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RST
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CELL શ્રેય જીર્ણોદ્ધાર
-: સંયોજક :શ્રી આશાપૂરણ પાર્શ્વનાથ જૈન જ્ઞાનભંડાર શા. વિમળાબેન સરેમલ જવેરચંદજી બેડાવાળા ભવના હીરાજૈન સોસાયટી, સાબરમતી, અમદાવાદ-૩૮૦૦૦૫.
મો. ૯૪૨૬૫ ૮૫૯૦૪ (ઓ.) ૦૭૯-૨૨૧૩૨૫૪૩
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“અહો શ્રુતજ્ઞાન” ગ્રંથ જીર્ણોધ્ધાર ૧૦૨
શબ્દરનાકર
: દ્રવ્ય સહાયક:
પૂજ્ય આચાર્ય શ્રી કલાપૂર્ણસૂરિજી મ.સા.ના શિષ્ય પૂ. ગચ્છા. આ. શ્રી કલાપ્રભસૂરીશ્વરજી મ.સા.ના આજ્ઞાવર્તિની પૂ. સાધ્વીજી શ્રી સુર્યયશાશ્રીજી મ.સા. ની પ્રેરણાથી
શ્રી રૂક્ષ્મણીબેન ઉપાશ્રય, સાબરમતી શ્રાવિકા ઉપાશ્રયના જ્ઞાનખાતાની ઉપજમાંથી
: સંયોજક :
શાહ બાબુલાલ સરેમલ બેડાવાળા
શ્રી આશાપૂરણ પાર્શ્વનાથ જૈન જ્ઞાન ભંડાર શા. વીમળાબેન સરેમલ જવેરચંદજી બેડાવાળા ભવન હીરાજૈન સોસાયટી, સાબરમતી, અમદાવાદ-380005
(મો.) 9426585904 (ઓ.) 22132543 સંવત ૨૦૬૭ ઈ.સ. ૨૦૧૧
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"Aho Shrut Gyanam"
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પૃષ્ઠ
238
286
54
007
810
850
322
280
162
302
અહો શ્રુતજ્ઞાનમ ગ્રંથ જીર્ણોદ્ધાર- સંવત ૨૦૬૫ (ઈ. ૨૦૦૯- સેટ નં-૧ ક્રમાંક પુસ્તકનું નામ
કર્તા-ટીકાકાસંપાદક 001 | श्री नंदीसूत्र अवचूरी
पू. विक्रमसूरिजीम.सा. 002 | श्री उत्तराध्ययन सूत्र चूर्णी
पू. जिनदासगणिचूर्णीकार । | 003 श्री अर्हद्रीता-भगवद्गीता
पू. मेघविजयजी गणिम.सा. 004 श्री अर्हच्चूडामणिसारसटीकः
पू. भद्रबाहुस्वामीम.सा. 005 | श्री यूक्ति प्रकाशसूत्रं
| पू. पद्मसागरजी गणिम.सा. 006 | श्री मानतुङ्गशास्त्रम्
| पू. मानतुंगविजयजीम.सा. अपराजितपृच्छा
| श्री बी. भट्टाचार्य 008 शिल्पस्मृति वास्तु विद्यायाम्
| श्री नंदलाल चुनिलालसोमपुरा 009 शिल्परत्नम्भाग-१
| श्रीकुमार के. सभात्सवशास्त्री 010 | शिल्परत्नम्भाग-२
| श्रीकुमार के. सभात्सवशास्त्री 011 प्रासादतिलक
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई 012 | काश्यशिल्पम्
श्री विनायक गणेश आपटे 013 प्रासादमञ्जरी
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई 014 | राजवल्लभ याने शिल्पशास्त्र
श्री नारायण भारतीगोसाई 015 शिल्पदीपक
| श्री गंगाधरजी प्रणीत | वास्तुसार
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई 017 दीपार्णव उत्तरार्ध
| श्री प्रभाशंकर ओघडभाई જિનપ્રાસાદમાર્તડ
શ્રી નંદલાલ ચુનીલાલ સોમપુરા | जैन ग्रंथावली
| श्री जैन श्वेताम्बरकोन्फ्रन्स 020 હીરકલશ જૈનજ્યોતિષ
શ્રી હિમ્મતરામમહાશંકર જાની न्यायप्रवेशः भाग-१
| श्री आनंदशंकर बी.ध्रुव 022 | दीपार्णवपूर्वार्ध
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई 023 अनेकान्तजयपताकाख्यं भाग
पू. मुनिचंद्रसूरिजीम.सा. | अनेकान्तजयपताकाख्यं भाग२
| श्री एच. आर. कापडीआ 025 | प्राकृतव्याकरणभाषांतर सह
श्री बेचरदास जीवराजदोशी तत्पोपप्लवसिंहः
| श्री जयराशी भट्ट बी. भट्टाचार्य | 027 शक्तिवादादर्शः
श्री सुदर्शनाचार्यशास्त्री
156
352
120
88
110
018
498
019
502
454
021
226
640
452
024
500
454 188
026
214
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028
414
192
824
288
520
578
278
252
324
302
038
196
190
202
| क्षीरार्णव
| श्री प्रभाशंकर ओघडभाई 029 वेधवास्तुप्रभाकर
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई | 030 શિલ્પપત્રીવાર
| श्री नर्मदाशंकरशास्त्री 031. प्रासाद मंडन
पं. भगवानदास जैन 032 | શ્રી સિદ્ધહેમ વૃત્તિ વૃતિ અધ્યાય પૂ. ભવિષ્યમૂરિનમ.સા. 033 श्री सिद्धहेम बृहद्वृत्ति बृहन्न्यास अध्यायर पू. लावण्यसूरिजीम.सा. 034 | શ્રીસિમ વૃત્તિ ચૂક્યાસ અધ્યાય છે પૂ. ભાવસૂરિનીમ.સા. 035 | શ્રસિહમ વૃત્તિ ચૂદાન અધ્યાય (ર) (૩) પૂ. ભવિષ્યમૂરિનીમ.સા. 036 | श्री सिद्धहेम बृहद्वृति बृहन्न्यास अध्याय५ पू. लावण्यसूरिजीम.सा. | 037 વાસ્તુનિઘંટુ
પ્રભાશંકર ઓઘડભાઈ સોમપુરા તિલકમન્નરી ભાગ-૧
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી 039 | તિલકમન્નરી ભાગ-૨
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી 040 તિલકમઝરી ભાગ-૩
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી સપ્તસન્ધાન મહાકાવ્યમ
પૂ. વિજયઅમૃતસૂરિશ્વરજી 042 સપ્તભીમિમાંસા
પૂ. પં. શિવાનન્દવિજયજી ન્યાયાવતાર
સતિષચંદ્ર વિદ્યાભૂષણ વ્યુત્પત્તિવાદ ગુઢાર્થતત્ત્વાલોક
શ્રી ધર્મદત્તસૂરિ (બચ્છા ઝા) 045 | સામાન્ય નિયુક્તિ ગુઢાર્થતત્ત્વાલોક શ્રી ધર્મદત્તસૂરિ (બચ્છા ઝા) 046 | સપ્તભળીનયપ્રદીપ બાલબોધિનીવિવૃત્તિઃ
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી 047 વ્યુત્પત્તિવાદ શાસ્ત્રાર્થકલા ટીકા
શ્રીવેણીમાધવ શાસ્ત્રી 048 | નયોપદેશ ભાગ-૧ તરકિણીતરણી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી નયોપદેશ ભાગ-૨ તરકિણીતરણી
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી 050 ન્યાયસમુચ્ચય
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી 051 સ્યાદ્યાર્થપ્રકાશઃ
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી દિન શુદ્ધિ પ્રકરણ
પૂ. દર્શનવિજયજી 053 | બૃહદ્ ધારણા યંત્ર
પૂ. દર્શનવિજયજી જ્યોતિર્મહોદય
સં. પૂ. અક્ષયવિજયજી
041.
480
228
043
6o
044
218
190
138
296
2io
049.
274
286
216
052
532
13
112
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અહો શ્રુતજ્ઞાનમ્ ગ્રંથ જીર્ણોદ્ધાર – સંવત ૨૦૬૬ (ઈ. ૨૦૧૦)- સેટ નં-૨ ભાષા કર્તા-ટીકાકાસંપાદક
પુસ્તકનું નામ
सं
सं
ક્રમ
055
श्री सिद्धहेम बृहद्वृत्ति बृहद्न्यास अध्याय - ६ 056 विविध तीर्थ कल्प
057 ભારતીય જૈન શ્રમણ સંસ્કૃતિ અને લેખનકળા
058 | सिद्धान्तलक्षणगूढार्थ तत्त्वलोकः
059 | व्याप्ति पञ्चक विवृत्ति टीका
જૈન સંગીત રાગમાળા
064 | विवेक विलास
065 | पञ्चशती प्रबोध प्रबंध
066 सन्मतितत्त्वसोपानम्
067 ઉપદેશમાલા દોઘટ્ટી ટીકા ગુર્જરાનુવાદ
068 | मोहराजापराजयम्
069 | क्रिया
070 कालिकाचार्यकथासंग्रह
071 सामान्यनिरुक्ति चंद्रकला कलाविलास टीका
060
061 चतुर्विंशतीप्रबन्ध (प्रबंध कोश )
062 व्युत्पत्तिवाद आदर्श व्याख्यया संपूर्ण ६ अध्याय सं
063 | चन्द्रप्रभा मकौमुदी
सं
072 जन्मसमुद्रजातक
073 | मेघमहोदय वर्षप्रबोध
074
075
शुभ.
सं
सं
જૈન સામુદ્રિકનાં પાંચ ગ્રંથો
જૈન ચિત્ર કલ્પદ્રુમ ભાગ-૧
गु.
सं
4.4.9
सं/गु.
सं
सं
पू. लावण्यसूरिजीम. सा.
पू. जिनविजयजी म. सा.
शुभ.
गु४.
पू. पूण्यविजयजी म. सा.
श्री धर्मदत्तसूरि
| श्री धर्मदत्तसूरि
श्री मांगरोळ जैन संगीत मंडळी
श्री रसिकलाल एच. कापडीआ | श्री सुदर्शनाचार्य
पू. मेघविजयजी गणि
श्री दामोदर गोविंदाचार्य
पू. मृगेन्द्रविजयजी म.सा.
पू. लब्धिसूरिजी म.सा.
પૃષ્ઠ
296
160
164
202
48
306
322
668
516
268
456
420
शुभ.
पू. हेमसागरसूरिजी म. सा.
सं पू. चतुरविजयजी म.सा. सं/हिं श्री मोहनलाल बांठिया सं/गु. श्री अंबालाल प्रेमचंद
406
सं.
श्री वामाचरण भट्टाचार्य
308
सं/ हिं
श्री भगवानदास जैन
128
सं/ हं
श्री भगवानदास जैन
532
श्री हिम्मतराम महाशंकर जान 376
श्री साराभाई नवाब
374
638
192
428
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________________
076 | જૈન ચિત્ર કલ્પનૂમ ભાગ-૨
સંગીત નાટ્ય રૂપાવલી
077
078 ભારતનાં જૈન તીર્થો અને તેનું શિલ્પસ્થાપત્ય
079
શિલ્પ ચિન્તામણિ ભાગ-૧ 080 બૃહદ્ શિલ્પ શાસ્ત્ર ભાગ-૧ 081 બૃહદ્ શિલ્પ શાસ્ત્ર ભાગ-૨
082 બૃહદ્ શિલ્પ શાસ્ત્ર ભાગ-૩
| 083 | આયુર્વેદના અનુભૂત પ્રયોગો ભાગ-૧
084
કલ્યાણ કારક
183 વિધઓપન જોશ
086
087
188 હસ્તસીવનમ્
કથા રત્ન કોશ ભાગ-1
કથા રત્ન કોશ ભાગ-2
089 એન્દ્રચનુવિંશતિકા
090
સમ્મતિ તર્ક મહાર્ણવાવતારિકા
ગુજ.
ગુજ.
ગુજ.
ગુજ.
ગુજ.
ગુજ.
श्री साराभाई नवाब
श्री विद्या साराभाई नवाब
श्री साराभाई नवाब
સં.
श्री मनसुखलाल भुदरमल
श्री जगन्नाथ अंबाराम
श्री जगन्नाथ अंबाराम
श्री जगन्नाथ अंबाराम
पू. कान्तिसागरजी
श्री वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री
ગુજ.
ગુજ.
ગુજ.
सं./ हिं श्री नंदलाल शर्मा
ગુજ.
ગુજ.
સં.
સં.
श्री बेचरदास जीवराज दोशी
श्री बेचरदास जीवराज दोशी
पू. मेघविजयजीगणि
पू. यशोविजयजी, पू. पुण्यविजयजी
आचार्य श्री विजयदर्शनसूरिजी
238
194
192
254
260
238
260
114
910
436
336
230
322
114
560
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क्रम
91
92
93
94
95
96
97
98
99
100
101
102
103
104
105
106
107
108
श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
संयोजक शाहबाबुलाल सरेमल (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543ahoshrut.bs@gmail.com शाह वीमळावेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन
हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद - 05.
अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार संवत २०६७ (ई. 2011) सेट नं. ३
प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। पुस्तक नाम संपादक / प्रकाशक मोतीलाल लाघाजी पुना
कर्त्ता / टीकाकार भाषा वादिदेवसूरिजी सं.
स्याद्वाद रत्नाकर भाग-१
स्याद्वाद रत्नाकर भाग-२
वादिदेवसूरिजी
मोतीलाल नाघाजी पुना
स्याद्वाद रत्नाकर भाग - ३
वादिदेवसूरिजी
स्याद्वाद रत्नाकर भाग - ४
वादिदेवसूरिजी
स्याद्वाद रत्नाकर भाग - ५
वादिदेवसूरिजी
पवित्र कल्पसूत्र
पुण्यविजयजी
-
समराङ्गण सूत्रधार भाग - १
समराङ्गण सूत्रधार भाग-२
भुवनदीपक
गाथासहस्त्री
भारतीय प्राचीन लिपीमाला
शब्दरत्नाकर
सुबोधवाणी प्रकाश
लघु प्रबंध संग्रह
जैन स्तोत्र संचय - १-२-३
सन्मतितर्क प्रकरण भाग - १, २, ३
सन्मतितर्क प्रकरण भाग - ४, ५ न्यायसार - न्यायतात्पर्यदीपिका
-
—
भोजदेव
भोजदेव
पद्मप्रभसूरिजी
समयसुंदरजी
गौरीशंकर ओझा
साधुसुन्दरी
न्यायविजयजी
जयंत पी. ठाकर माणिक्यसागरसूरिजी
सिद्धसेन दिवाकर
सिद्धसेन दिवाकर
सतिषचंद्र विद्याभूषण
सं.
सं.
सं.
सं.
सं./अं
सं.
सं.
सं.
सं.
हिन्दी
सं.
सं. गु
सं.
सं.
सं.
सं.
सं.
मोतीलाल लाघाजी पुना
मोतीलाल लाघाजी पुना
मोतीलाल लाघाजी पुना
साराभाई [नवाब
टी. गणपति शास्त्री
टी. गणपति शास्त्री
वेंकटेश प्रेस
सुखा
मुन्शीराम मनोहरराम
हरगोविन्ददास बेचरदास
हेमचंद्राचार्य जैन सभा
ओरीएन्ट इस्टी. बरोडा
आगमोद्धारक सभा
सुखलाल संघवी
सुखलाल संघवी
एसियाटीक सोसायटी
पृष्ठ
272
240
254
282
118
466
342
362
134
70
316
224
612
307
250
514
454
354
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109
सं./हि
337
110
सं./हि
354
111
372
112
सं./हि सं./हि सं./हि
142
113
336
364
सं./गु सं./गु
पुरणचंद्र नाहर पुरणचंद्र नाहर पुरणचंद्र नाहर जिनदत्तसूरि ज्ञानभंडार अरविन्द धामणिया यशोविजयजी ग्रंथमाळा | यशोविजयजी ग्रंथमाळा | नाहटा ब्रधर्स | जैन आत्मानंद सभा
जैन आत्मानंद सभा | फार्बस गुजराती सभा
फार्बस गुजराती सभा | फार्बस गुजराती सभा
218
116
656
122
जैन लेख संग्रह भाग-१
पुरणचंद्र नाहर जैन लेख संग्रह भाग-२
पुरणचंद्र नाहर जैन लेख संग्रह भाग-३
पुरणचंद्र नाहर | जैन धातु प्रतिमा लेख भाग-१
कांतिसागरजी जैन प्रतिमा लेख संग्रह
दौलतसिंह लोढा 114 राधनपुर प्रतिमा लेख संदोह
विशालविजयजी प्राचिन लेख संग्रह-१ ।
विजयधर्मसूरिजी बीकानेर जैन लेख संग्रह
अगरचंद नाहटा 117
प्राचीन जैन लेख संग्रह भाग-१ जिनविजयजी 118 | प्राचिन जैन लेख संग्रह भाग-२ जिनविजयजी 119 | गुजरातना ऐतिहासिक लेखो-१ गिरजाशंकर शास्त्री 120 गुजरातना ऐतिहासिक लेखो-२ गिरजाशंकर शास्त्री
गुजरातना ऐतिहासिक लेखो-३ गिरजाशंकर शास्त्री
ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. | पी. पीटरसन 122 __ इन मुंबई सर्कल-१
ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. | पी. पीटरसन 123 इन मुंबई सर्कल-४
ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. पी. पीटरसन । इन मुंबई सर्कल-५
कलेक्शन ऑफ प्राकृत एन्ड संस्कृत पी. पीटरसन
__ इन्स्क्रीप्शन्स | 126 | विजयदेव माहात्म्यम्
जिनविजयजी
764
सं./हि सं./हि सं./हि सं./गु सं./गु सं./गु
404
404
121
540
रॉयल एशियाटीक जर्नल
274
रॉयल एशियाटीक जर्नल
41
124
400
अं.
रॉयल एशियाटीक जर्नल भावनगर आर्चीऑलॉजीकल डिपार्टमेन्ट, भावनगर जैन सत्य संशोधक
125
320
148
Page #10
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________________
Dokcxo0000-0xC0000000000
अहम्
श्रीयशोविजयजैनग्रन्थमाला [३६]
वाचनाचार्यश्रीसाधुसुन्दरगणिविरचितः श्रीशब्दरत्नाकरः ।
शब्दानामकाराद्यनुक्रमणिकासहितः शास्त्रविशारदजैनाचार्यश्रीविजयधर्मसूरिपादा
म्भोजचञ्चरीकायमाणाभ्यां श्रावकप-हरगोविन्ददास-बेचरदासाभ्यां संशोधितः ।
स च रङ्गूननगरवास्तव्यश्रीजैनश्वेताम्बर
सङ्घसाहाय्येन
वाराणस्यां श्रेष्ठिभूराभाईतनुजहर्षचन्द्रेण गङ्गाप्रसादगुप्तस्य आर्टप्रिन्टींग
वकेसाख्ययन्त्रालयेमुद्रयित्वा प्रकाशितः ।
वीरसंवत् २४३९ ।
मूल्यं पादौनरूप्यकम् ।
VO
"Aho Shrut Gyanam"
Page #11
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"Aho Shrut Gyanam"
Page #12
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________________
YASHOVIJAYA JAINA GRANTHAMALA
THE
SHABDARATNAKARA
OF
VACHANACHARYA SHRI SADHU SUNDARA GANI
EDITED BY
SHRAVAK PANDIT HARGOVINDDAS
AND
SHRAVAK PANDIT BECHARDAS,
Most devoted Servants of His Holiness Shastra Visharad
Jainacharya Shri Vijaya Dharma Suri.
WITH
The pecuniary help of Shree Jain Shvetambar Sangha
OF RANGOON.
PUBLISHED BY SHAH HARSHCHAND BHURABHAT,
AND
Printed by Bubu Ganga Prasad Gupta, at luis
Art Printing Works, Benares City.
Veer-Era, 2439.
Price 12 concis.
"Aho Shrut Gyanam"
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"Aho Shrut Gyanam"
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________________
प्रस्तावना ।
'शब्दरत्नाकर' इति स्वाख्यां सत्यापयतोऽस्य श्रीशब्दरत्नाकरको. शस्य निर्मातारः, शब्दशास्त्रनिष्णाताः, सर्वमपि शब्दभेदं संविदानाः, साधुसुन्दराः, 'वाचनाचार्य' इति पदप्रभूषिताः श्रीसाधुसुन्दरगणयः कीदशाः, ?, कदा किं प्रतिष्ठापयामासुः ?, इति प्रश्नपरम्परापरायणान् त एवाचबोधयन्ति निजनिर्मितधातुरत्नाकरप्रशस्तिप्रान्तभागेन- " व्योमसिद्धिरसक्षोणी(१६८०)मितेऽब्दे विवृतिः कृता क्रियाकल्पलतानाम्नी शुभे दीपालिकादिने" इति
ते चानेन पूर्वार्धश्लोकेन स्वं धातुरत्नाकरविवृत्तिकतारं सप्तदशशताब्दीमध्यगतं प्राचीकटन् । ततश्च स्पष्ट एवावसीयतेऽमीषां विज्ञानां सप्तदशशताउदयांः प्रत्तासमय इति ।
ते च साधुकीर्तीनां साधुकीर्तिनामधेयानां पाठकप्रवराणां पण्डितरूपा अन्तेवासिनः, लघुभ्रातरश्च साधुकीर्तिविनेयावतंसानां श्रीविमलतिलकानामित्यपि तस्मादेव धातुरत्नाकरादवबुध्यते । निजवंशवृक्षप्रशंसोल्लेखे ते एवोल्लिखन्ति धातुरत्नाकरे।
___ आदौ-- "दुर्वादिमत्तद्विपकेसरिभ्यो विद्यावशावल्लभवल्लभेभ्यः। श्रीसाधुकीाह्वयपाठकेभ्यो नमामि मदीक्षकशिक्षकेभ्यः" इति। ___अन्ते तु"शास्त्राध्यापनसत्रसभ नियतं यैर्मण्डितं भ्रतले
पायं पायमपायदोषविकलं विद्यारसं पूरुषाः । आघ्राता इव नापरत्र विदधुस्तत्मार्थनं वाग्मिनां
शृङ्गारोपमसाधुकीर्तिगणयः श्रीपाठका जज्ञिरे । तच्छिष्योऽस्ति च साधुसुन्दर इति ख्यातोऽद्वितीयो भुवि
तेनैषा विवृतिः कृता मतिमतां प्रीतिप्रदा सादरम् । स्वोपज्ञोत्तमधातुपाठविलसत्सद्धातुरत्नाकर
ग्रन्थस्यास्य विशिष्टशाब्दिकमतान्यालोक्य संक्षेपतः इति । तत्रैव च निजगुरुगुरुबन्धुत्वेन श्रीविमलतिलकं स्तुवन्ति ते"विमलतिलकनामा तद्विनेयेषु मुख्यः
स्वगुरुपरमभक्तश्चारुचारित्रयुक्तः । इह हि विजयतेऽसौ ज्ञातसिद्धान्तयुक्तिः ।
सततमधिकमस्मद्भक्तिभावं दधानः" ।। इममेवार्थ तेषामुक्तिरत्नाकरग्रन्थोऽपि दृढयति
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( २ ) "खरतरमतपाथोराशिवृद्धौ मृगाङ्काः ।।
यवनपतिसभायां ख्यापिताइन्मताज्ञाः । महतकुमतदपोंः पाठकाः साधुकीर्ति
प्रवरसदभिधानाः सिंहतुल्या जयन्ति । तेषां शास्त्रसहस्रसारविदुषां शिष्येण शिक्षाभृता
भक्तिस्थेन हि साधुसुन्दर इति प्रख्यातनाम्ना मया । ग्रन्थोऽयं विहितः कवीश्वरवचोबुद्ध्योक्तिरत्नाकरः
स्वाऽन्येषां हितहेतवे बुधजनैमान्यश्चिरं नन्दतु।,, इति। ते च कांस्कान् ग्रन्धानग्रन्थिषत इत्यपि नावगतं संपूर्णमधुना, किन्तु तेषां ग्रन्थरत्नत्रयमुपलभ्यते साम्प्रतम्- एकस्त्वयं कोशः, उक्तित्नाकरः, स्वोपज्ञक्रियाकल्पलताख्यटीकानिष्टङ्कितो धातुरत्नाकर श्चेति ।
तेषु एकेनैवानेन कोशसमीक्षणेन तेषां शब्दशास्त्रपारगतत्वमवगम्यते एव सहृदयानामिति । सत्स्वपि नैकेषु कोशेषु नायमेषामायास आयासः; यतस्तैरत्र शब्दार्थभेदसंग्रहं विधाय सर्वेभ्योऽपि कोशेभ्योऽयमत्यरेचि, तत्तु सुस्पष्टमेव शब्दविदामिति अयं च कोशः षटकाण्ड्या व्यभाजि तैः-तत्र क्रमेण, प्रथमोऽहत्काण्डः, देवकाण्डः, मानवकाण्डः, तिर्यकाण्डः, नारककाण्डः सामान्यकाण्डश्चेति । कोशमिमं कृत्वा तैः परमकारुणिकैः कवयोऽत्यन्तमुपकृता इति । अस्य च शोधनानेहसि लिखितपुस्तकत्रयमुपालप्स्वहि ततस्तेषां पुस्तक. दातृणां महोपकारं मन्वानी तान् नामप्राहमुल्लिखावः ।।
२ अस्मद्गुरू श्रीशास्त्रविशारदजैनाचार्याणां प्रतिद्वयं शुद्धं च, तयोरेकस्याः प्रान्ते "संवत् १७४८ फाल्गनकृष्ण १५ दिने श्रीवीकानेरमध्ये भटटारकङ्गमयुगप्रधान श्रीश्रीश्री १०८ श्रीजिनचन्द्रसूरिसूरीश्वराणां शिष्येण पण्डितनेमिसन्दरणालखि प्रतिरियम ॥ श्रीरस्तु । श्री" एवमल्लेखोऽस्ति । अन्यस्या अन्ते तु
"सप्ताब्धिगोत्रगोत्राप्रमिते संवति संवति ।। ___ माघस्याद्याष्टमीघने श्रीविक्रमपुरे पुरे ॥ श्री. लिलिख एष सद्ग्रन्थो जयसुन्दरसाधुना । ।
इयं प्रतिः स्थिरा भूयात् यावञ्चन्द्रदिवाकरौ ॥" एका तु श्रीयुतनेमचन्द्रयतिवर्याणाम् , तदन्ते तु "संवत् १७५६ फाल्गुन शुक्ल ५ दिने श्रीमेडतायां लिपीचके अस्यान्ते चैकोऽकारादिशब्दानुक्रमोऽपि दत्तः । प्रतिस्थलं च टिप्पणेन सुस्पष्टनमपि कृतम् । जागरूकमनसा शोधितेऽप्यस्मिन ज्ञानावरणीयोद्भवाः स्खलनाः निरस्यन्तः सज्जनाः प हंसायिभ्यन्ते
इति प्रार्थयेते हरगोविन्द-बेचरदासौ ।
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॥ अहम् ॥ श्रीविजयधर्मसूरिगुरुभ्यो नमः । वाचनाचार्यश्रीसाधुसुन्दरगणिविरचितः श्रीशब्दरत्नाकरः ।
ध्यालाऽर्हतो गुरून् प्राज्ञान् वाग्देवीमपि भक्तितः । शब्दरत्नाकरं कुर्वे शब्दभेदार्थसंग्रहम् ॥१॥ अर्हदेवनृतिर्यश्चो नैरेयाः साङ्गकाः समाः। अव्ययाश्च क्रमोऽत्रायं लक्ष्यतां सुखलब्धये ॥ २ ॥ भवेजिनेऽर्हन्नहन्तः सार्वः सर्वीय इत्यपि । तीर्थङ्करस्तीर्थकरः परमेष्ठी ठकारयुक् ॥ ३ ॥ वृषभर्षभौ नाभेये, शंभवे संभवोऽपि च । एकादशजिने श्रेयान् श्रेयांसो, द्वादशार्हति ॥ ४ ॥ वसुपूज्य-वासुपूज्यावनन्तोऽनन्तजिद् मतः । विंशे जिने मुनिस्तद्वद् मुनिसुव्रत-सुव्रतौ ॥ ५ ॥ अरिष्टनेमौ नेमिश्च नेमी नन्तोऽपि कथ्यते । श्रीपार्श्वः पार्श्वनाथश्च वामेये, चरमेऽर्हति ॥ ६ ॥ महावीरः स वीरश्च, तुर्यार्हन्तस्य वप्तरि । दन्त्यादिः संवरः, कुन्थुवप्पे शूरश्च सूरयुक् ॥ ७ ॥ मरुदेवा मरुदेव्यप्याद्यान्मातरि स्मृता । तालव्यमध्या त्रिशला, पञ्चमाहदुपासके॥ ८ ॥
१ सप्तदशजिनपितरि ।
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शब्दरत्नाकरेत्र्युकारस्तुम्बुरुश्चक्रेश्वर्यामप्रतिचक्रिका । अजिताऽजितबलायां, सुतारा तु सुतारका ॥९॥ निमीश्वरोऽर्हद्विशेषे द्वीकारोऽथ कृतार्घके । तुर्यहल, शूरदेवस्तु दन्त्यतालव्यसादिमः ॥ १० ॥ संवरो दन्त्यसादिः स्यात् , भद्रकृद् भद्र उच्यते । मोक्षे श्रेयः शिवं तालव्यादी, निःश्रेयसं पुनः॥१२॥ मध्यतालव्ययुक्, साधौ साधन्तः साधयन्तकः । रिष्यृषी यति-यतिनौ श्रमण-श्रवणौ तथा ॥ १२ ॥ मुनिखे तप-तपसी अदन्त-सान्तके स्मृते । प्रायश्चित्तं प्रायश्चित्तिः पापसंशोधके तपे ॥ १३ ॥ शिष्यः शिक्षु-शैक्षौ तालव्याद्याइछात्रे च तद्भिदि । व्रतादाने परिव्रज्या प्रव्रज्याऽप्यभिधीयते ॥ १४ ॥ क्षपणे नम-नग्नाटौ श्रमणः श्रवणोऽपि च । क्षेमे मद्रं भद्र-भन्ने प्रशस्तं शस्तमित्यपि ॥ १५ ॥ भावुकं भविकं भव्यं शिवं च श्वोवसीयसम् । श्रेयः स्वःश्रेयसं तालव्यादयः, कुशलं पुनः ॥ १६ ॥ मध्यतालव्यकं प्रोक्तं, सुभं तालव्य-दन्त्ययुक् । मङ्गल्यमपि माङ्गल्यं मङ्गलं च तथा स्मृतम् ॥ १७ ॥ इति वादीन्द्रश्रीसाधुकी[पाध्यायमिश्राणां शिष्यलेशेन वाचनाचार्यसाधुसुन्दरगणिना विरचितायां शब्दरत्नाकरनाम
शब्दमभेदनाममालायामर्हत्काण्डः प्रथमः ॥१॥
१ अतीतायां तीर्थकरचतुविशताकोनविंशे तीर्थेशे । २ तुर्यो हल धकारः।
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द्वित्तीयः काण्डः ।
अथ द्वितीयः काण्डः ।
------mowwwmom------ स्वर्गे स्वस्त्रिदिवोऽस्त्री धुदींदिविर्दिदिविर्दिविः । द्यो-दिवौ दिवमित्युक्तं त्रिविष्टप-त्रिपिष्टपे ॥१॥ तात्तातो विषस्तविशं विहेलिम विशेलिमौ । सुरे दिवोका दिवौकास्तौ विहङ्गेऽपि, दैवतः ॥ २ ॥ देवताऽऽदित्याऽऽदितेयौ, सुधाऽभिनवदुग्धयोः । पीयूषमपि पेयूषं, व्यन्तरा वानमन्तराः ।। ३ ॥ असंयुक्ततकारः स्याद् वेतालो व्यन्तरान्तरे । मार्तण्डि-मार्ताण्डौ मार्तण्डोऽर्क एतश ऐतशः ॥ ४ ॥ तुवि विश्च द्वौ सान्तौ तपनस्तापनो भगः । भर्गो हरिहरिद्भानु-भानू पेरुश्च पारुवत् ॥ ५ ॥ भासन्तो भासयन्तोऽगो नगवत् तरु-शैलयोः । भुजगेऽप्यशुराशुश्च महिरो मिहिरस्तथा ॥ ६ ॥ मुहिरो मुदिरस्तद्वद् मुचिरः सहुरिस्तथा । मुहुरिः सृणि-सरणी अव्यवी स्योन-स्यूनकौ ॥ ७॥ प्रद्योतनो द्योतनश्च वृषाकपि-कपी अरुः । अरूषो रुषज-रूषौ दिवि-द्युभ्यां परो मणिः ॥ ८ ॥ सूरस्तालव्यदन्त्यादिस्तालव्यादिः शुचिर्वृकः ।। कोद्रिरिन्द्रोऽप्यरुः सान्तः किरणे द्युद्-द्युती रुचिः॥९॥
१ तकारात ताशब्दाच्च परो विषः, तविषः, ताविषश्चेत्यर्थः । .
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शब्दरत्नाकरेंरोची रुक् शुचियुक् शोचिर्भा-भासौ भाः प्रभा विभा। स्विट्-विषी प्रश्नि-पृष्णी च धृष्णिरभीश्वभीषुकौ ॥१०॥ रोचिः शोचिरिसन्तौ हौ, मयूखो ह्याद्यवर्दीखः । प्रकाशे द्योत उद्योतः, सान्तोऽदन्तो महो मह.॥११॥ धाम नान्तमदन्तं च, ताविषं तविषं तथा । बलेऽप्यथो विधौ राजा राजराजश्च चन्दिरः ॥ १२ ॥ चन्द्र-चन्दौ चन्द्रमसाऽमा विकुस्र-विकसकौ । विक्रस्रः सोम-सोमानौ यज्ञपेयरसेऽपि च ॥ १३ ॥ लाञ्छने लक्ष्मणं लक्ष्म लक्षणं, चन्दिरातपे । चन्द्रिका चन्द्रिमाऽपि स्यात्, मण्डले मण्डली मता॥१४॥ नक्षत्रे तारका तारा निरिकाराऽत्र तारका । अश्वयुज्याश्वकिनी चाश्विनी स्युः कृत्यका बहौ ॥१५॥ बहुलाश्च मृगशीर्षे मृगमार्गों मृगाच्छिरः । मृगशिराऽपि शीर्षस्थास्तारकास्तस्य विल्बलाः ॥१६॥ इन्वका मित्रदेवायामनुराधाऽनुराधिका । तृतीयवर्गद्वितीययुग् ज्येष्ठा मूल आश्रयः ॥ १७ ॥ तालव्यदन्त्ययोराप्यामषाढा हवपूर्विका । श्रविष्ठा च धनिष्ठापि त्रिकवर्गद्वितीययुक् ॥ १८ ॥ तद्वत्प्रोष्ठपदा लग्नत्रिभागे तु दृकाणवत् । द्रिक-द्रेकाण-दृक्काणाः, बुधे चान्द्रमसायनिः ॥ १९ ॥ चान्द्रमसायनश्चापि गुरौ गीति-गी:पती। गी पति-गीष्पती रेफ-विसर्ग-गजकुम्भ-षाः ॥ २० ॥
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द्वितीयः काण्डः ।
चतुर्वेषु च वाग् वाग्मी प्रख्या आख्याः प्रचक्षसा । सकारान्तास्त्रयोऽमी स्युः, शुक्रे काव्य-कवी भृगुः॥२१॥ भार्गवेऽप्यपुत्रे तु शनैश्चर-शनी शनैः ।। अव्ययं, सौरि-सौरौ द्वौ दन्त्य-तालव्यपूर्वकौ ॥२२॥ राही स्वर्भाणु-वर्भानू तमास्तमस्तमोऽपि च । द्वौ सान्तौ तृतीयोऽदन्तो, ध्रुव उत्तानपादकः ॥२३॥ औत्तानपादिः, कौम्भौ तु मैत्रावरुण-वारुणी । मैत्रावरुण आग्नेय अग्निमारुत इत्यपि ॥ २४ ॥ अगस्त्येऽगस्तिरेकोक्त्या शशि-भास्करयोः पुनः । पुष्पदन्तौ पुष्पवन्तावुपलिङ्गमुपद्रवे ॥ २५ ॥ उपालिङ्गं रिष्टा-ऽरिष्टे माङ्गल्ये चाप्यनेहसि । कालेऽतिथोऽतिथः कालविशेषे सुषमा तथा ॥ २६ ॥ दुःषमा षोऽत्र मूर्धन्यः, काष्ठा त्वष्टादश स्मृताः । निमेषाष्ठाग्रगो वर्णोऽत्र घट्यां नाडि-नाडिके ॥ २७ ॥ नाडी-नाली-नालिकाश्च, दिने तु दिवसो दिवम् । दिवा प्रतिदिवा नान्तौ धुररत्र्यव्ययमप्यहः ॥ २८ ॥ अल्यहे ङ्यन्त-टाबन्तावहः सन्तोऽथ वासरः । वाश्रश्च दन्त्य-तालव्यमध्यौ घस्रश्च हस्रयुक्॥ २९ ॥ दिवाव्ययं सप्तम्यर्थे, व्युष्टे कल्यं सकाल्यकम् । उषः-प्रत्युषसी सान्तौ प्रत्यूषोऽपि प्रगेऽव्ययम् ॥३०॥ प्रारू पूर्वेयुरेतौ च गोस-गोसर्गको समौ । मध्याह्न तु दिवामध्यं मध्यं मध्यंदिनं तथा ॥ ३१ ॥
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शब्दरत्नाकरे
दिनावसाने सायोऽस्त्री सायं स्याद् मान्तमव्ययम् । पितृप्रस्वां सन्धा सन्ध्या सन्धिश्वापि विभावरौ ॥३२॥ विभावरी निशा निट् च निशीथश्च निशीथिनी । निशीथ्या वासुरा मध्यदन्त्य - तालव्ययुक्, तमिः ॥३३॥ तमी तमा तामसी च वसतिर्वासतेय्यपि । शार्वरी सर्वरी दन्त्यतालव्यादिरुषा उषः ॥ ३४ ॥ उसास्त्रयोऽमी सान्ताः स्युरुषा दोषाऽप्यनव्यये । अव्यये च तथाऽऽदन्तौ, रजनी रजनिः स्मृता ॥३५॥ त्रियामा यामिनी यामा याम्या रात्री च रात्रियुक् । नक्ता नक्तं तथा नक्तं मान्तमव्ययमप्यथ ॥ ३६ ॥ ज्योत्स्नायुक्तक्षपायां तु ज्योत्स्नी ज्योत्स्नापि, दर्शनिट् । तमिस्रा दन्तसंयोगा द्युः पक्षी निड्डयावृतः ॥ ३७ ॥ ध्वान्ते तमं तमोऽदन्तौ, तमसं तमसस्तमः । सान्तं, तमिस्रा तमिस्त्रं सदन्त्यौ, तिमिरं तथा ॥ ३८ ॥ सन्तमसा-श्वतमसे अन्धातमसमन्धतः ।
سی
—
तमसं चाऽन्धकारान्धे भूच्छायमनृलिङ्गकम् ॥ ३९ ॥ तुल्याहर्निश विषुशो विषुवद् विशुत्रं तथा । विषुवं, बहुलः कृष्णपक्षे मध्य उकारवान् ॥ ४० ॥ पूर्णिमायां पौर्णमासी, दर्शेऽमावास्यमावसी । अमावस्याऽमाऽमावास्या, नष्टेन्दौ तु कुहुः कुहूः ॥४१॥ चतुर्दशी विध्वदर्शे शिनीवाली सयुग्मभाक् । मासे माः स्याद् वर्षकोशो वर्षाशकयुतस्तथा ॥ ४२ ॥
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द्वितीयः काण्डः । मार्गशीर्षे मार्ग-सहौ सहाः सान्तोऽथ माघके । तपाः सान्तो ह्यस्त्रियां स्यात् ,फल्गुनाले तु फाल्गुनः॥४३॥ फल्गुनश्च फाल्गुनिको, मधौ चैत्रः सचैत्रिकः । शुक्रे तु ज्येष्ठा-मूलयोर्येष्ठ-ज्यैष्ठौ त्रयोप्यऽमी ॥ ४४ ॥ त्रिकवर्गद्वितीयाप्तषसंयोगाः, शुचौ पुनः। अषाढ आषाढोऽपि स्यात् , नभसि श्रावणः स्मृतः॥४५॥ श्रावणिकोऽथ नभस्ये भाद्र-भाद्रपदौ समौ । प्रौष्ठपदस्त्रिकवर्गद्वितीयाप्तो ह्यथाश्विने ॥ ४६ ॥ अश्वयुज आश्वयुजो, बाहुले कार्तिकस्तथा । कार्तिकिकः प्रशलौ हेमन्तो नान्तहेमयुक् ॥ ४७ ॥ शैष-शिशिरौ तालव्योपेतौ ग्रीष्मर्तुरूष्मकः । ऊष्मायण ऊष्मा नान्त उष्ण उष्णागमोष्णकौ ॥४८॥ प्रावृषि प्रावृषा वर्षा बहुत्वे वरिषास्तथा । घनात्यये तु शरदा शरच्चाब्दे तु वत्सरः ॥ ४९ ॥ उद्वत्सर-संवत्सर-परिवत्सर-वत्सराः । अनुसंवत्सरो विवत्सरो वत्सोऽपि वर्षवत् ॥ ५० ॥ वरिषः शारदोपेता शरत् संवदनव्ययम् । अव्ययं च, समा स्त्रीत्वे वा बहुत्वे च तद्भिदि॥ ५१ ।। इड्वत्सरेडावत्सरौ क्षये कल्पान्तकल्पको । संवर्तः परिवर्तश्च सांदृष्टिक-सांमृष्टिके ॥ ५२ ॥ तात्कालिकफले प्रोक्ते, आकाशे द्यो-दिवौ द्यु च। क्लीबं सन्तं नभश्रापि नभसो नभसं तथा ॥ ५३ ॥
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शब्दरत्नाकरे—
अन्तरिक्षमन्तरीक्षं मेघे घन-घनाघनौ । ऋञ्जसानो रिञ्जसान उभ्रोऽभ्रमब्धमित्यपि ॥ ५४ ॥ गडयित्नुर्गदयित्नुवरितो वाह-वाहनौ । पर्जन्योऽष्टमवयीप्तोऽब्दमालायां तु कालिका ॥ ५५ ॥ काली वृष्टयां वर्षणं स्याद्वर्षे, तहिमके ववात् । ग्रह - ग्राहौ, घनोपले तु करः करकस्त्रिषु ॥ ५६ ॥ आशायां दिग्-दिशे काष्ठा त्रिकवर्गद्वितीयभाक् । ककुभा ककुब याम्याशाऽपाच्यवाची दिगन्तरे ॥ ५७॥ विदिक् प्रदिक् चापदिशं प्राक् प्राचीने समे मते । अपाचीनमपाक् प्रत्यक् प्रतीचीनमुदक् तथा ॥५८॥ उदीचीनमपाक् प्रत्यक् प्रागुदगव्ययान्यपि । इन्द्रे मघवा मघवान् मघवन् दल्मि वल्मिकौ ॥ ५९ ॥ नान्तौ सुत्रामा सूत्रामा हर्यश्वो हरिमान् हरिः । बिडोजाः [ः स्याद् बिडौजाश्र सन्तौ, वृत्रश्च वृत्रहा ॥६०॥ पर्जन्यः पूर्ववन्नान्तो वृषा दन्त्यद्दयान्वितः । तालव्यद्वयवानाद्यतालव्यच तृतीयकः ॥ ६१ ॥ शुनाशीरः, स्मृतेन्द्राण्यां महेन्द्राणी सची शची | शचिर्वासेवौ जयन्तः जयदत्तो जयस्तथा ॥ ६२ ॥ इन्द्रपुत्र्यां ताविषी स्याद् वात्यायां च तविष्यपि । इन्द्रहस्तिन्यैरावण ऐरावतः, ऋजौ धनौ ॥ ६३ ॥ इन्द्रस्यर्जुरोहितं स्याद् रोहितं पारिभद्रके ।
१ वासवस्यापत्यं वासविस्तस्मिन् ।
८
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द्वितीयः काण्डः। मन्दार-मन्दरौ तहद् मन्दारुश्च, पवौ शृणिः ॥ ६४ ॥ मृणिश्च वह्नावप्येतौ, भिदिरं भिदुरं भिदुः ।। भिदि-भेदी दिभिः शम्ब-सम्बौ शाम्बः शतारकः ॥६५॥ धारः शित-शतात् , वज्रोऽस्त्रियां वज्राशनिईयोः । अशनिईयोराशनः स्वार्थे प्रज्ञाद्यणा, शरुः ॥ ६६ ॥ खरु-श्वरू उदन्तौ द्वौ स्वरुः सान्तोऽथ घण्ढके । व्याधाम नान्तं, व्याधामोऽदन्तः पुंसि च, दस्रयोः॥६७॥ अश्विनावाऽश्विनेयौ च, देवत्वष्टरि विश्वकृत् । विश्वकर्मापि, खर्वध्वां वा स्त्री भूम्न्यप्सरा मता ॥६८॥ ऊर्वसी दीर्घ-हस्वादिर्दन्त्य-तालव्यभाक् क्रमात् । गन्धर्वो गायने दैवे गान्धर्वोऽपि च तहिदि ॥ ६९ ॥ अव्ययाऽनव्ययौ हाहा हाहाः सान्तोऽप्यथो हहाः। हुहुर्दिहस्खो हूहूश्च द्विदीर्घोऽव्ययमप्यथो ॥ ७० ॥ हाहाहूहूरित्यखण्डं नामैके, शमने यमः । यमराजो यमराट् च, संयमनी त्र्यकारयुक् ।। ७१ ॥ शङ्कावश्रपोऽन्तर्दन्त्योपि, हनुषो हनूषवत् । रात्रिंचरो रात्रिचरो, नृचक्षाः ख्याश्च चक्षसा ॥७२॥ त्रयः सान्ता अन्त्यषण्ढाः, क्रव्यात् क्रव्यादसंयुतः ।
१ नपुंसकलिङ्गे नान्तो व्याधामशब्दः । २ स्त्रीलिङ्गोऽप्सरःशब्दो विकल्पेन भूम्नि- बहुवचने मत इत्यर्थः । ३ दी? हूस्थश्चादिर्यस्य, तथा दन्त्यं तालय च भजते सः, ऊर्वसी, उर्वसी, ऊर्वशी, उर्वशी, इति चत्वारः शब्दाः । ५ देवसंबन्धिनीत्यर्थः । ५ अकारप्रययोगवान् संयमनीशब्दो यमपुरीवाचकः । ६ अन्त्यश्वक्षःशब्दः षण्ढो नपुंसको यत्र ते, इति सान्तविशेषणम् ।
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शब्दरत्नाकरेजातुधानो यातुधानो जातु यातु च षण्ढकौ ॥७३॥ कर्बुरः कर्बरो रक्षः राक्षसोऽप्याशराऽऽशिरौ । तज्जनन्यां तु निकसा निकषा खषया सह ॥ ७४ ॥ वरुणे यादःपतियुक् यादसांपतिरप्पतिः । अपांपतिर्धनदे त्वैडविडैलविलौ समौ ॥ ७५ ।। कैलासौका मध्यदन्त्यो नराद् वाहण-वाहनौ । तैद्विमानं पुष्पकं स्याद् मूर्धन्यौष्ठ्यकयोगयुक् ॥७६॥ वैखोकसारा तत्पुर्यामोकःशब्दे सलोपभाक् । वित्ते ऋक्थं रिक्थमृक्तं रिक्तः सान्तं नपुंसके ॥ ७७ ॥ सारोऽस्त्रियां निधाने तु शेवाधर्नर-षण्ढभाक् । शङ्करे जोटी जोटीङ्गो गिरीशो गिरिशो हरः ॥ ७८ ॥ हीर ईशान ईशश्च वामदेवश्च वामयुक् । अहिर्बुनो बुध्नकाही महाकालः सकालकः ॥ ७९ ॥ भर्गो भार्गो भर्यः शर्व-सौं महेश्वरेश्वरौ । भीम-भीष्मौ च, तच्चापे त्वजकावमजीजकम् ॥ ८० ॥ अजगावमाजगवं भवेदजकवं तथा । अजगवं, गणेवस्य पार्षद्याः पार्षदा अपि ॥ ८१ ॥ पारिषद्याः पारिषदा, मृडान्यामीश्वरेश्वरी । कैटभी कैटभा दुर्गा दुर्गमा वरदा वरा ॥८२॥ अपर्णा चैकपर्णायुग् गौरी गौरा शिवी शिवा ।
१ राक्षसमातरि । २ धनदविमानम् । ३ वसूनामोकस्य सारो यत्र सा। पुनपुंसक इत्यर्थः । ५ बुधनकश्च अहिश्च । ६ महेशबाणे। ७ महेशस्य । ईश्वरा, ईश्वरी।
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द्वितीयः काण्डः ।
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भद्रकाली महाकाली काली काला च कालिका ॥८३॥ हिमा हैमवतीयुक्ता विकराला करालिका । महारौद्री सरौद्रीका जयन्ती विजया जया ॥ ८४ ॥ महाजया नन्दयन्ती नन्दिनी नन्दयाऽन्विता । सुनन्दा कुला नकुली, भैरव्यां चर्ममुण्डिका ॥ ८५ ॥ चामुण्डा चण्डमुण्डा च चर्चा चर्चिः सचर्चिका । स्कन्दे गाङ्गायनिर्गाङ्गो गाङ्गेयो भीष्मकेऽप्यमी ॥ ८६ ॥ भृङ्गिगणे भृङ्गिरिटिभृङ्गिरीटिश्च, तण्डुके । नन्दीश - नन्दिनौ नन्दिः, कैमने क-कवी विधिः ॥८७॥ विधा वेधाश्च द्वौ सान्तौ सर्वविद् विदुषोरपि । विरिञ्चन - विरिञ्ची च विरिञ्चः परमेष्ठियुक् ॥८८॥ परमेष्ठस्त्रिकवर्गद्वितीयकलितामू ।
नाभिभूर्नाभिजन्मा च विश्वसृट् विश्वसृक् तथा ॥ ८९ ॥ द्रुहिणो द्रुघणस्तद्वद् दुधनोऽपि च शम्भुयुक् । स्वयंभूरथ गोविन्दे नारायण नरायणौ ॥ ९० ॥ विष्वक्सेनो विश्वक्सेनो वृषाकपि-कपी विधुः । वेधा मुकुन्दकुन्दौ च वासुदेवश्च वासुयुक् ॥ ९१ ॥ जलेशयो जलशयोऽधोक्षजोऽक्षज एकपात्। त्रिपाद द्विपद एतद् वृषाक्षः सुवृषोऽपि च ॥ ९२ ॥ कपिलो भद्रकपिलः सुभद्रो वासुभद्रकः ।
१ धातरि । २ परमेष्टि- परमेष्टौ ।
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शब्दरत्नाकरेधन्वी सुधन्वा शतकः शतादाऽऽनन्द-वीरको ॥ ९३ ॥ श्रीवत्साङ्कच श्रीवत्सस्तदरौ मेन्द-मैन्दकौ । कालीयः कालियश्चास्य गदा कौमोदकी स्मृता ॥९४॥ कौपोदकी कौवोदकी, कृष्णमातरि देवकी। दैवकी, बलभद्रे तु भद्राङ्गो बलिना बलः॥ ९५ ॥ पद्मायामीरी आ या च कमला कमलीन्दिरा । इन्दिः श्री-लक्ष्म्यौ विब्यन्तौ, येरौ शम्बर-संबरौ ॥१६॥ शूर्पकवादितालव्यः, ऋष्याङ्कः कामनन्दने । मूईन्याद्यान्तःस्थिकभागूषोषा बाणपुत्रिका ॥ ९७ ॥ शम्ब-शाम्बो जम्बुवत्याः पुत्रे, ताये सुपर्णकः। सौपर्णेयो गरुडश्च गरुलो गरुटस्तथा ॥ ९८ ॥ सुगते तु महाबोधि-बोधी बुद्ध-बुधौ मुनिः । मुनीन्द्रः, सप्तमे बुद्ध शाक्यसिंहः सशाक्यकः ॥९९|| दैत्येऽसुर आसुरश्च सरस्वत्यां गिरा-गिरौ । वाग्-वाचे वाणि-वाण्यौ च तालव्याद्या च शारदा॥१०॥ व्याहारो वचो वचनं, कारके कर्म-कार्मणे । ज्ञाताधर्मकथायां स्यात् तकारो दीर्घसंयुतः ॥ १०१ ॥ द्वादशाङ्गे दृष्टिवादो दृष्टिपातोऽपि कथ्यते । प्रत्याख्यानप्रवादे तु प्रत्याख्यातं च, ज्योतिषि ॥१०२॥ ज्योतिष ज्यौतिषं, भाष्ये चूर्णि-चूयॉं समे मते ।
३ गोविन्दशत्रौ। २ गोविन्दस्य । ३ अनुक्रमं विप् , ईश्च प्रत्ययोऽन्ते ययोस्तौ । ४ इः कामस्तस्यारियरिस्तस्मिन् । ५ ऋष्याविशेषणम् । ६ षष्ठा
रूपस्य ग्रन्थविशेषस्य नाम ।
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द्वितीयः काण्डः ।
१३
यङ्लुगन्ते चर्करीतं चर्करितं, कलिन्दिका ॥ १०३ ॥ कडिन्दिका सर्वविद्या, निघण्टुर्नामसंग्रहे । निर्घुण्टुश्व, जनश्रुतौ वदन्ती किंवदन्त्यपि ॥ १०४ ॥ किंवदन्तिर्वदन्तिश्चोदन्ते वृत्तान्त-वार्त्तिके |
अभिधायां नामधेयं नामाख्याऽभिख्ययाऽऽह्वयः ॥ १०५॥ आह्रा, हूतौ तु हक्कार - कङ्कारौ, शपथे शपः । शपनं, प्रियबाहुल्ये चटु चाटु, यथास्थिते ॥ १०६ ॥ तथ्यं यथातथं सम्यक् समीचीनं च, रूक्षके । निष्ठुरं तृतीयवर्गद्वितीययुगवर्णने ॥ १०७ ॥ निष्वर्यपात्परो वादो, जुगुप्सा च जुगुप्सनम् । गर्हणा गर्हणं ग, रतशापे तु क्षारणा ॥ १०८ ॥ आक्षारणा क्षारणं च क्षरणा, मङ्गलार्थने । आशीराशषया चोभे उशत्यशुभवाचि तु ॥ १०९ ॥ रुशती रुपती सर्वे त्रिलिङ्गा वाच्यलिङ्गतः । आज्ञायां स्याद् निरोनिभ्यो देशोऽथाङ्गीकृतौ पुनः ॥ ११॥ संध्या स्यात् संघया साकं संप्रत्याङ्ग्भ्यः परः श्रवः । वर्जे वर्जनं वृजनं, नृत्ये नृत्तं च नर्त्तनम् ॥ १११ ॥ नाट्यं नटनमङ्गविक्षेपेऽङ्गाद् हारि-हारकौ । आतोये वाद्यं वादित्रं तूरं तूर्य च, बलकी ॥ ११२ ॥ तन्त्रीस्तन्त्रिश्च गन्धर्वे त्र्युकारस्तुम्बुरुः स्मृतः ।
१ निर्वादः, परिवादः, अपवादश्चेत्यर्थः । २ निर्देशः, आदेशः, निदेशश्वेत्यर्थः । ३ संश्रवः, प्रतिश्रवः, आश्रवश्चेत्यर्थः ।
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शब्दरत्नाकरेमृदङ्गे मार्दलीकच मार्दलो, दुन्दुभौ पुनः ॥ ११३ ॥ भेरिर्भेरी च भेरापि, कुहालायां तु काहला । चण्डकोलाहला पत्रकाहला, सुप्तबोधके ॥ ११४ ॥ द्रगडो द्रकटश्चापि, झल्लो झर्झरी स्मृता । झलरी, बीभत्सरसे विकृतं वैकृतं तथा ।। ११५ ॥ घर्घरे हासिका हास्यं हासश्च हसनं हसः । त्रिकवर्गद्वितीयाप्ता स्मिते वक्रोष्ठिका मता ॥ ११६ ॥ शोचने शुक् शुकः शोकः, कोपे क्रोध-क्रुधा-क्रुधः । रुषा-रोष-रुषश्चाप्युत्साहे तूद्याम उद्यमः ॥ ११७ ॥ उद्योगोऽप्यभियोगश्च वीर्य त्वतिशयान्विते । वीर्यापि, साध्वसे भीति र्मिया भयमप्यथो ॥११८॥ भयङ्करे भीम-भीष्मे डमरं डामरं तथा । उड्डामरमुड्डमरं, शान्तावुपशमः शमः ॥ ११९ ॥ शमथोऽप्यथ रोमाञ्चे पुलकः पुलसंयुतः । . बाष्पे चढ़े अस्रमश्रं, चित् तान्ता चेतना, मतौ॥१२०॥
धी(दा प्रतिपत्तिश्च प्रतिपच्छेमुषी पुनः । तालव्यादिमूर्धन्यान्ता, लज्जायां स्यादपत्रपा ॥१२॥ त्रपा ही ह्रीकया ह्रीका ब्रीडा वीडो, मनःखिदि । सादाऽवसादौ, निद्रायां तन्द्रिस्तन्द्रीश्च तन्द्रया॥१२२॥ तन्यमी चत्वारः शब्दाः स्युर्मोहालस्ययोरपि । औत्सुक्य उत्कण्ठौत्कण्ठ्ये, आकारस्य तु गृहने ॥१२३॥ , अश्रुः, अनुश्च ।
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द्वितीयः काण्डः ।
कुटारिका केटिकावाद्, ह्लादे मोदः प्रमोदयुक् । मुदाऽऽमोदौ प्रमदश्च संमदोऽपि मदो मुदा ॥ १२४ ॥ हर्ष - प्रहर्ष - हरिषा आनन्दानन्द समौ । गर्वेऽभिमान मानौ च विस्मयः स्मय इत्युभौ ॥ १२५॥ तैद्विशेषेऽहं पूर्वा-पूर्विका-प्रथमिकाऽग्रिकाः । व्यायामे तु क्लम-क्लमी परिश्रम-श्रमावपि ॥ १२६ ॥ चिन्तायां चिन्तिया ध्यानं ध्याम नान्तं नपुंसके । प्रतिचिकीर्षारूपे तु ध्याने मर्ष आमर्षकः ॥ १२७॥ चित्तस्थैर्ये मनस्कारो भवेद् मनसिकारयुक् । संभ्रमे त्वरया तूर्णिस्त्वरिस्तर्के वितर्ककः ॥ १२८ ॥ संवेगावेगार्वेहेहे परामर्शो विमर्शनम् । मृत्यौ मृतिः सर्वगे मरि-मारी मरकोऽपि च ॥ १२९ ॥ नटे भारत-भरतौ तथा भरतपुत्रकः । स्त्रीवेषधारकनटे भ्रकुंसः सम्रकुंसकः ॥ १३० ॥ भ्रूकुंसश्च भृकुंसोऽपि, केलीकिलो विदूषके । केलिकिलो वासन्तिक - वसन्तकौ च, हासिनि ॥१३१॥ केलिकिलः कैलिकिलो, विलासिनि जने पुनः । हेलिहिलो हैलिहिलः, आर्ये मारिष - मार्षकौ ॥ १३२ ॥ "चेटी- नीचा- सखीह्नाने हण्डे हजे हलाव्ययाः ।
१५
१ अवकटिकेत्यर्थः । २ गर्वविशेषे अहंपूर्वा, अहंपूर्विका, अहंप्रथमिका, अहमत्रिका चेत्यर्थः । ३ ऊह ईहा च । ४ चेट्याः, नीचायाः सख्याश्च छाने यथाक्रमं हण्डे, हजे हला चेति ।
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शब्दरत्नाकरेअत्तिकाऽप्यन्तिका ज्येष्ठभगिन्यां, मातरि स्मृता॥१३३॥ अम्बिकाऽप्यंविका, भट्टारक-भट्टौ तु पूज्यगात् । नाम्नः प्रयोज्यौ प्रायेण नाट्योत्तौ नाट्यवाचकाः॥१३४॥ इति वादीन्द्रश्रीसाधुकीÉपाध्यायमिशिष्यलेशेन वाचनाचार्यसाधुसुन्दरगणिना विरचितायां शब्दरत्नाकरनामशब्दप्रभे
दनाममालायां देवकाण्डो द्वितीयः ॥ २ ॥
अथ तृतीयः सर्गः।
पुंसि पूरुष-पुरुषौ पुलषो ना नरोऽपि च । मनुष्यो मानुषो मर्यो मर्तोऽपि, बालिशः शिशौ ॥१॥ बालः क्षीरात् कण्ठः पश्च स्तनयः सस्तनन्धयः । कुमार-कुमरौ दह-दहरावथ शैशवे ॥ २ ॥ बाल्यवद् बालिमा पाकं पाकिमा नौ, वयस्यके । युवा युवानस्तरुणस्तलुनश्वाथ यौवनम् ॥ ३ ॥ यौवनिकापि तारुण्ये, स्थविरे तु जरन् जरी । जरन्तश्च जीन-जीर्णावतिवृद्धे दशम्ययम् ॥ ४ ॥ दशमीस्थोऽथ संस्तान्तः प्राज्ञो ज्ञः प्रज्ञकः कविः । कवी स्त्री कविता काव्यो वैदुषो विदुषस्तथा ॥ ५ ॥ विहांश्च शूरि-सूरी तु सूर्येऽपि, बुद्धयुग बुधः । प्रवीणे निष्ण-निष्णातौ नदीष्णः कृतकृत्यकः ॥६॥ १ क्षीरकण्ठः, क्षीरपश्चेत्यर्थः । २ पुंलिङ्गः ।
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तृतीयः काण्डः। कृती कृतार्थश्च विज्ञोऽभिज्ञो वैज्ञानिकोऽपि च । विदग्धे छेक-च्छेकालौ छेकिलश्च, कलाविदि ॥ ७ ॥ कलाज्ञश्च कलज्ञोऽपि, क्षुण्णः संस्कृतवाचकः । तृतीयवर्गप्रान्त्याप्तो, वक्नुर्वग्नु-वचक्नुकौ ॥ ८ ॥ वाग्मिनि स्यात् , वक्तरि तु वदावद-बदौ समौ । अवाक्श्रुतावेडमूकानेडमूकावनेडकः ॥ ९ ॥ कलमूकश्वान्ध-शठ-मूर्खवाच्यपि संमतः । सतामनेडमूकश्चाऽस्फुटवाचि तु काहलः ॥ १० ॥ लोहलोऽपि जड-कडौ, ज्ञायके विदुरस्तथा । विन्दुस्त्रिंक-तुर्यवर्गमध्यौ कटुर-कद्वरौ ॥ ११ ॥ अत्यन्तकुत्सिते, क्षिष्णुर्णान्तो निराकरिष्णुके । प्रियंवदे शक्नु-शक्लो वदान्यश्च वदन्ययुक् ॥ १२ ॥ दानशीलेऽप्यमू, मूर्खे बालिशो बाडिशो जडः । जलो मुहेर-मुहिरावायोऽयःपूर्वशूलिकः ॥ १३ ॥ भवेद् राभसिके, लोकप्रीणके तु पृण-प्रिणौ । प्रीणश्च लोकंपूर्वाः स्युः, परायत्ते परात्परौ ॥ १४ ॥ वश-वन्तौ गृह्यकश्च गृह्या-ऽऽगृह्यकसंयुतः । नायके नेत्र-नेतारावीडीश ईश्वरस्तथा ॥ १५ ॥
१ तृतीयवर्गस्य टकारः, चतुर्थवर्गस्य दकारश्च मध्ये ययोरेतादृशौ कटुरकद्वरावित्यर्थः । २ वदान्य-वदन्यौ । ३ आयोऽयःशब्दौ पूर्वी यस्य तादृशः शूलिकशब्द आयःशूलिक अयःशूलिकश्चेत्यर्थः । ४ लोकम्पृणः, लोकम्प्रिणः, लोकम्प्रीणश्चेत्यर्थः । ५ परवशः, परवांश्चैत्यर्थः । ६ ईड्, तालव्यशन्तः ।
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शब्दरत्नाकरेपति-पाती ऋज-रिजाविडीडी डान्तिमावुभौ । इव-दीर्घादी प्रभुयुग विभुश्चाप्यथ वेतने ॥ १६ ॥ भृति-भृत्ये भर्म भर्मण्या कर्मण्याऽथ भारिके। भारवाड् भारवाहश्चाप्यथो वार्तावहे जने ॥ १७ ॥ वैवधिको विवधिको वीवधिकोऽथ भारके । भरो विवधो वीवधः स्यादथो भारयष्टिका ॥ १८ ॥ विहङ्गिका विहङ्गिमा, विक्रान्ते शूर-सूरको । कातरे भीरुको भीरुीलुकस्त्रस्नु-त्रस्तकौ ॥ १९ ॥ भृशाकुले समुत्पिञ्ज उत्पिञ्जल-कपिञ्जलौ । अथो महेच्छेऽनुदार उदारोदात्तकावपि ॥ २० ॥ दयालौ तु कृपालुः स्यात् कृपारुरनुकम्पने । कारुण्यं करुणा हिंस्रे हिंसीरोऽपि, निबर्हणे ॥ २१ ॥ विशारणं विशरणं निर्वासन-प्रवासने । उद्वासनं, चाहे तु शैच्छेदिकसंयुतः ॥ २२ ॥ शीर्षच्छेयो, मृते प्रेत-परेतौ, तदहेऽर्पणे । तदर्थ चोर्ध्वदेहिकमोर्ध्वदेहिकमित्यपि ॥ २३ ॥ ऊर्ध्वदैहिकमप्यन्याधाने तु मृतदाहगे। चिति-चित्या-चिताः प्रोक्ताः,ऋजौ तु प्राञ्जलोऽञ्जसः॥२४॥ अनृजौ तु शठः शण्ठो, धूर्ते व्यंशक-व्यंसकौ । शठ-शण्ठौ च षण्ढेऽपि, जालिके मायि-मायिकौ ॥२५॥
१ ह्रस्वदर्धािवादी ययोस्तो डकारान्तौ इ ई चेत्यर्थः । २ अधिकरणे कृत् । ३ मृतदाहं गच्छतीति मृतदाहगस्तस्मिन् , अग्न्याधान विशेषणमिदम् ।
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तृतीयः काण्डः ।
मायावी, दाण्डाजनिको दण्डाजनिक इत्यपि । मायायां शठता - शाठ्ये, व्याजे लक्ष्यं तु लक्षयुक् ॥ २६ ॥ संख्यायामपि, पिशुने मत्सरो मत्सरी खलः ।
प्रखलः खुल्लुकः क्षुल्लः क्षुद्रकः क्षुद्रसंयुतः ॥ २७ ॥ कौलीने वादिको जाते जातो जातात्परो मतः । तस्करे चोरटवोर चौरौ पाटच्चरान्वितः ॥ २८ ॥ पटचरौरकर्म चौर्य चोरिका स्तेनवत् ।
स्तेयं स्तैन्यं, हृतधने लोप्त्रं लोत्रं च लोद्रकम् ||२९|| मन्दे त्वलस आलस्यश्चतुरे दक्ष दक्षिणौ । उष्णकोष्णौ, दातरि तु स्यादुदारोऽनुदारयुक् ॥ ३० ॥ बहुप्रदे स्थूललक्षः स्थूललक्ष्योऽपि यान्तिमः । दानेंहतिरंहितिश्च प्रादेशन प्रदेशने ॥ ३१ ॥ निर्वापणं निर्वपणं, याचके तु वनीपकः । वनीयक वनबकौ, प्रार्थनायां तु याचना ॥ ३२ ॥ याश्चैषणाऽध्येषणापि भवितरि भविष्णुयुक् ।
भूष्णुर्भविष्यति भवी भाव्यथो स्यात् प्रसारिणि ॥३३॥ विसारी च विसृमरो विसृत्वरयुतो मतः । लज्जाशीले तु लज्जालुर्लज्जू : स्यात्, क्षमिता क्षमी ||३४|| क्षन्ता सहिष्णुः सहने, ईर्ष्यालुः कुहने स्मृतः । ईर्ष्यश्व, क्रोधने क्रोधी, बुभुक्षायां तु रोचकः ||३५||
१ यकारान्त इत्यर्थः । २ ईर्ष्याविति ।
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शब्दरत्नाकरेरुचिः क्षुधा-क्षुधौ, तृष्णक् तृषिते तृष्णकोऽपि च । क्षुदसहे क्षुधारुः स्यात् क्षुधालुः, शीतकाऽसहे ॥ ३६ ॥ शीतारुश्च सशीतालुः, पिपासायां तृषा-तृषौ । तृष्णा-तर्षों च, लिप्सायां त्रयोऽन्त्या अपि, भक्षके॥३७॥ आशितश्चाशिरो, भक्ते कुरुः कूरं च दग्धिका । भिस्साटा भिस्सटा भिस्सा, दधिसर्वरसाग्रके ॥३८॥ दधिमण्डं मण्डमपि, भक्तमण्डे तु प्रोस्रवः । । निप्रात् स्रावश्च, श्राणायां विलेपी च विलेपिका ॥३९॥ विलेपनी विलेप्याऽपि क्वाथिका कथिकाऽपि च । तरलं तरला, सूपे सूदो प्यथ तिलान्नके ॥ ४० ॥ .. कृसर-त्रिसरौ पुंस्त्री, पिष्टके पूप-पूपको। पूपिकायां पौलि-पौल्यौ पूलिका पोलिकापि च ॥४१॥ पूपली चेषत्पक्के त्वभ्यूपाऽभ्योषाऽभ्युषास्त्रयः । निष्ठानोऽस्त्री तेमने स्यात् , सठः पत्रफलादिके ॥४२॥ शाकं साकं हरितके, करम्भो देधिसक्तुषु । करम्बोऽपि, घार्तिके तु पूरः स्याद् घृत-पिष्टतः ॥४३॥ घृतवरोऽवसेकिमे वटको वटसंयुतः । स्नेहभृष्टतण्डुलेषु भरुजी भरुजापि च ॥ ४४ ।।
१ तृडादयस्त्रयः शब्दा लब्धुमिच्छायामपीत्यर्थः । २ प्रस्रवः, आस्रवश्व ! ३ निशब्दाभ्यां परः स्रावशब्दः, निस्राव-प्रस्रावाविति यावत् । ४ दधि. प्रधानेषु सक्तुग्वित्यर्थः । ५ घृतपूरः, पिष्टपूर इत्यर्थः । ६ स्ने है घृतादिभिः सह भृष्टेषु भजितेपु तण्डुलेषु ।
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तृतीयः काण्डः । मर्मराले पर्पटश्चपटः, पृथुके चेः पुटः । चिपिटश्चिपिटिका शर्करायामुपला सिता ॥ ४५ ॥ सितोपला मधुधूलौ खण्डो वर्गद्वितीयखः । फाणिते स्यात्तु मत्स्याण्डी मत्स्याण्डिश्च मत्स्यण्ड्यपि॥४६॥ मत्सण्डी खैण्डतो योज्या शर्करा सर्करापि च । शिखरण्यां रसाला स्याद् रसिता मार्जितायुता ॥४७॥ मर्जिता, मुद्गादिरसे यू!षस्त्रिषु जुषयुक् । दुग्धे गव्यं गोरसश्च रसोत्तमरसे समे ॥ ४८ ॥ क्षीरस्य विकृतौ कूचिः कूचीका कूचिकान्विता । कूर्चिकापि किलाटी स्यात् किलाटा च किलाटयुक्॥४९॥ द्रप्स-द्रप्स्ये दधन्यघने, हविष्य-हविषी घृते । रसायन-गोरसौ द्वौ घोले, तक्रे त्वरिष्टयुक् ॥ ५० ॥ रिष्टमौदश्वितौदश्वित्के संस्कृत उदश्विति । पिच्छिले विजलं प्रोक्तं विजिलं विज्जलं विजम् ॥५१॥ विजेविलं विजिपिलमारनाले तु काञ्चिकम् । कालिकं च सुवीराऽऽम्लं सौवीरं चाभितः षुतम् ॥५२॥ कुल्माषाभिषुतं चैव कुल्माषं चार्धराद्धके । माषादौ तु कुल्माषः स्यात् कुल्मासश्चाप्युपस्करे ॥५३॥ दन्त्य-तालव्य-मूईन्यमध्यः स्याद् द्वेषवारकः । तिन्तिडीक-तन्तिडीके चुके पक्षण्यपि स्मृते ॥५४॥
चिपुट इत्यर्थः। २ खण्डशर्करा, खण्डसकरा। ३ अभिपुतम् ।
१ अर्धपके मापादावित्यस्य विशेपणमिदम् ।
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शब्दरत्नाकरेराजिकायामासुरी स्यादसुरी च क्षुधा-क्षतात् । परोऽभिजननः शब्दो योज्यते शब्दवेदिभिः॥ ५५ ॥ कुस्तुम्बुरुोर्युकारस्तस्मिन् धान्यं च धान्यकम् । धन्या धन्याकं धान्याकं धानेयक-धनीयके ॥ ५६ ॥ धनकोऽथ कोलके स्याद् मरीचं मरिचं तथा । ऊषणं ह्युषणं विश्वा शुण्ठी शुण्ठिश्च, पिप्पली ॥५७॥ उषणा स्यादूषणापि, कृष्णा च कृष्णतण्डुला । गजपिप्पल्यां वशिरो वसिरः, सर्वग्रन्थके ॥ ५८ ॥ ग्रन्थकं शिरोऽनादन्तः, क्ली सान्तं चटकाशिरः । व्योषे त्रेः कटु-कटुके, अजाजी जीर-जीरकौ ॥ ५९ ॥ जीरणो जरणः कणः जीरकः कृष्णजीरके । सुषवी दन्त्य-मूर्धन्य-तालव्यान्तर्गता पृथुः ॥ ६० ।। पृथ्वी उत्कुञ्चिका चोपकुञ्चिकाप्यथ हिङ्गुनि । वाल्हीकं वाल्हिकं, जग्धौ खादनं खदनं घसिः ॥६॥ निघसोऽपि विष्वाणाऽवष्वाणी जमन-जेमने । ग्रासे गुडेरक-गुडौ गुडेरोऽपि गडोलयुक् ॥ ६२ ॥ गण्डोलः कवलोपेतः कवकः, सुहिते पुनः । आघ्राता-ऽऽघ्राणको, भुक्तत्यक्ते फेला च फेलियुक् ॥६३। मांसाशिनि शाष्वलः स्याच्छौष्कलः शाष्कलिस्तथा ।
१ क्षुधाक्षतशब्दाभ्यां परोऽभिजननशब्दः क्षुधाभिजननः क्षताभिजननइति । २ वार्धिप्रमिताः, चत्वार इत्यर्थः । ३ तिक्तपिप्पली । ४ शुण्ठिमरीचपिप्पलीनां युगपद्वाचको त्रिशब्दात्परौ कटुकटुकशब्दौ ।
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तृतीयः काण्डः ।
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मौष्कुलिर्मोष्कुलो, लिप्सौ लोलगणे लोलुभोऽपि च ॥ ६४ ॥ लोलोऽपि गर्धनो गृष्तु-गृतौ चेहेह ईहने ।
कामश्च कामना, धृष्टो धृष्णुः स्याद् धृष्णजा सह||६५॥ शुभंयुः शुभसंयुक्ते शुभंयथाप्यहंकृति । अहं योऽयुसंयुक्तः, कामुके कामि कामिनौ ||६६|| कामनः कमनः कम्रः कमरः कमितापि च । कामयिताऽभिक-भीकावन्तेर्दुर्विपरो मनाः ॥ ६७ ॥ विचेतस्यभिशस्ते तु स्यादक्षारित क्षारितौ । तिरस्कारे परीभावः पेरापर्यभितो भवः ॥ ६८ ॥ न्यक्कारः सनिकारः स्यात्, जागरूके तु जागरी । जागरिता, जागरणे जागर्या जागरस्तथा ॥ ६९ ॥ जागरा जाग्रिया, शङ्की संशयालुर्भवेदयम् । सांशयिको, दक्षिणा दक्षिण्यो दक्षिणीयकः ॥ ७० ॥ दण्डिते दाप्यतः प्रोक्तो दायितोऽपि तथोच्यते । अच्छे प्रतीक्ष्यो नियपि, पूजिते त्वपचायितः ॥ ७१ ॥ अपचितोऽथार्हणायां पूजा पूज्याऽथ पीनके । बहुलो बहलः स्थूर - स्थूलौ पीवा सपीवरः ॥ ७२ ॥ मांसलांसलौ निर्दिग्धे, कृशे शात-शितौ स्मृतौ । तीक्ष्णेऽप्येतौ बृहत्कुक्षौ तुन्दी तुन्दिक तुन्दिलौ ॥७३॥ तुन्दिभोऽप्युदरिकचोदरिलोदरिणौ समौ ।
१ अन्तर्मनाः, दुर्मनाः, विमनाः । २ पराभवः, परिभवः, अभिभवः ।
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२४
शब्दरत्नाकरेअनासिके विख-विखू विग्रोऽपि, नतनासिके ॥ ७४ ॥ अवाद् भ्रट-टीट-नाटा नाशायां तन्नतावपि । खरनासे खरणसः खरणाः, खुरसदृग्नसि ॥ ७५ ॥ खुरणाः स्यात् खुरणसः, श्रोणे पङ्गुः सपगुलः । स्यात् खल्वाटे तु खलति-खलतावल्पकायके ॥७६॥ पृश्नि-पृष्णी गडुले तु न्युब्ज-कुब्जौ, कुहस्तके । कुणि-कूणी, हखकरपादे खर्वो निखर्वयुक् ॥७७॥ हखशाखे वामनश्च वामा नान्तो, हिननके । वण्डो दन्त्योष्ठ्यवादिः स्यादल्पमेढ़ेऽपि, खञ्जके ॥७८॥ खोड-खोरौ च खोटोऽपि, पोगण्डो विकलाङ्गके । अपोगण्डोऽप्यूर्ध्वजानावूर्ध्वज्ञोर्ध्वज्ञको समौ ॥ ७९ ॥ विलजानौ प्रजुः स्यात् प्रज्ञोऽपि, युतजानुके । संजु-संज्ञौ च सर्वत्र जञसंयोग उच्यते ॥ ८० ॥ वलियुक्ते वलिनः स्याद् वलिभः, शस्तकेशके । केशवः केशिकः केशी, तुण्डिलो वृद्धनाभिके ॥८१॥ तुण्डिभस्तुन्दिलोऽभ्यान्ताऽभ्यमितौ ग्लान-ग्लास्नुकौ । व्याधिते, कच्छुरे तु स्यात्पामनः पामरस्तथा ॥८२॥ सातिसारेऽतिसारक्यतीसारकी, कफान्विते । श्लेष्मणः श्लेष्मलः, क्लिन्ननेत्रे तहति पिल्लयुक् ॥८३॥ चिल्लरचुल्लोऽपि, मूर्ते तु मूर्छालो मूञ्छितोऽपि च ।
१ अवभ्रटः, अवटीट:, अवनाट इति ।
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तृतीयः काण्डः।
२५ पित्ते पलाग्निः पललज्वरोऽथ खेटयुक् खटः ॥ ८४ ॥ वलासो दन्त्य-तालव्यप्रान्तकः कथितो बुधैः । कफे, व्याधौ रोग-रुजौ रुजाऽप्यामय आमकः ॥ ८५॥ अमः, क्षये राजयक्ष्मा यक्ष्मा जक्ष्मापि नान्तकः । जक्ष्म-यक्ष्मावदन्तौ द्वौ, क्षवे क्षुत् क्षुतमप्यथ ॥ ८६ ।। क्षवथौ काशः कासोऽपि, खसे पामा तु पामया । कच्छुः कच्छुः स्त्रियां सर्वे, खा कण्डूयनं मतम् ॥८७॥ कण्डूः कण्डूति-कण्डूये, व्रणे रुषो रुषा सह । ईर्मोऽस्त्रियामीर्म नान्तं, गण्डे विस्फोट-स्फोटकौ ॥८८॥ पिटकः पिटका तहस्पिटकं च, किलासके । सिध्म-सिध्मे, कुष्ठभेदे द दर्दूश्च दद्रुयुक् ॥ ८९ ॥ दद्भूदर्दूश्च, कोठके मण्डलकं च मण्डलम् । हृल्लासे हिक्का हेक्कापि, पीनसे स्यादपीनसः ॥ ९ ॥ आपीनसः प्रतिश्यायः प्रतिश्या, श्वयथौ पुनः । शोफ-शोथौ, छर्दने तु च्छर्दिश्छर्दी प्रच्छर्दिका ॥११॥ वमनं वमि-बमथू, कुरण्डस्त्वण्डवर्धने । कूरण्डोऽपि, प्रमेहे तु मेहोऽपि च, चिकित्सके ॥९२॥ आयुर्वेद्यायुर्वेदिको भिषग्-भिषज-भिष्णजाः । जायौ भेषज-भैषज्ये उपचारश्चिकित्सने ॥ ९३ ॥ उपचर्यापि, सत्कृत्यालंकृतस्खकनीदये। कूकुदः कूपदश्चाऽऽपदापदे विपदा विपद् ॥ ९४ ॥ विपत्तौ, कृच्छ्रवञ्च्ये तु समौ दृडाभ-दूडभौ ।
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शब्दरत्नाकरेसमधुकस्तु वरदे स्यात् समर्धक इत्यपि ॥ ९५ ॥ सदस्ये तु पारिषद्य-पार्षद्यावथ संसदि । परिषत्-पर्षदौ तुल्ये समज्या च समाजयुक्॥ ९६ ।। आस्थानमास्था, दैवज्ञे, नैमित्तिको निमित्तवित् । नैमित्तोऽपि च, मौहूर्तो मौहूर्तिकेऽथ लेखके ॥ ९७ ॥ लिपिकरो लिविकरोऽक्षरन्यासे लिपिलिविः । मषी-मस्यौ मलिनाऽप्सु, कितवे त्रितयं स्मृतम् ॥९८॥ धा” धूर्तोऽक्षधूर्तश्च, दुरोदर-दरोदरे । द्यूतेऽथाऽक्षे पाशकः स्यात् प्रासकः शारितः फलम्।।९९॥ फलकोऽष्टापदे शारिः शारः खलनिकोच्यते । व्यालग्राह्यहितुण्डिक आहितुण्डिक इत्यपि ॥ १० ॥ मनोजवस्ताततुल्ये मनोजवसकोऽपि च । क्षेमंकरो रिष्टतात्यरिष्टताती तथाऽऽस्तिके ॥ १०१ ॥ श्राद्ध-श्रद्धालू च, सहे प्रभविष्णुः प्रभूष्णुयुक् । शक्त-शक्लावसामर्थ्यजीवके चानवस्थिते ॥ १०२ ॥ चत्वारोऽमी पराः कर्णात टिरिटिरि-ष्टिरोष्टिरा।। चुरुचुरु-श्चुरुचुरा, शिथिलः शिथिरः श्लथे ॥ १.३॥ स्थित ऊर्ध्वदमश्चोो निर्वकारो वकारवान् । ऊर्ध्वदमस्तद्भवे तु ऊर्द्धाद् दमिक दामिकौ ॥१०॥ ऊर्ध्वदमिकोऽप्यध्वगे तु स्यादध्वन्योऽध्वनीनवत् । गन्तु-गान्तू पथिकश्च पान्थः, शम्बल-सम्बले ॥१०५॥ १ वकाररहितस्तत्सहितश्च ऊर्ध्वः, ऊर्धश्चेत्यर्थः ।
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तृतीयः काण्डः ।
पाथेये, जङ्घाकरे तु जङ्घाकरिक जाङ्घिकौ । वरिते जवी च जवनः सहायेऽभ्यनुतश्चरः ॥ १०६ ॥ अनुगाम्यनुगश्चापि सेवायां स्यादुपासना । उपास्त्युपेता चोपास्या परेश्चैषणमेषणा ॥ १०७ ॥ पत्तौ पदाति-पादातौ पादातिक-पदातिकौ । पदकः पदगः पद्गः पादाविक-पदाजिकौ ॥ १०८ ॥ प्रष्ठे सरोऽग्रेऽग्र-पुरः-परतो गम-गामि-गाः । पुरस्तः, आवेशिके तु स्तः प्राघूर्णक-प्राघुणौ ॥१०९॥ अतिथ्योऽतिथिरातिथ्य आपरौ गान्तु-गन्तुकौ । आवेशिक आतिथेय्यातिथेयातिथ्यनिःस्वनाः ॥११॥ ग्रामे भवे तु ग्रामीण-ग्रामीणौ ग्राम्य इत्यपि । ग्रामेयकश्च, लोके तु जनो जनपदस्तथा ॥ १११ ॥ देवलोके देवविशा देवविद् वाऽभिजातके । जात्याभिजौ कुलीनश्च कुल्य-कौलेयकौ समौ ॥११२॥ महाकुलीनसहितौ माहाकुल-महाकुलौ । गोत्रोऽन्वयोऽन्ववायश्च संतानः संततिस्तथा ॥ ११३ ॥ स्त्रियां महेला महिला मेहला च महेलिका । वामिर्वामा जोषा योषा स्याद् योषिदपि योषिता॥११॥ स्याद् मत्तकासिनी मत्तगामिन्यां मत्तकाशिनी । स्यलङ्कारे कुटुमितं युकार, कन्यका कनी ॥११५॥ कुमार्या, मध्यमवयःस्त्रियां स्यात् तरुणी तथा । तलुनी, युवतिथोक्ता युवत्याद्यवयःस्त्रियाम् ॥११६।।
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२८
शब्दरत्नाकरेसुवासिनी ववासिनी वधूटी वध्वटीति च । चिरिण्टी स्याच्चिरण्टी च चरिण्टी सचरण्टिका ॥११॥ पत्न्यां सधर्मिणी सहधर्मिणीगृहिणीगृहाः। कलत्रं कडवं दारः पुंसि वा भूम्नि दारया ॥ ११८ ।। जनिर्जनी कुटुम्बिन्यां स्यात् पुरन्ध्रिः पुरन्ध्यपि । स्नुषायां तु वधूयुक्ता वधूटी च जनिर्जनी ॥ ११९॥ कुलस्त्रियां तु कुलतो वालिका पालिकाऽपि च । कान्तायां प्रेयसी प्रेष्ठा षटकार-ठकारभाक् ॥ १२० ॥ प्रिया, कान्ते प्रियः प्रेयान् प्रेष्ठष्ट-ठद्वयान्वितः । वरो वरयितोहाहे विवाहे यम-यामकौ ॥ १२१ ।। उपात्, जायापत्योस्तु जम्पती दम्पती स्मृतौ । द्वित्वे, जस्यती दस्यती प्रायो वेदे प्रयोजितौ ॥ १२२ ॥ जित्वरीवाचको पूर्वावेकवादावुदाहृतौ। हरणे तु सुदायः स्याद् दायो युतक-यौतकौ ॥ १२३ ॥ यौतुकः, परगहस्था त्वायत्ता शिल्पजीविनी । सैरन्ध्री चापि सेरन्ध्यथावरोधनप्रेष्यिका ॥ १२४ ॥ असिक्निका स्यादसिक्की, दूत्यां दूतिरपि स्मृता । प्राज्ञी प्रज्ञा प्रजानत्यामाचार्यानी नृयोगके ॥ १२५ ॥ आचार्या, मातुलानी च मातुल्यपि तथा मता । उपाध्यायान्युपाध्यायी, क्षत्रियाणी स्वतो भवेत् ॥१२६॥
, दारः पुंलिङ्गः, बहुवचनान्तः, एकवचनान्तश्चेत्यर्थः । २ धवयोगं विनेत्यर्थः ।
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तृतीयः काण्डः ।
क्षत्रिया स्यादुपाध्याय्युपाध्यायाऽऽर्याणिका पुनः । आर्या पुना दिधिर्दिधीषुरपि तडवे ॥ १२७ ॥ दिधिषुर्दिधिपूर्विप्रे लग्रतो दिधिधुर्मतः । दिधिषूरप्यसत्यां तु वर्षणी धर्षणीति च ॥ १२८ ॥ पांशुला पांसुलाऽथ स्यात् पतिः पत्नी च जीवतः । पतिवन्यां, निर्वीरा च वीरा पति-सुतोज्झिता ॥१२९|| भिक्षुकी भिक्षुणी मुण्डा श्रमणा श्रवणाऽपि च । गणिकायां वेश्या वेष्या पण्याङ्गना पणाङ्गना ॥१३०॥ कुट्टन्यां शम्भली दन्त्य-तालव्यादिर्मता बुधैः । कुम्भदास्यां पोटा वोटाऽवस्त्रनार्या तु नग्निका ॥१३॥ नग्ना कोटवी कोट्टवी, ऋतुमत्यां तु पुष्पिता । पुष्पवती चाविरवी निष्पुष्पायां तु निष्कला ॥१३२॥ निष्कल्यपि च स्त्रीधर्मे आर्तवं ऋतुसंयुतम् । रजः सान्तं रजोऽदन्तो ना गुणेऽप्यथ मैथुने ॥१३३॥ सुरतं स्याद् रति-रते पशोधर्म-क्रिये स्मृते । जभनं यभनं, गर्भवत्यां गुर्वी च गुर्विणी ॥ १३४ ॥ प्रसूतायां विजाताख्या प्रजाताप्यथ भ्रूणके । वृधसानो वर्धसानो गरभो गर्भ इत्यपि ॥ १३५ ॥ दोहदं दौहृदं श्रद्धा, पुत्र्यां तु स्यात् स्तनन्धया । स्तनन्धया सूनुः सुतापत्ये, पुत्रेऽपि तोककम् ॥१३६॥ तुगपत्ये, भ्रातृपुत्रे भ्रातृव्यो भ्रात्रीयोऽपि च । पुत्रपुत्रे पौत्रस्तस्य युवापत्ये पुनः स्मृतः ॥ १३७ ।।
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३०
शब्दरत्नाकरे
पौत्रायण एवं पुनर्भूनानान्द्रो दुहितृवत् । पौनर्भव- पौनर्भवायणौ, नानान्द्र इत्यपि ॥ १३८ ॥ नानान्द्रायणो, दौहित्रो दोहित्रायणकस्तथा । पैत्र्यां नप्ता भवेद् नप्त्री स्यात् पितृष्वसुरात्मजे ||१३९ | पितृष्वसेयवत्पैतृष्वस्रीयो, जननीस्वसुः । पुत्रे तु मातृष्वस्त्रीयस्त इन्मातृष्वसेयकः ॥ ॥ १४० ॥ दास्याः सुते तु दासेय-दासेरौ च नटीसुते । नाटय-नाटेरौ, पुत्रे बन्धक्या बान्धकेयवत् ॥ १४१ ॥ बान्धकिनेयश्च, कौलटेरः स्यात् कौलटेयवत् । भिक्षुसत्याः सुते कौलटेय-कौलटिनेयकौ ॥ १४२ ॥ स्वजाते त्वौरसौरस्यौ, भवेद् गोलच गोलकः । मृते पत्यौ जारजोऽथ भ्रातरि स्यात्सहोदरः ॥ १४३ ॥ समानोदर्य-सोदर्य-सोदराः, ज्येष्ठभ्रातरि । अग्रजोऽग्रियाऽग्रिमकौ स्यात् कनीयांश्च कन्यसः ॥ १४४॥ यविष्ठोऽपि यवीयांश्च कनिष्ठे सोदरे समाः । ज्येष्ठ-कनिष्ठ यविष्ठास्त्रकवर्गद्वितीयकाः ॥ १४५ ॥ स्यालस्तालव्य - दन्त्यादिः पत्न्या भ्रातरि कथ्यते । देव-देवर-देवानः स्युः पत्युरनुजे, स्वसा ॥ १४६ ॥ जानिर्यानिः कुलस्त्री व भभी स्याद् भगिन्यन्विता । पत्युः खसरि ननन्दा ननान्दा नन्दनीत्यपि ॥ १४७॥ पत्नीकनिष्ठभगिन्यां श्याली शाली च, खेलने । परिहासः परीहासः कुर्दनं कूर्दनं समौ ॥ १४८ ॥
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तृतीयः काण्डः।
३
किलः केलिश्च जनके बप्पो वप्रश्च तातयुक् । ततो जनयिता तद्वज्जनित्रोऽपि च, मातरि ॥१४९॥ अम्बाऽप्यब्बा जनयित्री जनित्री जननीयुता । जानी, पित्रोः स्मृतौ माता-पितरौ, मातरात्परौ ॥१५॥ पितरः पितृशब्दश्व, ज्ञातौ स्वः स्वजनस्तथा । बान्धवो बन्धुरात्मीये स्व-स्वकीये, नपुंसके ॥ १५१ ॥ पण्डु-पाण्डौ शण्ठ-शण्ढौ तृतीयाप्रकृतिस्तथा । तृतीयप्रकृतिदेहे कलेवरं कडेवरम् ॥ १५२ ॥ तनूः स्यात्तनु-तनुषी घनस्तद्वच्च भूघनः । गानं गान्त्रं मूर्तिमच्च मूर्तिः स्यात्, कुणपे शवः॥१५३॥ शवः सान्तं भवेत् षण्ढे, मूर्ध्नि मस्तक-मस्तिके। शिरः सान्तं स्मृतं क्लीबे शिरोऽदन्तो मतो नरि ॥१५॥ चिकुरश्चिहुरः केशे ललाटस्याऽलके पुनः । भ्रमरकः स्याद् भ्रमरालको वेणिः प्रवेणियुक् ॥ १५५ ॥ केशन्यासे काकपक्षे शिखण्डक-शिखाण्डिकौ । वक्रस्त्रिषु च्छन्दस्यपि, दान्ते षण्ढे भषद् भसद्॥१५६॥ आमाशयस्थाने च, जघनेऽपि तुण्डि-तुण्डको । घनं घनोत्तमं भाले त्वलीकमलिकं तथा ॥ १५७ ॥ कर्णे श्रवणं श्रुतिवत् श्रवः श्रोत्रं च श्रौत्रकम् । नेत्रेऽक्ष्यऽक्षणं दृशि-दृशे दृग् लोचन-विलोचने ॥१५८॥ कनीनिकायां तारा स्यात् तारकाऽप्यर्धवीक्षणे । काक्षः कटाक्षो नेत्रस्य मीले मेष-मिषौ नितः॥१५९॥
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शब्दरत्नाकरेकालभेदेऽपि भ्रूविकारे भ्र-भु-भू-भृतः कुटिः । भ्रूमध्ये कूर्च-कूपे कूर्प नके नस्नया नसा ॥ १६० ॥ नासा नस्या नासिका च नाशिका घ्राणमाघ्रया । घा, दन्तवस्त्रे ओष्ठः स्यात् त्रिकवर्गद्वितीयवान् ॥१६॥ ओष्ठप्रान्ते सृक्क नान्तं क्लीबं सृक्कमदन्तकम् । सृक्कणी सृणिय॑न्तेदन्ते सृक्कि नपुंसके ॥ १६२ ॥ इदन्तमेकैर्वद्वन्द्वं कयुग्ममपरैः स्मृतम् । सृक्कशब्देऽथ हन्वयसन्धौ स्याच्चिबुकं चिबुः ॥१६३॥ दंष्ट्रिकायां दाढिका स्याद् द्राढिका खादने पुनः । रदनो रदयुग्दंश-दशनौ मल्ल-मल्लकौ ॥ १६४ ॥ जिह्वायां रसना दन्त्य-तालव्यान्तर्गता रसा । रसमातृका रला च रसिका रसनं तथा ॥ १६५ ॥ गले कण्ठः कण्ठी कण्ठं शब्द-समीपयोरपि । अंसे तु स्कन्धः स्कधश्च सान्तं क्लीबमुरोंसयोः ॥१६६॥ सन्धौ तु जत्रु षण्ढे स्यात् तकार-रेफेयोगवत् । प्रवेष्टो दोर्दोषा बाहुर्बाहा बाहो भुजो भुजा ॥ १६७ ॥ भुजामध्ये कपोणिः स्यात् कफोणी च कफोणियुक् । कफणिः कफणी तद्वत्कुपरः कूपरोऽपि च ॥ १६८ ।। प्रकोष्ठे वर्गद्वितीयः स्यात् कलाचिः कलाचिका । हस्ते करः करिर्हस्तमूले तु मणिबन्धवत् ॥ १६९ ॥ , मणिः स्यात्करशाखायाममुरी चाङ्गुरिस्तथा । अङ्गुलोऽङ्गुलिरमुल्यां तर्जन्यां तु प्रदेशिनी ॥१७० ॥
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तृतीयः काण्डः।
प्रदेशिनी प्रदेशिका, ज्येष्ठाङ्गुल्यां तु मध्यमा । मध्या, ज्येष्ठा-कनिष्ठे वे टवर्गद्वितीयान्विते ॥ १७१ ॥ पुनर्नव-पुनर्भवौ करजे नखरस्त्रिषु । नखोऽस्त्री तर्जन्यायत्तेऽङ्गुष्ठे त्वथ प्रदेशवत् ॥ १७२ ॥ प्रादेशोऽप्यायताङ्गुलौ हस्ते स्यात् प्रतलस्तलः । तालिका-तालौ चपेटश्चर्पटश्वपटोऽपि च ॥ १७३ ॥ तद्वये योजिते सिंहतलः संहतलस्तथा । तताङ्गुष्ठमध्याङ्गुलिमाने तालस्तलोऽपि च ॥ १७४ ॥ वितस्ति-खड्गमुष्टयोश्च, कुब्जिताङ्गुलिके करे । प्रसृतः प्रसृतिश्चापि गण्डूषे चलुकश्चलुः ॥ १७५ ।। चुलुको, निष्कनिष्ठे स्याद् हस्त आर्तिररत्नयुक् । तिर्यक्प्रसारितबाहोायामो व्याम-व्यामनी ॥१७६॥ वियामः, पृष्ठवंशे तु रीढको रीढयुग मतः । पृष्ठं वर्गद्वितीयाप्तमुत्सङ्गे ङ्को नपुंसके ॥ १७७ ।। सान्तमकोऽप्यदन्तो नाऽथोरोजोरसिजौ स्तने । कुच-कूचौ, जठरे तु स्यात् पिचण्डः पिचिण्डयुक्॥१७८॥ तुन्दं तुन्दिः कुक्ष-कुक्षी, यक्नि कालेय-कालके । कालखण्डं कालखञ्ज, गुल्मे प्लीहा प्लिहा तथा ॥१७९॥ नान्तौ, प्लीहा चाबन्तोऽपि, मध्ये मध्यम इत्यपि । विलग्नावलग्नौ सर्वे पुंक्लीबाः, रसनापदे ॥ १८० ॥ कटीरं च कटि-कटी-कटाः श्रोणी च श्रोणियुक् । वलित्रयसमाहारे त्रिवलिस्त्रिवली तथा ॥ १८१ ॥
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शब्दरत्नाकरेत्रिकपार्श्वगर्तयोस्तु कुकुन्दरे कुकुन्दुरे । युतौ स्फिचौ स्फिजौ चान्तौ जान्तौ, स्यात्स्मरमन्दिरे।१८२१ योनिर्योनी च, पुंश्चिह्ने शेपः शेफश्च सान्तगे । शेप-शेफौ च शेवश्च त्रयोऽदन्ता बुधैः स्मृताः ॥१८॥ लागूलं शङ्क लङ्गुलं, मुष्क आण्डाण्डको नरि । अण्डं पेलं पेलकोऽप्यथोरुरूरूश्च सक्थनि ॥ १८४ ॥ जङ्घायां तु टङ्क-टङ्गौ खनित्रेऽपि च तौ मतौ । पादग्रन्थौ कुल्फ-गुल्फो घुटिको घुण्ट-घुण्टकौ ॥१८५।। घुटः सर्वेऽपि पुंस्त्रीगाः, चरणे चलनः क्रमः । क्रमणः पाद-पदौ पात् पत्-पदे अंहिरङ्घ्रियुक्॥१८६॥ तिलके कालकस्तद्वत् तिलकालक इत्यपि । जडुलो जटुलो, मांसे पलं पललमामिषम् ॥१८७॥ अमिषं चार्द्रमांसे तु भवेदर्पशमर्पिशम् । मुख्यमांसे बुक्का नान्तं त्रिषु वुक्कस्त्रिषु स्मृतः ॥१८८॥ वुक्काग्रमांसाग्रमांसे वृक्कः स्यात्पुंस्त्रियोर्वसा । मेदः सान्तं मेदोऽदन्तो मस्तिष्को मस्तुलुङ्गकः ॥१८९॥ मस्तकस्नेहे गोदोऽस्त्री करोटं शिरसोऽस्थनि । करोटीवत् करोटिश्च भकालं च भगालयुक् ॥१९॥ पृष्ठहड्डे कशेरुका कशारुकाऽस्थिसंभवे । मज्जा नन्तो द्वयोर्मज्जाऽऽबन्तः स्त्री त्रि-रेतसी ॥१९१॥ बल-बल्ये च वीर्ये द्वे लोम रोम तनूरुहे । तनुरुहं, चर्म चर्म त्वक् त्वचं चोचमित्यपि ॥१९२॥
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तृतीयः काण्डः ।
असृग्धरा सृग्धरा च कषिते लेख्यचर्मणि । कडित्रं सकटित्रं च, स्नायौ वसस्त्रया स्वसा ॥ १९३ ॥ नावा नान्तो, धमन्यां तु धमनिर्नाडि-नाडकौ । नाडी शिरा सिरा नेत्रमले दूषी सदूषिका ॥ १९४ ॥ दुषीका काणुकं काणूक माणूकवदाणुकम् । घ्राणमले शिङ्खाणक - सिङ्घाणौ, लालिका पुनः ॥ १९५ ॥ सृणीका सृणिका गूथो विड- विषौ शान्त-षान्तगौ । वर्चस्क-वर्चसी तुल्ये विष्ठा वर्गद्वितीयभाक् ॥१९६॥ नेपथ्ये वेष- वेशौ द्वावुत्सादनमुहूर्तने । उच्छादनं चापि समालभने चर्चिक्यं मतम् ॥१९७॥ चर्चाऽपि, मण्डने प्रति परितः कर्म कथ्यते ॥
३५
मा मा मृजा मार्जा मार्जना, स्नान आप्लवः॥ १९८ ll आप्लावोऽपि च, गात्रानुलेपन्यां वर्तिरुच्यते । वर्ती तथा जोङ्ग स्यादगर्वगुरु वंशकम् ॥ १९९ ॥ वंशिका वंशिकं कृमिजग्धं कृमिजमित्यपि । प्रवरं प्रकरं तुल्ये गोशीर्षे हरिचन्दनम् ॥ २०० ॥ हरिश्र, रक्तचन्दने पत्रगं च पतङ्गकम् | पत्राङ्ग, सौमनसे तु जातिर्जाती फलं तथा ॥ २०१ ॥ जातीफलं जातिफलं तद्वत्कोशफलं मतम् । जातीकोशं जातीकोषं, कर्पूरे स्यात् सिताम्रकः॥२०२॥ सिताभश्चापि, कस्तूर्थी नाभिवद् मृगनाभिजा । मृगनाभिर्मृगमदो मृगः स्याद् मद इत्यपि ॥ २०३ ॥
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शब्दरत्नाकरे
कुङ्कमे वरवाहीकं वरं वाहीक-वाहिके । कश्मीरजन्म काश्मीरं कश्मीरजमपि स्मृतम् ॥ २०४॥ संकोचपिशुनं तद्वत्संकोचं पिशुनं समे। वर्ण वर्ण्य, देवसुमे लवङ्ग लवसंयुतम् ॥ २०५ ।। कोशफले ककोलकं ककोलं कोलकं तथा । कोलं कोरं च, कालानुसार्ये यापक-जापके ।। २०६ ॥ कालीयकं कालेयकं कालियं चाऽग्निवल्लभे। . रालोऽक्ष्यरालः, श्रीवासे धूपः स्याद् वृक-वृक्षतः।।२०७॥ श्रीवेष्टः श्रीपिष्टकश्च, कोटीरे मुकुटोऽस्त्रियाम् । मकुटोऽपि किरीटं स्यात् तिरीटं पुष्पदाम तु ॥२०८॥ नान्तः क्लीनोराबन्तोऽस्मिन् मुण्डमालाभिधे स्मृतम् । ललामवल्ललामाऽश्व-प्रधान-ध्वज-लक्ष्मसु ॥ २०९ ॥ पुण्डू-बालधि-शृङ्गेषु भूषा-प्रभावयोरपि ।। माल्यं माला, तिलके तमालपत्रं तमालवत् ॥ २१० ॥ शीर्षस्रज्यवतंसः स्याद् वसन्तोत्तंसकौ समौ । त्रयोऽमी कर्णपूरेऽपि पत्रावल्यां तु पत्रतः ॥ २११ ॥ भङ्गि-लेखा-लताङ्गुल्यो वल्लरी मञ्जरीति च । वल्लिश्वोत्क्षिप्तकायां तु कर्णान्दूश्च कर्णान्दुयुक् ॥२१२॥ कण्ठभूषायां ग्रैवेयं ग्रैवं ग्रैवेयकं तथा । मुक्तास्रज्याहारो हारः स्त्रीत्रोर्यष्टयां सरिः सरः॥ २१३ ।। सारिकाऽप्येकावल्यां तु कण्ठी कण्ठिकया सह । १ पत्रभङ्गिः, पत्रलेखा, पत्रलता, पत्राङ्गुलिश्चेत्यर्थः ।
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तृतीयः काण्डः । कटिके तु पारिहार्यःपरिहार्यश्च कङ्कणम् ॥ २१४ ॥ कङ्कणिशर्मिकायां त्वङ्गुलीयकाङ्गुरीयके ।। मेखलायां सारसनं दन्त्य-तालव्यमध्यगा ॥ २१५ ।। रसना, काञ्चिः काञ्ची च किङ्किणिः क्षुद्रघण्टिका । किङ्कणी कङ्कणीका च कङ्कणी किङ्किणीत्यपि ॥२१६|| समे मञ्जीर-मन्दारे नूपुरे पादतः परे ।। शीली च नालिका पादाङ्गुलीये पादतः परे ॥२१७॥ पालिका कीलिका, वस्त्रे वसनं वस्न-वाससी। सिनो निवसनं सन्नं कर्पटं पटमित्यपि ॥ २१८ ॥ पटः पट्याच्छादनं च छादः सिक्-सिचयो तथा । वस्त्राञ्चले वर्ति-वस्ती दुकूलमतसीपटे ॥ २१९ ॥ दुगूलं, कम्बले रल्लो रल्लकोऽथ निवीतके । प्रावृतं निवृतं, स्थूलशाटे तालव्य-दन्त्यवान् ॥२२०॥ वरासिः, परिधानस्य ग्रन्थौ नीवी च नीवियुक् । चण्डातके चलनकश्चलनचलनिका पुनः ॥ २२१ ॥ चोलोली कञ्चुलिका कञ्चूलः कञ्चुकोऽपि च । कूर्पासकश्च कूर्पासः कुर्पासः सर्पासकः॥ २२२ ॥ शाटके तु शाटः शाटी, परिधानापराञ्चले । कच्छा कच्छाटी च कच्छाटिका, कौपीनके पुनः॥२२३॥ कक्षापटः कक्षापुटः, कर्पटे नक्तको मतः । लक्तकः, प्रच्छदपटे उत्तरच्छद उच्यते ॥ २२४ ॥ निचोलको निचुलको निचोलं च निचोल्यपि ।
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३८
शब्दरत्नाकरे
निचुलोऽवसत्थिकायां स्मृता पर्यस्तिकायुता ॥२२५॥ पर्यस्तिश्चापि पर्यङ्कः पल्यङ्कोऽपि, कुथे पुनः । वर्णपरिस्तोम-वर्णी परिस्तोमवदास्तरः ॥ २२६ ।। आस्तरणं प्रवेणीयुक् प्रवेणिः प्रतिसीरिका । जवनी जवनिकापि यवनी यमनीति च ॥ २२७ ॥ दृष्ये स्थूलं स्थुडमपि, पटकुट्यां तु केणिका । केणिः, पल्लवादिकृता शय्या संस्तर-प्रस्तरौ ॥ २२८ ॥ स्रस्तरोऽपि च, तल्पे तु शयनं शयनीयवत् । शय्यापि च खट्वायां तु मञ्चवद् मञ्चकः स्मृतः॥२२९॥ पर्योऽपि च पल्यङ्कः, पतद्ग्राह-पतद्ग्रहौ । प्रतिग्रह-प्रतिग्राही पालेऽथो दर्पणे मतः ॥ २३० ॥ मकुरो मुकुरस्तहद् मङ्कुरोऽप्यात्मदर्शवत् । आदर्शो, वस्त्रासने त्वासन्दा-सन्धौ च सन्दवत् ॥२३१॥ सन्दी भोजन आच्छादे एकोक्त्या चोभयोरपि । कशिपुर्दन्त्य-तालव्यमध्यः स्याच्छयनासने ॥ २३२ ॥ एकोत्तयोशीरमौशीरं पलङ्कशा पलङ्कषा। राक्षा रक्षा च लाक्षापि तद्रसे याववद्यतः ॥ २३३ ॥ यावको लक्तकालक्तौ, दीपस्तु कज्जलध्वजे । प्रदीपो दीपवृक्षश्च तालवृन्ते तु वीजनम् ॥ २३४ ॥ व्यजनं मृगचर्मोते धवित्रं च धुवित्रवत् । केशमार्जे कङ्कतिका कङ्कतः काक-कङ्कते ॥ २३५ ॥ कङ्कती, बालक्रीडने गिरिको गिरिवद्गुडः ।
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तृतीयः काण्डः।
३९ गिरिगुडो गिरियको गिरीयकोऽथ गिन्दुकः ॥ २३६ ॥ गेन्दुकोऽपि कन्दुके द्वौ, पार्थिवे नृपतिर्नृपः । भूप-भूपति-भूपालास्तथा मूर्नाभिषिक्तयुक् ॥ २३७ ॥ मूर्द्धावसिक्तो राजा राट् राज्ये महिन-माहिने । वसुदेवा वासुदेवा अईचकिषु संमताः ॥ २३८ ॥ तज्ज्येष्ठभ्रातृषु बला बलदेवाः, पृथौ नृपे । वेनिर्वैन्यो, भरते तु स्यात् सर्वदमनस्तथा ॥ २३९ ॥ सर्वदमः, सीतापतौ रामः स्याद् रामचन्द्रवत् । रामभद्रोऽपि, सौमित्रौ लक्ष्मणो लक्षणान्वितः ॥२४॥ कैकेयी कैकयी चास्याः पुत्रे तु भरतो मतः । भरथोऽप्यथ जानक्यां शीता तालव्य-दन्त्ययुक्॥२४१॥ इन्द्रसुते वालिर्वाली, मारुतो हनुमानिति । हनूमान्, भीमशत्रौ किर्मीरः कर्मीर-किर्मिरौ ॥२४२॥ हिडिम्बो डीकारयुक्तोऽर्जुने फल्गुन-फाल्गुनौ । बीभत्सो बीभत्सुरपि, पाण्डुसूनुषु पाण्डवाः ॥ २४३ ॥ पाण्डवायनाश्वाऽर्जुनधनौ गाण्डीव-गाण्डिवौ । धनुर्मात्रेऽप्यमू, हाले वाहनः सात-सालतः ॥ २४४ ॥ सालोऽपि, परिवारे तु परेबहश्च बहणम् । आतपत्रे प्रतपत्रं छत्रं छत्रश्च छत्र्यपि ॥ २४५ ॥ रोमगुच्छे चामरं स्याच्चमरश्वामरस्तथा । चामरापि, भृङ्गारे त्वालूराण्डूः, सचिवे पुनः ॥ २४६ ॥ अमात्य आमात्यो मन्त्री मन्त्रिश्च, द्वारपालके ।
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४०
शब्दरत्नाकरे-- प्रतीहारः प्रतिहारो द्वाःस्थो द्वाःस्थितदर्शकः ॥ २४७ ॥ द्वाःस्थितो दर्शकस्तद्वत् द्वाःस्थितादर्यऽपि स्मृतः । सूदाध्यक्षे पुरोगुः स्यात् तथा पौरोगवोऽपि च ॥२४८॥ सूपकारे सूप-सूदौ स्यादन्तःपुरके पुनः। आन्तश्मिकयुगान्तर्वशिकोऽन्तःपुरे समौ ॥ २४९ ॥ अवरोधनावरोधौ भवेत्कञ्चुकिके पुनः । कञ्चुकी सौविदिल्लश्च सौविदः, स्थपतिस्तथा ॥२५॥ स्थापत्यः स्थापतीकश्च, रिपौ शत्रुः सशात्रवः । अभिमातिरभियातिरारातिश्चाऽप्यरातियुक् ॥ २५१ ॥ ऋष्व-ऋष्वौ घातुकेऽपि द्विषन् द्वेषी च द्विड्युतः। परेः पन्थक-पन्थिनौ, सख्यौ सूर्येऽपि चोच्यते ॥२५२॥ मित्रशब्दो द्वितकारः, सख्ये सौहार्द-सौहृदे । मैत्त्र्यं मैत्री, हेरिके तु चरश्वारोऽवसर्ग्यवत् ॥ २५३ ।। अपसर्पः, सान्वजे तु शाम तालव्य-दन्त्ययुक् । प्रावृते लञ्चया लञ्च उपदोपप्रदानवत् ॥ २५४ ॥ शौर्ये शौण्डीर्य-शौण्डीरे नय-न्यायौ समञ्जसे । भागधेयो भागधेयी भागोऽपि कारवत् करः ॥२५५|| राजदेयेऽनीकिन्यां तु सेना सैन्यं चमूश्चमुः। सैन्यपृष्ठे प्रति-परेर्ग्रहः, केतौ तु केतनम् ॥ २५६ ॥ वैजयन्ती वैजयन्तो जयन्ती च ध्वजो ध्वजिः । ध्वाजिश्च ध्वजपस्तद्वत्पताकाऽपि पटाकया ॥२५७॥ ध्वज कूर्चक उच्चूडोच्चूलौ द्वौ चूड-चूलकौ ।
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तृतीयः काण्डः। अवात्परौ क्रीडार्थे तु रथे पुष्परथो मतः ॥ २५८ ॥ मूईन्यान्तस्थायोगाप्तो, भवेत् कर्णीरथे पुनः । डयनं हयनं चाप्यनसि स्याच्छकटस्तथा ॥ २५९ ॥ शकटी शकटं तद्वच्छकटिर्वहसाऽन्वितः । वाहसो वृषभेऽप्येतो, प्रधौ नेमी च नेमिवत् ॥२६॥ अक्षाग्रकीले त्वण्यानी अस्नि-सीम्नोरपि स्मृतौ । पिण्डिकायां नाभिर्नाभी, कूबरं स्याद् युगन्धरे ॥२६॥ कुबरं चाधास्थदारावनुकर्षा नरि नान्तगः । अनुकर्षोऽस्त्यदन्तोऽपि धूर्वीवद् धूधुराऽपि च ॥२६२॥ यानमुखेऽथ दोलायां प्रेङ्खः प्रेङ्खा, विनीतकम् । वैनीतकं, परम्परावाहने शिबिकादिके ॥२६३॥ याने तु वा वाह्यं च वहनं वाहनं तथा । सारथौ वर्म्यद्वादश ऋकाराकारयुक् त्विह ॥२६४॥ सव्येतः पृष्ठ-ठातारौ दक्षिणात् स्थश्च संस्थवत् । रथवति त्रयोऽप्येते रथिको रथिरो रथी ॥२६५।। अश्ववारे सादिः सादी रथिकेऽप्यमू यन्तरि । निषादी सनिषादिश्व, भटे योद्धा सयोधकः ॥२६६॥ तथा भण्डीर-भाण्डीरौ बनेऽपि कथितावमू । सेनासमवेते सैन्यः सैनिकोऽपि च, योद्धृपु ॥२६७॥ सहस्रेण साहस्रिणः साहस्रः, प्रतिमुक्तवत् । स्थादामुक्तो पिनद्धश्च पिनद्धे, कवचे पुनः ॥ २६८ ।। मांढिर्माढा दशनं च दंशस्त्वक्त्रं तनुत्रवत ।
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शब्दरत्नाकरेकञ्चुके वारबाणः स्याद् बाणवारो धियाङ्गवत् ॥२६॥ अधियाङ्गमधिकाङ्गं सारसने त्रयं स्मृतम् ।। शिरस्त्राणे तु शीर्षण्यं शीर्षकं, शस्त्रजीवनि ॥२७॥ आयुधीयश्चायुधिको भवेत् परश्वधायुधे । पारश्वधिकवत् पारश्वधः, प्रहरणेऽस्त्रवत् ॥२७१।। शस्त्रं, चापे धन्व धन्वं पुक्लीबो धनुवद्धनुः । धनूः स्त्रियां त्रिणतावत् तृणता धनुषोऽग्रके ॥२७२।। अटन्यटनिरानी पीडायामपि स्यात्तलम् । तला चाऽपि गोधायां स्याद् वेध्ये लक्ष्यं सलक्षकम्॥२७३॥ बाणे पृषकस्तात्कान्तः सायकः सायवत्सरः । शरः शरुः स्वरुर्भल्लो भल्लिश्चापि कडम्बयुक्॥२७४॥ कलम्ब इव कादम्बो भेर-भेलावमू तथा । भेकेऽपि, कर्तरिः पुले कर्तरी, शरधौ पुनः ॥२७५॥ तूणी तूणा तूणं तूणस्तूणीरश्च निषङ्गवत् । उपासङ्गोऽपि खड्गे तु ऋष्टि-रिष्टी नरस्त्रियोः॥२७६॥ करवालः करपालः करालिकस्तथोदितः । चन्द्रहासश्चन्द्रभासो धारान्तोगो धरोऽपि च ॥२७७॥ प्रत्याकारे कोश-कोषावावरणे फरं स्फरम् । स्फरः स्फरकः फरकः फलकं फलमित्यपि ॥२७८॥ खेटकः खेटकं खेटं, कृपाणिका छुरी क्षुरी । क्षुरिका साऽऽयता पत्रात्पालः स्यात्पालिकाऽपि च॥२७९॥ एकधारासौ स्यादीली इली च करवालिका ।
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तृतीयः काण्डः ।
करपालिकाऽपि तरवालिकाऽपि च, कुन्तके ॥२८॥ प्रासस्तालव्य-दन्त्यान्तो, मुद्गरे दुघणो धनः । द्रुधनः, कुठारे पशुः परशुश्च परस्वधः ॥ २८१ ॥ पर्श्वधः परश्वधश्च स्वधितिः, परितो धके । पलिघो दन्त्य-तालव्यौ शवली शर्वला युधि ॥२८२॥ लोहदण्डे पट्टिशः स्याद् दन्त्य-तालव्यप्रान्तगः । अभ्यासभुवि खडूरः खलूरश्च खलूरिका ॥ २८३ ॥ प्रस्थाने त्वभिनिर्याणं प्रयाणं खलु हेतवे । तृणकाष्ठादेः, प्रसृतौ प्रसरणा प्रसारणी ॥ २८४ ॥ प्रसारश्च प्रसरणं, वैरिणः प्रति गच्छति । अभ्यमित्र्योऽभिमित्रीयोऽभ्यमित्रीणो, बलान्विते॥२८५।। उरस्वान् स्यादुरसिलोऽप्यतिबले ऊर्जस्वलः । ऊर्जस्वप्यूर्जखांश्च जिष्णो जेता च जैत्रवत् ॥२८६॥ जित्वरो, वैतालिके तु सौखशायनिको मतः । सौख्यशय्यिकश्चाक्रिके धाण्टिको घाटिकोऽपि च॥२८७|| मागधो मगधो मले वैश्यात् क्षत्र्यां भवेऽपि च । छन्दोजातावुष्णिहोष्णिम् बले शुष्मं तु शुष्मणा ॥२८८॥ ऊर्ज ऊों गूर्जः सान्तं क्लीबं च सहसा सहः । संग्रामे युद्ध युत् संयत् पुंस्त्रियोश्च संयद्वरः ॥ २८९ ॥ संयतं राटी रालिर्ना समितिः समितः समित् । समः स्फोट-स्फेट-फेटाः प्रध्मश्च प्रधनं तथा ॥२९॥ समुदायः समुदयः सांपरायकमित्यपि ।
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शब्दरत्नाकरेसांपरायः संपरायकमग्रगमने मतम् ॥२९॥ नासीरस्त्रिषु, धाटौ तु धाट्यवस्कन्द इत्यपि । अभ्यवस्कन्दः, सौप्तिके त्ववापात् स्कन्द उच्यते ।।२९२|| पलायने तु संदावः समुत्प्रेभ्यश्च द्राववत् । द्रववद् विद्रवो, भग्ने पराजित-जितौ समौ ॥२९३॥ भूतः परापर्यभितो, गुप्तौ तु चार-चारकौ । बन्द्यां ग्रहश्च ग्रहकः प्रोपतो ग्रह इष्यते ॥ २९४ ।। संन्यासिके तापसः स्यात् तपस्ख्यपि च सूरतः । सूरथोऽपि च दाने हौ शान्त-श्रान्तौ जितेन्द्रिये ॥२९५|| शुद्धकर्माऽवापाद् दानं महादाने प्रवारणम् । वरणं, विप्रे ब्रह्मा स्याद् ब्रह्माणो जाति-जन्म-जाः॥२९६|| घ्यग्राभ्यां, बटौ माणवो माणवकस्तथैव च । मौजीबन्धे तूपापाद् नाय-नयावानय इत्यपि ॥२९७॥ अमीन्धने स्यादाग्नीध्राग्नीध्यो स्यातां जटाजटिः । सटायां, तपस्विपीठे वृषी वृसी, कमण्डलौ ॥ २९८ ॥ कुण्डं कुण्डी कुण्डिका च, यजमाने तु याजकः । यष्टाऽथ सोमपेसोमा सोमात्पीती पीथी च नान्तगौ॥२९९॥ सर्ववेदः-सर्ववेदौ सान्ताऽदन्तौ तु याजके । सर्वस्वदक्षणेष्टेश्च, हुतौ होम नपुंसकम् ॥ ३०० ॥ नान्तं, होमो नरेऽदन्तो होत्रं, भूमिः परिष्कृता । वेदिर्वेदी च, निर्मन्थदारुणि त्वरणियोः॥ ३०१ ॥ अरणी समिधि त्वेध एधः सान्तं तथेन्धनम् ।
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तृतीयः काण्डः ।
नान्तादन्ते तु इध्मेध्मे रक्षाभस्मनि क्षारवत् ॥३०२॥ स्रुवे , मखवधे तु शसनं शमनं समे । शृतोष्णक्षीरगे दधिन आमीक्षाऽमिक्षया सह ॥३०३॥ दधिषाज्य-दीधीषाज्यौ दधियुक्तघृते मतौ । मृषावादिन्यपि चाग्निहोत्रिण्यग्न्याहितो भवेत् ॥ ३०४॥ आहिताग्निर्दविर्दी घृतलेखनिकोच्यते । आचमने तूपस्पर्श उपसंस्पर्शनं तथा ॥ ३०५ ॥ उपसंस्पर्शः, पाठे तु निपाठ-निपठौ समौ । स्वाध्याये जपो जाप उपवास उपोषितम् ॥३०६॥ अपवस्त्रमुपवस्त्रमौपवस्त्रोपवस्त्रके । वृत्ते चरित्रं चारित्रमाचार-चरणे अपि ॥३०७॥ चरितं, प्राचेतसे तु वाल्मीकिर्वल्मीकयुक् । वाल्मीक-वाल्मिकौ तद्वत् कविरादिकविस्तथा ॥३०८॥ मैत्रावरूणिः समैत्रावरूणो, बादरायणे । वेदव्यासश्च व्यासः, स्याद् रामः परशुरामवत् ॥३०९॥ जामदग्न्यो, याज्ञवल्क्यो योगेशः सयोगीशकः । वशिष्ठो दन्त-तालव्यमध्यो, वर्गद्वितीययुक् ॥ ३१०॥ गोनीयमुनौ तुल्यौ पतञ्जलि-पतञ्जलौ । वररुचौ कात्यायन-कात्यौ, कक्षीवति स्मृतः ॥३११॥ स्फोटायनः स्फौटायनः, पालकाव्ये करेणुभूः । कारेणवो मुनिभेदे स्यादत्तिरत्रिणा समम् ॥३१२॥ अपिशलिरापिशलिः कशात् कृत्स्नः सकृत्सकः ।
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शब्दरत्नाकरे
मृकण्डुवद् मृकण्डच, हारीतो हारितोऽपि च ॥ ३१३॥ पक्षिभेदेऽपि, कुमारः कुमारिलसमन्वितः । नास्तिके लोकायतिको लोकायतिक इत्यपि ॥ ३१४॥ बाहुसंभवे राजन्यो राजा च क्षत्र-क्षत्रियौ | आर्ये विड्-वैश्य वेतने वृत्तिर्वार्तापि जीविका ॥३१५॥ ऋते तूञ्छं शिलञ्चोञ्छं शिलोञ्छं शिलवत्तथा । कृषौ प्रमृतमनृतं वाणिज्यं वणिकर्मणि ॥ ३१६ || वणिज्या वणिज्यं क्रयविक्रयिके तु वाणिजः । वणिक् प्रापणिकः प्रोक्त आङ्पराः पणिकस्तथा ॥३१७॥ पनिकः पतिकचैव पदिकः, कायके पुनः । कायिको विकायके च ऋयिको विक्रयी तथा ॥ ३१८|| मूल्ये वयाऽवक्रयौ मूलद्रव्ये तु नीविवत् । नीवी स्यात्तु विनिमयो नैमेयो निमयोऽपि च ॥३१९॥ वैमेयोऽपि परदाने व्यवहारे पणं पणः । न्यासार्पणे प्रतिदानं परिदानं, सत्यापने ॥ ३२० ॥ सत्यङ्कारः सत्याकृतिः, संख्येये तु गणेयवत् । गण्यं, पोते प्रवहणं वहनं वहितं तथा ॥३२१|| वहित्रं वाहित्यमपि, पोतवाहे नियामकः । निर्यामोऽपि च बेडायां स्तरणिस्तरणी तरिः || ३२२॥ तरी स्तरी च काष्ठाम्बुवाहिन्यां दुणिवद् द्रुणीः । द्रोणिर्द्राणी च नौदण्डे क्षेपणिः क्षेपणीयुता ॥ ३२३ ॥ काष्ठकुद्दालेऽविरश्री, लवे स्यादुडुबो डुवः ।
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तृतीयः काण्डः ।
उडूप उडुपस्तरपण्ये तु तर आतरः ॥३२४॥ आतार आतारुरपि, वृद्धयाजीवे तु वाधुषिः । वार्धषिक ऋणे धारोऽस्त्र्युद्वारे प्रतिभूः पुनः ॥३२५॥ लग्नको लग्नः, षोडशमात्रैः करिष-कार्षको । तुला विंशत्या तु भारो भरच शकटीनवत् ॥३२६!! शाकटोऽपि शलाटश्च शरारोऽपि तुरीयके । प्रस्थभागे कुटपः स्यात् कुडवः कुलवोऽपि च ॥३२७॥ द्रोणैः षोडशभिः खारी खारी मानभिदि स्मृता । काकनी काकिणी, क्रोशद्वये गव्यूतिरुच्यते ॥३२८॥ गव्यागव्यूते, गोमति गवीश्वर-गवेश्वरौ । गोम्याभीरे तु गोपाल-गोपौ स्यातां, कुटुम्बिनि ॥३२९॥ कार्षकः कर्षकस्तहत् कृषकः कृषिकोऽपि, च । क्षेत्राजीवो भवेत् क्षेत्री सीरे हालो हलं हलः ॥३३०॥ लाङ्गलदण्डे ईषेशे, प्रोक्ता लाङ्गलपद्धतौ । शीता तालव्य-दन्त्यादिनदीभेदेऽपि लाङ्गले ।। ३३१॥ निरीषे तु कुट-कूटौ कुटकं, कुशिके पुनः । कृशिकश्च फलं फालः कुदालच कुदालवत् ॥३३२॥ गोदारणे प्रवयणे तोत्रं प्रतोद-तोदने । आबन्धे तु योत्र-योके कोटीशो लोष्ठभेदने ॥३३३॥ कोटिशः खलवाल्यां तु मेधिर्मेथिश्च शूद्रके । पद्य-पज्जौ क्षत्र-वैश्याजातौ माहेष्यवद् मतः ॥३३४॥ महिष्योऽपि शिल्पिनि तु स्युः कारु-कारि-कारयः ।
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शब्दरत्नाकरेध्वजो ध्वजी कल्पपाले मद्ये कपिश-कापिशे ॥३३५॥ कापिशायनं माध्वीकं माींकं च परिश्रुता । परिसुद् दन्त्य-तालव्यमध्यातालव्य-दन्त्यभृत् ॥३३६॥ सुरा, मदिरा महरी मदना मद्य-बीजके । नग्नहर्ननहुर्मद्यसन्धाने, भिष-वासबौ ॥३३॥ पानपात्रे तु, तर्षणा ऽनुतर्षों मद्यपाशने । उपदंशश्वावदंशः स्यात् तेजसावर्तनीमुखा ॥३२८॥ मूषा मूषी शाणे शाणा शाणिनिकषवत्कषः । कृपाण्यां कर्तरिः प्रोक्ता कर्तरी चापि, सेवनी ॥३२९॥ सूत्रिः सूत्री सूचि-सूत्रे द्वे पिप्पलक-पिप्पले । कर्तनसाधने तर्कुस्तकुंट्यप्रपि च सीवनम् ॥ ३४० ॥ सेवनं च स्यूतौ, स्यूते तु प्रसेवश्च प्रसेवकः । स्योनं स्यात्तन्तुवाये तु तन्त्रवायः कुविन्दवत् ॥३४१॥ कुपिन्दोऽपि सूत्रवेष्टे त्रसरस्तसरोऽपि च । वानदण्डे वेम वेमा तन्तौ स्यात् सूत्रतन्तुवत् ॥३४२॥ सूत्रः सूत्रं सूत्र्यपि स्यादुपानहि तु पादुका । पादूः पन्नद्वापि पादाजगुर्वीथी रथी तथा ॥३४३॥ पीठी त्राणं रक्षणं च पदात् त्वरायतापि च । वरत्रायां नधी वधी वाडी व पि वईवत् ॥३४४॥ पिण्याके खलिः खलोऽस्त्री स्यात्तक्षिण्यां तु वासिवत् । वासी तूलिका वीषी केषिका कान्दविके पुनः ॥३४५॥ भक्ष्यकारो भक्ष्यकार आदितालव्य-दन्त्यभृत् ।
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तृतीयः काण्डः। श्वेदनिका श्वेदनश्च कन्दौ स्याद् नापिते क्षुरी ॥३४६।। क्षौरिको भण्डिवाही च भाण्डकस्तस्य भाण्डके । क्षुरः खुरो, मायाकारे प्रातिहारिक उच्यते ॥३४७॥ प्रतिहारो, मायायां तु शाम्बरी साम्बरी तथा । इन्द्रजाले तु कुहुकं कुहकं तहदाहतम् ॥ ३४८ ॥ विनोदे स्यात् कुतुकं कौतुकं च कुतूहलम् । कौतूहलं, पापडौँ तु मृगव्यं मृगया मृगः ॥ ३४९ ।। आच्छोदनं चहितीयथद्वितीयकसंयुतम् । आखेटक आखटश्च, रज्जो तन्त्री च तन्त्रिवत्॥३५०॥ वटारक-वटारौ द्वौ वटस्त्रिषु तु दोरवत् । दबरश्च तन्तुगुणे, दाशो दासश्च धीवरे ॥ ३५१ ॥ दाशी दासी धीवरी स्याच्छिलाजतु च चेट्यपि । मत्स्यबन्धने बडिशं बलिशं च, बधास्पदे ॥६५२॥ शूना तालव्य-दन्त्यादिः, पामरः प्रामरोऽपि च । क्षुल्लकः खुल्लकस्तहद्, निषादे तु श्वपाकवत् ॥ ३५३ ॥ पाकश्चण्डाल-चाण्डालौ वुक्कसः पुक्कसस्तथा । पुत्कसोऽन्तावसायी चान्तेवास्यपि पुलिन्दवत् ॥३५४॥ पुलिन्द्रोऽपि, शबरे तु पत्रशबर उच्यते । वरटो वारटोऽप्युक्त इडीडौ म्लेच्छजातिके ॥ ३५५ ॥ इति श्रीवादीन्द्रश्रीसाधुकीयुपाध्यायमिश्राणां शिष्यलेशेन चाच नाचार्यश्रीसाधुसुन्दरगणिना विरचितायां शब्दरत्नाकरनाम
शब्दप्रभेदनाममालायां मानवकाण्डस्तृतीयः ।
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अथ चतुर्थः काण्डः ।
