Book Title: Prayashchitta Sangraha
Author(s): Pannalal Soni
Publisher: Manikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णकचन्द्र-दिगम्बर-जन-ग्रन्थमालायाः अष्टादशी ग्रन्थः । नमो वीतरागाय। प्रायश्चित्त-संग्रहा। सम्पादकः संशोधकश्चपण्डित-पन्नालाल-सोनीति । प्रकाशिकामाणिकचन्द्र-दिगम्बर-जैन-ग्रन्थमालोलामाता। श्रावण, वीर निर्वाणाब्द: २५४७ । धिक्रमाब्दः १९.७८ । प्रथमावृत्तिः । मूल्यं Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक, नाथूराम प्रेमी, मंत्री, माणिकचन्द्र-जैनग्रन्थमाला, हीराबाग, मुंबई नं. ४. मुद्रक, चिंतामणि सखाराम देवले, बम्बईवैभव प्रेस, ' सर्व्हट्स् ऑफ इंडिया, सोसायटीज होम, सँढर्स्ट रोड, गिरगाँव-बम्बई. Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थ-परिचय। इस संग्रहमें प्रायश्चित्त-विषयक चार ग्रन्थ प्रकाशित हो रहे हैं । अभी तक इस विषयका कोई भी ग्रन्थ प्रकाशित नहीं हुआ था और न इस विषयके हस्तलिखित प्रन्थ ही सर्वत्र सुलभ हैं । अत एव जैनधर्मके जिज्ञासुओंके लिए यह संग्रह बिल्कुल ही अपूर्व होगा । इसके द्वारा एक ऐसे विषयकी जानकारी होगी जिससे जैनधर्मके बड़े बड़े विद्वान् भी अपरिचित हैं। छेदपिण्ड, छेदशास्त्र, प्रायश्चित्त-चूलिका और अकलक-प्रायाश्चत्त ये चार ग्रन्थ इस संग्रहमें हैं । 'छेद' शब्द प्रायश्चित्तका ही पर्यायवाची है । १-छेदपिण्ड । यह ग्रन्थ प्राकृतमें है । इसकी संस्कृतच्छाया श्रीयुत पं० पन्नालालजी सोनी द्वारा कराई गई है । ग्रन्थके अन्तकी गाथा (नं० ३६० ) के अनुसार इसका गाथापरिमाण ३३३ और श्लोक ( अनुष्टप्) परिमाण ४२० होना चाहिए, परन्तु वर्तमान ग्रन्थकी गाथासंख्या ३६२ है। जान पड़ता है कि उक्त ३६० नम्बरको गाथाका पाठ लेखकोंकी कृपासे कुछ अशुद्ध हो गया है। उसमें 'तेतीमुत्तर,' की जगह 'वासहित्तर,' या इसीसे मिलता जुलता हुआ कोई और पाठ होना चाहिए। क्यों कि ३२ अक्षरोंके श्लोकके हिसाबसे अब भी इसकी लोकसंख्या ४२० के ही लगभग है और ३३३ गाथाओंके ४२० श्लोक हो भी नहीं सकते हैं । अन्यान्य प्रतियोंके देखनेसे इस भ्रमका संशोधन हो जायगा। इस ग्रन्थका संशोधन दो प्रतियों परसे किया गया है, एक जयपुरके पाटोदीके मंदिरकी प्रतिपरसे-जो प्रायः शुद्ध है-और दूसरी 'डा० भाण्डारकर-ओरियण्टल रिसर्च इन्स्टियूट' पूनकी प्रतिपरसे-जो बहुत ही अशुद्ध है। ग्रन्थके छप चुकने पर श्रीमान् ब्रह्मचारी शीतलप्रसादजीकी कृपासे हमें इन्द्रनन्दिसंहिताकी भी एक प्रति मिली जो उन्होंने दिल्लीसे लिखवा कर भेजी थी । परन्तु वह बहुत ही अशुद्ध लिखी गई है, इस कारण उससे कोई सहायता नहीं ली जा सकी। यह ग्रन्थ इन्द्रनन्दि-पंटिताका चौथा अध्याय अथवा उसका एक भाग है; Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४) परन्तु अनेक पुस्तकालयोंमें यह स्वतंत्र रूपसे भी मिलता है । इसके कर्ता इन्द्रनन्दि योगीन्द्र हैं, जो संभवतः नन्दिसंघके आचार्य थे । यह नहीं मालूम हो सका कि उनके गुरुका क्या नाम था और वे निश्चय रूपसे कब हुए हैं । अय्यपार्य नामके एक विद्वान्ने शकसंवत् १२४१ (शाकाद्वे विधुवार्धिनेत्रहिमगौ सिद्धार्थसंवत्सरे ) में 'जिनेन्द्रकल्याणाभ्युदय' नामका संस्कृत ग्रन्थ बनाया है। उसकी प्रशस्तिमें लिखा है: वीराचार्यसुपूज्यपादजिनसेनाचार्यसंभाषितो, यः पूर्वं गुणभद्रसूरिवसुनन्दीन्द्रादिनन्यूर्जितः । यश्चाशाधरहस्तिमल्लकथितो यश्चैकसन्धिस्ततः, तेभ्यः स्वाहृत्सारमध्यरचितः स्याज्जैनपूजाक्रमः ॥ अर्थात् वीराचार्थ, पूज्यपाद, जिनसेन, गुणभद्र, वसुनन्दि, इन्द्रनन्दि, आशाधर, हस्तिमल्ल और एकसन्धिके ग्रन्थोंसे सार भाग लेकर मैंने यह पूजाक्रम रचा है। इससे मालूम होता है कि अय्यपार्यसे पहले उक्त आचार्योंके ऐसे ग्रन्थ वर्तमान थे जिनमें पूजाविषयक विधान थे अथवा जो केवल पूजाविषयक ही थे और उनमें इन्द्रनन्दिका भी कोई पूजाग्रन्थ था । और ऐसी अवस्थामें इन्द्रनन्दिका समय शक संवत् १२४१ अर्थात् विक्रमसंवत् १३७६ के पहले निश्चित होता है । यह छेदपिण्ड जिस इन्द्रनन्दिसंहिताका एक भाग है, उसमें भी एक अध्याय पूजाविषयक है और उसका नाम पूजाप्रक्रम है। इससे यही खयाल होता है कि अय्यपार्यने जिनका उल्लेख किया है वे यही इन्द्रनन्दि होंगे। परन्तु इसी इन्द्रनन्दिसंहिताके दायभाग प्रकरणकी अन्तिम गाथाओंसे इस विषयमें कुछ सन्दह. हो जाता है । वे गाथायें ये हैं: पुव्वं पुज्जविहाणे जिणसेणाइवारसंणगुरुजुत्तइ । पुज्जस्सयाय (?) गुणभद्दसूरिहिं जह तहुद्दिहा ॥ ६६ ॥ वसुणंदि-इंदणंदि य तह य मुणी एयसंधि गणिनाहं (हिं ) रचिया पुज्जविही या पुवक्कमदो विणिद्दिढा ॥६४॥ गोयम-समंतभद्द य अयलंक सु माहणंदिमुणिणाहिं । वसुणदि-इंदणंदिहिं रचिया सा संहिता पमाणाहु ॥६५॥ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संहिताकी जिस प्रतिसे हमने ये गाथायें लिखी हैं वह बहुत ही अशुद्ध है और इस कारण यद्यपि इनसे पूरा पूरा और स्पष्ट अर्थाववोध नहीं होता है, फिर भी ऐसा मालूम होता है कि इस इन्द्रनन्दिसहितासे भी पहले कोई इन्द्रनन्दिसंहिता थी, जिसे इस संहिताके का प्रमाण माननेको कहते हैं और इन्द्रनन्दिका बनाया हुआ कोई पूजाग्रन्थ भी था । यदि यह ठीक है और हमारे समझनेमें कोई भ्रम नहीं है तो फिर छेदपिण्डके कर्ताका समय अय्यपार्यके पहले नहीं माना जा सकता। ___ इन गाथाओंमें वसुनन्दि, एकसन्धि, और माघनन्दिका भी नाम आया है । इनमेंसे वसुनन्दिका समय विक्रमको बारहवीं शताव्दिके लगभग निश्चित किया जा चुका है और एकसन्धि वसुनन्दिसे भी कुछ पोछे हुए हैं। अब रहे माघनन्दि, सो यदि वे कुन्दकुन्दाचार्यसे पहले कहे जानेवाले सुप्रसिद्ध माघनन्दि आचार्य नहीं हैं और दूसरे माघनन्दि हैं जिन्होंने माघनन्दिश्रावकाचार नामक संस्कृतकनड़ी ग्रन्थकी रचना की है और जिनकी बनाई हुई एक संहितांका भी उल्लेख स्व. बाबा दुलीचन्दजीने अपनी ग्रन्थसूची में किया है, तो उनका समय कर्नाटककविचरित्रके कर्ताने वि० संवत् १३१७ निश्चय किया है और ऐसी दशामें छेदपिण्डके कर्ताका समय उनसे पीछे विक्रमकी चौदहवीं शताब्दिके पूर्वार्धके बाद मानना होगा। परन्तु जब तक यह पूर्णरूपसे निश्चय न हो जाय के कनोटककविचरित्रके कर्ताने जिनका समय निश्चित किया है, उन्हींका उल्लख संहिताकी उक्त गाथाओंमें है, तब तक इस पिछले समय पर आधिक जोर नहीं दिया जा सकता। फिर भी यह बात तो निस्सन्देह कही जा सकती है कि छेदपिण्डके कर्ता विक्रमकी १३ वीं शताब्दिके पहलेके तो कदापि नहीं हैं। जिनेन्द्रकल्याणाभ्युदय और इन्द्रनन्दिसंहिताके पूर्वोक्त श्लोकों और गाथाओंमें जिन जिन आचार्योंका उल्लेख है, उनमेंसे नीचे लिखे आचार्योंके पूजा और संहिताग्रन्थोंका अस्तित्व अभीतक है, ऐसा स्वर्गीय बाबा दुलीचन्दजीकी संस्कृत ग्रन्थसूचीसे मालूम होता है । यह सूची हमने जेठ सुदी रविवार संवत् १९५४ की १ देखो जैनहितैषी भाग १२, पृ० १९२ । २ शास्त्रसारसमुच्चय नामका ग्रन्थ भो माघनन्दि आचार्यका बनाया हुआ है। यह माणिकचन्द्रग्रन्थमालामें शीघ्र ही छपेगा । Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिखी हुई प्रतिपरसे नकल की थी । हम नहीं कह सकत कि यह सूचा कहा तक प्रामाणिक हैफिर भी सुना गया है कि बाबाजीने जगह जगहके ग्रन्थभाण्डारोंको स्वयं देखकर इसे तैयार किया था। कई ग्रन्थोंके नामके साथ यह भी लिखा है कि उक्त ग्रन्थ अमुक जगह मौजूद है । १ वीरसेनस्वामी ... पूजाकल्प। २ वसुनन्दिस्वामी संहिता। ३ माघनन्दि ... ... संहिता (वृन्दावनके घर है ) ४ जिनसेन ... ... पूजाकल्प, पूजासार। ५ इन्द्रनंदि ... ... पूजाकल्प ( संस्कृत ), संहिता । ६ गुणभद्र ... पूजाकल्प। ७ देवनन्दि (पूज्यपाद)... पूजाकल्प । ८ एकसन्धि ... ... पूजाकल्प । ९ हस्तिमल्ल ... ... गणधरवलय-पूजाकल्प । इनमेंसें वीरसेन, जिनसेन, गुणभद्र और पूज्यपादके पूजाविषयक स्वतंत्र ग्रन्थोंका उल्लेख अभी तक किसी भी ग्रन्थमें देखनेमें नहीं आया है । इस लिए इस बातकी बड़ी भारी आवश्यकता है कि उक्त ग्रन्थ संग्रह किये जायें और उनका अच्छी तरह स्वाध्याय किया जाय । संभव है कि वीरसेन, जिनसेन आदि नामोंके धारक अन्य आचार्योंने इनकी रचना की हो । क्योंकि हमारे यहाँ एक नामके अनेक आचार्य होते रहे हैं। इन्द्रनन्दि नामके और भी कई आचार्य हो गये हैं। उनमेंसे एक तो वे हैं जिनका उल्लेख गोम्मटसार कर्मकाण्डकी ३९६ वी गाथामें किया गया है और जिनके पास सिद्धान्तग्रन्थोंका श्रवण करके कनकनान्द मुनिने ' सत्त्वस्थान' की रचना की है: वर इंदणंदिगुरुणो पासे सोऊण सयलसिद्धतं। सिरिकणयणदिमुणिणा सत्तहाणं समुद्दिहं ॥ ३९६ ॥ गोम्मटसारके कर्ताका समय विक्रमकी ११ वी शताब्दि है, अतएव ये इन्द्रनन्दि लगभग इसी समयके आचार्य हैं। Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७ ) श्रवणबेलगोलकी मल्लिषेणप्रशस्तिमें लिखा है: दुरितग्रहनिग्रहाद्भयं यदि भो भूरिनरेन्द्रवन्दितम् । ननु तेन हि भव्यदेहिनो भजत श्रीमुनिमिन्द्रनन्दिनम् । यह प्रशस्ति शक संवत् १०५० ( वि० सं० ११८५ ) में उत्कीर्ण की गई है, अतः संभव है कि गोम्मटसारोल्लिखित इन्द्रनन्दि, और इस प्रशस्ति में जिनकी प्रशंसा की गई है वे इन्द्रनन्दि, दोनों एक ही हों । < श्रुतावतार ' के कर्ता भी इन्द्रनन्दि नामके आचार्य हैं । हमारा अनुमान है कि ये भी गोम्मटसार और मल्लिषेणप्रशस्तिके इन्द्रनन्दि से अभिन्न होंगे। क्यों कि श्रुतावतार में वीरसेन और जिनेसेन आचार्य तककी ही सिद्धान्त- रचनाका उल्लेख है । यदि वे नेमिचन्द्र आचार्यसे पीछे हुए होते, तो बहुत संभव है कि गोम्मटसारका भी उल्लेख करते । नीतिसार ( समयभूषण ) के कर्ता भी इन्द्रनन्दि नामके आचार्य हैं; परन्तु वे गोम्मटसारके कर्ताके पीछे हुए हैं, क्यों कि उन्होंने नीतिसार के ७० वें श्लोक में नेमिचन्द्रका उल्लेख किया है ( प्रभाचन्द्रो नेमिचन्द्र इत्यादि मुनिसत्तमैः ) । अत एव वे पहले इन्द्रनन्दि तो नहीं हो सकते । बहुत संभव है कि वे और इस इन्द्रनन्दिसंहिता के कर्ता एक ही हों । २- छेदशास्त्र । I ९० इसका दूसरा नाम 'छेदनवति' भी है । क्यों कि इसमें नवति या गाथायें हैं । यह भी प्राकृतमें है । इसके साथ एक छोटीसी वृत्ति भी है । परन्तु इससे न तो मूलग्रन्थ के कर्त्तीका नाम मालूम हो सकता है और न वृत्तिके कर्ताका और ऐसी दशा में इसके बननेका समय तो निश्चित ही क्या हो सकता है । इस ग्रन्थका भी सम्पादन और संशोधन केवल एक ही प्रतिके आधारसे हुआ है और यह प्रति बम्बई के तेरहपंथी मन्दिरका वह प्राचीन गुटका है जो अतिशय जीर्ण शीर्ण गलितपृष्ठ होकर भी प्रायः शुद्ध है और हमारे अनुमानसे जो ४००-५०० ( १ ) श्रुतावतार के मुद्रित पाठमें जिनसेन के बदले ' जयसेन ' है । ( २ ) मुद्रित प्रन्थ ९४ गाथाओं में है । Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८ ) वर्ष पहलेका लिखा हुआ है । इसकी दुसरी प्रति प्रयत्न करनेपर भी कहीं प्राप्त न हो सकी । इसकी भी संस्कृतच्छाया पं० पन्नालालजी सोनाद्वारा कराई गई है । ३- प्रायश्चित्त-चूलिकां । यह ग्रन्थ संस्कृत में है और सटीक है । मूल ग्रन्थकी श्लोकसंख्या १६६ है । यह भी केवल एक ही प्रतिके आधार से छपाया गया है और वह प्रति पूनेके 6 ' भाण्डारकर ओरियण्टल रिसर्च इन्स्टिट्यूट' की है जो प्रायः अशुद्ध है और संवत् १९४२ की लिखी हुई है । दूसरी प्रति नहीं मिल सकी । इस ग्रन्थकी प्रशस्ति में लिखा है: - यः श्रीगुरूपदेशेन प्रायश्चितस्य संग्रहः । दासेन श्रीगुरोर्द्वधो भव्याशयविशुद्धये ॥ १ तस्यैषा ऽनूदिता वृत्तिः श्रीनन्दिगुरुणा हि सा । विरुद्धं यदभूत्र तत्क्षाम्यतु सरस्वती ॥ २ ( " इससे मालूम होता है कि मूलग्रन्थके कर्ता श्रीगुरुदास हैं और वृत्तिके कर्ता श्रीनन्दिगुरु हैं । मूलकर्ताका नाम बिल्कुल अपरिचतसा और विलक्षणसा मालूम होता है । बल्कि हमें तो इसके नाम होनेमें सन्देह होता है । दासेन और श्रीगुरोः ' ये दो पद अलग अलग पड़े हुए हैं और इनका अर्थ यही होता है, कि श्रीगुरुके दासने बनाया । आश्चर्य नहीं जो टीकाकारको मूलकर्ताका नाम न मालूम हो और उन्होंने साधारण तौर से यह लिख दिया हो कि यह श्रीगुरुके एक दासका बनाया हुआ है और में इसकी वृत्ति रचता हूँ । और यदि 'श्रीगुरुदास यह नाम ही है, तो हम अभी तक उनके सम्बन्ध में कुछ भी नहीं जानते हैं । इस नामके किसी भी आचार्यका नाम देखने सुननेमें नहीं आया । टीकाके कर्ता श्रीनन्दि गुरु हैं । > धाराधीश महाराज भोजके समय में श्रीचन्द्र नामके एक विद्वान् हो गये हैं । (१) परिकर्म - सूत्र - पूर्वानुयोग- पूर्वगत-चूलिकाः पञ्च । स्युर्दृष्टिवादभेदाः - -अभिधानचिन्तामणि । Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उनका पुराणसार ' नामका एक ग्रन्थ है । वह विक्रम संवत् १०७० का बना हुआ है। उसकी प्रशस्तिमें उन्होंने लिए है कि सागरसेन नामक आचार्यसे महापुराण पढ़कर श्रीनन्दिके शिष्य मुझ श्रीचन्द्र मुन यह ग्रन्थ बनाया। इसी तरह आचार्य वसनन्दिने अपने श्रावकाचारमें भी एक श्रीनान्५ उल्लेख किया है जो उनकी गुरुपरम्परामें थे ।-श्रीनन्दि-नयनन्दि-नेमिचन्द्र और ५ दि। वसुनन्दिका समय बारहवीं शताब्दि है, अतः उनके दादा गुरुके गुरु अवश्य हा नसे १०० वर्ष पहले हुए होंगे और इस तरह संभवतः श्रीचन्द्र के गुरु और वसुना. परदादागुरु एक ही होंगे। यदि प्रायश्चित्तटीकाके कर्ता श्रीनन्दिगुरु और श्रीचन्द्रके गुरु श्रीनन्दि एक ही हों, तो कहना होगा कि यह टीका विक्रमका ११ वी शताब्दिकी बनी हुई है। और ऐसी दशामें मूल ग्रन्थ उससे भी पहलेका बना हुआ होना चाहिए। ४-प्रायश्चित्त ग्रन्थ । यह प्रन्थ श्रीयुक्त पं० लालारामजी शास्त्रीको लिखी हुई एक प्रतिके आधारसे हो छपाया गया है। इसकी भी कोई दूसरी प्रति नहीं मिल सकी। इसमें केवल श्रावकोंके प्रायश्चित्तका निरूपण है और इसकी श्लोकसंख्या ८८ है । इसमें कोई प्रशस्ति आदि नहीं है। केवल आदि और अन्तमें इसके कर्ताका नाम श्रीमद्भटाकलंकदेव बतलाया गया हुआ है; परन्तु जान पड़ता है कि ये तत्त्वार्थराजतिक आदि महान् ग्रन्थोंके की अकलंकदेवसे भिन्न कोई दूसरे ही विद्वान् होंगे और आश्चर्य नहीं यदि अकलंक-प्रतिष्ठापाठके कर्ता ही इसके रचयिता हों । यह निश्चय हो चुका है कि अकलंकप्रतिष्ठापाठके का १५ वी शताब्दिके बाद हुए हैं। उन्होंने आदिपुराण, ज्ञानार्णव, एकासन्धिसंहिता, सागारधर्मामृत, आशाधर-प्रतिष्ठापाठ, ब्रह्मसरि त्रिवर्णाचार, नेमिचन्द्र-प्रतिष्ठापाठ आदि (१) बाबा दुलीचन्दजीकी सूची में श्रीनन्दि मुनिके एक ' यतिसार ' नामक सटीक ग्रन्थका उल्लेख है । उसमें यह लिखा है कि यह ग्रन्थ जयपुरमें मौजूद है। (२) जैनहितैषी भाग १४ पृष्ठ ११८-१९ में बाबू जुगलकिशोरजीने इस विषय पर एक विस्तृत नोट दिया है। (३ ) देखो जैनंहितैषी भाग १३, पृष्ट १२२-२६ । Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १० ) ग्रन्थों के बहुत से पद्य अपने ग्रन्थमें दिये हैं । अत एव वे इन सब ग्रन्थकर्ताओंसे पीछेके विद्वान् हैं, यह कहने में कोई संकोच नहीं हो सकता । > इस ग्रन्थकी रचना - शैली से भी मालूम होता है कि न तो यह उतना प्राचीन ही है और न भट्ट अकलङ्कदेवकी रचनाओंके समान इसमें कोई प्रौढता ही है । इसका ' मोक्कूला ' शब्द जो बीसों जगह आया है-संस्कृत नहीं किन्तु देशभाषाका है और भद्रबाहु - संहिता ( खण्ड १, अ० १० ) में भी यह ' मोकला रूपमें व्यवहृत हुआ है । गुजराती और मारबाड़ीमें ' मोकला ' शब्द विपुलता या अधिताका वाचक है । लघु अभिषेक और मोकला अर्थात् बड़ा अभिषेक | कर्नाटक देशके भट्ट अकलंकदेवकी रचनामें इस शब्दका प्रयोग असंगत ही दिखता है । और भी ऐसी कई बातें हैं जिनसे इसकी अर्वाचीनता प्रकट होती है । जैसे अनेक अपराधोंके दण्डमें गौओंका दान और ताम्बूलदान । जहाँ तक हम जानते हैं अनेक आचार्योंने 'गौ-दान का निषेध किया है । इसके सिवाय इस ग्रन्थका पहले तीन प्रायश्चित्त-ग्रन्थोंके साथ मतभेद भी मालूम होता है, उदाहरण के लिए इसका यह श्लोक देखिए: , जननीतनुजादीनां चाण्डालादिस्त्रियामपि । संभोगे सति शुद्धयर्थं पंचाशदुपवासकाः ॥ इसके अनुसार माता पुत्री चाण्डाली आदिके साथ व्यभिचार करनेवालेको पंचाशत् उपवास करना चाहिए; परन्तु अन्य तीनों प्रायश्चित्त-ग्रन्थों में इस पापका प्रायश्चित्त ३२ उपवास लिखा है । इसी तरह अन्यान्य पापों के प्रायश्चित्तके सम्बन्धमें भी मतभेद है । विद्वानों को इस मतभेद पर भी खास तौर से विचार करना चाहिए । अन्तमें मैं इतना और कहकर अपने निवेदनको समाप्त करूँगा कि ग्रन्थकर्ताओंके समय-निर्णयका मैंने जो यह प्रयत्न किया है वह अपनी छोटीसी बुद्धिके अनुसार किया है । बहुत संभव है कि मेरे अनुमान गलत हों और ऐसी दशामें मैं अपनी भूलोंको सुधारनेके लिए सदा तत्पर हूँ । परन्तु कोई महाशय यह समझ लेनेकी कृपा न करें कि मैं जान बूझकर किसीको प्राचीन या अर्वाचीन ठहरानेका प्रयत्न करता हूँ । ऐसे प्रयत्नको बहुत ही घृणित समझता हूँ । बम्बई, आषाढ़ सुदी ३ निवेदक सं० १९७८ वि० । नाथूराम प्रेमी । Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११) माणिकचन्द्रजैनग्रन्थमाला। यह ग्रन्थमाला स्वर्गीय दानवीर सेठ माणिकचन्द हीराचन्दजीके स्मरणार्थ और जैनसाहित्यके उद्धारार्थ निकाली गई है। इसमें दिगम्बर जैन सम्प्रदायके अलभ्य और दुर्लभ संस्कृत प्राकृत ग्रन्थ प्रकाशित होते हैं। इसके द्वारा प्रकाशित हुए ग्रन्थ केवल लागतके मूल्य पर बेचे जाते हैं, जिससे उनका मिलना सर्व साधारणके लिए सुलभ हो जाय। अभीतक इस मालामें १८ ग्रन्थ निकल चुके हैं । यदि धर्मात्मा भाइयोंसे बराबर सहायता मिलती रही तो इसके द्वारा सैकड़ों अपूर्व प्रन्थोंका उद्धार हो जायगा। इसके ग्रन्थोंको खरीदकर पढ़ना, मन्दिरोंमें स्थापित करना और असमर्थ विद्वानोंको बाँटना, यह प्रत्येक जैनीका कर्तव्य होना चाहिए । ब्याह शादी, उत्सव, प्रतिष्ठा मेला आदि प्रत्येक मौके पर इस ग्रन्थमालाको सहायता देनी और दिलानी चाहिए। जो धर्मात्मा किसी ग्रन्थकी कमसे कम २०० प्रतियाँ खरीद लेते हैं, उनका चित्र और स्मरणपत्र उस ग्रन्थकी तमाम प्रतियोंमें छपवा दिया जाता है। __ सौ रुपयेसे अधिक इकमुश्त सहायता करनेवालोंको मालाके सब ग्रन्थ भेटमें दिये जाते हैं। -मंत्री। Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२ ) मणिकचन्द दि० जैन ग्रन्थमालामें प्रकाशित पुस्तकोंकी सूची । १ लघोयस्त्रयादिसंग्रह ( लघीयस्त्रयतात्पर्यवृत्ति, लघुसर्वज्ञसिद्धि बृहत्सर्वज्ञसिद्धि २ सागरधर्मामृत सटीक . ३ विक्रान्तकौरवीय नाटक ४ पार्श्वनाथचरित्र ५ मैथिलीकल्याण नाटक ६ आराधनासार सटीक ७ जिनदत्तचरित ८ प्रद्युम्नचरित ९ चारित्रसार १० प्रमाणनिर्णय : ... *** ... *** ... ... ⠀⠀⠀⠀⠀⠀⠀ c ... ११ आचारसार १२ त्रैलोक्यसार सटीक १३ तत्त्वानुशासनादिसंग्रह ( तत्त्वानुशासन, इष्टोपदेश सटीक, नीतिसार, श्रुतावतार, श्रुतस्कन्ध, वैराग्यमणिमाला, ढाढसीगाथा, तत्त्वसार, ज्ञानसार, मोक्षपंचाशिका, अध्यात्मतरंगिणी, पात्रकेसरीस्तोत्र, अध्यात्माष्टक, द्वात्रिंशतिका ) १४ अनगारधर्मामृत सटीक १५ युक्त्यानुशासन सटीक १६ नयचक्रसंग्रह ( आलापपद्धति, नयचक्र द्रव्य स्वभावप्रकाशक नयचक्र ) १७ षट्प्राभृतादि संग्रह १८ प्रायश्चित्त-संग्रह t ⠀⠀⠀ ... ... ... ... ... ... 130 ... ... ⠀⠀⠀ ... ... ... ... = """" 1)u in 11) १॥) 11=) ३॥) 11-) ||=) ३) Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थ-सूची। छेदपिण्डं छेदशास्त्रं प्रायश्चित्त-चूलिका प्रायश्चित्त-ग्रन्थ ... पृष्ठाने. १-७५ ७६-१०३ १०४-१६४ १६५-१७२ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७ ८२ - ८४ - ८४ - - ७ आद्यग्रन्थत्रयाणां प्रकरणसूची। प्रकरणं पृष्ठ-संख्याः क्रमेण । मूलगुणाधिकारः ... ७६ १०४ ज्यममहाव्रताधिकारः ३ ७७ १०४ द्वितीयतृतीयमहाव्रताधिकारः ८१-१११-११२ चतुर्थमहाव्रताधिकारः ८२ ११४ पंचममहाव्रताधिकारः... ११८ षष्टव्रताधिकारः ... ८४ ११८ ईर्यासमितिप्रकरणं ... ११८ भाषासमितिप्रकरणं ... १२२ एषणासमितिप्रकरणं आदाननिक्षेपणसमितिः १२८ प्रतिष्ठापनासमितिः ... १२८ इन्द्रियरोधाधिकारः ... १२९ लोचाधिकारः षडावश्यकाधिकारः ... अचेलकाधिकारः ... ९१ भस्नान-अदन्तमन-क्षितिशयनाधिकारः स्थितिभोजनकभक्ताधिकारः । उत्तरगुणाधिकारः ... १३३ चूलिका प्रकरणं ... दशविधप्रायश्चित्ताधिकारः आलोचना प्रतिक्रमण उभयं विवेकः - ९२ - - m Mmmmmm - - १३३ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६ ) ४१ ४३-५१ ४६ व्युत्सर्गः तपोऽधिकारः पंचक मासिकचातुर्मासिके पाण्मासिकं छेदाधिकार मूलाधिकारः परिहाराधिकारः स्त्रगणानुपस्थानं परगणानुपस्थान पारंचिकं श्रद्धानाधिकारः ... संयतिका-प्रायश्चित्तं... त्रिविधश्रावक-प्रायश्चित्तं ५ ८ ९९ १४७ १५६ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ नमो वीतरागाय | प्रायश्चित्तसंग्रहः । श्रीन्द्रनन्दियोगीन्द्र - विरचितं छेदपिण्डम् | विच्छिण्णकम्मबंधे णिच्छयणयमस्सिऊण अरहंते । वोच्छामि छेदपिंडं पायच्छित्तं पणमिऊणं ॥ १ ॥ विच्छिन्नकर्मबंधान् निश्चयनयमाश्रित्य अर्हतः । वक्ष्यामि च्छेदपिण्डं प्रायश्चित्तं प्रणम्य || रिसिसावयमूलुत्तरगुणादिचारे पमाददप्पेहिं । जादे पायच्छित्तं णिसुणह कमसो जहाजोगं ॥ २ ॥ ऋषिश्रावकमूलोत्तरगुणातिचारे प्रमाददर्पाभ्याम् । जाते प्रायश्चित्तं निशृणुत क्रमशो यथायोग्यम् ॥ पायच्छित्तं छेदो मलहरणं पावणासणं सोही । पुण्ण पवित्तं पावणमिदि पायच्छित्तनामाई ॥ ३ ॥ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायश्चित्तसंग्रहे-- प्रायश्चित्तं छेदो मलहरणं पापनाशनं शुद्धिः । पुण्यं पवित्रं पावनमिति प्रायश्चित्तनामानि ॥ मूलगुणं संठाणं गुरुमासं तह य पंचकल्लाणं । मासियमिदि पज्जाया णायव्वा पंचकल्लाणा ॥४॥ मूलगुणं संस्थानं गुरुमासं तथा च पंचकल्याणं । मासिकमिति पर्याया ज्ञातव्या पंचकल्याणाः ।। णिब्वियडी पुरिमंडलमायामं एयठाण खमणमिदि। कल्याणमेगमेदहिं पंचाहिं पंचकल्लाणं ॥५॥ निर्विकृतिः पुरिमण्डलं आचाम्लं एकस्थानं क्षमणमिति । कल्याणमेकं एतैः पंचभिः पंचकल्याणं ॥ उववासपंचए वा आयंविलपंचए व गुरुमासा दे। निव्वियडिपंचए वा अवणीदे होदि लहुमासं ॥६॥ उपवासपंचके वा आचाम्लपंचके वा गुरुमासाः.... । निर्विकृतिपंचके वा अपनीते भवति लघुमासः ॥ णाऊण पुरिससत्तं चित्तं वयसंथिराथिरत्तं च । एकम्मि य कल्लाणे अवणीदे भिण्णभासा से ॥७॥ ज्ञात्वा पुरुषसत्वं चित्तं व्रतस्थिरास्थिरत्वं च । एकम्मिन् च कल्याणे अपनीते भिन्नमासाः तस्य ।। आयामं सतिभागं दो दो णिब्धियडि एयठाणाई। पुरिमंडलेगभत्ता चउरो बारस विउस्सग्गे ॥ ८॥ आचाम्लं सत्रिभागं द्वे द्वे निर्विकृती एकस्थानानि । पुरिमण्डलैकभक्ताः चत्वारः द्वादश व्युत्सर्गाः ॥ ___ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छेदपिण्डम् । अहसयणमोक्कारा उववासो वा हवंति उववासे । छडे पुण ते तिउणा छहं वा एगकल्लाणं ॥९॥ अष्टशतनमस्कारा उपवासो वा भवन्ति उपवासे । षष्ठे पुनस्ते त्रिगुणाः षष्ठं वा एककल्याणं ॥ णवपंचणमोक्कारा काउसग्गम्मि होंति एगम्मि । एदेहिं बारसेहिं उववासो जायदे एक्को ॥१०॥ . नवपंचनमस्काराः कायोत्सर्गे भवन्ति एकस्मिन् । ___ एतैर्द्वादशभिः उपवासो जायते एकः ॥ आयंविलम्हि पादूण खमणपुरिमंडले तहा पादो। एयहाणे अद्धं निवियडीओ य एमेव ॥ ११ ॥ आचाम्ले पादोनं क्षमणपुरिमण्डले तथा पादः । .. एकस्थाने अर्ध निर्विकृतौ च एवमेव ॥ मज्जारपदप्पमाणं पुढविं सलिलं च चुलुयपरिमाणं । दीवसिहामित्तग्गिं करपल्लवजणिययं वाउं ॥ १२ ॥ मार्जारपदप्रमाणं पृथिवीं सलिलं च चुलुकपरिमाणं । दीपशिखामात्राग्निं करपल्लवजनितं वायुम् ॥ मुडिपमाणं हरिदावयवं जो घायए पमादेण। पायच्छित्तं तस्स दु एक्केको तणुविउस्सग्गो ॥ १३ ॥ मुष्ठिप्रमाणं हरितावयवं यः घातयेत् प्रमादेन । प्रायश्चित्तं तस्य तु एकैकः तनुव्युत्सर्गः ॥ १ इदं गाथासूत्रं ख. पुस्तके नास्ति । छेदश स्त्रेऽपीदमुपलभ्यते । ___ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायश्चित्तसंग्रहे एइंदियादिचउरिंदियंतजीवे जदा पमादेण । दप्पेणुवधादे जो को' वि मुणी थूलगुणधारी ॥ १४ ॥ एकेन्द्रियादिचतुरिन्द्रियान्तजीवान् यदा प्रमादेन । दर्पेण उपघातयेत् यः कोऽपि मुनिः स्थूलगुणधारी ॥ काउस्सग्गुववासा दायव्वा तस्स पाणगणणाए । उत्तरगुणियस्स पुणो इंदियगणणाए दायव्वा ॥ १५ ॥ कायोत्सर्गोपवासा दातव्याः तस्मै प्राणगणनया । उत्तरगुणिने पुनः इन्द्रियगणनया दातव्याः ॥ अहवा पयत्तअपयत्तचारिणो तह थिरस्स अथिरस्स । काओसग्गुववासा इंदिय गणणा पाणगणणाए ॥ १६ ॥ अथवा प्रयत्नापयत्नचारिणोः तथा स्थिरस्यास्थिरस्य । कायोत्सर्गेोपवासा इन्द्रियगणनया प्राणगणनया ॥ बारसछच्चदुतिन्हं इगिवितिचउरिंदियाण मोहवणे । नियमजुदो उववासो तप्पडिबद्धो तवो अहवा ॥ १७ ॥ द्वादशषट्चतुस्त्रायाणां एकद्वित्रिचतुरिन्द्रियाणां मर्दने । नियमयुत उपवासः तत्प्रतिबद्धं तपोऽथवा ॥ तिछणवबार सगुणिदाणेयाणं घायणे सनियमाई | इगिवितिचदुछडाई तप्पडिबद्धो तवो अहवा ॥ १८ ॥ त्रिषट्नवद्वादशगुणितानामेकेन्द्रियादीनां घातने सनियमानि । एकद्वित्रिचतुःषष्ठानि तत्प्रतिबद्धं तपोऽथवा ॥ १ कोइ ख. पुस्तके । २ मूलगुणधारी ख. पुस्तके | ५ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छेदपिण्डम् । पण्णारसगुणिदाणं पुण एयाणं घायणे हवे छेदो। सप्पडिक्कमणं कलाणपंचयं तत्तवो अहवा ॥ १९ ॥ पंचदशगुणितानां पुनः एकेन्द्रियादीनां घातने भवेच्छेदः । सप्रतिक्रमणं कल्याणपंचकं तत्तपोऽथवा ॥ एदं पायच्छित्तं अयत्तचारिस्स होइ दायव्वं । जत्तेण चरंतस्स खु एदस्सद्धं भणंति परे ॥ २० ॥ एतत्प्रायश्चित्तं अयत्नचारिणः भवति दातव्यं । यत्नेन चरतः खलु एतस्य अर्ध भणन्ति परे ॥ मूलुत्तरगुणधारी पमादसहिदो पमादराहिदो य । एकेको वि थिराथिरभेदेणं होइ दुवियप्पो ॥२१॥ मूलोत्तरगुणधारी प्रमादसहितः प्रमादरहितश्च । एकैकोऽपि स्थिरास्थिरभेदेन भवति द्विविकल्पः ॥ तेसिं असण्णिघादे उववासा तिण्णि छहमथ छहं । मासिय पणगं ति य तियखमणं छहं लघुमासमिगिवारे ॥२२॥ तेषां असंज्ञिघाते उपवासाः त्रयः षष्ठं अथ षष्ठं । मासिकं पंचकं इति च त्रिकक्षमणं षष्ठं लघुमास एकवारे ॥ छह लहुमास मासिय मूलढाणोववासतिग छहं । तह भिण्णमास मासियमिदि कमसो होदि बहुवारे ॥ २३ ॥ षष्ठं लघुमासः मासिकं मूलस्थानं उपवासत्रिकं षष्ठं । तथा भिन्नमासः मासिकमिति क्रमशो भवति बहुवारे ॥ १ पपारसगुणाण, ख. पुस्तके । २ पमादरहिदो पमादसहिदो य. ख. । Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायश्चित्तसंग्रहे संतरमेदं देयं सम्णिवधे पुण णिरंतरं देयं । चदुवारेहि य परदो सव्वत्थ वि होदि मूलखिदी ॥ २४ ॥ सान्तरमेतद् देयं सज्ञिवधे पुनः निरन्तरं देयं । चतुर्वारेभ्यः च परतः सर्वत्रापि भवति मूलक्षितिः ॥ बालिच्छीगोघादे णियदसणभयवसा समावण्णे। तिण्णि य मासा छहं तस्स य अद्धं तदद्धं च ॥ २५॥ बालस्त्रीगोपाते निजदर्शनभयवशात्समापन्ने । त्रयश्च मासाः षष्ठं तस्य च अर्धं तदर्धे च ॥ विरदो व सावओ वा तिविहो जदि संजदस्स उवरि दु । उवयरणादिनिमित्तं अप्पाणं घादए को वि ॥ २६ ॥ विरतो वा श्रावको वा त्रिविधः यदि संयतस्योपरि तु ।। उपकरणादिनिमित्तं आत्मानं घातयेत् कोऽपि ॥ ताण वधे संजादे बारसमासा तहेव छम्मासा । तिण्णि य मासा छठं दिवट्टमासो य दायव्वं ॥ २७ ॥ तेषां वधे संजाते द्वादशमासाः तथैव षण्मासाः । त्रयश्च मासाः षष्ठं द्वयर्धमासश्च दातव्यः ॥ सेवडयभगववंदगकावालियभोयपमुहपासंडा । जदि संजदस्स कस्स वि उवरि विवादादिहेदूहि ॥ २८ ॥ श्वेतपटकभगववन्दककापालिकभोजप्रमुखपाषंडाः । यदि संयतस्य कस्यापि उपरि विवादादिहेतुभिः ॥ १ उत्तममध्यमभेदेन त्रिविधः श्रावकः । २ दायब्वा. ख, । ___ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छेदपिण्डम् । अप्पाणं विणिवायंति तस्स छहं तु होइ छम्मासं। तद्दिक्खियाण तब्भत्ताण वहे पुणु तदद्धद्धं ॥ २१ ॥ आत्मानं विनिपातयन्ति तस्य षष्ठं तु भवति षण्मासं । तद्दीक्षितानां तद्भक्तानां वधे पुनः तदर्धाधु ॥ बंभणघादे अह य मासा एयंतरेण उववासा । खत्तियवइस्ससुद्दाण घायणांओ उण तदद्धद्धं ॥ ३० ॥ ब्राम्हणघाते अष्टौ च मासा एकान्तरेण उपवासाः । क्षत्रियवैश्यशूद्राणां घातनतः पुनः तदधि ॥ अह य छच्चों दोणि य मासा एयंतरेत्ति विति परे। दोसु वि उवएसेसु छहं आदिए अंते ॥ ३१॥ अष्टौ च षट् चत्वारः द्वौ च मासा एकान्तरे इति ब्रुवन्ति परे। द्वयोरपि उपदेशयोः षष्ठं आदिके अन्ते ॥ णियसमयजादिकुलधम्ममुक्कस्सायरणधारयाण वहे। एसा सुद्धी मज्झिमजहण्णघादे तदृद्धद्धा ॥ ३२ ॥ निजसमयजातिकुलधर्मे उत्कृष्टाचरणधारकाणां वधे । एषा शुद्धिः मध्यमजघन्यघाते तदर्धार्धा ॥ मेसासमहिसखरकरहाजादीगोमच उप्पयवहम्हि । अंतादिछहसहिया मासद्धेयंतरुववासा ॥ ३३ ॥ मेषाश्वमहिषखरकरभाऽजादिग्रामचतुष्पदवधे । अन्तादिषष्ठसहिताः मासार्धाः एकान्तरेणोपवासाः ॥ १ तदद्धं क.। २ घायणे. ख.। ३ तदद्धं. क.। ४ आदीय अंते च. ख. । . मेषादिग्रामवासिनां चतुष्पदानां वधे । Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायश्चित्तसंग्रहे तणचारीमंसासीविहगोरगपरिसप्पजलयरवहेहिं । चउदस तेरस वारस एयारस दस णव उववासा ॥ ३४ ॥ तृणचारिमांसाशिविहगोरगपरिसर्पजलचरवधे चतुर्दश त्रयोदश द्वादश एकादश दश नव उपवासाः ॥ बालादिधादिपायच्छित्तं एदं पमादजदस्स । दोसस्सेदं दप्पुब्भवस्स पुण होइ तस्विउणं ॥ ३५ ॥ बालादिधातिप्रायश्चित्तं एतत् प्रमादनातस्य ।। दोषस्य इदं दर्पोद्भवस्य पुनः भवति तद्विगुणं ।। अण्णे भणंति एदं पायच्छित्तं सदप्पदोसस्त । वुत्तं पमादजादस्स होइ एयस्स अद्धमिदि ॥ ३३ ॥ अन्ये भणंति एतत्प्रायश्चित्तं सदर्पदोषस्य । उक्तं प्रमादजातस्य भवति एतस्य अर्धमिति ॥ अह य सत्त य छच्चदु उववासा होति अइमहिल्लाणं । चउरिदियतेइंदियवेइंदियएइंदियाण वहे ॥ ३७॥ अष्टौ च सप्त च षट् चत्वार उपवासा भवन्ति अतिमहतां । चतुरिन्द्रियत्रीन्द्रियद्वीन्द्रयैकेन्द्रियाणां वधे ॥ कोमलहरियतिणंकुरपुंजस्सुवरि पमाददोसेण। पाए पडियम्मि हवे उववासो सप्पडिकमणो ॥ ३८ ॥ कोमलहरिततृणाङ्करपुंजस्योपरि प्रमाददोषेण । पादे पतिते भवेत् उपवासः सप्रतिक्रमणः ॥ १ तदुगुणं ख,। Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छेदपिण्डम् । एवं वितिचउरिदियपुंजाणं उवरि पडियए पाए। सपडिक्कमणं दोणि य तिणि य चत्तारि उववासा ॥ ३९ ॥ एवं द्वित्रिचतुरिन्द्रियपुंजानां उपरि पतिते पादे । सप्रतिक्रमणं द्वौ च त्रयश्च चत्वार उपवासाः ॥ सप्पंडयाणमुवरि पाए पडियम्मि अहव चंकमिए । कल्लाणियाणमुवरि पडिकमणं पंच उववासा ॥ ४० ॥ सर्पतामुपरि पादे पतिते अथवा चंक्रमिते । कल्याणिकानामुपरि प्रतिक्रमणं पंच उपवासाः ॥ पढमवद-इति प्रथमव्रतं । गणिणा चत्तणिहेण व सेसेहिं असण्णिएण केण विवा। अप्पम्मि मुसावादे अदिण्णगहणे य अप्पम्मि ॥ ४१॥ गणिना त्यक्तनिवहेन वा स्नेहेन असन्निहतेन केनापि वा। - आत्मनि मृषावादे अदत्तग्रहणे च आत्मनि ॥ विण्णादे अणुकमसो छेदो आलोयणा विउस्सग्गो। सप्पडिक्कमणो एगो उववासो दोणि उववासा ॥ ४२ ॥ विज्ञातेऽनुक्रमशः छेद: आलोचना व्युत्सर्गः । सप्रतिक्रमणः एक उपवासः द्वौ उपवासौ ॥ अप्फालिऊण हत्थं पुरदो समयस्स लोयपुरदो वा । जदि वददि मुसावाद तो सहाणं च मूलखिंदी ॥४३॥ गहणम्मि अप्पम्मि । २ अस्या अग्रे इयमपि गाथा समुपलभ्यते ख. पुस्तक दम्मसुवण्णादीयं महिदं जदि मुणदि ससमओ। अहवा एय परियत्त लोगो सहाणं च मूलखिदी ॥ १ ॥ द्रमसुवर्णादिकं गृहीतं यदि जानाति स्वसमयः । अथवा इतः परो लोकः संस्थानं च मूलक्षितिः ॥ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायश्चित्तसंग्रहे ..wwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwmarwrmwarwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwww आस्फाल्य हस्तं पुरतः समयस्य लोकपुरतो वा । यदि वदति मृषावादं ततः संस्थानं च मूलक्षितिः ॥ अहवा समक्खअसमक्खउभयतिकरणमोसभासिस्स। काउस्सग्गो इगिदुतिउववासा सप्पडिक्कमणा ॥४४॥ अथवा समक्षासमक्षोभयत्रिकरणमृषाभाषिणः । कायोत्सर्गः एकद्विव्युपवासाः सप्रतिक्रमणाः ।। सुण्णे पच्चक्खे अण्णादे णादे अदत्तगहणम्मि । काउस्सग्गो इगिदुत्तिउववासा सप्पडिक्कमणा ॥ ४५ ॥ शन्ये प्रत्यक्षे अज्ञाते ज्ञाते अदत्तग्रहणे। कायोत्सर्गः एकद्विव्युपवासाः सप्रतिक्रमणाः ॥ एदं पायच्छित्तं पमाददो एगवारदोसस्स । दप्पेण य बहुवारं कयस्स पुण पंचकल्लाणं ॥४६॥ एतत्प्रायश्चित्तं प्रमादतः एकवारदोषस्य । दपेण च बहुवारं कृतस्य पुनः पंचकल्याणं ॥ विदियं तदियं वदं-इति द्वितीयं तृतीयं व्रतं । अब्बभभासिणित्थीअहिलासतदंगफासंणि च्छेदो । आलोयणा य काउस्सग्गो नियमोववासो य ॥४७॥ अब्रह्मभाषिणः स्त्र्यभिलाषतदङ्गस्पर्शने छेदः । आलोचना च कायोत्सर्गः नियमोपवासश्च ।। १ सो क, । २ णं. क. । ३ फासणे. ख. । ४ सप्रतिक्रमणोपवासश्चः । Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छेदपिण्डम् । दहण चिंतिदूण य महिलं जस्स पमाददोसेण । इंदियखलणं जायदि तस्स तिरत्तं हवइ छेदो ॥४८॥ दृष्ट्वा चिन्तयित्वा च महिलां यस्य प्रमाददोषेण । इन्द्रियस्खलनं जायते तस्य त्रिरात्रं भवति छेदः ।। जंतारूढो जोणि अपुसंतो जदि णियत्त दिविरत्तो। सपडिक्कमणुववासो दायव्यो तस्सिमो च्छेदो ॥४९॥ यंत्रारूढो योनि अस्पृश्यन् यदि निवृत्तदिविरक्तः । सप्रतिक्रमणभुपवासो दातव्य तस्यायं छेदः ॥ जो अब्बभं सेवदि विरदो सत्तो सई अविण्णादं । सपडिक्कमणं कल्लाणपंचयं तस्स दायव्वं ॥ ५० ॥ यः अब्रम्ह सेवते विरतः सक्तः सकृत् अविज्ञातं । सप्रतिक्रमणं कल्याणपंचकं तस्य दातव्यं ॥ बहुसो वि मेहुणं जो सेवदि अण्णेहिं अमुणिदं तस्त। एयंतरोववासा चउमासा अहव छम्मासा ॥ ५१ ॥ बहुशोऽपि मैथुनं यः सेवते अन्यैः अज्ञातं तस्य । एकान्तरोपवासाः चतुर्मासा अथवा षण्मासाः ।। जो सेवदि अब्बंभं परेहिं विण्णादमेकवारम्मि । पायच्छित्तं तस्स दु दायव्वं मूलभूमित्ति ॥ ५२ ॥ यः सेवते अब्रम्ह परैः विज्ञातं एकवारे । प्रायश्चित्तं तस्य तु दातव्यं मूलभूमिरिति । १ खरणं. ख. । २ तस्स तिरत्तं पडिकमणं. ख. । Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायश्चित्तसंग्रहे-- जो देवमणुयतिरियउवसग्गजादं सुभुजदि अबंभं । सपडिक्कमणं कल्लाणपंचयं होदि देयं से ॥५३॥ यः देवमनुष्यतिर्यगुपसर्गजातं सुभजते अब्रम्ह । सप्रतिक्रमणं कल्याणपंचकं भवति देयं तस्य ॥ - एक्केक्कदिणुग्घोडं कल्लाणं कुणदि देवअचंभे । तिरिए दोदोदिवसुग्घाडं मणुए अणुग्घोडं ॥ ५४॥ एकैकदिनोद्घाटं कल्याणं करोति देवे अब्रम्हणि । तिरश्चि द्विद्विदिवसोद्धाटं मनुजे अनुद्घाटं ॥ जो णियमवंदणाणं मज्झे एक्कं च दो च किरियाओ। सज्झायजुदा तिण्णि व काऊण परिस्समादीहिं ॥ ५५ ॥ यः नियमवन्दनयोर्मध्ये एकां च द्वे च क्रिये । स्वाध्याययुतास्तिस्रो वा कृत्वा परिश्रमादिभिः ॥ सुत्तो पदोससमए रेदं पस्सदि खु तस्सिमो च्छेदो । सपडिक्कमणं खमणं णियमं खमणं च णियमो य ॥ ५६ ॥ सुप्तः प्रदोषसमये रेतः पश्यति खलु तस्यायं छेदः । सप्रतिक्रमणं क्षमणं नियमः क्षमणं च नियमश्च ॥ रयणिविरामे सज्झायणियमवंदणाण मज्झम्हि । एकं च दो व तिण्णि य किरियाउ सम णिउ य पसुत्तो॥५७॥ रजनिविरामे स्वाध्यायनियमवन्दनानां मध्ये । एकां च द्वे वा तिस्रश्च कियाः समाप्य च प्रसुप्तः ॥ १ भजदि. ख. पुस्तके । २ सान्तरं । ३ निरन्तरम् । ४ सज्झायणियमजिणवंदणाण ख. पुस्तके पाठः। Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छेदपिण्डम् | रेदं पस्सदि जदि तो दायव्वं तस्स सणियमं खवणं । सपडिक्कमणं खमणं सपडिक्कमणं तहा छटं ॥ ५८ ॥ रेतः पश्यति यदि ततः दातव्यं तस्य सनियमं क्षमणं । सप्रतिक्रमणं क्षमणं सप्रतिक्रमणं तथा षष्ठं ॥ सपडिक्कमणुववासुद्दिवसे खवणारं वेणि वेंति परे । रयणीए पुव्वपच्छिमजामे नियम वजुत्ताई ॥ ५९ ॥ सप्रतिक्रमणोपवासः दिवसे क्षमणे द्वे ब्रुवन्ति परे । रजन्याः पूर्वपश्चिमयामे नियमोपयुक्ते ॥ अवसेसणिसांसमए सुज्झदि नियमेण दिट्ठए रेदे । दिवसम्म सुत्तओ जदि पस्सदि तो छह पडिकमणं ॥ ६० ॥ अवशेष निशासमये शुद्धयति नियमेन दृष्टे रेतसि । दिवसे सुप्तः यदि पश्यति ततः षष्ठं प्रतिक्रमणं ॥ उत्थं वदं - इति चतुर्थी व्रतं । १३ ऐगवराडकागिणिपणचेलाई पमाददो सेण । अप्पं परिग्गहं जो गेण्हदि निग्गंथवदधारी ॥ ६१ ॥ एकवराटककाकिणीपणचेलानि प्रमाददोषेण । अल्पं परिग्रहं यः गृह्णाति निर्ग्रन्थत्रतधारी ॥ आलोयणा य काउस्सग्गो खमणं च नियमसंजुत्तं । सपडिक्कमणववासो कमसो छेदो इमो तस्स ॥ ६२ ॥ १ विंशतिवराटकानां एकाकाकिणी चतुःकाकिणीनां एकः पणः । २ दी. ख. Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायश्चित्तसंग्रहे आलोचना च कायोत्सर्गः क्षमणं च नियमसंयुक्तं । सप्रतिक्रमणोपवासः क्रमशः छेदोऽयं तस्य ॥ अच्छादणं महग्घं जो गेण्हदि संजदो सरागमणो । तस्स दु पायच्छित्तं वे उववासा पडिक्कमणं ॥ ६३ ॥ आच्छादनं महायं य: गृह्णाति संयतः सरागमनाः। तस्य तु प्रायश्चित्तं द्वौ उपवासौ प्रतिक्रमणं ॥ पोथियलिहावणत्थं जइ देइ धणं सहस्सगणणाए । कोइ वि कस्स वि तो पोथिय लिहाविऊण सो पच्छा ॥६॥ पुस्तकलेखनाथ यदि ददाति धनं सहस्रगणनायां । कोऽपि कस्यापि ततः पुस्तकं लेखयित्वा स पश्चात् ॥ कुणउ मुणी कल्लाणाइं पंच पडिकमणसुणणपुव्याई । ऊणेम्मि व णाऊणा सोही बहुगम्मि मूलखिदी ॥६५॥ करोतु मुनिः कल्याणानि पंच प्रतिक्रमण..."पूर्वाणि । उने च ज्ञात्वा शुद्धिः बहुके मूलक्षितिः ॥ जो अण्णेसिं दव्वं ठवेइ ठविऊण कुणइ अइलोहं । संठेवणाण य काले दीणत्तं दावए नियमं ॥ ६६ ॥ यः अन्येषां द्रव्यं स्थापयति स्थापयित्वा करोति अतिलोभं । स्थापनानां च काले दीनत्वं दापयेत् नियमं ॥ विक्खाददाणगहणं करेदि गिम्हदि परिग्गहं सइरं । तस्स य पायच्छित्तं दायब्वमणुक्कमेणेदं ॥ ६७॥ १ऊणम्मि घणेऊगा. ख. पुस्तके पाठः । २ तद्रवगणयणकाले. ख. पाठः तत्स्थपननयनकाले । ३ गिव्हदि ख. । Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छेदपिण्डम् | विख्यातदानग्रहणं करोति गृह्णाति परिग्रहं स्वैरं । तस्य च प्रायश्चित्तं दातव्यमनुक्रमेणेदम् ॥ एगुववासो छ अहमयं मासियं च एयाई । पडिकमणमपुव्वाइं चरिमे पुण मूलभूमित्ति ॥ ६८ ॥ एकोपवासः षष्ठं अष्टमकं मासिकं च एतानि । प्रतिक्रमणपूर्वाणि चरमे पुनः मुलभूमिरिति ॥ पंचमं वदं - इति पंचमं व्रतम् । चविहमेयविहं वा आहारं संजदो जदि णिसाए । उववासपरिस्संतो वाहिगिलाणो बभुंजिज्ज ॥ ६९ ॥ चतुर्विधमेकविधं वा आहारं संयतो यदि निशि । उपवासपरिश्रमतः व्याधिग्लानो बोभुज्यते ॥ तो पडिकमणपुरोगं छटं खमणं च तस्स दायव्वं । उवसग्गेणं सव्वं रत्तिं भुजंतस्स संठाणं ॥ ७० ॥ ततः प्रतिक्रमणपुरोगं षष्ठं क्षमणं च तस्य दातव्यं । उपसर्गेण सर्व रात्रौ भुंजानस्य संस्थानम् ॥ संतो रोयक्कंतो सहोवसग्गो ठिओ णिसण्णो वा । णिसि भोयणम्मि पावइ मासियमेवेत्ति वेंति परे ॥ ७१ ॥ सन् रोगाक्रान्तः सोपसर्गः स्थितः निषण्णो वा । निशि भोजने प्राप्नोति मासिकमेवेति ब्रुवन्ति परे ॥ जो रत्तीए चरियं पविसिय धम्मस्स कुणइ उड्डाहं । दायव्वं से मूलठाणमसंभोगिगो सो य ॥ ७२ ॥ १५ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ प्रायश्चित्तसंग्रहे यः रात्रौ चर्या प्रविश्य धर्मस्य करोति उदाहं । दातव्यं तस्य मूलस्थानमसंभोगिकः स च ॥ सूरम्मि उग्गमंते अहव छण्णम्मि लोहिदे सेदे । रविबिंबे भुंजंतस्स होदि लहुमास पणयदुगं ॥ ७३ ॥ उद्गमे अथवा छन्ने लोहिते श्वेते । रविविम्बे भुंजानस्य भवति लघुमासः पंचकद्विकम् ॥ नालीतिगस्स मज्झे जदि भुंजदि संजदो अणाचिण्णं । पुव्वह्ने अवर व तस्स पणगं हवे छेदो ॥ ७४ ॥ नालीत्रिकस्य मध्ये यदि भुनक्ति संयतः अनाचीर्णः । पूर्वाह्णे अपराह्णे वा तस्य पंचकं भवेत् छेदः ॥ दो दिया व सुविणंतरम्मि महुमजमंससेवित । नियमुववासो नियमो केवलो सिविणभोजिस्स ॥ ७५ ॥ रात्रौ दिवि वा स्वप्नान्तरे मधुमद्यमांससेविनः । नियमोपवासौ नियमः केवलः स्वप्नभोजिनः || छटं वदं - इति षष्टं व्रतम् । सुद्वेण असुद्वेण य उप्पथेणं गयस्स वायामे । काउस्सग्गो खमणं दायव्वमपुण्णको सम्मि ॥ ७३ ॥ शुद्धेनाशुद्धेन च उत्पथेन गतस्य व्यायामेन । कायोत्सर्गः क्षमणं दातव्यं अपूर्णकोशे ॥ घणहिमसमये गिंभे दिवसणिसा पासुगिदरपंथेण । तिगतिगतिगतिगछच्च उचउचउनवछणवछक्को से ॥ ७७ ॥ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छेदपिण्डम् । घनहिमसमये ग्रीष्मे दिवसनिशयोः प्रासुकेतरपथेन । त्रिकत्रिकत्रिकत्रिकषट्चतुःचतुःचतुःनवषट्नवषट्रोशे ।। खमणं छहहम दसम खवणं खमणं च छह अट्टमयं । खमणं खमणं खमणं छहं च गदेस्सिमो छेदो ॥७८॥ क्षमणं षष्ठं अष्टमं दशमं क्षमणं क्षमणं च षष्ठं अष्टमकं । क्षमणं क्षमणं क्षमणं षष्ठं च गतेऽस्यायं छेदः ॥ वेति परे तिदुतिदुछचउछचउणवछक्कणवछक्ककोसाणं । इगिइगितिचदुरिगिगिदुतिण्णिगिइगिगिदोणि खमणाणि॥७९॥ ब्रुवन्ति परे त्रिद्वित्रिद्विषट्चतुःषट्चतुःनवषटू नवषटू कोशानां । एकैकत्रिचतुरेकैकद्वित्येकैकैकद्विकानि क्षमणानि ।। पिच्छं मोत्तूण मुणी गच्छदि जदि सत्तेपंडुपरिमाणं । सुज्झदि काओसग्गेण गाउगदे एयखमणेण ॥ ८॥ पिच्छं मुक्त्वा मुनिः गच्छति यदि सप्तपादपरिमाणं । शुद्धयति कायोत्सर्गेण गव्युतिगते एकक्षमणेन ॥ डोलियगमणम्मि पुणो पुव्वुत्ततिकालपंथमलहरणं । वहमाणपुरिससंखागुणिदं देयं गिलाणस्स ॥ ८१॥ दोलिकागमने पुनः पूर्वोक्तत्रिकालपथमलहरणं । वहमानपुरुषसंख्यागुणितं देयं म्लानस्य ॥ जाणुपमाणम्मि जले अजंतुबहुलम्मि सोलसधणुत्ति । इरियंतस्स विसोही मुणिणो एगो विउस्सग्गो ॥ ८२॥ १ सत्तपायपरिमाणं ख । २ जो डोलियगमणम्मि ख। ३ जो जाणुपमाणम्मि ख । Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायश्चित्तसंग्रहे जानुप्रमाणे जलेऽजन्तुबहुले षोडशधषीति । ईराणस्य विशुद्धिः मुनेः एको व्युत्सर्गः ॥ जण्हू उरि चउचउरंगुलेसु एगादिदुगुणदुगुणाई। खमणाई जंतुपउरे पुण अब्भहियाई देयाई ॥ ८३ ॥ जानूपरि चतुश्चतुरङ्गुलेषु एकादिद्विगुणद्विगुणानि । क्षमणानि जन्तुप्रचुरे पुनः अभ्यधिकानि देयानि ॥ काउस्सगो आलोयणा य णावादिणा णदीतरणे । पावाए जलहितरणे सोही खवणादिपणयंता ॥ ८४ ॥ कायोत्सर्गः आलोचना च नावादिना नदीतरणे । नावा जलधितरणे शुद्धिः क्षमणादिपंचकान्ता ॥ सपरणिमित्तपउंजिददोणीणावादिणा णदीतरणे । अण्णे भणंति एगो उववासो तह विउस्सग्गो ॥ ८५ ॥ स्वपरनिमित्तप्रयुक्तद्रोणीनावादिना नदीतरणे । अन्ये भणन्ति एक उपवासस्तथा व्युत्सर्गः ॥ बुटुंतएसु णावादिगेसु बाहाहिं जो तरेऊण । णीसरदि तस्त छेदो खमणादिपणगपरियंतो ॥ ८६ ॥ ब्रुडत्सु नावादिकेषु बाहुभ्यां यः तीर्ला । निःसरति तस्य च्छेदः क्षमणादिपंचकपर्यन्तः ॥ इरियासमिदि-इतीर्यासमितिः । दोण्हं भासंताणं भासंतस्संतरे विउस्सग्गो। आलोयणा दु छक्कम्मदेसणे खमणमेगं तु ॥ ८७ ॥ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छेदपिण्डम् । द्वयोः भाषमाणयोः भाषमाणस्यान्तरे व्युत्सर्गः । आलोचना तु षटूर्मदेशने क्षमणमेकं तु ॥ उलुतिछुहणं घरसारवणं घरकुड्डिलिंपणं चेव । अंगणबोहारणपाणिआहणणं छेणबालणमिदि छकम्मं ॥८॥ उखलीकण्डनं गृहसम्माननं गृहकुडिलिंपनं चैव । अंगणबोहारणं पानीयाननं कारीषज्वालनमिति षटूर्म । अविरदसुत्तपबोधिस्स गीदणट्टादिकरणभासिस्स। पुवुच्छिण्णपराधपभासिस्स य अहमं देयं ॥ ८९ ॥ अविरतसुप्तप्रबोधिनः गीतनृत्यादिकरणभाषिणः । पूर्वच्छिन्नापराधभाषिणश्च अष्टमं देयं ॥ चाउव्वण्णपराधं जो भासदि सो अवंदणिज्जो खु । गाणं गणिक कीरदि छेदो पणगादिमासिगंतो से ॥९० ॥ चातुर्वर्ण्यापराधं यः भाषते सोऽवन्दनीयः खलु । गानं गणिकः कीर्तयति छेदः पंचकादिमासिकान्तस्तस्य ।। भासासमिदि-इति भाषासमितिः । अण्णाणवाहिदप्पहिं हरिदकंदादिगेसु खद्धेसु । सालोयण विउसग्गो खमणं पणगं च इगिवारे ॥ ९१ ॥ अज्ञानव्याधिदः हरितकन्दादिकेषु खादितेषु । सालोचनो व्युत्सर्गः क्षमणं पंचकं च एकवारे । १ इदं गाथासूत्रं ख-पुस्तके नास्ति । Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायश्चित्तसंग्रहे R/NMUVVVVNIY बहुवारेसु य पणगं मूलगुणं तह य भूलभूमी य । दायब्वा अणुकमसो हरिदं खादेज ण हु विरदो ॥ ९२ ॥ बहुवारेषु च पंचकं मूगुलणः तथा च मूलभूमिश्च । दातव्या अनुक्रमशः हरितं खादयेन्न हि विरतः ॥ विसमपयवमिदणिदभासिदकूडावलंवणादीहिं । भुत्ते सेह गिलाणेणुववासो छटुमिदराणं ॥ ९३ ।। विषमपदवमितनिष्ठ्यूतभाषितकुड्यावलनादिभिः । भुंक्ते सति ग्लानेन उपवासः षष्ठं इतरेषां ॥ कागादिअंतराए जादे वि परिस्समादिहेदूहि । असमत्थो जदि भुंजदि तस्सुववासो हवदि छेदो ॥ ९४७ कागाद्यन्तराये जातेऽपि परिश्रमादिहेतुभिः । असमर्थों यदि भुनक्ति तस्योपवासो भवति च्छेदः ॥ गहिदोग्गहम्मि विसरिऊणं पन्भुत्तम्मि होदि उववासो। भोयणकाले णादम्मि अंतरायं खु कादव्वं ॥ ९५ ॥ गृहीतावग्रहे विस्मृत्य प्रभुक्ते भवत्युपवासः । भोजनकाले ज्ञाते अन्तरायः खलु कर्तव्यः ॥ वडंतरायगे संजादे भुत्ते सुदम्मि उववासो। सपडिक्कमणो दिटुम्मि अप्पणो छ? पडिक्कमणं ॥ ९६ ॥ वृहदन्तरायके संजाते भुक्ते श्रुते उपवासः । सप्रतिक्रमणः दृष्टे स्वयं षष्ठं प्रतिक्रमणं ॥ १-९६ गाथातः ९७ गाथा ख-पुस्तके पूर्व । Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छेदपिण्डम् । AAAAAW चंडालसंकरे सई मूलगुणेयं सरीरए पुढे। भूत्तस्स य तहुगुणं उववासुढावणा छेदो ॥ ९७॥ चंडालसंकरे सति मूलगुणैकं शरीरके स्पृष्टे । . भुक्तस्य च तद्विगुणं उपवासस्थापनाः छेदः ।। वलयगजदंतपिच्छदंडकरोरुहा अत्थु। .. हासस्स सिद्धवयादि पुव्वद्धं कद्देयं ॥ ९८ ॥ ........................................ । ............. ॥ जदि पुण मुहम्मि पस्सदि सपडिक्कमणं तु अहमं कुज्जा । गामाए गामंतरचरियाए खमण पडिकमणं ॥ ९९॥ यदि पुनः मुखे पश्यति सप्रतिक्रमणं तु अष्टमं कुर्यात् । ग्रामात् ग्रामान्तरचर्यायां क्षमणं प्रतिक्रमणं ॥ आधाकम्मे भुत्ते गिलाणअगिलाणएण इगिवारे । खमणं छडं बहुवारपसु संठाणमूलखिदी ॥ १० ॥ आधाकर्माण भुक्ते ग्लानाग्लानाभ्यां एकवारे । क्षमणं षष्ठं बहुवारेषु संस्थानमूलक्षिती ॥ एसणासमिदी-इत्येषणासमितिः। वियाडतणकटचालण ठाणंतरसंकमे विउस्सग्गो । रत्तीए अंधयारे खमणं तच्चालणे गहणे ॥ १०१॥ १ इदं गाथासूत्रं ख-पुस्तके नास्ति । २ रत्तीए बहुअंधयारे. ख-पाठः ॥ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ प्रायश्चित्तसंग्रहे वियडितृणकाष्ठचालने स्थानान्तरसंक्रमे न्युत्सर्गः ॥ रात्रान्धकारे क्षमणं तच्चालने ग्रहणे ॥ उप्पण्णं पि कसाए मिच्छाकारं तक्खणे कुज्जा । खवणं चाहारत्तं गदे तेण परं मासियं छेदो ॥ १०२ ॥ उत्पन्नेऽपि कषाये मिथ्याकारं तत्क्षणे कुर्यात् । क्षमणं च अहोरात्रं गते तेन परं मसिकं छेदः ॥ आदावणणिक्खेवणं- इत्यादाननिक्षेपणासमितिः । हरिदतणंकुरवीजाणुच्चारादिसु कदेसु उवरिं तु । सालोयणविसग्गो थोवे खमणं तु बहुवारे ॥ १०३ ॥ हरिततृणाङ्कुरबीजानामुच्चारादिषु कृतेषु उपरि तु । सालोचनव्युत्सर्गः स्तोके क्षमणं तु बहुवारे ॥ पइलावणं- इति प्रतिष्ठापनासमितिः । अप्पयदपयदचारिस्स परसरसघाणचक्खुसोदाणं । अदिचारे इगिवितिचउपंचउववासा विउस्सग्गा ॥ १०४ ॥ १ इदं गाथासूत्रं ख - पुस्ते नास्ति । २ अस्मादग्रे क-पुस्तके अधस्तनवत श्लोकोऽपि विद्यते । ख- पुस्तके तु नास्ति । स च प्रायश्चित्तचूलिकाख्यस्य ग्रन्थस्य सप्ताशीतितमः । तद्यथा । तृणकाष्ठकपाटानामुद्घाटनविघट्टने । चतुर्मास्याश्चतुर्थं स्यात् सोपस्थानमवस्थितं ॥ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छेदपिण्डम् । अप्रयत्नप्रयत्नचारिणोः स्पर्शरसघ्राणचक्षुःश्रोत्राणां अतिचारे एकद्वित्रिचतुःपंचोपवासा व्युत्सर्गाः ॥ इंद्रियरोधं-इती न्द्रियरोधः । मासचउक्कं लोचो वरिसं च जुगं च जस्त वोलीणो। सपडिक्कमणं खमणं छटुं तह मासियं छेदो ॥ १०५॥ मासचतुष्कं लोचः वर्षे च युगं च यस्य अतिक्रान्तः । सप्रतिक्रमणं क्षमणं षष्ठं तथा मासिकं छेदः ॥ अण्णे भणति चाउम्मासियवरिसियजुगंतपडिकमणे । जादं पि जो ण लोचं देवावइ तस्सिमो छेदो ॥ १०६ ॥ अन्ये भणन्ति चतुर्मासिकवार्षिकयुगान्तप्रतिक्रमणे । जातमपि यो न लोचं दर्दाति तस्यायं छेदः ॥ सो पुण वाहिगिलाणो जदि णो लोचं करिज उग्घाडं। एवं पायच्छित्तं करेज इयरो अणुग्घाडं ॥ १०७ ॥ स पुनः व्याधिग्लानः यदि नो लोचं करोति उद्घाटं । एतत्प्रायश्चित्तं कुर्यात् इतरः अनुदाटम् ॥ लोचो वि जदि ण दिण्णो पडिकमणं णिसुणियं ण तद्दिवसे। तो खवणदुर्ग मासियमुग्घाडं तर (ह) अणुग्घाडं ॥ १०८॥ लोचोऽपि यदि न दत्तः प्रतिक्रमणं निश्रुतं न तद्दिवसे । ततः क्षमणद्विकं मासिकं उद्घाटं तथा अनुदाटं ॥ लोचो-इति लोचः । १ करोतीत्यर्थः। २ कृतः । ३ तत्तणुग्घाडं ख । Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायश्चित्तसंग्रहे देवगुरुसमयकज्जेहिं जो ण अवखित्तमाणसो कुणइ । सज्झायचउक्कं नियममेकं मथ वंदणं एवं ॥ १०९ ॥ देवगुरुसमयकार्यैः यः न अवक्षिप्तमानसः करोति । स्वाध्यायचतुष्कं नियममेकमथ वन्दना एकाम् ।। पक्खिय अहमियं वा किरिया जो चुक्कए खमणमेकं । तस्स च्छेदो तिणि विउसग्गा खलिदसज्झाए ॥ ११०॥ पाक्षिका आष्टमिकां वा क्रियां यः भ्रंशति क्षमणमेकं । तस्य च्छेदः त्रयो व्युत्सर्गाः स्खलितस्वाध्याये॥ किरियावंदणियमेसु विउस्सग्गूणएसु विहिए । अकयाए जोगभत्तीए तहा खवणद्धमिह सुद्धी ॥ १११ ॥ क्रियावंदनानियमेषु व्युत्सर्गोनकेषु विहितेषु । अकृतायां योगभक्तौ तथा क्षमणार्द्धमिह शुद्धिः ॥ पक्खं पडि एक्के खमणं पडिकमणसुणणसंजुत्तं । कायव्वमेव तस्स य वदिक्कमे दोण्णि उववासा ॥ ११२॥ पक्ष प्रति एकैकं क्षमणं प्रतिक्रमणश्रवणसंयुक्तं । कर्तव्यमेव तस्य चातिकमे द्वौ उपवासौ ॥ अह पडिकमणं ण सुयं उववासो पुण कउ जदि हवेज । तो तस्स पायछित्तं दायव्वं एगखमणं तु ॥ ११३॥ अथ प्रतिक्रमणं न श्रुतं उपवासः पुनः कृतो यदि भवेत् । ततः तस्य प्रायश्चित्तं दातव्यं एकक्षमणं तु ॥ ण सुयाउ जेण पक्खियपडिकमणा तिण्णिआ देउ । पक्खतवं पडिकमणपुब्वगं तीदपक्खगणणाए देयं से॥११४॥ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छेदपिण्डम् । न श्रुता येन पाक्षिकप्रतिक्रमणा त्रयो दातव्याः । पक्षतपः प्रतिक्रमणपूर्वकं अतीतपक्षगणनया देयं तस्य ॥ आसाढे संवच्छरपडिकमणे दिजसु बारस उववासा। सिहाकत्तियपुण्णिमपडिकमणे अट्ट दायव्वा ॥ ११५ ॥ आषाढे संवत्सरप्रतिक्रमणे दीयन्तां द्वादश उपवासाः । सितकार्तिकपूर्णिमाप्रतिक्रमणायां अष्टौ दातव्याः ॥ फागुणचाउम्मासियपडिकमणे दिज पोसधचउक्कं । कत्तियमासे चदुरो विंति परे फग्गुणे अह ॥ ११६ ॥ फाल्गुणचातुर्मासिकप्रतिक्रमणायां ददाति प्रोषधचतुप्कं । कार्तिकमासे चत्वारः ब्रुवन्ति परे फाल्गुणे अष्टौ ॥ गंदीसरपक्खहियं पंचमिदिणपहुदिजामपरपक्खे। . ठियतेरसोत्ति एदम्मि अंतरे कारणवसेण ॥ ११७॥ नन्दीश्वरपक्षस्थितं पंचमीदिनप्रभृतियावत्परपक्षे । स्थितत्रयोदश इति एतस्मिन्नन्तरे कारणवशेन ॥ वरसिय चाउम्मासिय पडिकमण कप्पदे णिसाँमेहूँ । तत्तो परं सुणंतस्स तप्पडिक्कमणसुणणजुदा ॥ ११८॥ वार्षिकी चातुर्मासिकी प्रतिक्रमणां कल्पते निशामयितुं । ततः परं शृण्वतः तत्प्रतिक्रमणश्रवणयुक्ताः ॥ बारस अह य चउरो उववासा विगुणिऊण दायत्वा । पक्खियपायच्छित्तं पक्खगणणाए दायव्वं ॥ ११९॥ १ कत्तियपूणिमपडिकमणे उववासा अट्ट दायन्वा इति ख-पुस्तके पाठान्तरम् । २ पक्खिय. ख.। ३ णिसामेह ख.। ४ पक्खगणणे य दायव्वा, ख। Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायश्चित्तसंग्रहे द्वादश अष्टौ च चत्वार उपवासा द्विगुणीकृत्य दातव्याः । पाक्षिकप्रायाश्चत्तं पाक्षिकगणनया दातव्यं ॥ जो पक्खमासचउमासवरिसमावासयं सुसंखित्तं । कुणइ य पेक्खयमणुमोदए सयं काउमसमत्थो ॥ १२० ॥ यः पक्षमासचतुर्मासवर्ष आवश्यकं सुसंक्षिप्तं । करोति च दृष्ट्वा अनुमोदयेत् स्वयं कर्तुमसमर्थः ॥ पायच्छित्तं कमसो खमणं पणयं च पंचकल्लाणं । गुरुमासचउक्कं पि य दायव्वं से गिलाणस्स ॥ १२१ ॥ प्रायश्चित्तं क्रमशः क्षमणं पंचकं च पंचकल्याणं । गुरुमासचतुष्कं अपि च दातव्यं तस्य ग्लानस्य ॥ आवासयपरिहीणो इगिदुगर्मासे य वाहिदप्पेहिं । तो तस्स हवे छेदो लहुगुरुआमासचउमासा ॥ १२२ ॥ आवश्यकपरिहीनः एकद्विमासे च व्याधिदर्पाभ्यां । तर्हि तस्य भवेच्छेदः लघुगुरुकमासचर्तुमासाः ॥ आवासयपरिहीणो जो उण उभयत्थ वुत्तकालादो। उक्कस्सादो परदो दायव्वा मूलभूमित्ति ॥ १२३ ॥ आवश्यकपरिहीनः यः पुनः उभयत्र उक्तकालतः । उत्कृष्टतः परतः दातव्या मूलभूमिरिति ॥ आवासयं-इत्यावश्यकं । १ परपक्खय. ख । २ इगिदुगमासेहिं ख । ३ सुत्थकालादो. क । ४ अयं गाथासूत्रस्योत्तरार्धः क-पुस्तके नास्ति, ख-पुस्तकात् संयोजितः । ५ इदमपि क-पुस्तके नास्ति, ख-पुस्तके त्वस्ति । Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छेदपिण्डम् । उर्वसग्गदो अणारोगदो कारणवसेण दप्पादो। गिहिअण्णतिलिंगग्गहणेणाचेलवदभंगे ॥ १२४ ॥ उपसर्गतः अनारोगतः कारणवशेन दर्पतः । गृह्यन्यतीर्थलिंगग्रहणेन अचेलव्रतभंगे ॥ जादे पायच्छित्तं खमणं छटुं कमेण संठाणं । मूलं पि य जणणादे दायव्वं एगवारम्भि ॥ १२५ ॥ जाते प्रायश्चित्तं क्षमणं षष्ठं क्रमेण संस्थानं । मूलमपि च जनज्ञाते दातव्यं एकवारे ॥ अचेलकं-इत्यचेलकं । पहाणे दंतग्घसणे गिहसजाए य रायदो सयणे। इगिवारे कल्लाणं बहुवारे पंचकल्लाणं ॥ १२६ ॥ स्नाने दन्तघर्षणे गृहिशय्यायां च रागतः शयने । एकवारे कल्याणं बहुवारे पंचकल्याणं ॥ अण्हाणं अदंतवण खिदिसेजा-इत्यस्नानं अदन्तमनं क्षितिशय्या । ठिदिभोयणेगभत्ते जॉए दप्पेण एगबहुवारे । भग्गम्मि पणगमासिगदिवसंतवछेदमूलखिदी ॥ १२७ ॥ स्थितिभोजनकभक्त जाते दर्पण एकबहुवारे । भग्ने पंचकमासिकदिवसतपच्छेदमूलक्षितयः ॥ ठिदिभोयणेगभत्तं-इति स्थितिभोजनैकभक्ते । १ अयं पूर्वाधः क-पुस्तकेनास्ति, ख-पुस्तकात् संयोजितः। २ गिहत्य ख । ३ अदंतघसण ख । ४ खिदिसयणं ख । ५ रुजाए ख । रुजा । Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ प्रायश्चित्तसंग्रहे- इंदिय समिदिअदंतवणलो चखिदिसयणभंजणे चेयं । काउस्सग्गुववासा सेसाणं भंजणे तह ये ॥ १२८ ॥ इन्द्रियसमित्यदन्तमनलोच क्षितिशयनभंजने चैव । कायोत्सर्गोपवासौ शेषाणां भंजने तथा च ॥ मूलगुणा- इति मूलगुणाः । तरुमूलथिरादावणजोगे भग्गम्मि सप्पडिक्कमैणे । एयंतरोववासा चउरो मासा य दायव्वा ॥ १२९ ॥ तरुमूलस्थिरातापनयोगे भंगे सप्रतिक्रमणाः । एकान्तरोपवासाः चत्वारो मासाश्च दातव्याः | अण्णे भणंति जोगावसेस दिवसावसाणसमउत्ति । एयंतरोववासा सपडिक्कमणा य दायव्वा ॥ १३० ॥ अन्ये भणति योगावशेष दिवसावसानसमयं इति । एकान्तरोपवासाः सप्रतिक्रमणाश्च दातव्याः || तरुमूलजोगर्भग्गं रोगिगं णिसाए जणेसु सुत्तेसु । गुत्तेण वसहिअवतरम्मि सो वाविऊण गणी ॥ १३१ ॥ तरुमूलयोगभग्नं रोगाङ्गं ? निशि जनेषु सुप्तेषु । गुप्तेन वसत्यमन्तरे स-आनीय ? गणी ॥ णीहारइ तेसु अणुट्टिएस जदि रोगपसवणदिति । तो तस्स हवदि छेदो सपडिक्कमणं तु मूलगुणं ॥ १३२ ॥ १ असइ ख । २ मूलं ख । ३ मणा ख । ६ दिणंता ख ४ जोगिंग क । ५ अणिरिए क । Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छेदपिण्डम् । नीहारयति तेषु अनुष्ठितेषु यदि रोगप्रशमनदिनान्तं । तर्हि तस्य भवति च्छेदः सप्रतिक्रमणं तु मूलगुणं ॥ जो रुक्खमूलजोगी तटाणं गच्छदे ण वेलाए । सालोयणविउसग्गो पायच्छितं हवे तस्स ॥ १३३॥ यः वृक्षमूलयोगी तत्स्थानं गच्छति न वेलायां । सालोचनव्युत्सर्गः प्रायश्चित्तं भवेत्तस्य ॥ तरुमूलब्भोवासयतोरणठाणादिजोगसंजुत्तो। अण्णस्स अप्पणो वा वेज्जावच्चादिकरणहं ॥ १३४ ॥ तरुमूलाभ्रावकाशतोरणस्थानादियोगसंयुक्तः । अन्यस्य आत्मनो वा वैयावृत्यादिकरणार्थ ॥ जदि एग निसं वसहियमज्झे सो वसेदि तहाँ य दायव्वं ।। पायच्छित्तं तस्स दु सपडिक्कमणं खमणमेगं ॥ १३५ ।। यदि एकां निशां वसतिमध्ये स वसति तथा च दातव्यं । प्रायश्चित्तं तस्य तु सप्रतिक्रमणं क्षमणमेकं ॥ अथिरादावणअब्भोवगासजोगम्मि भग्गए छेदो। मूलगुणं पडिकमणं पुरोगपरदेसगमणं च ॥ १३६ ॥. अस्थिरातापनाब्भ्रावकशयोगे भग्ने छेदः । मूलगुणं प्रतिक्रमणं पुरोगपरदेशगमनं च ॥ ठाणासणादिजोगे जिरवधिगे सव्वहा वि परिचत्ते। पायच्छित्तं कल्लाणपंचयं सपडिक्कमणं ॥ १३७ ॥ १ तदा य ख। Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायश्चित्तसंग्रहे— स्थानासनादियोगे निरवधिके सर्वथापि परित्यक्ते । प्रायश्चित्तं कल्याणपंचकं सप्रतिक्रमणं ॥ सावधिगे परिचत्ते तत्तो ऊणं दिणावधिवसेण । आधच्चे कदभंगे सपडिक्कमणं खमणमेगं ॥ १३८ ॥ सावधिके परित्यक्ते ततः ऊनं दिनावधिवशेन । अधिके कृतभंगे सप्रतिक्रमणं क्षमणमेकं ॥ मंगम्मि वरिसकालियजोगे पढमिल्लपच्छिमे पक्खे | कमसो सपडिकमणा देया गुरुमासलहुमासा ॥ १३९ ॥ भंगे वर्षाकालयोगे प्रथमपश्चिमे पक्षे । क्रमशः सप्रतिक्रमणौ दातव्यौ गुरुमासलघुमासौ || मज्मिमपक्खे पुणो जोगे भंगम्मि होंति दायव्वा । जोगावसेसदिवसपमाणे एयंतरुववासा ॥ १४० ॥ मध्यमपक्षेषु पुनः योगे भग्ने भवन्ति दातव्याः । योगावशेष दिवसप्रमाणा एकान्तरोपवासाः ॥ ३० कोहेण व लोहेण व दप्पेण व वरिसकालजोगम्मि । संगम्मि इमं पायच्छित्तं होदित्ति विंति परे ॥ १४१ ॥ क्रोधेन वा लोभेन वा दर्पेण वा वर्षाकालयोगे । भग्ने इदं प्रायश्चित्तं भवतीति ब्रुवन्ति परे ॥ जदि पुण परवादिविवाद करणसण्णा ससंघ कज्जाहूं । जायाई होज्ज वरिसका लियजोगस्त मज्झयांरम्भि ॥ १४२ ॥ १ पमाणा ख २ मज्झम्मि ख । Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छेदपिण्डम् । यदि पुनः परवादिविवादकरणसंन्याससंघकाणि । जातानि भवन्ति वर्षाकालयोगस्य मध्ये ॥ तो देसंतरगमणं वि ण पडिसिद्ध हवे सुविहिदाणं । सयलरिसिसंघसभयकजं करणिज्जमेव जदो ॥ १४३॥ तर्हि देशान्तरगमनमपि न प्रतिसिद्धं भवेत् सुविहितानां । सकलर्षिसंघसमयकार्य करणीयमेव यतः ॥ बारहजोयणमज्झे जादे सल्लेहणम्मि साहूहिं । एगग्गामियभोयणसयणाई अकुणमाणेहिं ॥ १४४॥ द्वादशयोजनमध्ये जातायां सल्लेखनायां साधुभिः । एकग्रामिकभोजनशयने अकुर्वाणैः ।। जोगे गहिदम्मि वरिसयालमज्झिम्मि होदि गंतव्वं । तेणेव कमेणागंतव्वं एसा पुराणठिदी ॥ १४५॥ योगे गृहीते वर्षाकालमध्ये भवति गन्तव्यं । तेनैव क्रमेणागन्तव्यं एषा पुराणस्थितिः ॥ संण्णासणकाले पुण जायंतो मुणिवरो जदि पछेज्ज । कइविसूचियादीहिं मलहरणं तस्स दायव्वं ॥ १४६ ॥ सन्यासकाले पुनः याचमानो मुनिवरो यदि दृश्येत । कृतविसूचिकादिभिः मलहरणं तस्य दातव्यं ॥ पढेमे पक्खे पणगं अंतिमपक्खेण दोण्णि उववासा । मज्मिमपक्खेतु पुणो दाययो दोण्णि पणगं तु ॥ १४७ ॥ १ समुदायकज क। २ एगगामो, क. । ३-४ इमे गाथासूत्रे ख. पुस्तके न स्तः। Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ प्रायश्चित्तसंग्रहे प्रथमे पक्षे पंचकं अंतिमपक्षेन द्वौ उपवासौ । मध्यमपक्षेषु पुनः दातव्ये द्वे पंचके । एंगं णिसन्नदी सतु ? रोधणरोगादिकारणवसेण । अन्नत्थ वरिसयाले जदि वसदि मुणी तदा तस्स ॥ १४८॥ एकत्र निष्णः सन्ः रोधनरोगादिकारणवशेन । अन्यत्र वर्षाकाले यदि वसति मुनिस्तदा तस्य ॥ अण्णेहिं अविण्णादे देयं पडिकमणमेयखमणं च । णादे आदिमअंतिममज्झिमपखुत्तमलहरणं ॥ १४९ ॥ अन्यैरविज्ञाते देयं प्रतिक्रमणं एकक्षमणं च । ज्ञाते आदिमान्तिममध्यमपक्षोक्तमलहरणं ॥ सल्लेहणस्स पक्खे खमियस्स परीसहेहिं भग्गस्स । अण्णं पाणं जाचंतयस्स गणिणा वि कुसलेण ॥ १५० ॥ सल्लेखनायाः पक्षे क्षमितस्य परीषहैः भग्नस्य । अन्नं पानं याचमानस्य गणिनापि कुशलेन ॥ पच्छण्णेण अधिञ्चतम्मि दिणम्मि सपडिकमणं। उद्विदिणिविटुभोजिस्स दिवा खमणं च छहदुगं ॥१५१॥ प्रच्छन्नेन अधित्यक्ते ? दिने सप्रतिक्रमणं । उत्थितनिविष्टभोजिनः दिवा क्षमणं च षष्ठद्विकम् ॥ उद्विदणिविटभोजिस्स अण्णेहिं विजाणिदस्स दिवसम्मि। लहुमासो गुरुमासो रयणिभोजिस्स पुवुत्तं ॥१५२॥ १ एग णिसण्णदी स दुक । Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छेदपिण्डम् । उत्थितनिविष्टभोजिनः अन्यैः विज्ञातस्य दिवसे । लघुमासः गुरुमासः रजनीभोनिनः पूर्वोक्तं ॥ उत्तरगुणं-इत्युत्तरगुणाः । अण्णाणअहंकारेहिं एगबहुवारमासए छेदो। अप्पासुगे वसंतस्सुववासो पणय मासिगं मूलं ॥१५३॥ अज्ञानाहंकाराभ्यां एकबहुवारमाश्रित्य छेदः । अप्रासुके वसतः उपवासः पंचकं मासिकं मूलं ॥ अण्णाणधम्मगारवहेदूहि गामपुरघरारंभे। भासंतस्सुवसोही पणगं संठाणगं मूलं ॥ १५४ ॥ अज्ञानधर्मगर्वहेतुभिः ग्रामपुरगृहारंभान्। भाषमाणस्योपशुद्धिः पंचकं संस्थानकं मूलं ॥ पूजारंभं जो कारवेदि अण्णाणदो गिहत्थेहि । इगिवारे सालोयण विउसग्गो खमणमेगं तुं ॥१५५ ॥ पूजारम्भं यः कारयति अज्ञानतो गृहस्थैः । एकवारे सालोचनः व्युत्सर्गः क्षमणमेकं तु॥ बहुवारेसु य पणगं सपडिक्कमणं तु तस्स दायव्वं । जाणंतस्सिगिवारे सपडिक्कमणं पणगमेगं ॥ १५६ ॥ बहुवारेषु च पंचकं सप्रतिक्रमणं तु तस्य दातव्यं । जानानस्य एकवारे सप्रतिक्रमणं पंचकमेकं ॥ १ अण्णाणधम्मगारवेहिं जदि गामपुरघरारंभ इति क-पुस्तके पाठः । २ वा. स Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायश्चित्तसंग्रहे बहुवारे गुरुमासो दायवो तस्स पडिकमणं । छज्जीवणिकायाणं बहूण घायम्मि मूलखिदी ॥ १५७ ॥ बहुवारे गुरुमासो दातव्यस्तस्य सप्रतिक्रमणः । षड्जीवनिकायानां बहूनां घाते मूलक्षितिः ।। तित्थयरादीणमवण्णवादिणो संघस्स अयसकारिस्स । पभटुवदसमासेविणाय खमणं सपडिक्कमणं ॥ १५८॥ तीर्थकरादीनामवर्णवादिने संघस्य अयशस्कारिणे । प्रभ्रष्टव्रतसमासेविने क्षमणं सप्रतिक्रमणं ॥ वाहिपडिकारहेदुं वमणं च विरेयणं सिरावेधं । णियदेहे काराविदमुणिणो छटुत्तवं छेदो ॥ १५९ ।। व्याधिप्रतिकारहेतुः वमनं च विरेचनं च सिरावेधं । निजदेहे कारापितमुनये षष्ठतपः छेदः ॥ अण्णे भणंति ऐदं पायच्छित्तं सदप्पदोसस्स । वुत्तं पमादजादस्त होइ एयस्स अद्धमिदि ॥१६० ॥ अन्ये भणन्ति एतत्प्रायश्चित्तं सदर्पदोषस्य । उक्तं प्रमादजातस्य भवति एतस्य अर्धमिति ॥ जो दसणपब्भडं घेत्तूणं संजदो विहारिज । पायछित्तं तस्स य मूलगुणं होइ दायध्वं ॥ ६१॥ यः दर्शनप्रभ्रष्टं आदाय संयतः विहरेत् । प्रायश्चित्तं तस्य च मुलगुणं भवति दातव्यं ॥ १ अंगसंसकारिस्स. ख । २ एवं. ख । Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छेदपिण्डम् । विजाचोज्जणिमित्तं मंतं चुण्णाणि मूलकमणं च।। जो कुणदि सादेहेदुं तस्सुववासो सपडिकमणो॥१६२॥ विद्यातोद्यनिमित्तं मंत्रं चूर्णानि मूलकर्म च । यः करोति सादहेतुं तस्योपवासः सप्रतिक्रमणः ॥ सालोयणविउसग्गो सुत्तत्थं चोरियाए गेण्हतो। पुच्छाविणयविहीणो दितो वि य पुच्छमगणतो ॥ १६३ ॥ सालोचनव्युत्सर्गः सूत्रार्थ चुर्या गृह्णन् । पृच्छाविनयविहीनः ददत् अपि च पृच्छामगणयन् ।। सुत्तत्थमुवदिसतो असमाहिं सिक्खयाण जो कुणइ । सुदगुरुनिण्हवगो जो तस्स य खमणं हवदि छेदो॥१६४॥ सूत्रार्थमुपदिशन् असमाधि शिष्याणां यः करोति । श्रुतगुरुनिन्हवको यः तस्य च क्षमणं भवति च्छेदः ॥ सिक्खंतो सुत्तत्थं अणिमादो चेव गच्छदि परत्थं । कोहादिकारणेहिं तस्स चउत्थं हवे छेदो ॥ १६५ ॥ शिक्षन् सूत्रार्थ अनियमतः चैव गच्छति परत्र । क्रोधादिकारणैः तस्य चतुर्थं भवेच्छेदः ॥ संथारमसोहिंतस्स पयदअपयदचारिणो होति । खमणद्धं खमणं च य अण्णे खमणं च पणगं च ॥ १६६॥ संस्तरमशोधयतः प्रयत्नाप्रयत्नचारिणः भवंति । क्षमणार्ध क्षमणं च च अन्यस्मिन् क्षमणं च पंचकं च ॥ १ मूलकम्मं च. ख । २ सदेहेदूं. क । ३ दिति. ख । ददाति । ४ चेय. ख । चैव । Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायश्चित्तसंग्रहे णडे अयउवयरणे तस्सुच्छेहंगुलप्पमाणाई । खवणाई उति केई घणंगुलपमाणाई परे ॥ १६७ ॥ नष्टे अयउपकरणे तस्योत्सेधाङ्गुलप्रमाणानि । क्षमणनि ददति केचित् घनाङ्गुलप्रमाणानि परे ॥ जिणपडिमागमपोच्छयणासे खमणादिएगकल्लाणं । मणिरयणकणयपडिमाणासे पणगादिमासियं छेदो॥१६८।। जिनप्रतिमागमपुस्तकनाशे क्षमणाघेककल्याणं । मणिरत्नकनकप्रतिमानाशे पंचकादिमासिकं छेदः ॥ सेसुवयरणविणासे रूवादीणं च घादकरणे य । काउस्सग्गो छेदो मणदुप्परिणामकरणे य ॥१६९ ॥ शेषोपकरणविनाशे रूपादीनां च घातकरणे च।। कायोत्सर्गः छेदः मनोदुप्परिणामकरणे च ॥ जे वि य अण्णगणादो णियगणमज्झयणहेदुणायादा । तेसि पि तारिसाणं आलोयणमेव संसि (सु)द्धी॥ १७० ।। येऽपि च अन्यगणतः निजगणे अध्ययनहेतुना आयाताः । तेषामपि तादृशानां आलोचना एव संशुद्धिः ॥ आयरियादिरिसीहि य आणावियदीवयपवंचेण । सण्णासादिणिमित्तं जिणभवणं जइ पमाएण ॥ १७१ ॥ आचार्यादि-ऋषिभिः आज्ञापितदीपकप्रपंचेन । सन्यासादिनिमित्तं जिनभवनं यदि प्रमादेन ॥ , १ इदं गाथासूत्रं ख-पुस्तके १६१ गाथासूत्रतः पूर्व १६२ गाथासूत्रतश्च पवाद वर्तते । ३ इदं गाथासूत्रं ख-पुस्तकेऽत्र स्थले नास्ति । Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छेदपिण्डम् । दटुं हवेज्ज तो सो पक्खुववासं करेज संघवई । तिणि पडिकमणी पंच पंच उववासपरियंते ॥ १७२ ॥ दग्धं भवेत्तर्हि स पक्षोपवासं कुर्यात् संघपतिः । तिस्रः प्रतिक्रमणाः पंचपंचोपवासपर्यन्ताः ॥ अह जइ सत्तिविहीणो तो तिण्णि दुवालसाई कुणउ मुणी । तिणि पडिकमणंताई तप्पडिबद्धो तवो अहवा ॥ १७३ ॥ अथ यदि शक्तिविहीनः तर्हि त्रीन् उपवासान् करोतु मुनिः । त्रीणि प्रतिक्रमणान्तानि तत्प्रतिबद्धं तपोऽथवा ॥ चूलिका-इति चूलिका । आलोयण पडिकमणो उभय विवेगो तहा विउस्सग्गो । तव परियायच्छेदो मूलं परिहार सद्दहणा ॥ १७४ ॥ आलोचना प्रतिक्रमणं उभयं विवेकः तथा व्युत्सर्गः । तप पर्यायच्छेदः मूलं परिहारः श्रद्धानं ।। एवं दसविध समए पायच्छित्तं रिसीगणे भणियं । तं केरिसेसु दोसेसु जायदे इदि पयासेमो ॥ १७५ ॥ एवं दशविधं समये प्रायश्चित्तं ऋषिगणेन भणितम् । तत् कीदृशेषु दोषेषु जायते इति प्रकाशयामः ॥ आदावणादिजोगग्गहणं उब्भामगादिगमणं वा। गणिगणवसभादीणं अपुच्छमाणेण जेण कयं ॥ १७६॥ १ तिण्णि. ख । २ कमणे. ख । ३ अंता ख । अयं चूलिकाशब्दः क-पुस्तके १७३ गाथातः पूर्व १७२ गाथातः पश्चाच्च । ४ गणी ख १ समासदो ख । Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायश्चित्तसंग्रहे आतापनादियोगग्रहणं उद्भामकादिगमनं वा । गणिगणवृषभादीनां अपृच्छमानेन येन कृतं ॥ पोत्थयपिच्छकमंडलुवक्कलयादि परेसिमुवयरणं । तेसिं परोक्खदो णियकज्जेणुवभोगियं जेण ॥ १७७ ॥ पुस्तकपिच्छिकाकमंडलुवल्कलादि परेषां उपकरणं । तेषां परोक्षतः निजकार्येण उपभोगितं येन ॥ गणहरवसहादीणं भणियं ण कयं पमादेदोसेण । सो आलोयणमित्तेण सुज्झए गुरुसयासम्हि ॥ १७८ ॥ गणधरवृषभादीनां भणितं न कृतं प्रमाददोषेण । स आलोचनामात्रेण शुद्धयति गुरुसकाशे ॥ जे गच्छादो संहाँहिवादिकज्जेण निग्गया मुणिणो । पंचसमिदा तिगुत्ता जिदिदियपरीसहा वीरा ॥ १७९ ॥ ये गच्छतः संघाधिपतिकार्येण निर्गता मुनयः । पंचसमिताः त्रिगुप्ता जितेन्द्रियपरीषहा वीराः ॥ पंथादिचारपमुहादिचारं संसोधया हु तद्दियहं । तेसिं पुणागयाणं आलोयणमेव संसोही ॥ १८० ॥ पथ्यतिचारप्रमुखातिचारं संशोधका हि तदिवसं । तेषां पुनरागतानां आलोचनमेव संशुद्धिः ॥ जे वि य अण्णगणादो णियगणमज्झयणहेदुणायादा। तेसि पि तारिसाणं आलोयणमेव संसुद्धी॥ १८१ ॥ १ पमाददो जेण, ख। प्रमादतः येन । २ घा. ख । ३ धीरा. ख । ४ इर्द गाथासूत्रं पूर्वमपि ( १७० ) आगतं । Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छेदपिण्डम् । येऽपि च अन्यगणतो निजगणे अध्ययनहेतुना आयाताः । तेषामपि तादृशानां आलोचना एव संशुद्धिः ॥ आलोयणं-इत्यालोचना । - मणवयणकायदुप्परिणामो अप्पाणयम्मि अप्पदरो। जस्सुप्पण्णो जेण य साधम्मीए ण विहीओ विणओ॥१८२॥ मनवचनकायदुष्परिणामः आत्मनि अल्पतरः । यस्योत्पन्नः येन च सधर्मके न विहितो विनयः ॥ आयरियादिसु णियहत्थपायसंघट्टणं च जेण कयं । मिच्छा मे दुक्कडमिदि पडिक्कमणेण विसुज्झदि सो॥१८३३ आचार्यादिषु निजहस्तपादसंघट्टनं च येन कृतं । मिथ्या मे दुष्कृतं इति प्रतिक्रमणेन विशुद्धयति सः ॥ दिवसियरादियगोयरणिसीधिकागमणसंभवमलेसु । तं णियमकरणमेत्तं पडिकमणं होइ सुद्धियरं ॥ १८४ ॥ दैवसिकरात्रिकगोचरनिषेधिकागमनसंभवमलेषु । तन्नियमकरणमात्रं प्रतिक्रमणं भवति शुद्धिकरं ॥ पंचसु महव्वएसु य समिदीगुत्तीसु थोवअदिचारे । तह कोहमाणमायालोहेसु फुडं उदिण्णेसु ॥ १८५ ॥ पंचसु महाव्रतेषु च समितिगुप्तिषु स्तोकातिचारे । तथा क्रोधमानमायालोभेषु स्फुटं उदीर्णेषु ॥ १ अणयम्मि क । २ अदिण्णेसु. ख । Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० प्रायश्चित्तसंग्रहे चखिदियादिदुष्परिणामे पेसुण्णकलह अब्भक्खाणे | वेज्जाविञ्चपमादे सज्झायझाणवाघादे ॥ १८६ ॥ चक्षुरिन्द्रियादिदुष्परिणामे पैशून्यकलहाभ्याख्याने । वैयावृत्यप्रमादे स्वाध्यायाध्ययनव्याघाते || गोयरगयस्स लिंगुटाणे अण्णस्स संकिलेसे य । जिंदणगरहणजुत्तो नियमो वि य होदि पडिकमणं ॥ १८७ ॥ गोचरगतस्य लिंगोत्थाने अन्यस्य संक्केशे च । निन्दनगर्हणयुक्तः नियमोऽपि भवति प्रतिक्रमणं ॥ पडिकमणं - इति प्रतिक्रमणं । लोचणहछेदसुमिर्णिदियादिचारेगकोसगमणेसु । सुमिणणिसिमोयणे वियनियमो आलोयणा उभयं ॥ १८८ ॥ लोचनखच्छेदस्वप्नेन्द्रियातिचारैककोशगमनेषु । स्वप्ननिशिभोजनेऽपि च नियमः आलोचना उभयं ॥ पक्खियचाउम्मासिय संवच्छ रियादिदो ससुद्धियरं । आलोयणापुरस्सर पडिकमणणिसामणं उभयं ॥ १८९ ॥ पाक्षिकचातुर्मासिकसांवत्सरिकादिदोषशुद्धिकरं । आलोचनापुरःसरं प्रतिक्रमणनिशामनं उभयं ॥ उभयं - इत्युभयं । पिंडोवधिसेज्जाओ अजाणमाणेण जदि असुद्धाओ । गिहिदाओ तो णादे ताण विवेगो परिचागो ॥ १९० ॥ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छेदपिण्डम् | पिंडोपधिशय्याः अजानमानेन यदि अशुद्धाः । गृहीताः तदा ज्ञाते तासां विवेकः परित्यागः ॥ सुद्धम्मि अण्णपणे सुद्धमसुद्धं ति जणियसंदेहो । अहवा असुद्ध ति वियप्पिदे विवेगो परिच्चागो ॥ १९१ ॥ शुद्धे अन्नपाने शुद्धं अशुद्धं इति जनितसंदेहः । अथवा अशुद्धमिति विकल्पिते विवेकः परित्यागः ॥ जं वहिं सेज्जं पडि उप्पज्जदि अप्पणो कसायग्गी । तम्मि हवे परिहरिदे पायच्छित्तं विवेगोन्ति ॥ १९२ ॥ यमुपधिं शय्यां प्रति उत्पद्यते आत्मनः कषायाग्निः । तस्मिन् भवेत् परिहृते प्रायश्चित्तं विवेक इति ॥ पञ्चक्खियअण्णपणे भायणपाणीमुहेसु संपत्ते । देसेण य सव्वेण य विकिंचमाणे विहु विवेगो ॥ १९३ ॥ प्रत्याख्यातान्नपाने भाजनपाणिमुखेषु सम्प्राप्ते | देशेन च सर्वेण च विकिंचमानेऽपि हि विवेकः ॥ विवेगो - इति विवेकः । लोचाहियास ( अ ) विरहे उदरकिमिणिग्गमणे मिहिगादंसमसगादिजंतुमहावादसणिपातोपचारे य ॥ १९४ ॥ लोचाभिजातविरहे उदरकृमिनिर्गमने मिहिका - दंशमशकादिजन्तुमहावातसन्निपातेोपचारे च ॥ १ लोचादहामविरहे. ख । ४१ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ प्रायश्चित्तसंग्रहे ससिणिद्धभूमिगमणे हरिदतणादीणमुवरि चंकमिदे। पंकन्भंतरगमणे जाणुमिदजलप्पवेसे य ॥ १९५ ॥ सस्निग्धभूमिगमने हरिततृणादीनामुपरि चंक्रमिते । पंकाभ्यन्तरगमने जानुमितजलप्रवेशे च ॥ अण्णणिमित्तपउंजिददोणीणावादिणा णदीतरणे । उच्चारं पस्सवणं काऊणं उववासयागमणे ॥ १९६ ॥ अन्यनिमित्तप्रयुक्तद्रोणीनावादिना नदीतरणे । उच्चारं प्रस्त्रवणं कृत्वा उपवासकागमने ॥ पोत्थयजिणपडिमाफोडणम्मि पंचविहथावरविघादे। रत्तीए असमदेखिददेसे तणुमलविसग्गे य ॥ १९७ ।। पुस्तकजिनप्रतिमास्फोटने पंचविधस्थावरविघाते । रात्रौ अदृष्टदेशे तनुमलविसर्गे च ॥ एक्को काउस्सग्गो पायच्छित्तं जिणेहिं पण्णत्तं । वितिचउरिंदियघादे वियतियचउरो विउस्सग्गा ॥१९८ ॥ एकः कायोत्सर्गः प्रायश्चित्तं जिनैः प्रज्ञप्तं ।। द्वित्रिचतुरिन्द्रियघाते द्विकत्रिकचत्वारो व्युत्सर्गाः ।। उज्जोए पडिलिहियं दाउं संथारयं णिसि पसुत्तो। उन्वत्तणपरियत्तणणिग्गमणविवज्जिदो पयदो ॥ १९९ ।। उद्योते प्रतिलेखित्तं आदाय सस्तरकं निशि प्रसुप्तः । उद्वर्तनपरिवर्तननिर्गमनविवर्जितः प्रयत्नः ॥ १ य वासयागमणे ख । २ पाडणम्मि. ख, पातने । Tona! Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छेदपिण्डम् । ४३३ जदि संथारसमीवे पेच्छइ पंचिंदियं मुदं सूरुदये । तो तस्स हवे छेदो पंचविउस्सग्गपरिमाणो ॥२०० ॥ यदि संस्तरसमीपे प्रेक्षते पंचेन्द्रियं मृतं सूर्योदये । तर्हि तस्य भवेच्छेदः पंचव्युत्सर्गपरिमाणः ॥ दिवसियरादियपक्खियचउमासियवरिसयादिकिरियाणं । चरिमे ऊणक्खूणणिमित्तं एगो विउस्सग्गो ॥ २०१॥ दैवसिरात्रिकपाक्षिकचातुर्मासिकवार्षिकादिक्रियाणां । चरमे उनाधिक्यनिमित्तं एको व्युत्सर्गः ॥ सिद्धंतसुणणवक्खाणावसाणे अंगपहुदिपुव्वाणं । परियट्टणावसाणे ऊर्णखूणणिमित्तं विउस्सग्गो॥ २०२ ।। सिद्धान्तश्रवणव्याख्यानावसाने अंगप्रभृतिपूर्वाणां । परिवर्तनावसाने ऊनाधिक्यनिमित्तं व्युत्सर्गः ॥ विउसग्गो इति व्युत्सर्गः । णिव्वियडी पुरिमंडल आयंबिलमेयठाण खमणमिदि । एसो तवोत्ति भणिओ तवोविहाणप्पहाणेहि ॥ २०३ ॥ निर्विकृतिः पुरिमंडलं आचाम्लं एकस्थानं क्षमणमिति । एतत्तप इति भणितः तपोविधानप्रधानैः ॥ पुध पुध वा मिस्सो वा उग्घाडो वा तहा अणुग्घाडो। छम्मासेहिं य परदो णस्थि तवो वीरजिणतित्थे ॥२०४॥ १ अंगपुव्वपहुदीणं. ख । २. ऊण इति क-पुस्तके नास्ति । Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ प्रायश्चित्तसंग्रहे प्रथक् पृथग्वा मिश्रं वा उद्घाटं वा तथा अनुद्धाटं । षण्मासैश्च परतः नास्ति तपो वीरजिनतीर्थे । उग्घाडो संतरिदो वीसमणजुदो तदण्णहा इदरो। वाहिगिलाणादीणं पढमो इदराण पुण इदरो ॥ २०५॥ उद्घाटं सान्तरितं विश्रमणयुक्तं तदन्यथा इतरत् । व्याधिग्लानादीनां प्रथमं इतरेषां पुनः इतरत् ॥ उध्वत्तण परियत्तण कंडूवण उटणं पसारणयं । कुव्वंतो अपमज्जिददेहो पणयारिहो होई ॥ २०६ ॥ उद्वर्तनं परिवर्तनं कंडूयनं आकुंचनं प्रसारणं । कुर्वन् अप्रमार्जितदेहः पंचका) भवति ॥ कुटुं खंभं भूमि वक्कलयादीण अप्पडिलिहित्ता। आमासइ उहंघइ वइसइ तो होइ पणयं से ॥ २०७॥ कुड्यं स्तम्भं भूमि वल्कलादींश्च अप्रतिलिख्य । आश्रयति उत्तिष्ठति वसति तर्हि भवति पंचकं तस्य ॥ वियडिं तिण कटुं वा रादो व दिया व अप्पडिलिहित्ता । गेण्हंतो चालंतो पणयरिहो कप्पववहारे ॥ २०८ ॥ वियडिं तृणं काष्ठं वा रात्रौ दिवि वा अप्रतिलिख्य । गृह्णन् चालयन् पंचकाहः कल्पव्यवहारे ॥ उच्चारं पस्सवणं कलिं च पासाणवियडियादीयं । अपमज्जिददेसम्मि विचिंतो होइ पणयरिहो । २०९॥ १ कंडूअणा. क । २ सोइ. क । ३ सो. ख । Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छेदपिण्डम् । ४५ उच्चारं प्रस्रवणं कलिं च पाषाणवियडिकादिकं । अप्रमार्जितदेशे विकुर्वन् भवति पंचकाहः ॥ कंटय कलिं च पासाणछल्लितणकटुखप्परादीयं । अंगुलिणहदंतेहिं छिदंतो होइ पणयरिहो ॥२१०॥ कंटकान् कलिं च पाषाणत्वक्तृणकाष्ठखर्परादिकं । अंगुलिनखदन्तैः छिन्दन् भवति पंचकाहः ॥ पायच्छित्तं दिण्णं कुव्वंतो जदा अंतरिज रोगेण । तो णीरोगो संतो पणयरिहो कप्पववहारे ॥ २११ ॥ प्रायश्चित्तं दत्तं कुर्वन् यदा अन्तरियात् रोगेण । तर्हि नीरोगः सन् पंचकाहः कल्पव्यवहारे ॥ पायच्छित्तं दिण्णं कुव्वंतो जो सदेसपरदेसे । गुरुकजं साधिजो महल्लयं तस्त आयस्स ॥ २१२ ॥ प्रायश्चित्तं दत्तं कुर्वन् यः स्वदेशपरदेशे । गुरुकार्य साधयति महत् तस्य आगतस्य ॥ पुवपदिण्णं पायच्छित्तं छंडाविऊण पणयं तु । वायव्वमेव गुरुणा इय भणियं कप्पववहारे ॥ २१३ ॥ पूर्वप्रदत्तं प्रायश्चित्तं त्याजयित्वा पंचकं तु। दातव्यमेव गुरुणा इति भणितं कल्पव्यवहारे ॥ उप्पण्णं पि कसाए मिच्छाकारो न तक्खणे कुज्जा। पणय महोरत्तगदे तेण परं मासियं छेदो ॥ २१४ ॥ १ इदं गाथासूत्रं ख-पुस्तके नास्ति । Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायश्चित्तसंग्रहे उत्पन्नेऽपि कषाये मिथ्याकारं न तत्क्षणे कुर्यात् । पंचकं मुहूर्तगते तेन परं मासिकं छेदः ॥ चसहिय दुवारमूले रादो पंचेंदियो मदो दिहो। जावदिया णीसरिदा पविसंतो एककल्लाणं ॥ २१५ ॥ उषित्वा द्वारमूले रात्रौ पंचेन्द्रियो मृतो दृष्टः । यावन्तः निःसरिताः प्रविशन्तः एककल्याणं ॥ पणयं-इति पंचकं । णखहरणादि-छुरियादि-वासियादि-कुटारियादीहिं । दंडादिहिं छिंदतो लहुगुरुयामासचउमासा ॥ २१६ ॥ नखहरणादि-छुरिकादि-वास्यादि-कुठारादिभिः । दण्डादिभिः छिन्दन् लघुगुरुमासचतुर्मासाः ॥ मणिबंधचरणबाहुपसारणं जो करावइ परेहिं । एय दु करेदि तस्स य लहुगुरुयामासचउमासा ॥ २१७ ॥ मणिबन्धचरणबाहुप्रसारणं यः कारयति परैः । एतत्तु करोति तस्य च लघुगुरुमासचतुर्मासाः ॥ चूरेइ हत्थपत्थरमुग्गरमुसलेहिं एय दु करेहिं । जो इट्टयादिगं से लहुगुरुआमासचउमासा ॥२१८॥ चूरयति हस्तप्रस्तरमुद्गरमुसलैः एतत्तु करोति । यः इष्टकादिकं तस्य लघुगुरुमासचतुर्मासाः ॥ मासियं चउमासियं-इति मासिक चतुर्मासिकं । १ इयं गाथा ख-पुस्तके नास्ति। २ तो. पुस्तके पाठः । Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छेदपिण्डम् । ४७ अइ वालवुड्डदासेरगम्भिणीसंढकारुगादीणं । पवजा दितस्स हु छग्गुरुमासा हवदि छेदो ॥ २१९॥ अतिवालवृद्धदासेरगर्भिणीषंढकार्वादीनां । प्रव्रज्यां ददतः हि षड्गुरुमासा भवति च्छेदः । विति परे एदेसु व कारुग णिग्गंथदिक्खणे गुरुणो । गुरुमासो दायब्वो तस्स य णिग्घाडणं तह य ॥ २२० । ब्रुवन्ति परे एतेषु च कारुषु निर्ग्रन्थदीक्षादायिने गुरवे । गुरुमासो दातव्यः तस्य च निर्घाटनं तथा च ॥ णावियकुलालतेलियसालियकल्लाललोहयाराणं । मालारप्पहुदीणं तवदाणे विणि गुरुमासा ॥ २२१ ॥ नापितकुलालतैलिकशालिककलवारलोहकाराणां । मालाकारप्रभृतीनां तपोदाने द्वौ गुरुमासौ ॥ चम्मारवरुडछिपियखत्तियरजगादिगाण चत्तारि । कोसट्टयपारद्धियपासियसावणियकोलयादिसु अटुं ॥ २२२॥ चर्मकारवरुटपिकतक्षकरनकादिकानां चत्वारः । कोशरकपारर्धिकपाश्चिकश्रावणिककोलिकादिषु अष्टौ ॥ चंडालादिसु सोलस गुरुमासा वाहडोंववाउरियाप्पहुदीणं बत्तीसं गुरुमासा होत तवदाणे ॥ २२॥ चंडालादिषु षोडशगुरुमासा व्याधडोम्बवागुरिक प्रभृतीनां द्वात्रिंशद्गुरुमासा भवन्ति तपोदाने ॥ चउसही गुरुमासा गोक्खयमायंगखट्टिकादीणं । णिग्गंथदिक्खदाणे पायछित्तं समुदिटुं ॥ २२४ ॥ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ प्रायश्चित्तसंग्रहे चतुषष्ठिः गुरुमासाः गोक्षयमातंगखटिकादीनां । निर्ग्रन्थदीक्षादाने प्रायश्चित्तं समुद्दिष्टं ॥ कप्पव्यवहारे पुण छम्मासेहिं परं तु णत्थि तथो । इह वढमाणतित्थे तेण य छम्मासियं दिण्णं ॥ २२५ ॥ कल्पव्यवहारे पुनः षण्मासैः परं तु नास्ति तपः । इह वर्धमानतीर्थे तेन च षण्मासिकं दत्तं ॥ : छम्मा सियं - इति षाण्मासिकं । अण्णं वि य मूलुत्तरगुणादिचारेसु पुव्वमवि य तत्रो । वृत्त जहारिहमिदो पुरिसे अधिकिच्चे पुण भणिमो ॥ २२६ ॥ अन्यदपि च मूलोत्तरगुणातिचारेषु पूर्वमपि च तपः । उक्तं यथार्हं इतः पुरुषान् अधिकृत्य पुनः भणामः ॥ आगाढाधंच्चपयत्तचारिअणुविचिणो सपडिवक्खा । अट णरा होंति पुणो सोलसधा अक्खसंचारे ॥ २२७ ॥ आगाढ........ प्रयत्नचार्यनुवीचीकाः सप्रतिपक्षाः । अष्टौ नरा भवन्ति पुनः षोडशधा अक्षसंचारे ॥ १ अविकिच्छामिह भणिमो. क । २ वच्च स । ३ यणुवीचीणो. ख । ४ अस्माद ख - पुस्तके इदं गाथासूत्रं उपलभ्यते । पढमक्खे अंतगदे आदिगदे संकमे (दि) विदियक्खो । विष्णि वि गंतूणंत आदिगदे संकमेदि ( तदि ) यक्खो ॥ प्रथमाक्षे अन्तगते आद्यागते संक्रामति द्वितीयाक्षः । द्वावपि गत्वान्तं आद्यागते संक्रामति तृतीयाक्षः ॥ गाथेयं गोम्मटसारेऽपि वर्तते प्रमादसंख्या गणनावसरे । Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छेदपिण्डम् । णिवियडिआदिया जे पुव्वुत्ता पंचएक्कतीसंते । अक्खाणं संचारेणं होंति ते इह विहं जोगे ॥ २२८॥ निर्विकृत्यादिका ये पूर्वोक्ताः पंचैकत्रिंशदन्ताः । अक्षाणां संचारेण भवन्ति ते इह विधं योगे ॥ पढमो सुद्धो सोलससु सेसपण्णारसा णरा कमसो। पण्णारसतबसलामा पढमादीया अशुचरति ॥ २२९ ॥ प्रथमः शुद्धः षोडशेषु शेषपंचदश नराः क्रमशः । पंचदशतपःशलाकाः प्रथमादिका अनुचरन्ति ।। अवसेसतवसलागा सोलस पुवुत्तअहपुरिसा वि। दो दो चरंति एवं दक्षिणमग्गो समुदिहो ॥ २३० ॥ अवशेषतपःशलाकाः षोडशाः पूर्वोक्ताष्टपुरुषा अपि । द्वे द्वे चरन्ति एवं दक्षिणमार्गो समुद्दिष्टः ॥ उत्तरमग्गेण पढमो एयं सेसा चरति दो दो य। अटण्हं आइल्लो तिण्णि य चत्तारि अवसेसा ॥ २३१ ॥ उत्तरमार्गेण प्रथमः एका शेषाः चरन्ति द्वे द्वे च । अष्टानां आदिमः तिस्रः च चतस्रः अवशेषाः ॥ अहवा पढमे पक्खे दसेसु दो दो य तिणि सोलसमे । मिस्ससलागा देया ताण टाणं सुणह कमेण ॥ २३२ ॥ अथवा प्रथमे पक्षे दशसु द्वे द्वे च तिस्रः षोडशे । मिश्रशलाका देयाः तासां स्थानं शणुत क्रमेण ॥ १ संचारे. ख-ग । २ विभजेगो. ख-ग । Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायश्चित्तसंग्रहे णवमी छब्बीसदिमा पढम दुइज्जा य पण्णरस तीसा । छट्ठी तेरसमी वि य चोद्दसी सत्तवीसदिमा ॥ २३३ ।। नवमी षडिंशतितमी प्रथमा द्वितीया च पंचदशी त्रिंशत्तमी । षष्ठी त्रयोदशमी अपि च चतुर्दशमी सप्तविंशतितमी ॥ सोलस बावीसदिमा बारस अडवीसिमा तिय चउत्थी। चउवीसिमा पणवीसा अटुमि एयारसी चेव ॥ २३४॥ षोडशी द्वाविंशतितमी द्वादशमी अष्टाविंशतितमी तृतीया। चतुर्थी, चतुर्विशतितमी पंचविंशतितमी अष्टमी एकादशमी ॥ अटारस वीसदिमा सत्तम दसमी य एकवीसदिमा । तेवीसदिमा सत्तारसी य एऊणवीसदिमा ॥ २३५ ॥ अष्टादशमी विंशतितमी सप्तमी दशमी च एकविंशतितमी । त्रयोविंशतितमी सप्तदशमी च एकोनविंशतितमी ॥ पंचम उगुतीसदिमा इगितीसदिमा य होंति सोलसमे । मिस्ससलागा गेण्हह इगिदुतिचंउपंचसंजोगे ॥ २३६ !! पंचमी एकोनत्रिंशत्तमी एकत्रिंशत्तमी च भवंति षोडशे । मिश्रशलाकाः ग्रहाण एकद्वित्रिचतुःपंचसंयोगे ॥ अटण्हं आदिण्णे मिस्ससलागाउ तिणि दायया । सेसाणं चत्तारि य पुध पुध ताणं सुणसु ठाणं ॥ २३७ ॥ अष्टानां आदिमे मिश्रशलाकाः तिस्रो दातव्याः । शेषानां चतस्रः च पृथक् पृथक् तेषां शृणुत स्थानं ॥ पढम दुइज्ज तइज्जा चउ पंचमिया य छह तेरसमी। सत्तम अहम चोद्दसमी वि य पण्णारसी चेव ॥ २३८ ॥ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छेदपिण्डम् | प्रथमा द्वितीया तृतीया चतुर्थी पंचमी षष्ठी त्रयोदशमी । सप्तमी अष्टमी चतुर्दशमी अपि च पंचदशमी एव ॥ णवदस एक्कारसमी य बारसमी तह य चेव सोलसमी । अट्टारसमी वावीसिमा य पुणु वीसिमा चेव ॥ २३९ ॥ नवदशैकादशमी च द्वादशमी तथा चैव षोडशी । अष्टादशमी द्वाविंशतितमी च पुनः विंशतितमी एव ॥ सत्तारसमी एगूणवीसिमा य चडवीसा । afaaiसदिमा तेबीसिमा य छब्बीसतीसदिमा ॥ २४० ॥ सप्तदशी एकोनविंशतितमी च चतुर्विंशतितमी । एकविंशतितमी त्रयोविंशतितमी च षडिंशतित्रिंशत्तम्यौ ॥ सत्तावीसदिमा वि य अट्ठावीसा य ऊणतीसदिमा । इगतीसदिमा य इमा मिस्ससलायाउ अहं ॥ २४९ ॥ सप्तविंशतितमी अपि च अष्टाविंशतितमी चैकोनत्रिंशत्तमी । एकत्रिंशत्तमी च इमा मिश्रशलाका अष्टानां ॥ अप्पप्पणोसलागापडिबद्धतवं करिंतु एयटुं । सव्वत्थ वि तवसंखा दायव्वा बुद्धिमतेण ॥ २४२ ॥ स्वस्वशलाकाप्रतिबद्धतपः कर्तुः एकार्थम् । सर्वत्रापि तपःसंख्या दातव्या बुद्धिमता ॥ तवो - इति तपः । तव भूमिमदिक्कतो मूलद्वाणं च जो ण संपत्तो । से परियायच्छेदो पायच्छितं समुद्दिट्टं ॥ २४३ ॥ ५१ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायश्चित्तसंग्रहे .... . . तपोभूमिमतिक्रामन् मूलस्थानं च यः न संप्राप्तः । तस्य पर्यायच्छेदः प्रायश्चित्तं समुद्दिष्टं ॥ णियगच्छादो णिग्गय एगागी विहरिऊण पुण आणं । जेतियकालपमाणा पवजा छिज्जए तस्स ॥ २४४॥ निजगच्छतो निर्गत्य एकाकी विहृत्य पुनः आगमनं । यावत्कालप्रमाणा प्रव्रज्या छिद्यते तस्य ॥ पुव्वं जहुत्तचारी पच्छा पासत्थभावमुववण्णो । जेत्तियकालं विहरदि मुक्कधुरो सो समण्ण पुणो ॥ २४५ ॥ पूर्व यथोक्तचारी पश्चात् पार्श्वस्थभावमुपपन्नः । यावत्कालं विहरति मुक्तधुरः स श्रमणः पुनः ॥ तेत्तियकालपमाणा पव्वज्जा तस्स छिज्जदि जदिस्स। पासत्थभावमुक्कुस्सुववण्णसुणिम्मलचरित्तं ॥ २४६ ।। तावत्कालप्रमाणा प्रव्रज्या तस्य छिद्यते यतेः । पार्श्वस्थभावमुक्तस्य उत्पन्नसुनिर्मलचरित्रस्य ॥ तस्सिसाणं सोही सगणत्याइरियणामगहणेण । लोचं काऊण तदो पडिकमणं कुणउ ण हु अण्णं ॥ २४७॥ तस्य शिष्यानां शुद्धिः स्वगणस्थाचार्यनामग्रहणेन । लोचं कृत्वा तदा प्रतिक्रमणं करोतु न हि अन्यत् ।। पासत्थादीहिं समं आचरंतो सगिप्पमादेण । छम्मासभंतरदो जदि तद्दोसे णिसेवदि सो ॥ २४८॥ १तकाल. ख-ग। २ धरो. ख-ग । ३ समणपोलो ख-ग । ४ चा. क.। ___ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छेदपिण्डम् । ५३ पार्श्वस्थादिभिः समं आचरन् स्वकप्रमादेन । षण्मासाभ्यन्तरतो यदि तद्दोषान् निषेवते सः ॥ तो से तवसा सुद्धी छम्मासेहिं परं तु कायव्वा । तं पव्वज्जाछेदो गुरुमूलमुवागयस्स पुणो ॥ २४९ ॥ तर्हि तस्य तपसा शुद्धिः षण्मासैः परं तु कर्तव्या । तत्प्रव्रज्याछेदो गुरुमूलमुपागतस्य पुनः ॥ कलह काऊण खमावणमकाऊण एगदिविस रिसी। जदि वसदि णियगणे तस्स पंचदिवसियतवछेदो ॥२५०॥ कलहं कृत्वा क्षमापनं अकृत्वा एकदिवसं ऋषिः । यदि वसति निजगणे तस्य पंचदैवसिकतपश्छेदः ॥ पलायरियस्स दिणाण दस आयरियस्स पण्णरसदिवसा। छिज्जति परगणगरास्स पुण दसपण्णरसवीसदिणा ।। २५१ ॥ एलाचार्यस्य दिनानां दशाचार्यस्य पंचदशदिवमानि । छिद्यन्ते परगणगतस्य पुनः दशपंचदशविंशतिदिनानि ॥ एवं जेत्तियदिवसा अखमावितो सगण परगणे वा। अत्थंति ततो तेत्तिशदिवसगुणो ताण तवछेदो ॥ २५२॥ एवं यावदिवसानि अक्षमापयन् स्वगणे परगणे वा । तिष्ठन्ति ततः तावदिवसगुणः तेषां तपश्छेदः ।। __ छेदो-इति च्छेदः । - मो अपरिमिदपराधो तबछेदेण विणा सुद्धिमुवयादि । संभोगकरणजोगो मूलखिदी दिज्जदे तस्स ॥ २५३ ॥ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ प्रायश्चित्तसंग्रहे योऽपरिमितपराधः तपश्छेदेन विना शुद्धिमुपयाति । संभोगकरणयोग्यः मूलक्षितिः दीयते तम्य ।। पंचमहव्वदभट्ठो छावासयवज्जिदो णिरणुतावी । उस्सुत्तकारउ तह सच्छंदो मूलखिदिमेदि ॥ २५४ ॥ पंचमहाव्रतभ्रष्टः षडावश्यकवर्जितः निरनुतापी । उत्सूत्रकारकः तथा स्वच्छंदः मूलक्षितिमेति ॥ पासत्थादी चउरो तप्पासे जे परे च पव्वइदा । ते सव्वे वि य मूलहाणं पावति हु णियत्ता ॥ २५५ ॥ पार्श्वस्थादयश्चत्वारः तत्पावें ये परे च प्रव्रजिताः । ते सर्वेऽपि च मूलस्थानं प्राप्नुवन्ति हि निवृत्ताः ॥ तस्सिस्साणं सुद्धी सगणत्थायरियणामगहणेण । लोच्चं काऊण तदो पडिकमणं कुणह ण हु अण्णं ॥ २५६ ॥ तच्छिष्यानां शुद्धिः स्वगणस्थाचार्यनामग्रहणेन । लोचं कृत्वा ततः प्रतिक्रमणं करोतु न हि अन्यत् ॥ संघाहिवस्स मूलं पत्तस्स वि दिज्जदे ण मूलखिदी। उड्डाहपसमणत्थं बहुजणमाधारदाएया ॥ २५७ ॥ संघाधिपतेः मूलं प्राप्तस्य अपि न दीयते मूलक्षितिः । उद्दाहप्रशमनार्थ बहुजनमाधारदायकाः ॥ जदि आयरिओ छेदं च मूलभूमिं च पत्तओ मरणं । तो तस्स जहाजोग्गं छेदो मूलं च दायव्वं ॥ २५८ ॥ १ इदं गाथासूत्रं ख-ग पुस्तके नास्ति । पूर्वमप्यागतं ५२ पृष्टे । Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छेदपिण्डम् । यदि आचार्यः छेदं मूलभूमिं च प्राप्तः मरणं । तर्हि तस्य यथायोग्यं छेदः मूलं च दातव्यं ।। कालम्मि असंपहुत्ते पत्तो छेदं च मूलभूमिं च जदि आयरिओ तो से तवसुद्धी चेव दायव्वा ॥ २५९ ॥ ___ कालेऽसंप्राप्ते प्राप्तः छेदं च मूलभूमि च ।। यदि आचार्यः तर्हि तस्य तपःशुद्धिः चैव दातव्या ॥ दिजदि तवो वि संठाणादीछम्मासखमणपेरंतो। अवि सत्तमासपेरंतो वा अण्णं ण दायव्यं ॥ २६० ॥ दीयते तपोऽपि संस्थानादिषण्मासक्षमणपर्यन्तं । अपि सप्तमासपर्यन्तं वा अन्यन्न दातव्यं ॥ आयरियस्स दु मूलं दितो सयमेव मूलभूमी सो । पावदि उड्डाहकरो धम्मस्स जसोवहकरो सो ॥ २६१ ॥ आचार्यस्य तु मूलं ददन् स्वयमेव मूलभूमि सः । प्राप्नोति उद्दाहकरः धर्मस्य यशोवधकरः सः॥ मूलं-इति मूलम् । मूलखिदी बोलीणो सहसंभोगस्स जो य जोगो दु । सो पावदि परिहारं पायच्छिवं ति विति जिणा ॥ २६२ ॥ मूलक्षितिं त्यक्त्वा सहसंभोगस्य यश्च (अ) योग्यस्तु । स प्राप्नोति परिहारं प्रायश्चित्तं इति ब्रुवन्ति जिनाः ॥ तं पि अ अणुपटावणपारंचिगभेददो हवे दुविहं । सगणपरगणविभेदेणिह अणुपहावणं दुविहं ॥ २६३ ॥ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायश्चित्तसंग्रहे तदपि च अनुपस्थापनपारंचिकभेदतः भवेद्विविधं । स्वगणपरगणविभेदेनेह अनुपस्थापनं द्विविधं ॥ अण्णरिसीणं च दु रिसिं गिहत्थं च अण्णतिथि वा। इत्थि वा तेणितो मुणिणो पहणंतओ वि तहा ॥ २६४ ॥ अन्यर्षीणां च तु ऋषि गृहस्थं च अन्यतीर्थ्य वा । स्त्रीं वा स्तेनयन् मुनीन् प्रहरन्नपि तथा ॥ अण्णे वि एवमादी दोसे सेवंतओ पमादेण। पावइ अणुपडवणं णियगणपडिबद्धयं साहू ॥ २६५ ॥ अन्यानपि एवमादिकान् दोषान् सेवमानः प्रमादेन । प्राप्नोति अनुपस्थापनं निजगणप्रतिबद्धकं साधुः ॥ तत्थ रिसिसमुदायटिदपरिसुत्तादो बहिम्मि बत्तीसं। दंडेसु वसदि पिच्छं परंमुहं कुंडियासहियं ॥ २६६ ॥ तत्र ऋषिसमुदायस्थितपरिषत्तः बहिः द्वात्रिंशति । ___ दंडेषु वसति पिच्छं पराङ्मुखं कुडिकासहितं ॥ पुरिदो धारिदऽचेलयपहुदीणं बंदणं करोदि सयं । ते पुण वंदति ण तं गुरूणमालोचए एक्को ॥ २६७ ॥ पुरतः धृताचेलकप्रभृतीनां वन्दनां करोति स्वयं । ते पुनः वन्दन्ते न तं गुरुं आलोचयेदेकम् ।। बारसवरिसाणेवं मोणवदी पंच पंच उववासे । काऊण य पारितो गमइ जहण्णण सो साहू ॥२६८ ॥ १ ऋष्याश्रमादित्यर्थः । Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छेदपिण्डम् | द्वादशवर्षान् एवं मौनव्रती पंच पंच उपवासान् । कृत्वा च पारयन् गमयति जघन्येन स साधुः ॥ उक्क सेणं छछम्मासे उववासिऊण पारितो । गमइ वरिसाणि बारिल अणुपट्टवगो गणणिबद्धो ॥ २६९ ॥ उत्कृष्टेन षण्मासान् उपोप्य पारयन् । गमयति वर्षाणि द्वादश अनुपस्थापको गणनिबद्धः ॥ सगणी - इति स्वगणानुपस्थानम् । परगणअणुपटूवगो वि एरिसो चेव किं तु जम्मि गणे । उप्पण्णा ते दोसा दप्पादीरहिं पुव्वुत्ता ॥ २७० ॥ परगणानुपस्थापकोऽपि एतादृशश्चैव किन्तु यस्मिन् गणे । उत्पन्ना ते दोषा दर्पादिकैः पूर्वोक्ताः । तेणायरिएण य सो परगणमणुपड विज्जदे साहू | तत्थतणाइरियंते आलोचदि सो तदो दोसे ॥ २७९ ॥ तेनानार्येण च स परगणं अनुपस्थाप्यते साधुः । तत्रत्याचार्यान्ते आलोचयति स ततः दोषान् ॥ आलोयणं सुणित्ता पायच्छित्तं ण दितपण पुणो । तेण वि आयरिएणं अण्णत्थणुपट्टविज्जदि जदि सो ॥ २७२ ॥ आलोचनं श्रुत्वा प्रायश्चित्तं न ददता पुनः । तेनापि आचार्येण अन्यत्र अनुस्थाप्यते यतिः सः ॥ तेण वि अण्णत्वं तिष्णि य चत्तारिपंचछस्सत्ता । आयरियाण समीवे अणुपहाविज्जदे कमसो ॥ २७३ ॥ ५७ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायश्चित्तसंग्रहे तेनापि अन्यत्रैवं त्रिचतुःपंचषट्सप्तानां । आचार्याणां समीपे अनुपस्थाप्यते क्रमशः ॥ पच्छिमगणिणा वि पुणो पुवुत्तालोचिदायरियपासं । अणुपट्टविदो संतो णियंत्तिदूणेदि तप्पासं ॥ २७४ ॥ पश्चिमगणिनापि पुनः पूर्वोक्तालेोचिताचार्यपार्श्व । अनुपस्थापितः सन् निवृत्यैति तत्पार्श्व ॥ सो वि जहण्णं मज्झिममुक्कसं वा पुरोदिदं छेदं । दाउं तस्लायरिओ चरावए पुव्वविधिणेव ॥ २७५ ॥ सोऽपि जघन्यं मध्यम उत्कृष्टं वा पुरोदितं छेदं । दत्वा तस्मै आचार्यः चारयति पूर्वविधिनैव ।। परगण-इति परगणानुपस्थानम् । तित्थयरगणधराणं आयरियाणं महडिपत्ताणं । संघस्स पवयणस्स य आसादणकारओ पावो ॥ २७६ ॥ तीर्थकरगणधराणां आचार्याणां महर्द्धिप्राप्तानां । संघस्य प्रवचनस्य च आसादनाकारकः पापः ॥ रायापराधकारी रायामचाण तह य वंदंतो। रायग्गमहिसिपडिसेवगो य धम्मदहो तह य ॥ २७७ ।। राजापराधकारी राजामात्यान् तथा च वन्दमानः । राजाग्रमहिषीप्रतिसेवकश्च धर्मध्रुक् तथा च ॥ जो एवंविहदोसो चाउवण्णस्स सवणसंघस्स । मज्झम्मि पंचतालं दाऊणं सो संघहबाहिरओ ॥ २७८ ॥ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छेदपिण्डम् । य एवंविधदोषः चातुर्वर्ण्यस्य श्रमणसंघस्य । मध्ये पंचतालं दत्वा स संघबाह्यः ।। एसो अवंदणिज्जो पंचमहापादगोत्ति घोसित्ता। पायच्छित्तं दाउं सदेसदो धाडिदो संतो ॥ २७९ ॥ एषः अवन्दनीयः पंचमहापातकीति घोषयित्वा । प्रायश्चित्तं दत्वा स्वदेशतो घाटितः सन् ॥ गंतूण अण्णदेसे जत्थ य धम्म ण याणए लोओ। तत्थत्थिऊण पायच्छित्तं आचरउ गणिदिण्णं ॥ २८० ॥ गत्वा अन्यदेशे यत्र च धर्म न जानाति लोकः । तत्र स्थित्वा प्रायश्चित्तं आचरतु गणिदत्तम् ।। तं पुण सपरगणहियअणुपटुवगस्स जारिसं दिण्णं । तारिसमेवेदस्स वि जहण्णमुक्कस्समिदरं वा ॥ २८१ ॥ तत्पुनः स्वपरगणस्थितानुपस्थापकस्य यादृशं दत्तं । तादृशमेवैतस्यापि जघन्यं उकृष्टं इतरद्वा ॥ पारं अंचदि परदेसमेदि गच्छदि जदो तदो एसो। पारंचिगोत्ति भण्णदि पायच्छितं जिणमदम्मि ॥ २८२ ॥ पारं अंचति परदेशमेति गच्छति यतस्ततः एषः । पारश्चिक इति भण्यते प्रायश्चितं जिनमते ॥ पदं पायच्छित्तं कप्पव्ववहारभासियं भणियं । जीदे विस एव विधी णवरि सतवोमासिगादिच्छगुरुमासा२८३ एवं प्रायश्चित्तं कल्पव्यवहारभाषितं भणितं । जीते अपि स एव विधिः नवरि सतपःमासिकादिषड्गुरुमासाः ॥ ___ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० प्रायश्चित्तसंग्रहे-- आदितिगसंघदणो भवभीरू जिदपरीसहो धीरो। गीदत्थो दढधम्मो चरेदि पारंचिगं भिक्खू ॥ २८४ ॥ आदिमत्रिसंहननः भवभीरुः जितपरीषहः धीरः । गीतार्थः दृढधर्मा चरति पारश्चिकं भिक्षुः ॥ पारंचिगं- इति पारंचिकं । पारेणामपञ्चएणं सम्मत्तं उज्झिऊण मिच्छत्तं । पडिवज्जिऊण पुणरवि परिणामबसेण सो जीवो ॥ २८५ ॥ परिणामप्रत्ययेन सम्यक्त्वं उज्झित्वा मिथ्यात्वं । प्रतिपद्य पुनरपि परिणामवशेन स जीवः जिंदणगरहणजुत्तो णियत्तिऊणो पडिविज सम्मत्तं । जं तं पायच्छितं सदहणालण्णिदं होदि ॥ २८६ ॥ निन्दनगर्हणयुक्तः निर्वर्त्य पतिपद्यते सम्यक्त्वं । यत्तत्प्रायश्चित्तं श्रद्धानसंज्ञितं भवति ॥ जदि पुण विराहिऊणं धम्म मिच्छत्तमुवगमो होदि। तो तस्स मूलभूमी दायव्वा लोयविदिदस्त ॥ २८ ॥ यदि पुनः विराध्य धर्म मिथ्यात्वमुपगमो भवति । तर्हि तस्य मूलभूमिः दातव्या लोकविदितस्य ।। सदहणा-इति श्रद्धानम् । - एवं दसविधपायच्छित्तं भणियं तु कप्पववहारे । जीदम्मि पुरिसभेदं णाउंदायव्वमिदि भणियं ॥ २८८ ॥ ___ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छेदपिण्डम् । एवं दशविधप्रायश्चित्तं भणितं तु कल्पव्यवहारे । जीते पुरुषभेदं ज्ञात्वा दातव्यमिति भणितं ॥ रिसिपायच्छित्त-इति ऋषिप्रायश्चित्तं समाप्तम् । जं समणाणं वुत्तं पायच्छितं तह ज्जमाचरणं तेसिं चेव पउत्तं तं समणीणपि णायव्वं ।। २८९ ॥ यत् श्रमणानामुक्तं प्रायश्चित्तं तथा यत् आचरणम् । तेषां चैव प्रोक्तं तत् श्रमणीनामपि ज्ञातव्यम् ।। णवरि परियायछेदो मूलढाणं तहेव परिहारो। दिणपडिमा वि य तीसं तियालजोगो य णेवस्थि ।। २ . . ॥ नवरि पर्यायच्छेदो मूलस्थानं तथैव परिहारः । दिनप्रतिमापि च तासां त्रिकालयोगश्च नैवास्ति ।। थिरअथिराणजाणं पमाददप्पोर्टि एणबहुवारं । सामाचारदिचारे पायच्छित्तं इमं मणियं ॥ २९१ ॥ स्थिरास्थिराणामार्याणां प्रमाददाभ्यां एकबहुवारम् । सामाचारातिचारे प्रायश्चित्तं इदं भणितम् ।। काउस्सगो खमणं खमणं पणगं च पणग छटुं च । छठं तहेव मासिगमेवमिसीणं पि दायव्वं ॥२९२॥ कार्योत्सर्गः क्षमणं क्षमणं पंचकं च पंचकं षष्ठं च । षष्ठं तथैव मासिकमेवं ऋषीणामपि दातव्यम् ॥ एकस्त वत्थजुयलस्सेक्कस्स गोणिया एक्ककथाए । पासुगजलेण पक्खालणम्मि एक्को विउस्लग्गो ॥ २९३ ॥ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायश्चित्तसंग्रह एकस्य वस्त्रयुगलस्य एकस्या गौणिकायाः एककथायाः । प्रामुकजलेन प्रक्षालने एको व्युत्सर्गः ॥ अप्पासुगजलपक्खालणम्मि एगो हवेइ उववासो। पत्तादीणं पक्खालणे वि णादूण दायव्वं ॥ २९४ ॥ अप्रासुकजलप्रक्षालने एको भवति उपवासः । पात्रादीनां प्रक्षालनेऽपि ज्ञात्वा दातव्यम् ।। पहरेणेकेणखया सिपिजंती जलेण पहरेणं । अवरेगेणंतिम्मे इमट्टिया जा जिणायदणे ॥ २९५ ॥ ........................ ॥ लावाविजइ जइ सा कुड्डादीएसु इट्टयाणं वा। वेण्णिसहस्सा तो से छहाई वेण्णि पडिकमणं ॥ २९६ ॥ लागयति यदि सा कुड्यादिकेषु इष्टकान् वा । द्विसहस्राणि षष्ठानि द्वे प्रतिक्रमणे ॥ एवं मट्टियजलपरिमाणं णादूण थोवमिदरं वा । अण्णत्थ वि दायब्वं पायच्छित्तं जहाजोग्गं ॥ २९७ ॥ एवं मृत्तिकाजलपरिमाणं ज्ञात्वा स्तोकं इतरद्वा । अन्यत्रापि दातव्यं प्रायश्चित्तं यथायोग्यम् ।। पुप्फवदी जदि विरदी जायदि तो कुणउ तिणि दिवसाणि । आयंविलणिवियडीखमणाणं एक्कदर गं तु ॥ २९८ ॥ १ खमणं च एग ठाणं वा पाठान्तरं ख-ग-पुस्तके । Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छेदपिण्डम् । पुष्ववती यदि विरती जायते ततः करोतु त्रीणि दिवसानि । आचाम्लनिर्विकृतीक्षमणानां एकतरकं तु ॥ सज्झायदेववंदणणियमादियाओ सव्वकिरियाओ। मोणेण कुणउ तिणि वि दिणाणि तो तुरियदिवसम्मि॥२९९॥ स्वाध्यायदेववंदननियमादिकाः सर्वक्रियाः । मौनेन करोतु त्रीण्यपि दिनानि ततः तुरीयदिवसे ॥ पच्छण्णए पएसे पासुगसलिलेण एगकलसेण । पक्खालिदूण गत्तं गुरुमूले गिण्हदु वदाइं ॥ ३०० ॥ प्रच्छन्ने प्रदेशे प्राशुकसलिलेन एककलशेन । प्रक्षाल्य गात्रं गुरुमूले गृह्णातु व्रतानि ॥ जदि पुण चंडालादी लिविज विरदी कहिं पि विरदो वा। तो जलण्हाणं किच्चा उववासं तद्दिणे कुणउ ॥ ३०१ ॥ यदि पुनः चांडालादीन् म्पृशेत् विरती कथमपि विरतो वा । तर्हि जलस्नानं कृत्वा उपवासं तद्दिने करोतु ॥ जलवदमंतेहि हवे पहाणं तिविहं तु तत्थ जलण्हाणं । गिहिणो विरदाणं पुण बदमंतेहिं पुणो कहियं ॥ ३०२॥ जलव्रतमंत्रैः भवेत् स्नानं त्रिविधं तु तत्र जलस्नानम् । गृहिणो विरतानां पुनः व्रतमंत्राभ्यां पुनः कथितम् ॥ समेणीणं सम्मत्तं-इति श्रमणीनां समाप्तम् । १ अजाण पायच्छिदं खा- ग-पुस्तके । ___ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ प्रायश्चित्तसंग्रहे दोण्हं तिण्हं छण्हं मुवरिमुकरसमज्झिमिदिराणं । देसजदीणं छेदो विरदाणं अद्धद्धपरिमाणं ॥ ३०३ ॥ द्वयोः त्रयाणां षण्णां उपरि उत्कृष्टयोः मध्यमानामितरेषां । देशयतीनां छेदः विरतानां अर्धार्धपरिमाणः ।। विरदाणमुत्तमलहरणस्स दुभागो तरजओ भागो। भागो च उत्थओ वि य तेस्सि छेदो त्ति ति परे ॥ ३०४॥ विरतानामुक्तमलहरणस्य द्विभागः तृतीयो भागः । भागश्चतुर्थोऽपि च तेषां छेदः इति ब्रुवन्ति परे । संजदपायच्छित्तस्सद्धादिकमेण देसविरदाणं । पायच्छित्तं होदित्ति जदि वि सामण्णदो वुत्तं ॥ ३०५ ॥ संयतप्रायश्चित्तस्य अर्धादिक्रमेण देशविरतानां । प्रायाश्चित्तं भवतीति यद्यपि सामान्यतः उक्तं ॥ तो वि महापातकदोससंभवे छण्हाधेि जहण्याणं । देसविरदाणमण्णं मलहरणं अत्थि जिणभणिदं ॥ ३०६॥ तथापि महापातकदोषसंभवे षण्णामपि जघन्यानां । देशविरतानां अन्यन्मलहरणमस्ति जिनभणितं ॥ छ? अणुव्वयवादे गुणवयसिक्खावयं तु उववासो। दसणचारदिचारे जिणपूजं होदि णिदिदै ॥ ३०७ ॥ षष्ठमणुव्रतवाते गुणवतशिक्षाव्रतस्य तु उपवासः। दर्शनाचारातिचारे जिनपूजा भवति निर्दिष्टा ॥ १ गाथेयं ख-ग-पुस्तके नास्ति ।। Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छेदपिण्डम् । गोइथिवालमाणुसबंभणपरलिंगिआदसम्नाणं। सजहण्णमज्झिमेदरदेसविरदाण मलहरणं ॥ ३०८॥ गोस्त्रीबालमानुषब्राह्मणपरलिंग्यात्मसमानां । सजघन्यमध्यमेतरदेशविरतानां मलहरणं ॥ पण सत णवय बारस पण्णारस अट्ठारस वावीसा। खव्वीस तीस पणइ होंति कमे गोवालपमुहेहिं विंति परे॥३०९॥ पंच सप्त नव द्वादश पंचदश अष्टादश द्वाविंशतिः । पत्रिंशत्रिंशत्पंचत्रिंशत् भवन्ति क्रमेण गोबालप्रमुखैः ब्रुवन्ति परे॥ घादे एक्कावीसं उबवासा दुगुणदुगुणकमसहिया । अंतादिछटुसहिया पायच्छित्तं निहत्थाणं ॥ ३१०॥ वाते एकविंशतिः द्विगुणद्विगुणक्रमसहिताः । अन्तादिषष्ठसहिताः प्रायश्चित्तं गृहस्थानाम् ॥ सयलं पि इमं भणियं महावलाणं पुराणपुरिसाणं । संपइकालेत्थ गुरुमासेहिंतो परं अस्थि ॥ ३११ ॥ सकलमपि इदं भणितं महाबलानां पुराणपुरुषाणां । संप्रतिकालेऽत्र गुरुमासात् परं नास्ति ॥ एवं पायच्छित्तं चराविऊणं जिणालए अरण्णे वा। तो पच्छा आयरिओ लोयस्त वि चित्तगहणत्थं ॥ ३१२ ॥ एतत्प्रायश्चित्तं चारयित्वा जिनालयेऽरण्ये वा । ततः पश्चादाचार्यः लोकस्यापि चित्तग्रहणार्थ ।। जिणभवणंगणदेसे गोमधगोमुत्सदुद्धदाहिएहिं । घयसहिपहिं करानिय सत्तमहामंडलाई फुडं ॥ ३१३॥ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायश्चित्तसंग्रहे जिनभवनाङ्गणदेशे गोमयगोमूत्रदुग्धदधिभिः ।। घृतसहितैः कारापयित्वा सप्तमहामण्डलानि स्फुटं ॥ तं मुडियसीसं वइसारिय मंडलेसु छसु कमसो। जलपंचदव्यधयदहिपयगंधजलाहिं पुण्णेहिं ॥ ३१४ ॥ ततः तं मुंडितशीर्ष वेशयित्वा मंडलेषु षट्सु क्रमशः । जलपंचद्रव्यघृतदधिपयोगन्धनलैः पूर्णैः ॥ वरवारएहिं समं अहिसिंचिय संघसंतिघोसेण । पच्छा सत्तममंडलठियस्स से संघसमवाओ॥ ३१५ ॥ वरवारिभिः समं अभिषिच्य संघशान्तिघोषेण । पश्चात् सप्तमण्डलस्थितस्य तस्य संघसमवायं ।। जलपुप्फक्खयसेसादाणहिं परममंगलासीहि । अहिणंदियंगसोहिं देउ फुडं जिणयसमेओ॥ ३१६ ॥ जलपुष्पाक्षतशेषादानैः परममंगलाशीभिः । अभिनंदिताङ्गशुद्धिं ददातु स्फुटं निनव्रतसमेतां ॥ तो णियभवणपइटो जिणमहिमं संघभोयणं कुणऊ । लोयाण चित्तगहणं च वत्थधणभोयणादीहिं ॥ ३१७ ॥ ततः निजभवनप्रविष्टः जिनमहिमां संघभोजनं करोतु । लोकानां चित्तग्रहणं च वस्त्रधनभोजनादिभिः ॥ पाओ लोओ चित्तं तस्स मणोचित्तगाहयं कम्मं । लोयस्स जं तमेव हि पायच्छितं ति जिणवुत्तं ॥ ३१८ ॥ प्रायो लोको चित्तं तस्य मनः चित्तग्राहकं कर्म । लोकस्य यत्तदेव हि प्रायश्चित्तमिति जिनोक्तम् ॥ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छेदपिण्डम् । तेणिह सव्वपयारेण जणमणोवज्झणं गिहत्थेण ॥ काऊण दोससुद्धी अणुट्टियन्वा पयत्तेण ॥ ३१९ ॥ तेनेह सर्वप्रकारेण जनमनोवर्जनं गृहस्थेन । कृत्वा दोषशुद्धिः अनुष्ठातव्या प्रयत्नेन ॥ उरपरिसप्पादीणं धादे जादम्मि तिण्णि उववासा। णिदिट्ठा गिहिवग्गस्स छेदववहारकुसलेहिं ॥ ३२० ॥ उरपःरिसादीनां घाते जाते त्रय उपवासाः । निर्दिष्टा गृहिवर्गस्य च्छेदव्यवहारकुशलैः ॥ वियलिंदियाण घादे काउस्सग्गा तदिदियपमाणा। इह पुण काउस्सग्गो अहसयउस्सासपरिमाणो ।। ३२१ ॥ विकलेन्द्रियाणां घाते कायोत्सर्गाः तदिन्द्रियप्रमाणाः । इह पुनः कायोत्सर्गः अष्टशतोच्छ्रासपरिमाणः । विरदाणं पि महत्वयकयादिचारस्स पद्दहो चेव । काउस्सग्गो अण्णत्थ पुवभणिदो त्ति विति परे ॥ ३२२ ॥ विरतानामपि महाव्रतकृतातिचारणां एतावानेव । कायोत्सर्गः अन्यत्र पूर्वभणित इति ब्रुवन्ति परे ॥ अण्णा वि अस्थि अणुगुणसिक्खावयदसणादिचाराणं । गिहिणो सोही य तं पि य संखेवेणं पवक्खामि ॥ ३२३ ॥ अन्यापि अस्ति अणुगुणशिक्षाबतदर्शनातिचाराणां । गृहिणां शुद्धिश्च तामपि च संक्षेपेण प्रवक्ष्यामि ।। पंचतिचउबिहाइं अणुगुणसिक्खावयाई होंति तहिं । एक्केके अदिचारा पंचव अदिक्कमादीया ॥ ३२४ ॥ ___ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायश्चित्तसंग्रह पंचत्रिचतुर्विधानि अणुगुणशिक्षाव्रतानि भवन्ति तत्र । एकैकस्मिन् अतिचाराः पंचैव अतिक्रमादयः । पढमो तेसु अदिक्कमदोसो बीओं वदिक्कमो णाम। अइचार अणाचारो पंचमदोसो अणाभोगो ॥ ३२५ ॥ प्रथमः तेषु अतिक्रमदोषः द्वितीयः व्यतिक्रमो नाम । अतिचारोऽनाचरः पंचमदोषोऽनाभोगः ॥ मणसुद्धिहाणिवयभंगिच्छाकरणालसत्तवयभंगा। पच्चावेक्खणविरहो अदिक्कमादीण पज्जाया ॥ ३२६ ॥ मनःशुद्धिहानि-व्रतभंगेच्छा-करणालसत्व-व्रतभंगाः । प्रत्यावेक्षणविरहः अतिक्रमादीनां पर्यायाः॥ संका कंखा य तहा विदिगिच्छा अण्णदसणपसंसा। पंच मला सम्मत्ते होंति अणायदणसेवा य ॥ ३२७ ॥ शंका कांक्षा च तथा विचिकित्सा अन्यदर्शनप्रशंसा । पंच मलाः सम्यक्त्वे भवन्ति अनायतनसेवा च ॥ इय पंचसटिदोसाण सोहणं तस्स अथिरथिरभाव। भगुणित्तं च गुणित्तं दवे खेतम्मि पविभागं ॥ ३२८ ॥ इति पंचषष्ठिदोषाणां शोधनं तस्य अम्थिरस्थिरभावं अगुणित्वं च गुणित्वं द्रव्ये क्षेत्र प्रविभागं ॥ वयससुभासुभपरिणामतिब्बमंदत्तणं च सत्तं च। सपरमुणकरणमारिदजीवसरूवं च णाऊणं ॥ ३२९॥ वयःशुभाशुभपरिणामतीव्रमन्दत्वं च सत्वं च । स्वपरमुनकरणमारितनीवस्वरूपं च ज्ञात्वा ॥ ! Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छेदपिण्यम् । काउस्सग्गो दाणं जिणपूया एयभतमिगठाणं । णिव्वियड्डी पुरिमंडलमुववासी वा तिरत्तं वा ॥ ३३० ॥ कायोत्सर्गः दानं जिनपूजा एकभक्तमकस्थानं । निर्विकृतिः पुरिमण्डलं उपवासो वा त्रिरात्रं वा ॥ पणयं च भिण्णमासो लहुमासो वा तहेव गुरुमासो । इच्चादि देउ गणी पायच्छित्तं जहाजोग्गं ॥ ३३१ ॥ पणकं च भिन्नमास लधुमासं वा तथैव गुरुमासं । इत्यादिकं ददातु गणी प्रायश्चित्तं यथायोग्यम् ।। महु मज्जं मंसं वा दप्पपमादेहि सेवदि कहिं पि । देसवदी जदि तदो बारस खमणाणि छटुदुर्ग ॥ ३३२ ॥ मधु मद्यं मासं वा दर्पप्रमादाम्यां सेवते कथमपि । देशवती यदि तदा द्वादश क्षमणानि षष्ठद्विकं ।। पंचुंबरादि वाथदि देसवदी जदि पमाददप्पेहिं । तो तस्स हवदि छेदी वे उबवासा तिरत्तदुगं ॥ ३३३ ॥ पंचोदुम्बरादीन् भक्षयति देशव्रती यदि प्रमाददाभ्यां । तर्हि तस्य भवति च्छेदः द्वौ उपवासौ त्रिरात्रद्रिकम् ॥ सुक्क मुत्तपुरीसं पमाददप्यहिं खायदि कहिं पि । देसविरदो तदो सो वे उववासो तिरत्तं च ॥ ३३४ ।। शुष्कं मूत्रपुरीपं प्रमाददाभ्यां भक्षयति कथमपि । देशविरतस्तदा स द्वौ उपवासौ त्रिरात्रं च ।। Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायश्चित्तसंग्रहेबङ्गुम्मि अंतराए मुहम्मि दिटुम्मि भायणे य तहा। णिसुयम्मि होइ सुद्धी दोणि दिवड्डेगखमणाई ॥ ३३५ ॥ बृहति अन्तराये मुखे दृष्टे भाजने च तथा । निश्रुते भवति शुद्धिः द्वे द्वय(कक्षमणनि ।। काघालिय अण्णपाणे भुत्ते तण्णारिसेवणे य तहा। साभोगे छहतियं णाभोगे एगकलाणं ॥ ४३६ ॥ कापालिकम्यानपाने भुक्ते तन्नारीसेवने च तथा । साभोगे षष्ठत्रिकं अनाभोगे एककल्याणं ॥ गोसिंगघावंदीगिहरोधोलंवणादिमदए । छेत्तेसु त्तह य देहचणाम किमिपसु पडिएसु ॥ ३३७ ॥ गोसिंगघातवन्दिगहरोधालम्बनादिमृतेषु । ? क्षेत्रेषु तथा च देहे क्रमिषु पतितेषु ॥ कारुगगिहण्णपाणंगणासु भुत्तासु छन्नउत्थाई । कारुगपत्तेसु पुणो भुत्ते पंचेव उबवासा ॥ ३३८ ।, कारुकगृहान्नपानाङ्गनासु भुक्ता पट्चतुर्थानि । कारुकपात्रेषु पुनः भुक्ते पंचैव उपवासाः ॥ चंडालअण्णपाणे भुत्ते सोलस हवंति उबवासा । चंडालाणं पत्ते भुत्ते अहेव उववासा ॥ ३३९ ॥ चण्डालान्नपाने भुक्ते पोडशा भवन्ति उपवासाः । चण्डालानां पात्रे भुक्ते अष्टैव उपवासाः ॥ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छेदपिण्डम् | चंडालादिसुउणहि मएसु तस्संकरे पमत्तेण । मासिगमेयं देयं पायच्छित्तं गिहत्थानं ॥ ३४० ॥ चंडालादि स्वजनैः ? मृतेषु तत्संकरे प्रमादेन । मामिकमेकं देयं प्रायश्चित्तं गृहस्थानाम् ॥ मादुमुदादीहिं सजोणियाहि चंडालइत्थियाहि समं । अब्बंभं पुण सेवते हवंति बत्तीस उववासा ॥ ३४९ ॥ मातासुतादिभिः स्वयोनिभिः चांडालस्त्रीभिः समं । अब्रह्म पुनः सेवमाने भवन्ति द्वात्रिंशदुपवासाः ॥ छटुमणुव्वदधादे गुणवयसिक्खावरहि उववासी । दंसण अइचारे पुण जिणपूया होड णिद्दिट्ठ ॥ ३४२ ॥ अणुव्रतघाते गुणत्रत शिक्षात्रताभ्यां उपवासः । दर्शना तिचारे पुनः जिनपूजा भवति निर्दिष्टा || पुप्फवदी पुष्पवदीए सजादीए जदि छिवंति अण्णोणं । दोण्हाणम्मि विसोही पहाणं खवणं च गंधुदयं ॥ ३४३ ॥ पुष्पवती पुष्पवत्या सजात्या यदि स्पृशति अन्योन्यं । . द्वयोरपि विशुद्धिः स्नानं क्षमणं न गन्धोदकम् ॥ बंभणवत्तिय महिला रजस्सलाओ छिवंति अण्णोष्णं । तो पदमद्धकिरिच्छं पादकिरिच्छं परा चरइ ॥ ३४४ ॥ ब्राह्मणक्षत्रिय महिला रजस्वलाः स्पृशन्ति अन्योन्यं । तहि प्रथमा अर्धकिरिच्छं पादकिरिच् परा चरति ॥ શ્ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ प्रायश्चित्तसंग्रहे तिविहाहारविवज्जणलक्खणखमणं दिणंतभुत्ती य। एकटाणं आयंविलं च एवं किरिच्छमिह ॥ ३४५ ॥ त्रिविधाहारविवर्जनलक्षणं क्षमणं दिनान्तभुक्तिश्च । एकस्थानं आचाम्लं च एतत् किरिच्छमिह ।। बंभणवणिमहिलाओ रयस्सलाओ छिवंति अण्णोण्णं । तो पादूणं पढमा पादकिरिच्छं परा चरइ ॥ ३४६ ॥ ब्राह्मणवणिग्महिला रजस्वलाः स्पृशन्ति अन्योन्यं । तर्हि पाढोनं प्रथमा पादकिरिच्छं परा चरति ॥ बंभणसुद्दित्थीओ रयस्सलाओ छिवति अण्णोणं । पढमा सवकिरिच्छं चरेइ इदरा च दाणादि ॥ ३४७ ।। ब्राह्मणशूद्रस्त्रियः रजस्वलाः स्पृशन्ति अन्योन्यं । प्रथमा सर्वकिरिच्छं चरति इतरा च दानादि । खत्तियवणिमहिलाओ रयस्सलाओ छिवंति अण्णोण्णं । तो पढमद्धकिरिच्छं पादकिरिच्छं परा चरइ ॥ ३४८॥ क्षत्रियवणिग्महिला रजस्वलाः स्पृशन्ति अन्योन्यं । तर्हि प्रथमा अर्धकिरिच्छं पादकिरिच्छं परा चरति ।। खत्तियमुद्दिथीओ रयस्सलाओ छिवंति अण्णोणं । तो पादूणं पढमा पादकिरिच्छं परा चरइ ॥ ६४९ ॥ क्षत्रियशद्रस्त्रियः रजस्वलाः स्पृशंति अन्योन्यं । तहिं पादानं प्रथमा पादकिरिच्छं परा चरति ॥ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छेदपिण्डम् । ७३ वाणियसुहित्थीओ रयस्सलाओ छिवंति अण्णोण्णं । तो खवणतिगं पढमा चरद परा खप्पणमेगं तु । ३५० ॥ वणिक्शद्रस्त्रियः रजस्वलाः स्पृशन्ति यदि अन्योन्यं । तर्हि क्षमणत्रिकं प्रथमा चरति परा क्षमणमेकं तु ॥ पुप्फवदी जदिणारी छिप्पइ जइ चंडाल मंडालादीहिं । तो पहाणदिणत्ति णिराहारा व्हाऊण सुज्झिज्जा ॥ ३५१ ॥ पुष्पवती यदि नारी स्पृशति यदि चण्डालमण्डलादिभिः । तर्हि स्नानदिनमिति निराहारा स्नात्वा शुद्धयति ॥ खत्तियबंभणवइसासुद्दा वि य सूतगम्मि जायम्मि । पणं दस बारस पण्णरसेहि दिवसोहं सुज्झंति ॥ ३५२ ॥ क्षत्रियब्राह्मणवैश्याः शुद्रा अपि च सूतके जाते । पंचदशद्वादशपंचदशभिः दिवसैः शुद्धयन्ति ॥ वालत्तणसूरत्तणजलणादिपवेदिक्खंतेहिं । अणसणपरदेसेसु य मुदाण खलु सूतगं पत्थि ॥ ३५३ ॥ बालत्वशूरत्वज्वलनादिप्रवेशदीक्षितैः । अनशनपरदेशेषु च मृतानां स्खल सूतकं नास्ति । जावदिआ अविसुद्धा परिणामा तेत्तिया अदीचारा । को ताण पायछित्तं दार कारं च सक्केजो ॥ ३५४ ॥ यावन्तोऽविशुद्धाः परिणामाः तावन्तोऽतिचाराः । कस्तेषां प्रायश्चित्तं दातुं कर्तुं न शक्नुयात् ॥ १ बारस दस तह पण्णरस तिसदि दिवसेहिं सुज्झंति पाठान्तरं । Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायश्चित्तसंग्रहे-- तह्मा शूलदिचाराणेदं मलसोहणं समुद्दिई । सुहमदिचाराणां पुण णियत्तणं चेव मलहरणं ॥ ३५५ ॥ तम्मात् स्थूलातिचाराणामिदं मलशोधनं समुद्दिष्टं । सूक्ष्मातिचाराणां पुनः निर्वर्तनं चैव मलहरणं ।। ॥ पायच्छित्तं बहुआयरिओवदेसमवगम्मं । जादादिगाई सत्थाई सम्ममयधारिऊणं च ॥ ३५६ ।। एतत्प्रायश्चित्तं बव्हाचायोपदेशमवगम्य । जीतादिकानि शास्त्राणि सम्यगवधार्य च ॥ अणुकंपाकहणेण य विरामवयगहण सह तिसुद्धीए । पावद्धतयं सव्वं णासह पावं ण संदेहो ॥ ३५७ ॥ अनुकम्पाकथनेन च विरामव्रतग्रहण ? सह त्रिशद्धया। पादात्रियं सर्व नाशयति पापं न सन्देहः ॥ बाउव्वणपराधविसुद्धिणिमित्तं मए समुद्दि । णामेण छेदपिंडं साहुजणो आयरं कुणउ ॥ ३५८ ॥ चातुर्वर्ण्यापराधविशुद्धिनिमित्तं मया ममुद्दिष्टं । नाम्ना छेदपिण्डं साधुजनः आदरं करोतु ।। परमटुसुद्धिववहारसुद्धिभेदेसु जं विरुद्धत्थं । लिहिदमिहऽणाणत्तेण तं वि सोहंतु छेदण्हू ॥ ३५९ ॥ परमार्थशुद्धिव्यवहारशुद्धिभेदेषु यत् विरुद्धार्थ ।। लिग्वितमिह अज्ञानत्वेन तदपि शोधयन्तु छेदज्ञाः ॥ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छेदपिण्डम् । चउरसयाई वीमुत्तराई गंथस्स परिमाणं ।। तेतीसुत्तरतिसयपमाणं गाहाणिबद्धस्स ॥ ३६० ॥ चतुःशतानि विंशत्युत्तराणि ग्रन्थस्य परिमाणं । त्रयस्त्रिंशदुत्तरत्रिशतं प्रमाणं गाथानिबद्धस्य ॥ भावइ छेदपिंडं जो एवं इंदणंदिगणिरचिदं । लोइयलोउत्तरिए ववहारे होइ सो कुसलो ॥ ३६१ ॥ भावयति च्छेदपिंडं य एतदिन्द्रनन्दिगणिरचितं । लौकिकलोकत्तरे व्यवहार भवति म कुशलः ॥ इय इंदणंदिजोइंदविरइयं सजणाण मलहरणं । लिहियं तं भतीए सम्मत्तपसत्तचित्तेण ॥ १॥ इति इन्द्रनन्दियोगींद्रविरचितं सज्जनानां मलहरणं । लिखितं तत् भक्त्या सम्यक्त्वप्रसन्नचित्तेन ॥ इति प्रायश्चितग्रन्थः समाप्तः । Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छेदशास्त्रम् । छेदनवत्यपरनाम वृत्तिसहितम् । णमिऊण य पंचगुरुं गणहरदेवाण रिद्धिवंताणं । वुच्छामि छेदसत्थं साहूणं सोहणटाणं ॥ १ ॥ नत्वा च पंचगुरून् गणधरदेवान् ऋद्धिवतः । वक्ष्यामि छेदशास्त्रं साधूनां शोधनस्थानम् ॥ पायच्छित्तं सोही मलहरणं पावणासणं छेदो। पाया मूलगुणं मासिय संठाण पंचकल्लाणं ॥ २ ॥ प्रायश्चित्तं शुद्धिः मलहरणं पापनाशनं छेदः । पर्यायाः मूलगुणं मामिकं संस्थानं पंचकल्याणं ॥ आयंविल णिव्वियडी पुरिमंडलमेयठाण खमणाणि । एयं खलु कलाणं पंचगुणं जाण मूलगुणं ॥ ३॥ आचाम्लं निर्विकृतिः पुरिमण्डलं एकस्थानं क्षमणानि । एकं खलु कल्याणं पंचगुणं जानीहि मूलगुणं ॥ आदीदो चउमझे एकदरवणियम्मि लहुमासं । छम्मासे संठाणं ठाणं छम्मासियं जाण ॥४॥ १ एतानि प्रायश्चित्तादीनि पंच प्रायश्चित्तस्य नामानि । २ व्रतसमित्याद्यष्टाविशतिः मधमांसमधुत्यागाद्यष्टौ वा । ३ वस्तुसंख्या । ४ एकभक्तं । ५. कल्याणमेकं । ६ पंच कल्याणकैर्मूलगुणमेकं । ७ मूलगुणस्थानाच्चतुर्थस्थानके कल्याणकनामाचरणस्य संख्या विधा। Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छेदशास्त्रम् । आदितः चतुमध्ये एकतरापनीते लघुमासं । पण्मासे संस्थानं म्थानं षण्मासिकं जानीहि ॥ आयंविलम्मि पादूण खवणपुरिमंडले तहा पादो। एयटाणे अद्धं णिवियडीए वि एमेव ॥ ५॥ आचाम्ले पादोनं क्षमणपुरिमंडलयोः तथा पादः । एकस्थानेऽर्भ निर्विकृतावपि एवमेव ॥ मूलगुणं भवियं एकोऽर्थः । मासिय संठाण पंचकल्लाणं इत्यकोऽर्थः ॥ एकम्मि विउसग्गे णