के सम्बन्ध में मूलकार, नियुक्तिकार तथा टीकाकार सभी एकमत हैं, वे तीनों इसे नियतिवाद कहते हैं। भगवान् महावीर के युग में गोशालक का भी यही मत था, जिसका उल्लेख भगवती सूत्र आदि अन्य आगमों में भी उपलब्ध होता है । निश्चय ही यह नियतिवाद गोशालक से भी पूर्व का रहा होगा। पर गोशालक ने इस सिद्धान्त को अपने मत का आधार बनाया था । सूत्रकृतांग सूत्र में इसी प्रकार के अन्य मत-मतान्तरों का भी उल्लेख है। जैसे क्रियावाद, अक्रियावाद, विनयवाद, अज्ञानवाद, वेदवाद, हिंसावाद, हस्तितापसवाद आदि अनेक मतों का सूत्रकृतांग सूत्र में संक्षेप रूप में और कहीं पर विस्तार रूप में उल्लेख हुआ है। परन्तु नियुक्तिकार भद्रबाहु ने इसे विस्तार दिया तथा टीकाकार आचार्य शीलांक ने मत-मतान्तरों की मान्यताओं का नाम लेकर उल्लेख किया है। आचार्य शीलांक का यह प्रयास दार्शनिक क्षेत्र में बहुत ही महत्त्वपूर्ण माना जाता है ।
आचारांग और सूत्रकृतांग एकादश अंगों में आचारांग प्रथम अंग है, जिसमें आचार का प्रधानता से वर्णन किया गया है । श्रमणाचार का यह मूलभूत आगम है । आचारांग सूत्र दो श्रुतस्कन्धों में विभक्त है-प्रथम श्रुतस्कंध तथा द्वितीय श्रुतस्कंध । नियुक्तिकार आचार्य भद्रबाहु ने आचारांग के प्रथम श्रुतस्कंध को ब्रह्मचर्य अध्ययन कहा है। यहाँ ब्रह्मचर्य का अर्थ
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