धात्र्यां भू-भूमि-भूम्यः स्युः पृथवी पृथिवी पृथा । धरित्री धरयित्री वसुधा सुधा वसुन्धरा ॥ १ ॥ विश्वा विश्वम्भरा क्षोणिः क्षोणी तहद् महिर्मही । जगतिर्जगत्युर्वरोर्विरूवीं ग्मा क्ष्मा क्षमा ॥ २ ॥ अवन्यवनिर्धरणी धरणिर्धारया धरा ।
केलिश्च केलिनी ख्याता महास्थल्यम्बरस्थली ॥ ३ ॥ दीर्घादय ईडेलेराश्च विडीडो डान्तगौ मतौ । अदन्ताविड ईडश्च देवभिद्यपि तौ स्मृतौ ॥ ४ ॥ इडेले सर्ग-नाडी-गो-बुध-स्त्री-वाक्ष्वपीरिते । द्यावाभूम्योस्तु रोदस्यौ रोदसी रोदसी तथा ॥ ५ ॥ आद्यो ङयन्त इदन्तोऽन्यस्तृतीयः सान्तषण्ढगः । द्यावापृथिव्यौ च दिवस्पृथिव्यौ च तथोदिते ॥ ६ ॥ दिवः पृथिव्यौ च क्षारभूम्यामुपरमूषरम् । इरिणवदीरिणं, भूः कृत्रिमोच्चा स्थला स्थलम् ॥ ७ ॥ मृद् मृत्तिकाऽपि सा शस्ता मृत्सा मृस्नाऽपि खानिका लवणस्य रुमा नान्ता रुमाऽऽबन्तापि कथ्यते ॥ ८ ॥ वशिरो वसिरश्वाऽपि सामुद्रलवणे मतौ ।
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सैन्धवे दन्त- तालव्यादिमं सीतशिवं स्मृतम् ॥ ९ ॥ माणिमन्थं माणिबन्धं रौमके, वसुकं वसु ।
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चतुर्थः काण्डः । वस्तकं स्याद्, विड-विटी पाक्ये, टङ्कस्तु टङ्कणे ॥१०॥ टङ्कनः पाचनकश्च पाचनस्तुग्घिका पुनः ।
जिः स्यात् खर्जिका देशे, विशयी विषयी तथा॥११॥ विषयः पुंस्त्रियोर्नीवृ?पोपातस्तु वर्तनम् । जाङ्गलो निर्जले देशे जाङ्गलो जडभूयसि ॥ १२ ॥ नडकीयो नडलश्च नडांश्च, बहुशर्करे । शर्करा शर्करिलोऽपि शर्करावांश्च शार्करः ॥ १३ ॥ सिकता-वालुकाप्राये स्याद् सिकतिल-सैकतौ । सिकतावान् , साखायः शाखिनेडाहाल-डालाः ॥१४॥ डहालाश्चेदयश्चैद्याः, साल्वाः सल्वा अपि स्मृताः । वालिका-वालि-वाहीकाः, पाञ्चालाः स्युः पञ्चालवत्॥१५॥ कुङ्कणः कौङ्कणोऽप्युक्तो, द्रविडो द्रमिडोऽपि च । ग्रामे तु बसथः सं-न्यु-प-प्रति-परितः परः ॥ १६ ॥ पल्लि-पल्ल्यौ गृह-गृहसमूह-स्थानकेष्वपि । सीम-सिमौ क्षेत्र-सीम-गोचर-भू-हयेष्वपि ॥ १७ ॥ मर्यादा घट आघाटः स्थविः स्थिविश्च सीमया । सीमः सीमा त्रिषु नान्तो मालं नामान्तराटविः ॥१८॥ मालकोऽपि भवेत्क्षेत्रे वप्रो वप्यश्च संमतः । शाकक्षेत्रे स्तृत शाकं शाकटं शाकशाकिनम् ॥ १९ ॥ अणुक्षेत्रे चाणवीनमणव्यमपि, भङ्गवत् । भाङ्गीनं च भङ्गाक्षेत्रे, उमाक्षेत्रे तथोम्यवत् ॥ २० ॥ ५ उपवर्ननम् , उपावर्तनं चेत्यर्थः ।
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शब्दरत्नाकरेऔमीनं च, यवक्षेत्रे यव्यं यवक्यं यावकम् । माषाक्षेत्रे तु माषीणं माष्यं च, तृतीयाकृते ॥ २१ ॥ शम्बाकृतं सम्बाकृतं, वापादौ द्रौण-द्रौणिके । द्रोणस्य, खलधाने तु खलस्त्रिषु च, रेणुके ॥ २२ ॥ धूलि-धूल्यौ पांशु-पांसू रजो ना सान्तषण रजः । दलौ लोष्टो लेष्टुञ्जेष्टुर्नाको कुलक-कूलकौ ॥ २३ ॥ नगरे नगरी द्रङ्ग-द्राङ्गो पत्तन-पट्टने । पुरस्त्रिषु पूः पुरिश्च, कन्याकुब्जं तु गाधिपूः ॥ २४ ॥ कन्यकुब्ज, शिवपुर्या कासिस्तालव्य-दन्त्यभृत् । बराणसी वाराणसी वाणारसी वराणसिः ॥ २५ ॥ कासी काश्यथाऽयोध्यायां कोसलोत्तरकोशला । कर्णपुर्या चम्पा चण्या, मथुरा मधुरान्विता ॥ २६ ॥ मधूपट्ने, गजाह्वये हस्तिनी हस्तिनायुतात् । हास्तिनात् पुरं स्तम्बपूः, लिप्तं स्यात्ताम-दामतः ॥२७॥ तामलिप्ती, विदर्भायां कुडिनी कुण्डिनात् पुरम् । द्वारकाऽनिकाररेफा, सालस्तालव्य-दन्त्यभृत् ॥ २८ ॥ वरणे प्राकारः पारक् जान्तः क्षौमे तु अट्टवत् । अट्टालकयुतोट्टालो, वृत्तौ वाटी च वाटिका ॥२९॥ वाटो वाटं वाटिरिव प्राचीनं च प्रचीरवत् । मार्गे तालव्य-दन्त्यादिः सरणिः सरणी पथः ॥ ३० ॥ पन्थाः पन्थान-पथी वर्त्मनिर्वर्त्म वर्तनिः । वर्तनी पदवी तहत् पदविः, सत्पथे पुनः ॥ ३१ ॥
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चतुर्थः काण्डः । स्वतितः पन्थाः, अपथमपन्था गूढवद्मनि । भूमध्ये तु ड्युकाराप्ता दन्त-तालव्यपूर्वगा ॥ ३२ ॥ शुरुङ्गा सन्धिला सन्धिः, स्थाने तु पदमास्पदम् । पितृ-प्रेताहन-गृहे, धिष्ण्ये सदन-सादने ॥ ३३ ॥ गृहं गेहं धाम धामं मन्दिरं मन्दिरा कुटिः। कुटः कुट्योकः सान्तं षण् पुंस्योकोऽदन्त उच्यते॥३४॥ सत्रं सार्च वस्त्यं पस्त्यं निवासा-ऽऽवास-वासकाः । आवसथो वसितश्चोदवसितं न्याङ्युग् लयः ॥ ३५॥ निकाय्य-निकायौ स्यातां स्यादागारमगारवत् । चतुःशाले चातुःसाली जवनं यवनं समः ॥ ३६ ॥ यमनं चोपकाऱ्यांवदुपकार्योपकारिका ।। प्रसादनः प्रसादोऽपि देव-भूपगृहे समौ ॥ ३७॥ मठस्त्रिष्वावसथ्यश्चावसथः स्तूप-तूपको । आयतनविशेषेऽथो मृतचैत्ये तु चैत्रवत् ॥ ३८ ॥ चित्यं च, हविगैहे तु होत्रं होत्रीयवस्मृता । आथर्वणे शान्तिगृहं शान्तीगृहं, तृणालये ॥ ३९ ॥ कुटी कुटि-कुडी तुल्ये, सूतका सूतिका परम् । गृहं त्वरिष्टे, कारूणां कर्मशालाऽनुवासनम् ॥ ४० ॥ अन्वासनमावेशनं, भिल्लसद्मनि पकणः । द्विककारोऽस्त्रियां, हट्टेऽट्टोऽस्त्रियां विपणिः स्त्रियाम्॥४१॥ विपणी चाऽऽपणो, वेश्याश्रये वेशः सवेषकः । भित्तौ स्याद्भित्तिका कुड्य-कुट्ये अत्र तृतीयकौ॥४२॥
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शब्दरत्नाकरेतृतीयतुर्यवर्गस्थो, कुड्येऽन्तर्निहितास्थनि। एडुकैडूके औडूपं, वितौ वेदि-वेदिके ॥ ४३ ॥ प्राङ्गणा-ऽङ्गणे त्वजिरेऽङ्गनं स्याहलजे पुनः । द्वाः स्त्री द्वारं च बारोपि, परिघेऽर्गलमर्गला ॥ ४४ ॥ अर्गलो तथा वर्गल्यर्गलिका, द्वारयन्त्रके । ताडकं तालकं चास्योहाटयन्त्रे तु तालिका ॥४५॥ प्रतिताल्यपि, कपाट्यां कपाटं च कपाटकः । कवाटः कवाटी तुल्यौ कुवाटोऽरर-ऽऽररी ॥ ४६ ॥ अररी, स्तम्भाद्यधःस्थदारौ प्रोक्ते शिली-शिले। गोपानसिर्गोपानसी वक्रे वलभिच्छादने ॥ ४७ ।। दारौ, देहल्यामुम्बरोदुम्बरोऽम्बुरकास्त्रयः । बहिरिप्रकोष्ठे तु प्रघाण-प्रघणौ समौ ॥ ४८ ॥ प्रधानः प्रधनोऽलिन्दे आलिन्दः, पटलस्त्रिषु । पटं छदिः छादिः सान्ते ल्कीवालेऽथेन्द्रकोशके ॥४९॥ तमङ्गस्तवङ्गश्छदिराधारे वलभीभवे । वलभिवर्डभी तहडभिश्च्यूडया समम् ॥ ५० ॥ चूला मूलापि, गवाक्षे जालं जालकमित्यपि । कुसूलस्तालव्यदन्त्यमध्यः स्यादन्नकोष्ठके ॥ ५१ ।। अधिरोहिण्यां निःश्रेणिः निर्विसर्गाऽविसर्गयुक् । निःश्रेणी, कोणोऽश्रिरस्रः पालिः पाली च पुत्रितः॥५२॥ का-ल्यौ पञ्चाली पाञ्चाली विच्छन्दका-विछर्दकाः। नन्द्यावर्तप्रभृतिषु, समुद्ने संपुटः पुटः ॥ ५३ ॥
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चतुर्थः काण्डः । मञ्जूषायां तु मञ्जूषा पेटा-पटिक-पेटकाः । पेडा, व्यवहारिकायां तु वर्धनीवदवर्धनी ॥ ५४ ॥ बहुकरो बहुकरी बहुकरा तयेरिते । धूल्यादौ तु समः कार-कराववकरः स्मृतम् ॥ ५५ ॥ खण्डनभाण्डे तु भवेदुदूखलमुलूखलम् । उरूखलं, किलिझे तु कटः कटी कटं तथा ॥ ५६ ॥ मुसले मुषलोऽयोग्रमयोनिर्वशनिर्मिते । भाण्डे तु कण्डोलकः स्यात्कण्डोलः पिटकः पिटम् ॥५७॥ तितउः चालनी स्त्रीषण् , सूर्प तालव्यदन्त्ययुक् । प्रस्फोटनेऽन्तिकायां वश्मन्तमश्मन्तकान्वितम् ॥ ५८ ॥ अखन्तकमखन्तं च चुल्लि-चुल्ल्यावुदः परे । हानं धानं ध्मानं च, पिठरस्त्रिषुचोखया ॥ ५९ ॥ उखः स्थालं स्थालिः स्थाली कुण्डकुण्डी च कुण्डिवत् । कुण्डी कुम्भिः कुम्भी घटे घटी कुटोऽस्त्रियां कुडः ॥६॥ कलसः कलशः कुम्भस्त्रिष्वङ्गारकपात्रिका । हसन्तिका हसन्ती च हसनी चाम्बरीषवत् ॥ ६१ ॥ अम्बारीषं, पिष्टपाकभृत्पृचीषजीषवत् । दा खजा खजाका च खजका खजिकापिच ॥६२॥ दारुहस्तके तु तर्दूस्तर्दूरपि गलन्तिका । आडूरालूर्भवेदालुः कर्करीका च कर्करी ॥६३॥ करकोऽस्त्री लोहकर्णवत्पात्रे कटहः स्मृतः । कटाहः कर्परस्तहत् खर्परस्त्रितयं त्रिषु ॥ ६४ ॥
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शब्दर
शब्दरत्नाकरेअलिञ्जर तु मणिको मणिर्गर्गर्या मन्थनिः । मन्थनी कलशी तद्वत् कलशिः, क्षुब्धके मथः ॥ ६५॥ मथिर्मन्थान-मन्थको मथापो मन्थ एव च । मन्था विशाख-वैशाखौ खजकी खजका खजा ॥६६॥ खजश्च खजको, मन्थविष्कम्भे कुटरस्तथा । कुटकः, शालाजिरे तु दन्त्यतालव्यपूर्वगः ॥ ६७ । सरावो ना दृतिस्तत्र खल्लं खल्लश्च भाण्डिभित् । ध्रुवका धूवकाऽमत्रे पात्रं पात्री च पात्रकाः ॥ ६८ ।। तद्विशालं स्थालं स्थाली, शैले तु धर-भूधरौ । भूध्रोऽद्रिश्च शद्रि-सद्री शिखी स्याच्छैखरोपि च ॥६९॥ क्रौञ्चे क्रुङ तथा कौञ्जोपि, विन्ध्ये मेकल-मेखलौ । उज्जयन्ते रैवतको रैवतश्चक्रवालवत् ॥ ७० ॥ चक्रवाडो लोकालोकाचले, मेरूः सुमेरूवत् । स्वर्णाद्रावथ कन्दर्या कन्दरा कन्दरं दरिः ॥ ७१ ॥ कन्दरोपि दरो, दर्याः प्रस्थे प्रष्ठोपि सानुयुक् । स्नुर्ना तालव्यमूर्धन्यमध्यौ पाषाणयुग् दृषत् ॥७२॥ शिलाशिल्यौ ग्रावाकरे खनी खानी खनिस्तथा । निधितडागयोरप्येतौ द्वौ, धातौ तु गैरिकम् ॥ ७३ ॥ गवेरुकं च कस्सटी खटिनी च खटीयुता । कठिन्यां ताम्र ऊदम्बमुदुम्बरमुडुम्बरम् ।। ७४ ॥ औदुम्बरं वरिष्ठं स्यात् त्रिकवर्गद्वितीययुक् । वंगे पु पुस्तपुढे सान्ते त्रीणि षण्ढके ॥ ७५ ॥
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चतुर्थः काण्डः। तारे श्वेतं सितं रूप्यं रूपं भीरु सुभीरुकम् । कनके स्वर्ण सुवर्ण स्याद् महारजतान्वितम् ॥ ७६ ।। रजतं हेम हेमोऽस्त्री रुक्मं रुग्मं च रुक्मलम् । शातकुम्भं शातकौम्भं हिरण्यं हिरणं तथा ॥ ७७ ॥ वराटशुक्रयोरप्येतौ स्यातां भर्म-भर्मणी । शृङ्गी शृङ्गिरलङ्कारसुवर्णेऽथाऽऽरकूटके ।। ७८ ॥ आरोऽस्त्री रिरी रीरी च कांस्यं स्याद् बङ्ग-शुल्बजे । कंसं च पञ्चलोहे तु सौराष्ट्रं च सौराष्ट्रकम् ॥ ७९ ॥ पारतः पारदः सूते चलश्च चपलोऽभ्रके। अभ्रं गिरिजामलं स्याद् गिरिजं चामलं तथा ॥ ८०॥ शिखिग्रीवे तुच्छाञ्जनतुच्छे पुष्पाञ्जने पुनः । पौष्पकं पुष्पकं पुष्पं पुष्पकेतुवदाढकी ॥ ८१ ॥ तूबरी तुबरी प्रोक्ता मृत्तालकं मृतालकम् । मृत्तिका मृत्स्नया मृत्सा, गन्धाश्मनि सुगन्धकः ॥८२॥ सौगन्धिकः सुगन्धश्च गन्धिको गन्धकोऽपि च । गोदन्ते हरितालं स्यात् तालमालमलं तथा ॥ ८३ ॥ मनोगुप्तायां नेपाली नैपाली च मनःशिला । शिला सिन्दूरे शृङ्गारे भवेच्छृङ्गारभूषणम् ॥ ८४ ॥ हंसपादे हिङ्गुलोऽस्त्री हिङ्गुलुः स्यादथाश्मजे । गिरिजं गैरेयं शैलं शैलेयं च शिलाजतु ॥ ८५ ।। बोले गोपरसो गोपो रसो गन्धरसान्वितः। रत्ने मणिश्च माणिक्यं वैडूर्य वालवायजे ॥ ८६ ॥
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शब्दरत्नाकरे
वैडूर्यमपीन्द्रनीले महानीलं तथापरौ ।
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पनिकः पदिकश्चापीन्द्रकीलेऽपि वज्रके ॥ ८७ ॥ हीरच हीरको, राजपट्टे प्रोक्तो विराटजः । वैराटोsपि चन्द्रकान्ते चान्द्रोऽपि स्फटिके मतम् ॥८८॥ स्फाटिकं च, शुक्तिजे तु मुक्ता मुक्ताफलान्विता । मौक्तिकं च मकुतिकं भवेद मुकुतिकं तथा ॥ ८९ ॥ वणिद्रव्येऽपि पानीये जीवनीयं च जीवनम् । नीरं नारं मीरं वा स्त्री-क्लीबयोर्वारि वार्दरे ॥ ९० ॥ उदको दक- दगे कबन्धं बन्ध-मन्धके । कमन्धमापः स्त्री भूम्नि आपः सन्त स्त्र्युत्सूत्सकौ ॥९१॥ शम्बरं दन्त-तालव्यादिमं स्याच्छवरः शिवम् | कृपीटं कृषीटमलं कमलं च शरं सरः ॥९२॥ सन्तं सारं दुमलं च द्रुमलं भुवनं वनम् । जलं जडं च सलिरं सरिलं सलिरं तथा ॥९३॥ सरिरं, त्रिपकारं च पिप्पलं स्यादगाधके । अस्थाघमस्ताघा-ऽस्तागे गम्भीरं च गभीरवत् ॥९४॥ निम्ने चलागाधयोध, धूमिका धूमरी हिमे । धूममहिष्यथाऽवश्याऽवश्यायौ, वारिधौ पुनः ॥९५॥ वार्डिर्वारिनिधिरुत्सोत्सू अपपतिरप्पतिः । यादसांपतिश्च यादःपतिश्चाप्यकूपारवत् ||१६|| अकूवारः पारापारः पारावारोऽपि कथ्यते । अवारपारस्तरङ्गे भङ्गो भङ्गं महत्पथम् ॥९७॥
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चतुर्थः काण्डः। लहरी लहरिः, फेने डिण्डीरः सहिण्डीरकः । पिण्डीर-दिण्डीरौ तट्यां तटं तटः प्रतीरवत् ॥९८॥ तीरं रोधोऽदन्तः पुंसि रोधः सान्तं नपुंसके । जलोज्झितेऽस्मिन् पुलिनं पुरिनं सैकतं तथा ॥९९॥ सिकता, नयां हदिनी हादिनी च धुनी धुनिः । आपगाऽथाप्यपगा श्रोतो दन्त्य-तालव्यगादिमम्॥१०॥ स्रोतस्विनी स्रोतस्वती स्रोतोवहा स्रवन्तिका । द्रवन्त्योषधिभेदेऽप्यम् भवेतां च, गोदया ॥१०॥ गोदावरी, सूर्यात्मजा तापिस्तापी शतद्रुयुक् । शुतुद्रिः शुतुद्रुरपि शितद्रुः सरयूयुता ॥१०२॥ सरयुः कोसलानद्यां, नदीभेदे तु चन्द्रिका । चन्द्रभागा चन्द्रभागी भागी चान्द्राच्च भागया॥१०३शा वासिष्ठयां गोमती तद्वत् गोतमी स्याद् विपाड्युता । विपाशोक्ता, वैतरणी वैतरणिरवन्तिगा ॥ १०४ ॥ सिप्रा सृप्रापि, स्वतोऽम्भःसरणे श्रोत उच्यते । दन्त्य-तालव्ययुग् देहसिरास्वपि प्रवाहके ॥ १०५ ।। वेणिर्वेणीवकं वकं पुटभेदेऽम्बुनिर्गमे ।। परिवाह-परीवाही नाल-नादौ प्रनालिका ॥ १०६ ।। प्रणालः प्रणालं तोयमार्गे सरणिः सारणी । कुल्यायां, सिकतायां तु वालुका वालिकापि च॥१०७॥ बिन्दौ पृषतिः पृषतः पृषत् , पङ्के तु कर्दमः। दमोऽपि, दीर्घिकायां तु वापिर्वापी च कूपके ॥१०८॥
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शब्दरत्नाकरेक्षुद्रे चुरिश्चुरी चुण्ढिश्चुण्ढी च घटीयन्त्रके । उद्घाटकमुद्घाटनमुहातनमपि स्मृतम् ॥ १०९ ॥ कासारे तु तडागः स्यात् तडाकश्च तटाकवत् । सरः-सरस्यौ स्थानकेऽलवालं चालवालयुक्॥ ११ ॥ आवालोऽस्त्री, उत्स उत्सुः स्रवः प्रस्रवणं झरः । झरी झरा निर्झरश्व, वह्नावग्निस्तु पुं-स्त्रियोः ॥ १११॥ दमुना दमूना सन्ता वञ्चतिश्चाङ्कतिस्तथा । शुष्मा बहिर्बर्हिः शुष्मा नान्तः शुष्मोऽस्त्यदन्तकः॥११॥ आश्रयाश आशयाश विश्वप्सा नान्तगो मतः । विश्वप्सोऽपि, नान्तो दान्तः शन्त्रतोऽपि तनूनपात्॥११३॥ घासिर्घसुरिहवनो हविश्व द्वौ बनात्परौ । दवो दावो, हेतौ कीला कीलो ज्वालो पि ज्वालया||११| अर्चिरर्ची सन्तेदन्तावूष्मा नान्तः सहोष्मया। बाष्पे,तडिति शम्पा स्यात् सम्पा शम्बा च विद्युता॥११५॥ विद्युत् सौदामिनी सौदामनी सौदाम्निकान्विता। सौदाम्नी च सुदाम्नी वा चपला चवला चला ॥११६॥ आकालिकी चाकालिका, वायौ मरुत-मारुतौ । मरुत् समीर-समरौ सृमरोऽप्यनलाऽनिलौ ॥ ११७ ॥ जगत्प्राणो-जगत्प्राणौ गन्धाद् वाहि-वाह-वहाः। वातिर्वातो भवेत् सारो दन्त्य-तालव्यपूर्वगः ॥११॥ शबलवर्णेऽपि सरट्-सरडौ टान्त-डान्तगौ । लघट् च लघिटिः पविः पवनः पवमानवत् ॥११९॥
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चतुर्थः काण्डः । वातूलो वातुलो वातसमूहेऽथासहेऽपि च ।। वातविकारस्याऽरण्ये षण्डं शण्डं वनं बनी ॥ १२० ॥ सत्रं तालव्य-दन्त्यादि दवो दावोऽटव्यटविः । चुरुम्बः सतुरुम्बश्वारामेऽपोपात्परं वनम् ॥ १२१ ॥ राज्ञामन्तःपुरोद्याने प्रमदा-प्रमदाद् वनम् । वृक्षे द्रुमो विद्रुमो द्रुः कुठिः कुण्ठोहिपोऽङ्घ्रिपः॥१२२॥ शालस्तालव्य-दन्त्यादिः शिखी शाख्यगमोऽगवत् । पारिन्दश्चापि पालिन्दो गाथकेऽपि दलान्विते ॥ १२३ ॥ पर्णलः पर्णिलो वृक्षे स्थाने वृक्षैर्वृतान्तरे । निकुञ्ज-कुञ्जौ जरुट-जरुडौ च, वनस्पती ॥१२४॥ फलाप्तवृक्षे फलवान् फलिनश्च फली तथा । फलपाकावसानायामौषध्यौषधिरोषधी ॥ १२५ ॥ क्षुपो हुस्वशिफाशाखे क्षुपको, व्रततिर्लता । प्रततिव्रतती तद् वल्लि-बल्ल्यौ च वेल्लिवत् ॥१२६॥ प्ररोहे रोहेऽप्यङ्क्राङ्कुरौ शाखा शिखा लता । स्कन्धशाखा शाला साला जटा जटिः शिफा शिफः॥१२७॥ मूले वृक्षस्य बुध्नः स्याद् व्रनोऽहिर िसंयुतः। मज्जा नान्तो ना मज्जाबन्ता सारेऽथ वल्लिका ॥१२८॥ लचस्त्वचा त्वक् च चोचं शल्कं वल्कं च वल्कलम् । शकलं वल्के शल्के वर्धेऽपि शल्कं शकलेऽपि ॥१२९॥ कोटरे निक्कुटः प्रोक्तो निष्कहो, वल्लरौ पुनः । वल्लरी मञ्जरी मञ्जा मञ्जरिश्चापि, पर्णके ॥ १३० ॥
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शब्दरत्नाकरेपत्रं पात्रं पतत्रं च छादनं छदनं छदः । सन्तं छदोऽस्त्री चादन्तः, नवेऽस्मिन् किसलं स्मृतम्॥१३१॥ किसलयं द्वयं दन्त्यं, पुष्पे सुमनसः स्त्रियाम् । भूम्नि सुमना ऐक्येऽपि प्रसूनं सून-सूनके ॥ १३२ ॥ प्रसूतकं प्रसूतं च प्रफुल्लं फुल्लवत् सुमम् । कुसुमं, कलिकायां तु कलिः स्यात्कोर-कोरकौ ॥१३३॥ कुड्मले कुद्मलं तद्वत् कुष्मलं कुमलं तथा । मुकुलं मकुरं प्रोक्तं मुकुरं, बकुलद्रुमे ॥ १३४ ॥ कुलालदण्डे कोरको दर्पणेऽपि च कोशवत् । कोषो द्वौ च कषे दिव्ये रैवये योनिशिम्बयोः ॥१३५॥ जातीकोशे सिपिधानेऽण्डकोऽपि स्तबके पुनः। गुत्सो गुच्छो गुलुम्बुश्च गुलुच्छुः सगुलुच्छकः ॥१३६॥ गुच्छको गुञ्छको गुञ्छो गुलुञ्छोऽस्त्री, रसे पुनः ।। पौष्पे मकरन्दः ख्यातो मकलन्दो मकरन्दवत् ॥१३७|| प्रबुद्धे प्रफुल्ल-फुल्ले संफुल्लोत्फुल्लके स्फुटम् । स्फटितं सव्याकोशं च व्याकोषं स्यात् फले पुनः॥१३८॥ शस्यं तालव्य-दन्त्यादि वानावाने तु शुष्कके। ग्रन्थौ पकः षण्डं सन्तं पसश्च बीजकोशिका ॥१३९॥ शिम्बा सिम्बायुता शिम्बिः शमी शिमिश्च पिप्पली । पिप्पलः पिप्परी बोधिः स्याद् बोधिद्रुम इत्यपि ॥१४॥ स्यादश्वत्थे च, प्लक्षे तु पर्कटी नन्त-ड्यन्तगः । जटी नन्तो जटी ड्यन्तो भवेज्जटिरिदन्तकः ॥१४॥
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चतुर्थः काण्डः। न्यग्रोधे तु वटो वट्या वटं जन्तुफले पुनः । उदुम्बरोडुम्बरौ द्वौ मलयूर्जघनेफला ॥१४२॥ मलयुः, सहकारेऽम्र आम्रोऽपि शिग्रुके स्मृतः। दन्त्य-तालव्यादिः शालाञ्जनोऽक्षीव आक्षीववत् ॥१४३॥ पुन्नागे केशरो दन्त्य-तालव्यमध्यः केशवः । बकुले केशरस्तद्वत् केसरः सिंहकेसरः ॥१४॥ मालूरे बिल्वो बिल्वी च, पर्णगुच्छे कुरण्टकः । कुरुण्टक-कुरण्डकौ किंकरातवदीरितः ॥ १४५ ॥ किंकिराटः, पलाशे तु दन्त्य-तालव्यमध्यगः । किंसुकस्तृणराजे तु तलस्तालश्च तद्भिदि ॥१४६॥ तालि-ताडी, देवताडे देवताडी खरागरी । खरागी समे प्रोक्ते अगरीवद् गिरागरी ॥१४७॥ मोचायां तु रम्भा रम्भः कदलिः कदलोऽपि च । कन्दलस्त्रिषु वारणवुषा बुषा बुसान्विता ॥१४८॥ हयमारे करवीरः कणवीरस्तथा मतः । प्रतिहासः प्रतीहासः स्याद् गिरिमल्लिका कुटः ॥१४९॥ कौटजः कुटजः कोटी, तत्फले विन्द्र-भद्रतः । यवं कलिङ्गं कलिङ्गा, वेतसे वेतसी रथः ॥१५॥ रथाभ्रपुष्पोऽभ्रपुष्पः, कौलौ तु बदरी भवेत् । बदरिस्तथा कर्कन्धुः कर्कन्धूः कर्कुन्धुवत् ॥१५१॥ कर्कुन्धूघुट्टा घोण्टा च गोपघोण्टातने भवा । नीपे कदम्ब-कलम्बौ शालस्तालव्य-दन्त्यवान् ॥१५२॥
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शब्दरत्नाकरे
सर्जे फेनिले वरिष्ठो रिष्ठोऽपि पिचुमन्दवत् । पिचुमर्दोऽपि निम्बेऽथ कर्पासे पिचुतूलयुक् ॥ १५३ ॥ पिचुस्तूलः पिचव्यच, कृतमाले त्वारग्वधः । आधारगवधौ च शम्पाकश्च सम्पाकवत् ॥१५४॥ वृषे वृषक - वृषभावाटरूषोऽटरूषकः । अटरुषोऽरुषक आटरूषो अटाद् रुषः ॥ १५५ ॥ वाशको वाशिका वासा वाशा स्त्रीत्रोः करञ्जवत् । करजोऽपि नक्तमाले रक्तमालस्तथेमकौ ॥ १९६ ॥ काकाचिकः काकचिकस्तद्विशेषे तु पूतिकः । पूतीकोऽपि महावृक्षे स्नुक् स्नुट् स्नुहिः स्नुही स्नुहा॥१५७ गुडो गुडा गुडी वज्रो वज्रा वज्री सिहुण्डवत् । सीहुण्डो पराजितायामास्फोटा स्फोतया समम् ॥ १५८॥ पारिभद्रे तु मन्दारुर्मन्दारो मन्दरोऽपि च । मधुद्रुमे मधूकः स्याद् मधुकश्च मधूलकः ॥ १५९ ॥ मध्वष्ठीलो मधुष्ठीलो मधुश्चापि, पलङ्कषे । गुग्गुलो गुग्गुलुः कुम्भं कुम्भोलूश्च कुभोलुवत् ॥ १६०॥ उलूखलं च खलकं कुम्भोलूखलकं तथा । चारे प्रियालः पियालो राजादन-राजातनौ ॥१६१॥ सन्नकद्रुः सन्नकोदुर्धनुष्यटो धनुष्पटौ । धनुरुदन्तः क्षीरिण्यां क्षीरिका च राजादनः ॥ १६२॥ राजानो राजन्यां च फलाध्यक्षोऽप्यध्यक्षवत् । रथद्रुमे स्यात्तिनिशं तिलिशो नेमि-नेमिनौ ॥ १६३ ॥
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चतुर्थः काण्डः । नेमी ङयतोऽपि नारङ्गे नार्यङ्गस्तापसद्रुमे । इङ्गुदी गुदमिङ्गुदः स्याच्छ्रीपय तु काश्मरी ॥ १६४ ॥ कश्मरीवत् काश्मर्या च काश्मीर्यपि च संमता । कम्भारी गम्भारी तुल्ये अम्लीकायां मताम्लिका ॥ १६५ ॥ अम्ब्लिका चाम्ब्लिकाऽम्ब्लीका तिन्तिडी तिन्तिली तथा। तिन्तिडीका तिन्तिडिका, दाडिमः शुकवल्लभे ॥ १६६॥ दाडिम्बो दालिमोऽपि स्याच्छेलुः श्लेष्मान्तके शलुः । लकुचे लिकुचोऽप्युक्तो बहुश्राडहुरित्यपि ॥ १६७ ॥ बीजके त्वासनः प्रोक्तोऽसनोऽशनवदाशनः । पाटला पाटलिः स्त्रीन्रोबहुत्व के भवेद् भुजः ॥ १६८ ॥ भूर्जो भुर्जः कर्णिकारे परिव्याधश्च व्याधवत् । जलवेतसभेदे स्यादिज्जलो हिज्जलोऽपि च ॥ १६९ ॥ निचुलो निचुरो धात्र्यामामलकी त्रिलिङ्गिका । कायस्थावद् वयःस्था च स्याद् भूम्यामलकी पुनः ॥ १७० ॥ ताली तामलक्यमली झाटा चाज्झटयान्विता । विनुन्नको नयाप्तो विभीतक विभेदकौ ॥ १७१ ॥ अक्षमया हरीतकी त्रिलिङ्गा स्याद् वयःस्थया । कायस्थैतत्फलत्रय्यां त्रिफली त्रिफला फलम् ॥ १७२ ॥ तृफला, गन्धवृक्षे तु वरणो वरुणस्तथा । भवेत् तमाले तापिच्छस्तापिञ्छो बिन्दुसंयुतः ॥ १७३॥ सिन्दुवारे तु निर्गुण्डी निर्गुण्डा च निगुण्ठ्यपि । सुरस इन्द्रसुरिसोऽप्यथातिक्तके लता ॥ १७४ ॥
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शब्दरत्नाकरे
माधवीलता माधव्यथोडूपुष्पे जपा जत्रा । मालत्यां तु जातिर्जाती सुमनाऽऽबन्त सन्तगा ॥१७५॥ विचकिले मल्लिका च मल्लिः स्याच्छत भीरुका । शीतभीरुर्वनजेऽस्मिन्नास्फोता स्फोटया समम् ॥ १७६ ॥ शिवमल्ल्यां बक-बुकौ वसूको वसुको वसुः ।
वृक्षरुहायां तु चन्दा चन्दाका च जयन्त्यपि ॥ १७७ ॥ जीवन्ती सुषिणे करमर्दः स्यात् करमन्दवत् ।
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कृष्णपाकफलः कृष्णपाकः कृष्णफलात् परः ॥ १७८ ॥ पाकः पाककृष्णफलः पाकाढिफलकृष्णवत् । प्रियङ्गौ फलिनीयुक्ता फला जम्बीरपादपे ॥ १७९ ॥ जाम्बीरोऽपि च जम्भीरो जम्भीलो जम्भ-जम्भलौ । बीजपूरे पूरकः स्यात् सुपूरकच केसरी ॥ १८० ॥ केसराम्लो ऽम्लकेसरो मातुलिङ्गश्च लिङ्गवत् । मातुलुङ्गोऽपि, ग्रन्थिले करीर - ककरौ समौ ॥ १८१ ॥ करर एरण्डे मण्ड आरण्डः स्यादमण्डवत् । उरुबूकश्वोरुबुको व्यडम्बक - व्यडम्बनौ ॥ १८२ ॥ कपिकच्छां तु कण्डूरा कण्डुराण्डाध्यवेः परा । शुकशिम्बा शुकशिम्बी विजयायां तु मातुली ॥ १८३॥ मातुलानी भृङ्गी भङ्गा धूर्ते धुस्तूर-धूस्तुरौ । धूस्तूर- घुस्तुरौ घुस्तुर्धरो धतुरो रवौ ॥ १८४ ॥ अर्कोऽर्कपर्णो वसुको वसुरा स्फोटयान्विता । आस्फोताऽथ दधिफले कपिच्छः स्यात्कपिच्छवत् ॥ १८५ ॥
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चतुर्थः काण्डः। लाङ्गली नन्तो यन्तो नालिकेरी नालिकेरवत् । नालिकेलो नालीकेरो नालिकेरिश्च पर्णकः ॥ १८६ ॥ चीत्कर्जूर-खजूरौ वर्षपाकी कपीतनः । पीतनकोऽम्नातकश्चाम्रातकः क्रकचच्छदे ॥ १८७ ॥ केतकः केतकी कोविदारे कुद्दालवत् स्मृतः । कुदारो, गजप्रियायां शल्लकी सल्लकीति च ॥१८८॥ सिल्लकी हादिनी हादा तन्निर्यासे तु कुन्दुरुः । त्र्युकारः, कुन्दः पालक्यां पालङ्कीति च वंशके ॥१८९॥ त्वचिसारः त्वक्सारोऽपि शिंशपाऽगरशिंशपा । अगरुवंशलोचना भवेद् वांशीव वंशजा ॥ १९० ॥ तुकाक्षीरी त्वक्षीरी च त्वक्षीरं रोचना च गोः । गोपित्तरोचना, पूगे गूवाकः स्याद् गुवाकवत् ॥१९॥ तद्भेदे चिक्कणं चिकं ताम्बूली कथिता बुधैः । ताम्बूलवल्ल्यां क्रमुकपर्णचूर्णकसंयुजि ॥ १९२ ॥ तम्बुलं च सताम्बूलं तुम्ब्यां तुम्बः सतुम्बकः । तुम्बी तुम्बिरलावूवदालावूरप्यलाबु च ॥ १९३ ॥ लाबुका गुञ्जायां काकचिञ्चिका काकणिन्दिका । काकनन्तिका, गोस्तन्यां मृद्दीका स्याद् मृदीकषा॥१९४॥ रसा द्राक्षा ध्राक्षा कण्ठयां त्रिकण्ट-त्रिककण्टको । गोक्षुरो गोक्षुरु-क्षुरौ गोखुरो गिरिकणिका ॥ १९५ ॥ आस्फोता स्यादास्फोटा च वीरणीमूल आदृतम् । उशीरमुषिरमुशिग् जान्तो लघुलयं लघु ॥ १९६ ।।
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शब्दरत्नाकरेलयमृणाला-मृणाले अवदाहेष्टकापथम् । इष्टकापथावदाही बालके वाल इष्यते ॥ १९७ ॥ हीवरं हिरिवैरं च दद्रुमे तु प्रपुन्नटः। प्रपुन्नाटश्च प्रातुन्नाटकः पद्माट इत्यपि ॥ १९८ ॥ प्रपुन्नाडः प्रपुनाड उरणा-क्षोरणाख्यकौ । शिरीष भण्डी भण्डीरो भण्डिरो भण्डिलोऽपि च ॥१९९॥ जम्बूवृक्षे जम्बुरपि तत्फले जम्बु-जाम्बवे । जम्बूः स्त्री स्यादरलौ त्वरेटुः श्योनावशोणकौ ॥२०॥ स्योनाकः कुटन्नटवद् नटोऽथ चिरजीवकः । जीवको मधुरकश्च मधुरः कूर्चशीर्षके ॥ २०१ ॥ कपीतनो गर्दभाण्डे कपीतः पीतनस्तथा । नागकेसरे केसरो नागः स्याद् मदनद्रुमे ॥ २०२ ॥ पिण्डी पिण्डीतकः कटहलद्रौ पनसः स्मृतः । फनसः पणसो भल्लातके रुष्वोऽप्यरुक्करः ॥ २०३ ॥ पिच्छिलायां शाल्मलिः स्याच्छल्मलिः शाल्मलोऽपि च । प्लीहशत्रौ रोहितको सरोहितक-रोहितौ ॥ २०४ ॥ रोही खदिरे गायत्री नन्तो यतश्च कथ्यते । पुण्डरीके तु पुण्डर्य प्रपुण्डरीकमित्यपि ॥ २०५ ॥ कतके कतोऽपि केशहन्या शमिः शमीति च । हस्खा शमीरुः शमीरस्तूते तूदं तुदं तथा ॥ २०६॥ मधुयष्टयां यष्टिमधु यष्टीमधुकमादृतम् । यष्टिर्मधुकं वक्पत्रे गुडत्वक् त्वक् त्वचं तथा ॥२०७॥
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चतुर्थः काण्डः । वराङ्गकं वराङ्गं च स्यादेलायां तु निष्कटिः । निष्कटा स्थूलैलायां तु कथिता त्रिपुटा पुटा ॥२०८॥ कर्कटशृङ्गयां शृङ्गी च कृष्णाभेट्यां कटंवरा । कटुकी कटुकश्चापि अशोका रोहिणीयुता ॥ २०९ ॥ अशोकरोहिणी दारुहरिद्रायां कालेयकः । कालीयको गालवे तु रोध्र-लोध्रौ च सावरः ॥२१॥ तालव्य-दन्त्यपूर्वः स्यात् , तद्भेदे ड्यन्त-नान्तगः । पट्टी फणिज्जके तु स्याद् मरुबक-मरूबकौ ॥ २११ ॥ रक्ताम्राते कुरुबकः सोकारानुकाररकः । महासहायामम्लातो म्लातको म्लान इत्यपि ॥२१२॥ अमिलातकेऽपि दुरालभायां तु यवासकः । यवास-यवाषौ यासो धन्वयासोऽपि संमतः ॥ २१३ ॥ धन्वयवासको धन्वयासो रोदनी बोधनी । मोरटायां मूर्वा मूर्वी सवा स्रुवाऽपामार्गके ॥२१॥ खराद् मञ्जरि-मञ्जरों भाा हिञ्जी च फञ्जिका । ब्राह्मणी ब्राह्मणाद्या स्याद् यष्टिकाथ किरातकः॥२१५॥ किरातो हैमे कुष्ठे तु वर्म्यद्वादशसंयुते । वानीरं वानीरजं च व्याप्यमाप्यं च तद्भिदि ॥२१६॥ शतरुषा शतारुश्च सन्तोऽथो कल्पले पुनः । काफलं कट्फलस्तद्वत् केटरः कैटर्य तथा ॥२१७॥
१ उकारसहितः, अनुकारश्च रकारी यस्मिन-कुरुबकः, कुरबकश्श्रेत्यथः ।
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शब्दरत्नाकरे
अजमोदायां तु मयूरो भवेद् हस्तमयूरकः ।
यवानिका यवानी च यमानिका यमान्यपि ॥२१८॥ झिट्यां सैरेयच सैरीयकः सहचरान्वितः । सहाचरो नीलझीष्ट्यां वाणो वाणाथ पीतिका ॥२१९॥
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कुरुवकः कुरुण्टकः सहाचरः सहाच्चरः । सहचरी शतपुष्पा सितच्छत्राऽतिच्छत्रका ॥२२०॥ मिशिर्मिशी मिसि - मिस्यौ मधुरा तु मधूरिका । सालेयो दन्त्यतालव्यो मिशी मिशिर्मिसी मिसिः ॥२२२॥ मिश्रेया कोकिलाक्षे तु क्षुर इक्षुर इत्यपि । शङ्खिन्यां तु चोरपुष्पी चौर्यथो खरकाष्ठिका ॥२२२॥ काष्ठिकापि बलायां स्याद् नागबलायां तु हे पुनः । गङ्गेष्टिका गङ्गेरुका महाबलायां संगता ॥ २२३ ॥ सहदेवी देवसहा हिङ्गुपत्र्यां तु कारवी । करवी कबरी तद्वत् कवरी बाष्पिकायुता ॥ २२४ ॥ बाष्पीका पृथु पृथ्व्यौ च स्याद् मयूरशिखोऽप्यसौ । मयूरो लोचतः ख्यातो मस्तको मर्कटो ऽपिच ॥ २२५ ॥ श्यामलतायां गोपे च गोपी गोपालिका तथा । गोपवली शारिवावद् भवेदुत्पलशारिवा ॥ २२६ ॥ चोराख्यगन्धद्रव्ये तु गणवद् गणहासकः । शुषिरायां नटी - नल्यौ ग्रन्थिपणेऽशुकं मतम् || २२७ || शुक है बर्हिःपुष्पं पुष्पं स्पृकौषधौ पुनः । कोटीवर्षा कोटिवर्षा कोटिर्माला मरुद्युता ॥ २२८॥
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चतुर्थः काण्डः । मरुन्मालाऽप्यथ वृद्धदारके इक्षगन्धया । इक्षुगन्धा छागलात्री छगली तद्वदात्र्यपि ॥२२९॥ दन्त्यां मकूलक-मुकूलौ रक्ताङ्गके पुनः । स्यात्कम्पिल्लश्च काम्पिल्लः काम्पिल्योऽपि कम्पीलवत् २३० रोचनी रेचनी बलभद्रिका त्रायमाणिका । त्रायन्ता, रास्नायां रस्या रसना रसनं रसा ॥२३१॥ मांसिगन्धद्रव्ये मिषी मिसिश्च जटिला जटा । जनातिगन्धद्रव्येषु स्याज्जनी जननी जनिः ॥२३२।। जतूका जतोः का-कार्यो जतुकृञ्चातिविषा पुनः । विधी विषा प्रत्युपाभ्यां त्रिवृति त्रिवृता स्मृता ॥२३॥ त्रिपुटी त्रिपुटा प्रोक्ता रोचनी रेचनीयुता । शतवीर्यायां तु शतावरी चेन्दीवरी वरी ॥२३४॥ सहदेव्यां सहदेवः सहदेविश्च कथ्यते ।। मञ्जिष्ठा वर्गद्वितीययुग् भण्डीरी च भण्डिरी ॥२३५॥ भाण्डीरी भण्डी विकसा विकषा कालमेश्यपि । कालमेषी चविकायां चविकं चवनं तथा ॥२३६।। चव्यं चव्याऽप्यथ तण्डुलायां तु तण्डुलः । तन्तुलोऽपि विडङ्गं च विलङ्गं गन्धमूलिका ॥२३७॥ शटी घटी च कर्जूरः कर्चुरोऽप्यथ क्षीरिणी । हिमावती हिमवती स्थिरायां शालपर्णिका ॥२३८॥ दन्त्य-तालव्याद्याथाखुपा चित्रोपचित्रया । ऐलवालुके वेलेयं वालुकं हरिवालुकम् ॥२३५॥
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शब्दरत्नाकरेनवमालिका सप्तला सातला कैवत्तीपरे । मुस्तके वानेयं वन्यं प्लवं च परिपेलवम् ॥२४॥ दशपूरं दशपुरं, कटंभरौषधौ मता । भद्रबला राजबला महाबला प्रसारणी ॥२४१।। सरणी सरणा वापि सारणी कटली पुनः । ज्योतिष्का ज्योतिष्मती च तर्कार्या वैजयन्तिका ॥२४२॥ जया जयन्ती पानीयकण्टके तु शृगाटकम् । सङ्घाटिका त्रिकोणश्च त्रिकोने प्रोपमे पुनः ॥२४३॥ बाताममपि बादामं पद्मेब्जोऽदन्त-सन्तषण् । जलात् पङ्कात् सरसोऽपि परे जन्म-ज-रुट्-रूहाः॥२४॥ सरसीरुहं सरसिरहं विसप्रसूतवत् । विसप्रसूनमपि स्यात्कैरविण्यां कुमुद्दती ॥२४५॥ कुमुदिन्यथोत्पले तु कुवेलं कुवलं कुवम् । कुवलयं कैरवे तु कुमुदं कुमुदुत्पले ॥२४६॥ नीले त्विन्दीवरं चन्दीवारमिन्दीकरं तथा । सौगन्धिके तु कल्हारं हकाराकान्तलान्वितम् ।।२४७|| पद्मनाले तु मृणालं मृणाली च विशं विसम् । विसण्डकं च पद्मादिवृन्ते नाली तु नालया ॥२४८॥ नालं किअल्के तालव्य-दन्त्यमध्यं तु केसरम् । नवपत्रे संवर्तिका संवर्तिर्जलनीलिका ॥२४९॥ शेवालं शैवलं शैवालं शेपालं च शीवलम् । शेवलं पाटलशाला वाशुराशु च ब्रीहिवत् ॥ २५० ॥
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चतुर्थः काण्डः।
आशुव्रीहिः कलमस्तु कडमश्च कलामकः । मङ्गल्यके मङ्गल्याऽपि मसूरो मसुरस्तथा ॥ २५१ ॥ मसूरा मसुराऽप्येते वेश्यायामपि वाईयः । कलाये सतीनकः स्यात् सातीनश्च सतीनवत् ॥२५२।। सतीलक-सातीलको त्रिकटोऽङ्कट इत्यपि । चणके हरिमन्थः स्याद् हरिमन्थज इत्यपि ॥ २५३ ॥ मुद्दे हरिः सहरितस्तुम्बरस्तु बनोद्भवे ।। राजमुद्ने मकुष्टः स्याद् मयुष्ठोऽपि स-ठान्तिमौ ॥२५॥ मुकुष्ठक-मयष्ठको वर्गाद्याप्तौ स-ठान्तिमः । मुकुष्ठः स्याद्, धान्यभेदे कुल्माषश्च कुल्मासवत् ॥२५५॥ जघन्यवीहौ श्यामाकः श्यामकः पीततण्डुला । कङ्गु-क्व ङ्घ कङ्गुनी च कङ्कुश्च, कोरदूषके ॥२५६॥ कोद्रवः कुद्रवोऽप्युक्तः, युगन्ध- तु योनलः । जोन्नाला यवनालश्च, जूर्णा जूर्णिः शणः सणः ॥२५७|| भङ्गायाम्, गवेधुकायां गवधुिका गवेधुवत् । गवेडुश्च, तिलात्पिञ्जपेजौ षण्ढतिले युभौ ॥ २५८ ॥ कदम्बके सरिषपः सर्षपः, सस्यशीर्षके । कविशं कणिशोऽफलकाण्डे पल-पलालको ॥२५९॥ कडङ्गरे वुसवुषौ, मेघनादे स्मृतावुभौ । तण्डुलीयस्तण्डुलेरस्तण्डुलीशाकभिद्यहो ॥ २६० ॥ मारिषं मारुषम्, बिम्ब्यां स्यात्तुण्डी तुण्डिकेरिका । तुण्डिका तुण्डिकेरी च, मधुस्रवायां तु जीवनी ॥२६१॥
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शब्दरत्नाकरेजीवन्ती जीवनीया च जीवा स्यात् , क्षारपत्रके। शाकवीरो वीरशाको वास्थूकमपि वास्तुकम् ॥२६२॥ चङ्गेा स्यादम्ललोना लोणिका चाऽम्ललोणिका । अम्बोष्ठिकायुताऽम्बष्ठा टोलावदम्लटोलकः ॥२६३॥ खरपुष्पायां कबरी बर्बरा बर्बरी तथा । वृन्ताके वार्ता वार्ताकी वार्ताकं च वार्ताकुवत् ॥२६॥ वार्ताङ्गो वातिङ्गणश्च तथैव दुष्प्रधर्षिणी । दुष्प्रधर्षणी च, शतपर्णायां तु कलम्बिका ॥ २६५ ।। कलम्बूश्च, पालघ्ने तु छत्रा-छत्रा-ऽतिछत्रवत् । अतिछत्रस्तित्तके तु पटोलः पटुवत् स्मृतः ॥ २६६ ॥ पुष्करमूले पौष्करं पुष्करं मूलमित्यपि । भृङ्गराजे भृङ्गरोऽपि भृङ्गरजो नादन्तगः ॥ २६७ ।। भृङ्गरजश्च सान्तोऽपि षबूंजे चाऽपि मूर्धजे । दशाङ्गुलमितिख्यातं कारवेल्ले सुशव्यपि ॥ २६८ ॥ सुषवी सुशवी कर्कारौ कूष्माण्डो विदां मतः । कुष्माण्डोऽपि च कूष्माण्डी,पटोल्यां तु कोशातकी॥२६९॥ कोषातकी च, कर्कट्यां स्यादीर्वारुरिर्वारुवत् । ऊर्वारुर्वारुरपि एर्वारुश्चिर्भिटी तथा ॥ २७० ॥ चिर्मिटं चिभिटस्तद्वत् वालुङ्कः स्याद् वालुक्यपि । त्रपुषी पुसी त्रपुष त्रिपुषं च, 'नेऽर्शसः ॥ २७१ ॥ शूरणो दन्त्यतालव्यादिमः, बालतृणे पुनः। शस्यं स्यादन्त्यमूर्धन्यमध्यम, बर्हिषि दभ्रवत् ॥२७२॥ १ अशोघ्ने, इत्याकूतम् ।
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चतुर्थः काण्डः ।
दर्भः कुशः कुसो मुझे शरस्तालव्यदन्त्यभाक् । दूर्वायां हरितालीबद्धरिता, धमने नडः ॥ २७३ ॥ नलो नटः, कुरुविन्दे मुस्ता त्रिषु च मुस्तकः । इक्षौ गण्डीरी गण्डकी, पुण्ड्रेक्षौ पुण्ड- पौण्ड्रकौ ॥ २७४॥ कासस्तालव्यदन्त्यान्त ईषीका स्यादिषीकया । यवासं यवसंघातेऽर्जुने तु द्वे तृण त्रिणे ॥ २७५ ॥ मालातृणं भ्रूस्तृणं च विषे तु गर-सङ्गरौ । गरलोऽथ हालाहले हालहलो हलाहलः ॥ २७६ ॥ पर्यन्तवने लोकण्युकणी, कीटे कृमिः क्रिमिः । लाक्षायामपि तद्भेदे नीलाङ्गुव नीलङ्गवत् ॥ २७७ ॥ गण्डूपदे किञ्चुलकः किञ्चुलुकोऽपि संमतः । जलसर्पिण्यां जलूका जलौका च जलौकसः ॥२७८|| स्त्रियां वा भूम्नि च जलालोका प्रोक्ता जलौकसः । पुंस्यदन्तो जलायुकाऽस्रपाऽऽबन्ता विजन्तकः ॥ २७९॥ अम्बुमात्रजशङ्खे तु शम्बुः शम्बूश्र शम्बुकः । शम्बूकश्च सशाम्बूकः, कपर्दे तु हिरण्यवत् ॥ २८० ॥ हिरणः कथितः प्राज्ञैर्दीर्घकोशा पुनः स्मृता । दीर्घकोषा च दुर्नामाऽऽबन्तो नान्तो दुर्नाम्न्यपि ॥ २८१ ॥ पिपीलके पीलकोऽपि, क्षुद्रजन्तौ तु धान्यजे । कणादीनः कटाटीनः स्याद् युकाण्डे तु लिक्षया ॥ २८२॥ रिक्षोहंशे कोलकणो मत्कुणोत्कुणकावपि । इन्द्रगोपे विन्द्ररजोऽग्निकोऽथ तन्तुवायके ॥ २८३ ॥
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शब्दरत्नाकरेतन्त्रवाय ऊर्णनाभ उर्णनाभिश्च मर्कटः । मर्कटको जालिकश्च जालकारकवत् कृमिः ॥ २८४ ॥ क्रिमिवृश्चिकेऽलि-राल्य-लालिद्रोणो द्रुणो द्रुतः । भ्रमरेऽलि-रली मधुकृत् मधुकरः शिलीमुखः ॥२८५॥ शिलामुखः, मक्षिकायां भिम्भरा भिम्भराल्यऽपि । मधुरस्त्री मधूलं च, माक्षिके वरूटी पुनः ॥ २८६॥ वरटाऽपि च, गन्धोल्यां वर्षकर्या तु चीरिका । चीरी चरुका चिरुका झीरुका झिल्लीकायुता ॥२८॥ झिल्लो झिल्लिका झिलिका विलेपनमले तथा । आतपस्य रुच्यपि च, श्वापदे व्याड-व्यालको ॥ २८८॥ द्विपे मतङ्ग-मातङ्गौ गजो गजों मतंगजः । करी करिदन्ताबलो दन्ती पेचकिपेचिलो ।। २८९ ॥ हस्तिन्यां धेनुका धेनुर्वाशिता वासिता द्वयम् । नार्यामपि कणेरुश्च गणेरुरपि तद् द्वयम् ॥ २९० ॥ वेश्यायां कर्णिकारेऽपि करेणुः स्त्रीनिभीभयोः । विंशतिवर्षेभे विकः, पिक्कोऽपि त्रिंशदब्दके ॥ २९१ ॥ कलभः कडभश्च द्वौ उद्दान्तोपात्तको समौ । निर्मदे राजबाह्ये त्वौपवाह्यश्चोपवाह्यवत् ॥ २९२ ॥ हस्तिदन्ते विषाणं स्याद्विषाण्यपि विषाणकः । तन्मूले तु करीरीवत्करीरिनेत्रगोलके ॥ २९३ ॥ ईषिका स्यादिषीकेवेभगण्डे करटः कटः । गजपश्चिमभागे त्वपरावदऽवरोदिता ॥ २९४ ॥
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चतुर्थः कानुः । शृङ्खलस्त्रिषु हिञ्जीरे निगडो निगलोऽन्दुकः । अन्दूर्गजबन्धभूमौ वारिर्वारी च तोत्रके ॥ २९५ ॥ वेणुकं वैणुकम् , दन्त्यतालव्यादिः शृणिर्मतः । अङ्कुशे, तदग्रेऽपष्ठं कौद् द्वादशाऽक्षरान्तिमम् ॥२९६|| वीते वातं यतं चोक्ते, वरत्रायां सया पया । कक्ष्या गृहप्रकोष्ठे च काञ्चीसादृश्ययोरपि ॥ २९७ ।। अश्वे तुरगस्तुरङ्गस्तुरङ्गमश्च वाज्यपि । वाजिर्वीतिः पीतिः पीती नान्तोऽश्वायां तु वामिवत्॥२९८॥ वामी-बनायुजा-बानायुजा-वाल्हीका-बाल्हिकाः । पुच्छे लगुलं लागुलं गतिभेदे तु धौरितम् ॥२९९।। धौरितकं धोरणं च धौर्य स्यान्मुखयन्त्रणे । खलीनं खलिन-कवी कविका कवियं कविः॥ ३०० ।। सन्नाहेऽस्य प्रक्षरं प्रखरोऽस्त्री रश्मि-रस्मिके । रुक् च वल्गा वल्गो वागाऽश्वतरे वेगतः सरः ॥३०॥ वेसरो वेसरादश्वायां जाते, मुकयस्तथा । मुकुयो हौ मृगभेदे, गर्दभ्यश्वतरात्मजे ॥३०२॥ अप्युष्ट्रे तु मय-मयू क्रमेलश्च क्रमेलकः । दाशेरकः सदाशेरः, उक्षिण शक्कर-शाकरौ ॥३०३।। शाङ्करश्च वृषा नान्तो वृषोऽपि वृषभर्षभौ । शण्डे षण्डोऽपीडरः स्यादिवरः, विद्धनासिके ॥ ३०४ ।। नस्योतो नस्तितो नस्तोतः स-ठौ प्रेष्ठ-पष्ठतः ।
१ ठकारान्तमित्यर्थः । २ प्रष्ट-षष्ठशब्दाभ्यां परो 'वाट' शब्दः, प्रष्टवाडू , पष्टवाडिति ।
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शब्दरत्नाकरेवाड् , दमयो जितहलवोट्रोरेकधुरावहे ॥३०५॥ एकधुरीणैकधुरौ, धूर्वहे तु धुरन्धरः।। धूरीणधुर्यधौरेया धौरेयकोऽथ पृष्ठयके ॥३०६।। स्थौरी स्थूरी स्थूली, षोडः षोडन् षोडत इत्यपि । षड्दन्ते, सकूटे तु कुकुदे ककुदं ककुत् ॥ ३०७ ॥ स्त्रीराचिह्न शैलाग्रे श्रेष्ठेऽपि इयमन्तिमम् । नैचिकं नैचिकी शीर्षे कूणिकायां तु कूणिवत् ॥३०॥ शृङ्गं शृगः शृङ्गिः शृङ्गी विषाणोक्ता विषाण्यपि । विषाणं विषाणो गव्यां गौईयोरनुडुह्यहो ॥ ३०९ ॥ अनुडाही तम्पा तम्बा माहेयी सह माहया । स्रवद्गर्भा ववतोका एतोका चोत्तमा च गौः ॥३१॥ नैचिकी निचिकी नीचिकी नीचीक्यऽप्यऽकोपना । सूरता सुरता सूरथा सुरथाऽथ गोकुले ॥ ३११ ॥ गोधनं धनं कीलस्तु पुस्त्रियोः पुष्पलान्वितः । पुष्पलकः शिवकश्च शिवोऽपि ध्रुवको ध्रुवः ॥३१२॥ बन्धने संदानोदाने दामा-दाम-दामो-दितम् । संदितं संदानितेऽजे छगलः छागवत् छगः ॥३१३॥ स्तभ-स्तुभौ, युवाजे तु बर्करो बर्करी तथा । बर्करम् , मेषे तु हुडुहुंडोऽप्युरण ऊरणः॥ ३१४ ॥ वडूटो वरुटस्तद्वद् वरूडो वरुडोऽपि च । भरूडो भरुडोऽप्युक्तो भरूटोऽस्थ्याशे कुकरः॥३१५॥ कुर्करः श्वानः स्वानश्च शुनकः श्वा शुनः शुनिः।
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चतुर्थः काण्डः । शुनखो भषणो भषकोऽपीन्द्रमहकान्वितः ।।३१६।। इन्द्रमहकामुकश्च श्वाने, द्वौ मृगयापटौ । विश्वकद्रुर्विश्वकद्रूः, शुनकी शुनका शुनी ॥३१॥ श्वानकणे शुनस्कर्णः श्वकर्णोऽपि निगद्यते । सैरिभे मह-महिषौ लुलायश्च लुलायुयुक् ॥ ३१८ ॥ सिंहे पारिन्द्र-पारीन्द्रौ कण्ठीरव-कण्ठेरवौ । केशरी दन्त्यतालव्यः, व्याघ्र द्वीपीव दीपिनः ॥३१९॥ चित्रकश्चित्रकायोऽपि, शरभेऽष्टापदोऽष्टपात् । गण्डके खडी खडीरः खड़ो वाघीणसोऽपि च ॥३२॥ दन्त्यतालव्यान्तः, कोले शूकरः सूकरः किरिः। किरः, ऋक्षे तु भल्लूको भाल्लूको भल्लुकस्तथा ॥३२१॥ भाल्लुकोऽपि च भालूकश्छोभल्लोऽप्यच्छभल्लवत् । गोमायौ फेरु-फेरण्डौ फेरवो भूरिमायवत् ॥३२२॥ भूरिमायुर्जम्बुकश्च जम्बूकोऽपि शृगालवत् । सृगालोऽपि शिवाऽऽबन्तःखिङ्किरः खिलीरा स्त्रियाम् ३२३ भूम्न्युभौ तु शिवाभेदे खट्टाङ्गे वारि-वालुके। भिक्षुभङ्गेऽपि, कीशे तु प्लवंगः सप्लवङ्गमः ॥३२॥ प्लवङ्गः प्रवगोपेतः प्रवङ्गोऽथ मृगे भवेत् । मर्कटः कर्मटस्तद्वत् कुरङ्गश्च कुरङ्गमः ॥३०५॥ वातायुश्च सवातायुदन्त्यतालव्यपूर्वगः । शारङ्गः शबलवर्णे चातकेऽपि ससार्गकः ॥३२६॥ मृगभेदे कृष्णसारकालसारौ सदन्त्यको ।।
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शब्दरत्नाकरेसतालव्यौ च, पृषत् पृषतो बिलशायिनि ॥३२७॥ कन्दली नन्तो ङयन्तश्च कदली त्रिषु कन्दला । हस्तायामऽश्याममृगे ऋश्य-रिश्यौ च सम्मतौ॥३२८॥ ऋष्य-रिष्यौ मृगभेदे, वाताभिमुखगामिनि । मृगे वातप्रमीः पुंस्त्रीदन्तो डीबन्तकोऽप्ययम् ॥२२९॥ अमि पुंसि वातप्रमी शसि वातप्रमीनिति । ङौ वातप्रमीति रूपं ग्रामणीवञ्च शोषकम् ॥३३०॥ स्त्रियामीदन्तं लक्ष्मीवद् डीबन्तं तु नदीसमम् । श्वाविधि शललः शल्यः शल्यकः पुंस्त्रियोर्मतः ॥२३॥ तच्छलाकायां तु शलं शललस्त्रिषु गोधिका । अवलत्तिका लत्तिका गोधा, सर्पसुते पुनः ॥३३२॥ गोधेर-गोधारौ, पल्यां गृहोली गृहगोलिका। गृहोलिका मुसली मूईन्यतालव्यदन्त्यभाक् ॥३३३॥ अञ्जन्यामञ्जनाधिका हालिनी च हलाहलः । कृकलासे कृकुलासः सरटः सरडस्तथा ॥३३४॥ सरण्डश्च प्रतिसूर्यः प्रतिसूर्यशयानकः। शयानकः, आखौ तु स्याद् मूषिका मूषिकोऽपि च ३३५ उन्दरो-न्दुरो-न्दुरवः कुन्दुमूषी तु मूषिका । मूषा च, गन्धमूष्यां तु छुछुन्दरी छुछुन्दुरी ॥३३६॥ ओतौ बिडालो बिलालो दरुटो दरुडान्वितः । हीको ह्रीको हीकु कुर्लज्जालौ नकुलोऽपि च ॥३३७॥ मार्जालीयश्च मार्जारोऽहौ भुजङ्गो भुजङ्गमः ।
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चतुर्थः काण्डः ।
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भुजगः सपे सूप च सरीसृपश्च गूढपाद् ॥ ३३८ ॥ गूढपदो व्याल व्याडावुरङ्गवोरगस्तथा ।
अजगरे शयथुश्च शयालुः स्यात् शयातु षण् ॥३३९॥ शयुर्जलसर्पे तु स्यादलीगर्दोऽलगर्दयुक् । अलगर्डोऽलीगर्छौंऽपि राजिलाऽहौ तु डुण्डुभः ॥ ३४० ॥ दण्डुभो दन्दुभो दोडो दोलोऽपि च, तिलित्सिके । गोनासो गोनसोऽप्युक्तो घोणसः, मातुलोरगे ||३४१|| मालुधानो ऽहिदंष्ट्रायामाश्यां शीर्भोगके फटः । स्फटौ द्वौ पुंस्त्रियोः प्रोक्तौ फणस्त्रिषु च दवित् ॥ ३४२ ॥ दर्बी च कञ्चुके निर्व्वयनी निर्लयनीयुता । पक्षिणी पत्नी पतत्त्री नकारान्ताविदन्तकौ ॥३४३॥ पतन् पित्सन् पतङ्गश्र पतगो विहगो मतः । विहङ्गमो विहङ्गोऽपि नगौकाच नगौकवत् ॥ ३४४ ॥ सशकुन्तः शकुन्तिश्र शकुनिः शकुनः स्मृतः । चकीरो विकिरश्चापि विष्कीरश्र सृपाटिका || ३४५ ॥ स्मृपाटी चञ्चुचञ्चूत् त्रोटिस्खोटी, तनूरुहे । पिच्छं पिञ्छं पतत्रं च पत्रं पक्षो नरि स्मृतः ||३४६॥ पक्ष नान्तं पक्षः सान्तं द्वे षण्ढे च, नभोगतौ । प्रडीनो-ड्डीन - संडीन - डयनान्यथ चाण्डके || ३४७ ॥ पीशीकोशः पेशी - कोशौ, नीडं त्रिषु कुलायके । केकिनि मोर - मयूरौ मयूको मरुकस्तथा ॥ ३४८ ॥ बहीं च बर्हिणः शिखाबलः शिखी पिके पुनः ।
११
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૨
शब्दरत्नाकरे
घोषयित्नुः पोषयित्नुः कोकिलः कौकिलान्वितः ॥ ३४९ ॥ मौकुलिर्मोकुलः काके, वनकाके तु द्रोणवत् । द्रोणकाकः, निशाटे तु कौशिकः कुशिकेऽपि च ॥३५०॥ कुक्कटः कुर्कुटस्ताम्रचूडेऽङ्को वक्रे चक्रतः । हंसे, कृष्णचञ्चुपादे धार्तराष्ट्र इति स्मृतः ॥ ३५१ ॥ धृतराष्ट्रो भवेद्, हंस्यां वारला वरला तथा ।
वारटा वरटा तद्वत् वरटी, खञ्जनः पुनः ॥ ३५२ ॥ खञ्जरीटः, सारसे तु लक्ष्मणो लक्षणोऽपि च । सारस्यां लक्ष्मणा लक्ष्मणी च लक्षणया सह ॥ ३५३ ॥ क्रौञ्चे क्रुङ् शत्त्रि-शक्री च क्रौञ्च्यां क्रुङ् कुचया समं । चाषे चासः किकिदीविः किकीदीवि-किकीदिवौ ॥३५४॥ किकिः किकीः किकिदिविः दैविः, शकुनिभिद्यथ । वर्तको वर्तवत् प्रोक्तो वर्तका वर्तिका स्त्रियाम् ॥ ३५५॥ कटुक्काणे टिट्टिभः स्यात् टीटिभश्चटके पुनः । कुलिङ्ककः कलम्बिकः चटका क्षिपकादिषु ॥ ३५६ ॥ स्त्रियां तयोः स्त्र्यपत्येऽपि चाटकेरो नरे तुकि । जलरङ्कौ जलरञ्जः कालोत्कण्टक - कण्ठगौ ॥ ३५७ ॥ दात्यूहश्च सदात्योहः, कह्ले बक-बुकौ समौ । बकोटोsपि, बलाकायां कण्टिका कण्ठिके बिसात् ॥ ३५८ ॥
१ वक्र चक्राभ्यां परोऽङ्कशब्दः, वक्राङ्कः, चक्राङ्क इति ।
२ कालशब्दात् परौ कण्टक- कण्ठगशब्दौ कालकण्टकः, कालकण्ठग इति । ३ बिसशब्दात् कण्टका- कण्ठिकाशब्दौ योज्यो, बिसकण्टिका, बिसकण्ठिक्रेति ।
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चतुर्थः काण्डः ।
चिल्ले आतापिरातापी आतायी नान्तकावुभौ । कामायौ तु गृध्र-गृत्सौ दाक्षाय्यच दक्षाय्यवत्॥३५९॥ रामाश्रिते जटायुर्नोदन्तकः सान्तिमोऽपि च । कीरे तालव्यदन्त्यादिः सुकोऽथ शारिका मता ॥ ३६० ॥ गोकिराटिका गोराटी स्यात् चर्मचटका पुनः । जतुका च जतूका च, परोष्ठ्यां वल्गुली स्मृता ॥ ३६१ ॥ वल्गुलिका, कर्करटौ करेटुः कर्कराटुकः ।
करटुः कर्करेटोऽथाटिराडिश्च शरातिवत् ॥ ३६२ ॥ आतिः शरारिः शलालिः कृकण क्रकरावुभौ । कपिञ्जले, भास-भाषैौ शकुम्भे, रक्तलोचने ॥ ३६३ ॥ पारापतः पारावतः पारपतः कपोतवत् ।
कपोटः, गुन्द्राले जीवञ्जीवः स्याद् जीवजीववत् ॥ ३६४॥ व्याघ्राटे तु भरद्वाजो भारद्वाजश्र, तित्तिरः । तित्तिरिः खरकोणे हौ, मरुले कारण्ड इष्यते ॥ ३६५ || कारण्डवः, मीने मच्छो मत्सो मत्स्यो विसारिणा । वेसारिणो विसारच शक्लीव शकली मता ॥ ३६६ ॥ शम्बरो दन्त्यतालव्यो वादालश्च वदालवत् । सहस्रदंष्ट्रे शिशुके चुलूपीव दुलूप्यपि ॥ ३६७ ॥ शफरे शफरी प्रोष्ठः प्रोष्ठी ठान्तौ चिलीचिमिः । चिलिचीमश्चिलिचिमः, नलमीनेऽथ मत्स्यभित् ॥ ३६८ ॥ शालः सालश्च, नक्रे तु कुम्भी कुम्भीर इत्यपि ।
पुंलिङ्गः, उकारान्तश्चेत्यर्थः ।
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शब्दरत्नाकरे-- शङ्खमुखः शङ्कुमुखः, ग्राहे तु तन्तु-तन्तुणौ ॥३६९|| तन्तुनागश्च नागोऽपि, कर्कटे तु कुलीरवत् । कुटीरश्च चन्द्राश्रयराशावऽपि च, कच्छपी ॥३७०॥ दुलिर्दुली दुडिर्भके प्लवगः सप्लवंगमः । प्लवः सालूच सालूरो दन्त्यतालव्यपूर्वकः ॥ ३७१ ॥ शालस्तथैव भेक्यां तु वर्षाभूरिति कथ्यते । वैर्षाव्युद्भिदि चोद्भिज्जमुद्भिदं चोद्भिजं तथा ॥३७२॥ इति श्रीवादीन्द्रश्रीसाधुकीय॒पाध्यायमिश्राणां शिष्यलेशेन वाचनाचार्यसाधुसुन्दरगणिना विरचितायां शब्दरत्नाकरनामशब्दप्रभेदनाममालायां तिर्यकाण्डश्चतुर्थः ।।
अहम्
अथ पञ्चमः काण्डः ।
नैरयिके नारकको नारकीयश्च नारकः । प्रेतः परेतः आजूः स्यूदन्ता रेफान्तिमाऽपि च ॥१॥
आजूराजूरावाजूर इत्येवं रूपसंगतिः निर्वतनकर्मकृतौ भद्राख्ये करणे तथा ॥ २ ॥ निरये दुर्गतिः स्त्रीब्रोनरको नारकान्वितः । पातालेऽधोऽव्ययं चाधः, भुवनं विवरे सुषिः ॥ ३ ॥
१ रेफान्तस्य 'आजूर' इति अब्दस्य प्रथमाविभक्तो रूपाणीति ।
२ अत्र इयन्तो वीवी-शब्दो भेकीवाचकः ।
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षष्ठः काण्डः। तालव्यदन्त्यः शुषिरम् , गर्ते गर्ता दरस्त्रिषु । स्वभ्रं तालव्यदन्त्याद्यमवटोऽवटिरित्युभौ ॥ ४ ॥ इति श्रीवादीन्द्रश्रीसाधुकीयुपाध्यायमिश्राणां शिष्यलेशेन वाचनाचार्यसाधुसुन्दरगणिना विरचितायां शब्दरत्नाकरनामशब्दप्रभेदमालायां नारककाण्डः पञ्चमः । ___ ...-----
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अहम् अथ षष्ठः काण्डः ।
लोके विष्टपं पिष्टपं जगती, जगत्प्राणिनि । जन्यु-जन्तू , उद्भवे षण् जन्म जन्मोऽस्त्रियां जनिः॥१॥ जनुः सान्तं षण् जननम् , जीविते जीवस्त्रिष्वचि । जीवातुरस्त्रियां प्राणाः पुंभूम्नि जीविताध्वनि ॥ २ ॥ आयुः सान्तं च षण् आयुरुदन्तः पुंसि चोच्यते । हृद् हृदयं चित्तं चेतो मनो मानसमित्यपि ॥ ३ ॥ खान्तमास्वनिताऽऽस्वान्ते, निर्वृतौ सुख-सौख्यके । सर्म-समें नान्ताऽदन्ते दन्ततालव्याचे मते ॥ ४ ॥ शान्तं तालव्यदन्त्याचं भद्रं भन्द्रमसौख्यके । तृप्रं दृप्रं बाधा बाध आबाधा चाऽमनस्यवत् ॥ ५ ॥ अमानस्यमामनस्यम् , चर्चा चर्ची विचारणा । स्वभावे निसर्ग-सौ, पश्चात्तापोऽनुतापवत् ॥ ६॥
. अच्-प्रत्यये कृते सतीत्यर्थः । २ पुंसि बहुवचने चेत्यर्थः । ३ आस्वनित-आस्वान्तशब्दो स्वान्तपर्यायावित्यर्थः ।
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शब्दरत्नाकरेविप्रतिसारो विप्रतीसारोऽथ सुकृते वृषः । वृषभो धर्मधरीमा नान्तो धर्मोऽथ दिष्टके ॥ ७ ॥ भागो भाग्यं भागधेयम् , शुभकर्मण्यपोऽतसा । सान्ते षण्ढे, पापं पाप्मा किल्विषं कलुष समे ॥ ८ ॥ कल्मषमभिप्राये तु छन्दो ना छन्दसा षणा । चतुरश्चातुरको द्वौ नेत्रगोचर ईरितौ ॥ ९ ॥ चाटुकारे चक्र-गण्डावपि, स्परिशः स्पर्शवत् । शिशिरे शीतलः शीतः सुसीमश्च सुषीमवत् ॥ १० ॥ ईषदुष्णे कवोष्णः स्यात् कदुष्णः कोष्ण इत्यपि । खरे जरठो जठरः करटः कर्कटोऽपि च ॥ ११ ॥ कक्खडः खक्खटस्तद्वत् , कोमले मृदुलो मृदुः । सोमालः सुकुमारश्च, मधुलो मधुराऽन्वितः ॥ १२ ॥ गुल्ये, दन्तशठेऽम्लोऽम्ल्वः, कखाये तुबरस्तथा । तूबरः कुबरोऽपि स्यादाद्यौ हौ तौबरोऽपि च ॥१३॥ त्रयोऽश्मश्रुनरे शृङ्गहीनपशावऽपि स्मृतः । आमोदिनि मुखेशुभाद् वासनः, धवले सितः ॥१४॥ शितिः श्वेतः श्येतः श्येनः शुभिः शुभ्रश्च पाण्डरः । पाण्डुर-पाण्डू गोराप्तो गौरः पीतेऽरुणेऽप्यऽमू ॥ १५ ॥ शुकः शुक्लः, कपोताभे कापोतः स्यात्कपोतवत् । कपोटोऽप्पथ झारिने कथितौ पीत-पीतकौ ॥ १६ ॥ १ छन्दःशब्देन नपुंसकेन सहेतिच्छन्दः ।
२ मुखशुभशब्दाद् वासनशब्दयोगे मुखशुभवासन इति ।
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षष्ठः काण्डः।
पीतनीले तु पालाशः पलाशो हरितो हरिः । लोहितो रोहितो रक्ते, पीतरते तु पिङलः ॥ १७ ॥ पिङ्गः कपिलः कविलः, कृष्णे तु स्याम-श्यामलौ । श्यामालश्च शिति-शिनी, रक्तश्यामे तु धूमलः ॥१८॥ धूम्रोऽथ कर्बुरश्चित्रः चित्रलोऽपि कल्माषवत् । कल्मासश्च, भवेत् शब्दो निखानो निःस्वनः स्वनः॥१९॥ स्वनिः स्वानो ध्वनिर्ध्वानो निकाणो निक्कणः कणः काणश्च घोष-निर्घोषौ निर्हादो हाद इत्यपि ॥ २० ॥ निनादो निनदो नाद आरावो राव आरवः । रवो विरावः सरावः, क्ष्वेडा वेडित-क्ष्वेलिते ॥ २१ ॥ भटानां सिंहनादेऽथ शिञ्जितं भूषणध्वनौ । सिञ्जाश्वशब्दे हेषा स्याद् हेषा, गर्जस्तु गर्जया ॥२२॥ हस्तिशब्दे, विस्फारश्च विस्फोरोऽपि धनूरवो । मेघशब्दे गर्जितं स्यात् गर्जिवद् ना, खरारवे ॥२३॥ रेषण-रेषे, तन्त्र्यास्तु प्रकाणः प्रकणो रवे । गम्भीरध्वनिते मन्द्र-मद्रौ, सूक्ष्मकलध्वनौ ॥ २४ ॥ काकली काकलिङ्घन्दे कदम्बं च कदम्बकम् । समुदायः समुदयः पेटं स्यात् पेटकं त्रिषु ॥ २५ ॥ चक्रवालं चडवाडं चक्रं च चय-संचयौ । शण्ड-षण्डौ, केदाराणां गणे कैदारकं मतम् ॥ २६ ॥ कैदारिकं कैदार्य च, केशानां कैश्य-कैशिके । अश्वीयमाश्वमश्वानाम , वातूलो वात्यया सह ॥२७॥
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शब्दरत्नाकरेवातानाम् , खलानां खल्या खलिनी, रथकट्यया । रथ्या रथानाम् , यौवतं यौवनं युवतीगणे ॥ २८ ॥ वंशादिदलनिर्मितभाण्डराशाविदं द्वयम् । स्यात् पिटक्या पिटाक्या च हेल्या हालं हलोत्करौ॥२९॥ पतौ वीथी वीथिरालिरावलिरावली मता । राजि-राज्यौ रेखा लेखा समाने पुंस्त्रियोः स्मृता॥३०॥ श्रेणिः श्रेणी च युग्मे तु युगवद्युगलं यमम् । यमलं यामलं इन्दं दन्दं द्वैतं द्विती द्वयम् ॥ ३१ ॥ द्वितयम् , प्रचुरे भूयो भूयिष्ठं पुरुहं पुरु । बहुलं बहु बहूलम् , लेशे त्रुटि-तुटी समौ ॥ ३२ ॥ अत्यल्पे त्वल्पीयोऽल्पिष्ठमुच्चे तूत्तुङ्ग-तुङ्गकौ।। उदग्रमनुदग्रं च, खर्वे न्यग् नीचवद्, गुरौ ॥ ३३ ॥ पृथुलं पृथु विपुलं पुलं वद्रं च ववत् । वरिष्ठं वर्गद्वितीयाप्तमारोहे समुच्छ्रयः ॥ ३४ ॥ उच्छ्रायश्च, प्रपञ्चे तु विस्तारो विस्तरोऽपि च । शब्दे विस्तर एवैकः, समस्ते निखिला-ऽखिले ॥३५॥ समं सिमं च निःशेषाऽ-शेषे सकल-शल्कके । अन्यूनाऽनूने, अपूर्णे उनमूनम् , समाईके ॥ ३६ ॥ शकलं शक्लं खण्डं च खण्डलं चाऽपि, भागके । अंसस्तालव्यदन्त्यान्तः, भागेऽर्थेऽष्टम आष्टमः ॥३७॥ षष्ठः पाठः, मानभागे षष्ठः पाष्ठश्च षष्ठकः । , हल्या-हालशब्दौ हलसमूहवाचिनाविति हृदयम् ।
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षष्ठः काण्डः। म्लानं मलीमसे प्रोक्तं मलिनं कश्मलं तथा ॥३८॥ कष्मलम् , मेध्ये पावनं पवित्रं च पविस्तथा । पूतं च, प्रकृष्टे मुख्यं प्रमुखं मुखमित्यपि ॥३९॥ प्रधानमजहल्लिङ्गं वाच्यलिङ्गमपि स्मृतम् । वरं वरेण्यं प्रवरमग्न्यमग्रीयमग्रियम् ॥४०॥ अग्रिममनुत्तमं चोत्तमं चाऽनवरा-ऽयंवत् । परं परायें ग्रामण्य-ऽग्रण्यग्रे प्रष्ठमन्तठम् ॥४॥ सत्तमे श्रेयसा श्रेष्ठं स्याद् टवर्गद्वितीययुक् । उपसर्जनमाविष्टलिङ्गं स्यादप्रधानके ॥ ४२ ॥ निकृष्टे त्वपकृष्टं स्यादधमं चाऽवमं समे । याप्यं याव्यं रेप-रेफौ रेपो रेफश्च सान्तिमे ॥४३॥ अर्वाऽर्वाणोऽसेचनकमासेचनकमित्यऽपि । देर्शनाद् दृगतपेऽर्थे, शोभने मञ्जु-मञ्जुलौ ॥४४॥ रम्यं रमणीयं सौम्यं सोमं बन्धूर-बन्धुरे । नमेऽपि कमनीयं स्यात् काम्यं कनं मनोरमम् ॥४५॥ रामाऽभिरामे चाऽसारे शक्यं शिक्यं च, रिक्तके । शून्यं शुन्यं च, प्रत्यग्रे नवीना-ऽभिनवे नवम् ॥४६॥ नव्यवद् नूतनं नूनम् , जीर्ण जरति जर्णवत् । प्रणं प्रीणं पुराणं च प्रतनं च पुरातनम् ॥४७॥ प्रत्नं चिरत्नं च चिरन्तनम् , परुद्भवे मतम् । १ ठकारान्तमित्यर्थः । २ एतदन्ता निकृष्टपर्यायाः । ३ दृष्टेऽप्यर्थे येन न तृप्यति दृग सोऽर्थो इगतपः, तस्मिन्नित्यभिप्रेतम् ।
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शब्दरत्नाकरे
परुत्तनं परुन्त्तमं परुत्नं च, परारिजे ॥४८॥ परात्नं परारिन्तनं परारितनमित्यपि । पार्श्वे तालव्यदन्त्यान्तमभ्यासं सन्निधानवत् ॥४९॥ सन्निधिरन्तिकतमे नेदीयो नेदिष्ठं स-ठम् । अतिदूरे दवीयः स-ठं दविष्ठमनश्वरे ॥५०॥ सनातनं सदातनं शाश्वतिकं च शाश्वतम् । अतिस्थिरे स्थेयं स्थास्नु स-ठं स्थेष्ठं च, जङ्गमे ॥५१॥ चरं चराचरं तच्चरिष्णुवदिहाऽस्थिरे । परिप्लवं पारिप्लवं चञ्चलं च चलाचलम् ॥५२॥ चलं चपलं चटुलं कमनं कम्प्रमप्यथ । अधोमुखेऽवनतं स्यादानतम् , कुटिले पुनः ॥५३॥ वक्रं वकं च वक्रिश्चानुगे चान्वगन्वक्षवत् । असहाये चैकाक्येक एककोऽनन्यवृत्तिके ॥५४॥ एकात्सर्गा-ऽयन-ताना-ऽग्राण्ययनगतं तथा । एकाग्रम् , पूर्वे त्वाद्या-ऽऽदी आदिमं प्रग्रमग्रवत् ॥५५॥ चरमेऽन्त्यमन्तिमा-ऽन्तावन्तमं पश्चिमान्वितम् । अपश्चिमं स्वरूपे नञ् पाश्चात्यं पश्च-पश्चिमात् ॥५६॥
. एकशब्दात् सर्गा-ऽयन-तानाऽग्रा-ऽयनगतशब्दाः संबन्धनीयाः, एकसर्गः, एकायनः, एकतानः, एकाग्रः, एकायनगत इति ।
२ स्वरूपार्थद्योतको नञ् , न तु निषेधद्योतीति ज्ञेयम् ।। __ ३ पश्च-पश्चिमशब्दाभ्यामर्धाऽनुपूयं-भिमुखशब्दा योज्याः, पश्चार्धम् , पश्चा नुपूर्वी, पश्चाभिमुस्वम् : पश्चिमामित्यादि ।
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षष्ठः काण्डः ।
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अर्द्धा-नुपूर्व्य-भिमुखाः शब्दा योज्याः, दिवोऽचिं च । पृषोदरादित्वाद् दिवो द्युवाऽऽदेशः, यदुच्यते ॥ ५७ ॥ दिवः स्थाने दिवोऽचि स्याद् दिव् च दीर्घे पुनः परे । उकारोकारयोरुच्च पश्चातोऽर्घादिके तलुक् ॥५८॥ मध्यजाते मध्यमीयं मध्यमं माध्यमं तथा । मध्यन्दिनं माध्यन्दिनं मध्ये ऽभ्यन्तरमन्तरम् ||५९|| अन्तरालम्, समं तुल्ये समानं सदृशं सदृक् । सदृक्षमनुहारे तूपान्मान मिति मा मताः ||६०|| औपम्यमुपमा मुक्तेऽनुपमं स्यादनोपमम् । कथ्यते वर्चा प्रतिमा प्रतिमानमयोमयी ॥ ६१ ॥ शुर्मिः शूर्मी च तालव्यदन्त्यादी शूर्म इत्यपि । वामे "वि प्रतितो लोममपष्ठरमपष्ठुरम् ॥ ६२ ॥ प्रसव्यमपसव्यं चोच्छृङ्खले तु निरर्गलम् | अनर्गले भिन्ने त्वन्यदन्यतरदपीतरत् ॥ ६३ ॥ मिश्र करम्बः कबरम् तूर्णे त्वरित सत्त्वरे ।
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१ दिव्शब्दस्य अचि सर्वस्मिन् स्वरे परे पृषोदरादिसामर्थ्याददन्तो दिवः, उदन्तो युवादेशः स्यात् । एतदेव चाऽग्रेतनेन गणरत्नमहोदधिस्थेन समासगणाध्यायान्तर्गामिनैकोन सार्धशतसंख्येन लोकेन प्रमाणयति ।
२ दिव्शब्दस्थाने स्वरे परे दिव आदेशः स्यात्, तस्यैव दीर्घे च स्वरे परे दिवू दिवश्वादेशौ स्याताम्, ऊकारोकारयोः परयोर्दिवो वस्य उकारोऽपि स्यात्, - दिवाधीशः, दिवीवरः, दिवेश्वरः, यूहा, दिवूहा, दिवोहेत्यादि ।
३ पश्चात् - शब्दस्य अर्घादिशब्दत्रये परे तो लुक् स्यात्, पश्चार्धम्, -पश्चानुपूर्वी, पश्चाभिमुखमिति । ४ उपशब्दाद् मादिशब्दत्रययोगः, उपमानम् उपमितिः, उपमेति । ५ वि-प्रतिभ्यां परं लोमम्, विलोममित्यादि ।
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शब्दरत्नाकरे
संपातपाटवे झम्पा झम्पोऽजस्रे तु संततम् ॥ ६४ ॥ सततं चानवरता - ऽविरते स्यादनारतम् । सङ्कले वाकुलं कर्णि समाभ्यां कीर्णमित्यपि ॥६५॥ भरिते प्राणं पूर्ण च पूर्ते पूरितं छादितम् ।
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छन्नम् त्यक्ते विधुतवद्धूतम्, विन्नं विचारिते ||६६|| वित्तं च, पिहिते छन्नं छादितं संवृताऽऽ-वृते । अपवारित-संवीते पिधाने व्यवधानवत् ॥ ६७ ॥ व्यवधाऽन्तर्द्धिरन्तर्द्धा, नाऽऽद्दते मैत- मानिते । अवादवज्ञायां हेलाऽवहेलमबहेलया ॥ ६८ ॥ असुक्षणमसुर्क्षणमसूक्षणमसूक्षणम् ।
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कम्पिते तु धुतं धूतं प्रेङ्खोलितं च प्रेङ्खितम् ॥६९॥ अन्दोलने भवेद् दोला प्रेङ्खा प्रेङ्खोलनं समे । दोलके मता दोलेरिते निष्ट्यूतमार्त्तठम् ॥ ७० ॥ नुन्न-नुत्ते, मुषिते तु मूषितम्, गुणिते पुनः । आहताऽ नाहते मृषार्थके ताडितकेऽपिच ॥ ७१ ॥ तेजिते निशातं शातं निशितं शितमित्यपि । वृते तु वृत्त-वावृत्ते, ह्रीतं ह्रीणं च लज्जिते ॥७२॥ दग्धे तु प्रुष्टं प्लुष्टं च तष्टं त्वष्टं तनूकृते । छिद्रिते वेधितं विद्धम्, विलीने विद्रुतं द्रुतम् ॥७३॥ तन्तुसन्तते स्यूतो- ते ऊतं स्यूनं च स्योनवत् ।
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१ संकीर्णम्, आकीर्णमिति ।
२ अवमतम्, अवमानितं च । ३ ठकारसहितमित्यर्थः ।
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षष्ठः काण्डः ।
स्फोटने स्फुटनं तद् भिदा, गीर्णो गिरिभवेत् ॥७॥ उद्यमे तु गूरणं स्याद् गुरणं च संगीर्णके । श्रुतं संप्रत्याङ्भ्यः परमु! यु-ररीतः कृतम् ॥ ७५ ।। खण्डिते छेदितं छिन्नं छितं छातं दिताऽन्वितम् । प्राप्ते तु भावितं भूतम् , भ्रष्टे पतित-पत्रके ॥७६॥ अतिक्रान्ते तीताऽतीते, गवेषिते तु मार्गितम् । मृगितवदन्विष्टं स्याद्, अन्वेषितमीप्सिते ॥७७॥ क्लिन्ने कृन्नं सार्द्रमा तिमितं स्तिमितं तथा । दूते सन्तापितं तप्तं धूपायितं च धूपितम् ॥७८॥ शीने स्त्यानमन्तर्गते विस्मृतं प्रस्मृतं समे । विदिते बुधितं बुद्धम् , स्यन्ने स्नुतं स्रुतं स्मृतम् ॥७९॥ रक्षिते तु त्राणं नातं गुप्तं गोपायितं तथा । वशक्रिया संवननं संवदनम् , स्थितौ पुनः ॥८॥ आस्याऽऽसना, पर्यटनेऽटाट्याऽटाटाऽप्यटाट्यया । वैपरीत्ये विपर्यासो विपर्यायोऽप्यनुक्रमे ॥८॥ क्रमः परिपाटि-परीपाटी स्यादानुपूर्व्यवत् । आनुपूर्वी, भवेदिष्टे निकामं च प्रकामवत् ॥८२॥ कामाप्त्यर्थे तु गाढमुद्गाढं भर-निर्भरौ । जम्भणं त्रिषु जम्भा स्यात् , परिष्वङ्गेऽङ्कपालिवत्॥८३॥ अङ्कपाली परिरम्भः परीरम्भोऽप्यथोत्सवे । १ संश्रुतमित्यादि । २ उरिकृतम् , ऊरिकृतम् , उररीकृतमिति ।
३ कथितमित्यर्थः ।
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शब्दरत्नाकरेमहो महश्च सान्तं षण् , मेल के सङ्ग-सङ्गमौ ॥४॥ सांगमोऽथो अनौडत्ये प्रश्रयः प्रशरोऽपि च । आरम्भे क्रमः प्रोपाभ्यामुपोहात उहातवत् ॥८५।। उत्क्रमे व्युत्क्रमः प्रोक्तोऽक्रमोऽथ विप्रलम्भने । विप्रलम्भः, विप्रयोगो वियोगो विरहे स्मृतः ॥८६॥ सामान्ये तु जातिर्जातम् , स्पर्धायां तु समः परौ । हर्ष-घर्षों च संक्राम-संक्रमौ दुर्गसञ्चरे ॥८७॥ जलतरणेऽपि, परिणामे विकृति-विक्रिये । विकारः, घूर्णने धूर्णिान्तिभ्रंमि-भ्रमावपि ॥८८॥ लवने लवा-भिलावौ, निष्पावे पवनं पवः । थूत्कृते ठीवनं ष्ठ्यूत-निष्ठेव-ष्ठेवनानि च ॥८९॥ स्याद् निवृत्तावुपरमो व्युपाब्याङ्यो रतिः परा । विधूनने विधुवनम् , ग्रहणे ग्राहवद् ग्रहः ॥९॥ वेधे व्यधः, क्षये क्षिया, स्फरण-स्फुरणे समे । देवतायें वर-वृती अथाऽव्ययगणस्मृतिः ॥९॥ खः स्वर्गे सुखमार्तण्डपरलोकेष्वपि, शनैः । शनैश्चरेऽप्यथोचे तु उपरिष्ठादुपर्यपि ॥९२॥ अँधरदेशेऽधोऽधस्ताद्, वर्जने त्वन्तरेणवत् । अन्तराऽन्तर्दा मध्येऽपि हिरुक् कान्तं पृथक् पुनः॥९३॥ कान्तं जान्तं च मौने तु तूष्णीकं तूष्णीमित्यपि । १ प्रक्रमः, उपक्रम इति । २ सहर्षः, संघर्ष इति ।
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३ विरतिः, उपरतिः, आरतिः, व्यारतिरिति । ४ अधस्तनभागे। ५ ककारान्तम् । ६ जकारान्तम् ।
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षतः काण्डः ।
जोषं जोष्यं च सौख्येऽपि आनन्दे द्वयमिष्यते ॥९४॥ उपजोषं च समुपजोषम् , सर्वासु दिक्ष्विह । समन्ततः समन्ताच्च, पुरस्तात् पुरतः पुरः ॥ ९५ ॥ पूर्वदेशेऽस्मिन् तु काले साम्प्रतं सम्प्रति स्मृतम् । शीघे झटिति झगिति द्राक् प्राक् कान्ते समे मते॥९६॥ सर्वकाले शश्वत् सश्वत पुनरर्थेपि, सर्वदा । सदा सदं सनत् सनात् सना नित्यं च नित्यदा ॥९७|| वारवारेण च वारंवारमसकृदर्थके । पुनःपुनः पुनर्मुहुमुहुर्मुहुरपि स्मृतम् ॥९८॥ सायं मान्तं दिनान्ते स्यादिने सान्तमुदन्तकम् । धुराकाशेऽपि च दिवा, तत्क्षणे सपदीति च ॥९९॥ पदन्तं स्यादेकपदे, दीर्घकाले चिराचिरम् । चिरेण चिररात्राय चिरायाऽपि चिरस्य च ॥१०॥ रात्रौ मान्तं नक्तमुषा दोषा स्यात् पक्षणी निशि । उभयेधुरुभयद्युर्निशान्ते तु उषा उषः ॥१०१॥ अभ्यर्णेऽपि हिरुक् कान्तमल्पे किञ्चिच्च किञ्चन । मनाक् कान्तम् , वितर्के किं किमूत किमुताऽपि च।।१०२॥ नुवै नु नुकं किंस्वित् खिदाऽऽहोखिदुताहो च । आ हौ, हेतौ यद् यतो येन यदि तेन च तत् ततः॥१०३॥ चैव, संबोधने पाट प्याट् हहो आहो अहो अपि । है हौ व्यस्तौ समस्तौ च स्मरणाऽऽह्वानयोरपि ॥१०॥ हो हो व्यस्तो समस्तौ च ह्वानेऽपि, अरेरे रै।
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शब्दरत्नाकरे
भोभो भो भो अयि हये ए ऐ च द्वौ स्मृतौ ॥१५॥ आह्वानेऽपि, ऊ ओ हूतावपि देवहविह॒तौ । श्रौषट् वोषट् वषट्वट वाट वड्, मध्ये त्वन्तराऽन्तरे१०६ अन्तेरणाऽन्तरभाव, अ ना नो नहिकं नहि । नोहि नवा नवै नोचेत् नचेत् मा मास्म वारणे॥१०७॥ आशङ्कऽथाऽभ्युपगमे ओं अमाऽऽमां द्वे अन्तिमे । अवधारणेऽप्युपमाने इव एव च वा इव ॥१०८॥ बत् , पक्षान्तरे चेत् , चाऽवधृतौ वा वैव मेव च । द्वौ द्वावित्यर्थे मिथुनं मिथो मिथुश्च सान्तिमे ॥१०९॥ आनुयूये अनुषगाऽनुषद्, संशयप्रश्नयोः । किम् कीम्, विनियोगाचारातिक्रमयोस्तु हा हवत्॥११॥ प्रैषानुमानप्रतीक्षासमाप्तिपु वावदिति । त्वावन् वावद् वियोगे च पादपूर्ती वेद् वाद्-वदौ॥१११॥ दान्ताः, प्रश्ने वितर्के च प्रशंसायामिमौ मतौ । कूपत् सूपत् , विशेषे स्यात् न्वै तुवै तु च कुत्सने ११२ विनाशे चान्तकादऽऽङ्क, स्यातामद्भुतखेदयोः। अहहा अहह उभौ, वर्जने च निषेधने ॥११३॥ नकिर नकिस् माकिर माकिस् , सत्ये हिंसाप्रशंसयोः। प्याटपाट,कोपे च पीडायां मत् आस् च रहसि विमौ११४ मिथो मिथस् कुत्सायां, पुक् पुत् द्वौ पादपूरणे । हहि प्रश्ने रोषे, उम् ऊम् द्वौ विस्मयविषादयोः॥११॥ हा है विस्मये ही हे है स्मरणे आ च आस् तथा ।
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पठः काण्डः ।
तुमर्थे क्रन्तुं क्रान्तुं च क्षन्तुं क्षान्तुं सेमे मते ॥११६॥ गन्तुं गान्तुं दीर्घादीनि गतौ कौ पन्थिके क्रमात् । अभिनय-व्याहरणे ईम् कीम् शीम् सीम् निरूपितम् ११७ अव्यक्ते ईम् शीम् , मर्षे पादपूर्ती च, सीमिति । भार्यायां क्षम् गम् ऊम् , त्रीप्यूर्यादावङ्गीकृतौ भृशे११८ ॥ विस्तारेऽनुकरणे च प्रशंसायामुर्युरी । उरुरी उरी चत्वारि, हिंसायां कथिता अमी॥११९॥ भ्रंशकला ध्वंसकला स्रंसकला समाकला । ससकला समकलाऽपि मसमसा च मस्मसा ॥१२॥ गुलुगुधा गुलुगुला पार्दाली च वार्दाल्यपि । विचारे आक्ली च विक्ली च तहिडराऽऽकुलीकृतौ॥१२१॥ ताली विताली आताली क्रियासंपादने फली। फल्यू च साक्षादादौ स्यात् सामथ्र्योत्सायोरमी॥१२२॥ असहने प्रसहने विसहने त्रयी वियम् । एदन्ताऽथ च वैरूप्येऽन्ये संतापे बधे क्रमात् ॥१२३॥ प्रकम्पने विकम्पने एदन्तौ रोहशोभयोः । प्राजरुहा बीजरुहा जरणे कथिताविमौ ॥ १२४ ॥ प्राजर्या वीयर्जा तुल्यौ चिता चित्ता च चेतने । इत्यूर्यादौ कतिचिदव्ययाः कृञ्संबुजः स्मृताः ॥१२५॥ अदस् स्पर्श स्थाने युक्तौ विभक्तिप्रतिरुपकम् । षष्ठीतृतीयार्थे तव ते मम मे च क्रमाद् मतौ ॥१२६॥
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शब्दरत्नाकरेअधोऽर्थे वध अदन्तं हैमादशेषु दृश्यते । अथ सान्तमथ अथो एष्वर्थेषु त्रयोऽप्यमी ॥१२७॥ कथिताः संशया-ऽऽरम्भ-साकल्येषु समुच्चये । अनन्तरार्थे च तथा प्रतिज्ञाप्रश्नयोरपि ॥ १२८ ॥ अन्वादेशेऽधिकारार्थे मङ्गले शं च सं सुखे ॥१२९॥ इति श्रीवादीन्द्रश्रीसाधुकीयुपाध्यायमिश्राणां शिष्यलेशेन वाचनाचायेसाधुसुन्दरगणिना विरचितायां शब्दरत्नाकरनामशब्दप्रभेदनाममालायां सामान्यः काण्डः षष्ठः।
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अथ शब्दरत्नाकरस्थशब्दानामकारादिक्रमेण
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चान्द्रभागा १९८ चान्द्रभागी
चान्द्रमसायन चान्द्रमसायनि
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निमित्त विद निमेष निमीश्वर नियामक निरर्गल
निर्गुण्ठी १२४
निर्गुण्डा १३० निर्गुण्डी
निर्घण्टु निर्घोष निर्झर निर्देश निर्भर
निर्य २९५ नियम १०४ निलयनी
निर्बयनी ३११ निर्वपण
निर्वाद २२५ निर्वाषण
निर्वासन
निर्वीरा २२५ निर्बाद
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भव्य १५ भषक
भषण ११८
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भाग १३० । भाग
भागधेय १३० भागधेय २४१ भागधेग्री ३६५ भाग्य ४४
भाङ्गीन ४४ भाण्डिक ३१५ भाण्डिभिद् ३१५ भाण्डीर
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मस्याण्ड मत्स्यण्डी मत्स्यभिद् मत्स्याण्डी मथ मथाप मथि मथिन् मथुरा मद मन्द
मदना १७० मदिरा
मद्य मन्द्र मन्द्र मद्वरी
मधु १८२
मधुक मधुक मधुकर
मधुकृत् २८९ मधुर २८३ : मधुर
मधुरक मधुरा मथुरा मधुल मधुष्ठील
मधूक ३६६ मधूारका
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मयूख १२८ मयूर १२८ मयूर ६०२ मयूर
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मार्जार १२६ मार्जालीय
मार्जिता १८१ मार्तण्ड १२६ मार्तण्डि १८३ मार्ताण्ड १८१ मादल १४० मार्दलीक १४० माक १७५ मार्षक १७५
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मालक माला माला मालातृण मालुधान
माल्य २५ माषाण
माष्य १३२ २६१ मास्म १२९ माहा २४२ माहाकुल ११७ माहिन २६१ माहेयी १६ | माहेष्य
मातापितर मासरपितृ मातापितर मातुलानी मातुलानी मातुलिङ्ग मातुली मातुली मातुलुङ्गक मातृष्वसेयक मातृष्वस्त्रीय माधवी माधवीलता माध्यन्दिन माध्यम माध्वीक मान मानस मानुष मायाविन् मायिक मायिन् मारिष मारिष मारी मारुत मारुत मारुष
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१०९ मुनिसुव्रत १५ मुनीन्द्र
मुशली २२१ मुषल
मुषली १५९ मुष्क २३२ मुसली २२१ मुस्तक २३२
मुस्ता मुहिर मुहिर मुहुमुहुस् मुहुरि
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मुहेर मूर्छाल मूछित मूर्ति मूर्तिमत् मूर्धावसिक्त मूनाभिाषिक्त मूर्वा मूर्वी
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मेष मेह मेहला मत्त्रवरुण मैत्रवरुणि मत्त्रावरूण मैत्रावरूणि मैत्री मैत्य मन्दक मोकुल मोद मोर मौकुलि मौक्तिक मौल्कुल मौकुलि मौहूर्त म्लातक
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विद्वस् विधस् विधि विधु विधुत विधुवन विनिमय विनीतक विनुनक विन्दु विन्न विपणि विपणी विपद् विपदा विपर्याय विपर्यास विपाश् विपाशा विपुल विप्रतिसार विप्रतीसार विप्रयोग
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विस्तर ११३ विस्तार
विस्फार विस्फोट विस्फोर विस्मय
विस्मृत १९६ । विहग १२ ! विहङ्ग
विहङ्गम २९३ ! विहङ्गिका ३०९ ! विहङ्गिमा
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वीजन २९३ वीजी
वीति वीथि वीथी
वीर २४५ वीरशाक
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वीर्या ६२ । वीवध २४८ बीवधिक
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शण्ट शतक शतधार शतपुष्पा शतभीरुका शतरुषा शतवीरक शतानन्द शतारक शतारुस् शतावरी शस्त्रि
शम शमथ शमन शमि शमी शमी शमीर शमीरु शम्पा शम्पाक शम्ब शम्न शम्बर शम्बर शम्बर शम्बल
शम्बा २१७ शम्बाकृत २३४ ३५४ शम्बू
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श्रोणि
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श्लो . १३२ १७५
११८ ।
१३४
श० सीता सीम् सीम् सीम सीमन् सीमन् सीमा सीवन सीहुण्ड सुक सुकुमार सुख सुगन्ध सुगन्धक
३११ १७४ ३३७
G
११७
सुतारका सुतारा सुत्रामन्
श्लो . श.
सुमनस् सुमनस् सुमना सुमेरू सुरत सुरता
सुरथा ३४० सरस
सुरस १५८ सुरा ३६० सुवर्ण १२.
सुवासिनी सुवीराम्ल
सुवृष ८२ | सुवत १३६ सुशवी
सुशवी सुषमा
सुषविन् ३४०
सुषवी १२३ सुषि ११६ :
सुपीम सुसीम सूकर
सुचि ८५ सूतकागृह ३२ सूतिकागृह
सूत्र १८०
सूत्रतन्तु ९३ । सूत्रामन् ७६ । सूत्री १३३ । सूत्री
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सुत्रि
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सुदाय सुदाम्नी सुधन्वन् सुधा सुधा सुनन्दा सुपथिन् सुपर्वाक सुपूरक
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सूत्र
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सुभ
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सुभद्र सुभीरुक सुम
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"Aho Shrut Gyanam"
Page #215
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३
सूद सूद सून सूनक सूना
३४५
१३२
श. सृणिका मृणीका मृपाटिका सृपाटी सृप्रा समर सेना सेरन्ध्री सेवन सेवनी सैकत
१०५
११७
सूपत् सूर सूर
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३४१
१
१४
सूरक सूरण सूरत
२७२
सैनिक सैन्य
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२६७
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सूरता सूरथ
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सूरदेव
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१४४
सूर्प सूप सूर्यास्मजा सर्मि
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सूर्मी
सैन्य सैरन्ध्री
सैरीयक १० सैरेय
सोदर सोदर्य
सोम १०२ सोम
सोमन् सोमन् सोमपीतिन्
सोमपीथिन् १६२
सोमाल
सौख्यक १६२ सौगन्धिक ३२३ । सौदामनी
सौदामिनी
सादानिका २९६ । सौदानी
.
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सृक्छ सृक्कणि सूक्कणी सृक्वन् सूक्ति सूगाल सृग्धरा सृणि सृणि
१६२
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"Aho Shrut Gyanam"
Page #216
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________________
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আ০ सौपर्णेय सौम्य सौर
इलो. २५१
२५१
सौराष्ट्र
( १०३ ) इलो० श.
स्थापतीक स्थापत्य स्थाल स्थाल स्थाला स्थालि स्थाली स्थाली स्थास्नु
स्थिवि २५३
स्थूड
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२२८
सौराष्ट्रक सौरि सौविद सौविदिल सौवीर सौहार्द सौहृद स्कधस् स्कन्ध स्कन्धशाखा स्तनन्धय स्तनम्धया स्तनन्धयी स्तनप स्तम्बपुर स्तम्भ स्तरी स्तिमित स्तुभ
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२७
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२७
स्थूललक्ष स्थूललक्ष्य स्थूली स्थेय स्थेष्ठ स्थौरी स्नसा स्नान खावन्
३१४
१९३
१९४
स्तेन स्तेय
स्नुत
२९
स्नुहा
१५७
स्स्थान स्थपति स्थल स्थति
स्नुही १८ । स्परिश
२६
"Aho Shrut Gyanam"
Page #217
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________________
श०
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श्लो०
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श्लो .
२१४
३३२ १३८ २७८
श. सत सरुवा सोतस् सोतस् सोतस्वती स्रोतस्विनी सोतावहा
१०५
स्पर्श स्फट स्फटित स्फर स्फरक स्फरण स्फाटिक स्फिच् स्फिज स्फुट
२७८
१०१
१५१
१८२ १८२ १३८
१५१
२८२
स्वःश्रेयस स्वकीय स्वजन स्वधिती स्वन स्वनि स्वन स्वयम्भू
८८
स्फुरण स्फोटक स्फोटा स्फोटा स्फोटायन स्फोटायन स्थाम स्याल स्यूत
१८५
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३१२
स्वर
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१४५
२७४
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स्यूनक स्योन स्योन स्योन स्योनाक संसकला स्रव
स्वरु स्वरु स्वरुप स्वर्ण स्वर्भाणु स्वर्भानु स्ववासिनी स्वसृ
स्वान १२० स्वान १११
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स्वेदन ३०३ । स्वेदनिका
११७ १४६
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सूवद्गर्भा
३१०
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सुस्तर सूरुच
३४६
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श. हला हलाहल हलाहल
१३३
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हण्डे हनुष हनूमत् हनूष हथन
२४२
११४
२५९
हल्या हवन हविष् हविष् हविष्य हस हसन हसनी हसन्तिका. हसन्ती
११६
हरि हरि
हरि
२०१ २५४
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हरिचन्दन
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हस्तमयूरक हस्तिनपुर हस्तिनापुर हस्तिनीपुर हसू हहा हहि हहो
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११५ १०४
११.
हरित हरिता हरिताल हरिताली हरिद्भानु हरिमत् हरिमन्थ हरिमन्थज हरिवालुक हरिषा हरीतकी हर्यश्व
२५३
११६
२५३
हार २३९ हारित १२५ हारीत
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हाल १२५ हालाहल ३३० । हालिनी
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हास हासिका हास्य हाहस् हाहा हाहाहूहू हिंसीर हिका हिगुल हिकुलु हिाल हिक्षी हिडिम्ब हिडीम्ब हिण्डीर हिण्डीरक हिमवती हिमा हिमावती हिरण हिरण
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हेका हेम हेमन् हेमन् हेमन्त हेला हेलिहिल
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"Aho Shrut Gyanam"
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समाप्तश्चायं ग्रन्थः ।
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४
४
४
"Aho Shrut Gyanam"
२
४
इति शब्दरत्नाकरस्थशब्दानामकाराद्यनुक्रमणिका समाप्ता ।
इलो०
१८९
१८९
३३७
१२२
३३७
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श्रीयशोविजयजैनग्रन्थमाला मां आजसुधी छपाइने
प्रकाशित थएला ग्रन्थो नुं सूचीपत्र ।
०-५-०
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१. प्रमाणनयतत्वालोकालङ्कार-मूल श्रीवादिदेवसूरि ०-८-० २. हैमलिङ्गानुशासन-श्रीहेमचन्द्रसूरि ३. सिद्धहेमशब्दानुशासन-लधुवृत्तिसहित ४. गुर्वावलि-मुनिसुन्दरसूरिरचित बीजी आवृत्ति ०-४-० ५. रत्नाकरावतारिका-बे परिच्छेद टि. पं. सहित ६. सिद्धहेमशब्दानुशासन-मूलमात्र . ७. स्तोत्रसंग्रह-भाग-१ सीलीक मां नथी ८. मुद्रितकुमुदचन्द्रप्रकरण-श्रावक यशश्चन्द्रकृत ०-८-० ९. स्तोत्रसंग्रह-भाग-२ सीलीक मां नथी १०. क्रियारत्नसमुच्चय-श्रीगुणरत्नसूरिविरचित ११. श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनमूची अकारादि अनुक्रम ०-४.० १२. कविकल्पद्रुम-श्रीहर्षकुलगणिरचित श्लोकबद्ध धातुपाठ ०-४.० १३. सम्मतिताख्यप्रकरण-प्रथमखण्ड न्यायनोअलौकिक
ग्रन्थ. श्रीसिद्धसेनदिवाकर विरचित ३-०-० १४. श्रीजगद्गुरुकाव्य-श्रीहीरविजयसूरि नुं चरित्र ०-४-० १५. श्रीशालिभद्रचरित्र-टिप्पणसहित पत्राकार १६. श्रीपर्वकथासंग्रह-प्रथमभाग पत्राकार
०.४.० १७. षड्दर्शनसमुच्चय-राजशेखरसूरिकृत १८. शीलदूतकाव्य-चारित्रसुन्दरगणिकृत १९. निर्भयभीमव्यायोग--श्रीरामचन्द्रसूरिकृत
०-४-० २०. श्रीशान्तिनाथचरित्र-श्रीमुनिभद्रसूरिविरचित ३-०-० २१: रत्नाकरावतारिका-रत्नप्रभाचार्यकृत परिच्छेद ३थी८१-८-० २२.
" १-२ १-०-० " संपर्ण पाकुं पुंटुं. ३-०.०
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( २ )
उपदेशतरङ्गिणी- पत्राकार - उपदेशतथारसीककथाओ ३-०-० न्यायार्थमञ्जूषा- सिद्धहैमनी परिभाषाओनी व्याख्या ३-०-० २३. गुरुगुणरत्नाकरकाव्य - लक्ष्मीसागरसूरिनो इतिहास ०-८-० २४. विजयप्रशस्तिमहाकाव्य- सटीक - हेमविजयगणी ५-०-० २६. गद्यपाण्डवचरित्र - पण्डित देवविजयजीगणीए बनावेलं, घणुं सरल अने बोधदायक छे. सामान्य संस्कृत जाणनाराओ पण वांचननो सारो लाभ मेलवी शके छे. वधारे खात्री अनुभवधी करो किमत मात्र रु. ४-०-० २९. मल्लिनाथमहाकाव्य - (पुस्तकाकारे तेमज पत्राकारे) आ महाकाव्य श्रीविनयचन्द्रसूरिए बनावेलुं छे. जेमां मल्लिनाथस्वामीना चरित्र उपरान्त प्रासङ्गिक केटलीक रसिक कथाओ सरल संस्कृतमां आपवामां आवीछे. साधारण संस्कृत जाणनाराओ पण तेनो लाभ लई शके छे. किमत. ३-०-०
३०. स्याद्वादमञ्जरी - (पत्राकारे) आ पुस्तक केटलेक स्थळे मुद्रित छे, तो पण अमे शुद्धता तेमज अल्प मूल्यर्थी ते प्राप्त थई शके तेटला सारू छपाव्युं छे किमत मात्र
१-०-०
३२. पार्श्वनाथ चरित्र--भावदेवसूरिविरचित-घणुंज रसिक तथा सरल छे, पुस्तकाकारे तथा पत्राकारे श्लोकबद्ध कीमत रु. ३-०-०
शास्त्रविशारद जैनाचार्य -श्रीविजयधर्मसूरिजी विरचित पुस्तको ।
(हिन्दी भाषा)
१. जैनतच्चदिग्दर्शन २. जैन शिक्षादिग्दर्शन
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३.
४. पुरुषार्थदिग्दर्शन ५. आत्मोन्नतिदिग्दर्शन
६. अहिंसादिग्दर्शन
७.
22
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(गुजराती) (हिन्दी भाषा) (गुजराती) पोस्टेज,
(हिन्दी भाषा ) (बंगला)
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0-2-0
०-२-०
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0-8-0
०-०.६
6-8-0
०-४-०
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________________
२००
०
एशीयाटीक सोसायटी ऑफ बंगालमां
छपाएला जैन ग्रन्थो. १. योगशास्त्र-त्रण अंको प्रत्येकना २. शान्तिनाथचरित्र-त्रण अंक दरेकना ३. षड्दर्शनसमुच्चय-थे अंक, प्रत्येकना
०-१०-० ४. समराइञ्चकहा-चार अंक, प्रत्येकना ५. प्रबन्धचिन्तामणि-(इंग्रेजीभाषामा) त्रण अंक प्रत्येकना १-४-० ६. परीक्षामुख-लघुवृत्तिसहित, न्यायनो ग्रन्थ. १-०-० ७. न्यायसार-सटीक.
२-०-० ८. तत्वार्थाधिगमभूत्र-भाष्य सहित, त्रण अंक, प्रत्येकना ०-१०-० ९. उपमितिभवप्रपञ्चाकथा-(जीजो तथा चोथो अंक छोडी)
१३ अंक संपूर्ण. प्रत्येक अंकना। १०. उपासकदशाङ्गसूत्र-मूल तथा टीका. प्राकृत शब्दोनो
कोश पण साथे छे. ११. प्राकृतलक्षण-चण्डकृत-प्राकृतव्याकरण १२. बौद्धप्रकरणसंग्रह- बौद्ध न्यायशास्त्रनां न्हानां न्हाना छ प्रकरणोनो समावेश छे.
०-१०.० १. श्रीधर्ममहोदय-(संस्कृत) श्रीरलविजयजी विरचित ०-१-० २. श्रीविजयधर्मसूरिचरित्र-(गूजराती) पोस्टेज ०-१-० ३. सुजनसम्मेलनम्-(हिन्दी) महामहोपाध्याय श्रीरा
ममिश्रशास्त्रीजीनुं व्याख्यान तेमां जैनधर्मनी प्राचीनतासिद्ध करी छे.
०-१-०
'जैन-शासन' आ पत्र दरेक पूर्णिमा तथा अमावास्याए प्रगट थाय छे. पो
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________________
स्टेज सहित वार्षिक लवाजम रु. २) ग्राहक थवा इच्छनारे पोतानुं नाम, गाम, ठाम शुद्ध अक्षरे लखी मोकलबुं ।
श्रीयशोविजयजैनग्रन्थमाला.
(संस्कृत मासिक पुस्तक ) ___ श्रीयशोविजय जैन ग्रन्थमाळा मासिकमां एक सो पृष्ठ संस्कृत अने प्राकृत साहित्यने माटे रोकवामां आवेछे, जेनी अंदर न्याय, कोश, तथा महाकाव्यना ग्रंथो प्रसिद्ध करवामां आवेछे. पोस्टखर्च साथे वार्षिक लवाजम रु-८) प्रथमथी लेवामां आवे छे. नमूना दाखल काइने अंक मोकलवामां आवतो नथी.
विशेषावश्यकभाष्य.
बृहद्वृत्तिसहित. पहेलो बीजोत्रीजो अने चोथो भाग दरेक २०० पानानां.
जलदी मंगावी ल्यो, व्हेलो ते पहेलो, ग्राहक थनारने दर त्रण त्रण मासे बसो बसो पानानो एक एक भाग मोकलवामां आवशे. संपूर्ण ग्रन्थनी कि० रु. २५) अगाउथीज लेवामां आवे छे. पाछळथी ग्राहक थनार पासेथी रु. ३२) लेवामां आवशे.
प्राकृत मार्गोपदेशिका. आ पुस्तक मी० भाण्डारकरनी रीतीने अनुसरि तैयार करवामां आव्यु छे. संस्कृत शिख्या वगर मात्र गुजराती भाषा जाण नाराओ पण आ पुस्तक द्वारा प्राकृत भाषा सारी रीते शिखी शकेछे. की.०-१२-०
___ मलवानुं ठेका'-शाह हर्षचन्द्र भूराभाई, धीर सं-२४३८ दीवाली।
अंग्रेजी कोठी, बनारस सिटी.. Dharmabhyudaya Press, Benares City.
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________________ શ્રી જિનશાસના જય હો !!! II શ્રી ગૌતમસ્વામીન નમઃ | | શ્રી સુધમસ્વિામીને નમ: || જિનશાસનના અણગાર, કલિકાલના શણગારા પૂજ્ય ભગવંતો અને જ્ઞાની પંડિતોએ શ્રુતભક્તિથી પ્રેરાઈને વિવિધ હરતલિખિત ગ્રંથો પરથી સંશોધન-સંપાદન કરીને અપૂર્વજહેમતથી ઘણા ગ્રંથોનું વર્ષો પૂર્વેસર્જનકરેલછે અને પોતાની શક્તિ, સમય અને દ્રવ્યનો સવ્યય કરીને પુણ્યાનુબંધી પુણ્ય ઉપાર્જન કરેલ છે. કાળના પ્રભાવે જીણ અને લુપ્ત થઈ રહેલા અને અલભ્ય બની જતા મુદ્રિત ગ્રંથો પૈકી પૂજ્ય ગુરુદેવોની પ્રેરણા અને આશીર્વાદિથી સ.૨૦૦૫માં 54 ગ્રંથોનો સેટ નં-૧ તથા .૨૦૦૬માં 36 ગ્રંથોનો સેટ ની 2 સ્કેન કરાવીને મર્યાદિત નકલ પ્રીન્ટ કરાવી હતી. જેથી આપણો શ્રુતવારસો બીજા અનેક વર્ષો સુધી ટકી રહે અને અભ્યાસુ મહાત્માઓને ઉપયોગી ગ્રંથો સરળતાથી ઉપલબ્ધ થાય, પૂજ્યા સાધુ-સાધ્વીજી ભગવંતોની પ્રેરણાથી જ્ઞાનખાતાની ઉપજમાંથી તૈયાર કરવામાં આવેલ પુસ્તકોનો સેટ ભિન્ન-ભિન્ન શહેરોમાં આવેલા વિશિષ્ટ ઉત્તમ જ્ઞાનભંડારોની ભેટ મોકલવામાં આવ્યા હતા. આ બધાજપુસ્તકો પૂજ્ય ગુરુભગવંતોને વિશિષ્ટ અભ્યાસ-સંશોધના માટે ખુબજરુરી છે અને પ્રાયઃ અપ્રાપ્ય છે. અભ્યાસ-સંશોધના જરૂરી પુસ્તકો સહેલાઈથી ઉપલળળની તીમજ પ્રાચીન મુદ્રિત પુસ્તકોનો શ્રુત વારસો જળવાઈ રહે તો શુભ આશયથી આ થોનો જીર્ણોદ્ધાર કરેલ છે. જુદા જુદા વિષયોના વિશિષ્ટ કક્ષાના પુસ્તકોનો જીર્ણોદ્ધાર પૂજ્ય ગુરૂભગવતીની પ્રેરણા અને આશીર્વાદિથી અમો કરી રહ્યા છીએ. લો અભાઈ તથા સંશોધના માટે વધુમાં વઘુઉપયોગ કરીને શ્રુતભક્તિના કાર્યની પ્રોત્સાહન આપશી. લી.શાહ બાબુલાલ સરેમા જોડાવાળાની વંદના મંદિરો જીર્ણ થતાં આજકાલના સોમપુરા દ્વારા પણ ઊભા કરી શકાશે...! = પણ એકાદ ગ્રંથ નષ્ટ થતા બીજા કલિકાલસર્વજ્ઞ કે મહોપાધ્યાય શ્રી યશોવિજયજી ક્યાંથી લાવીશું...???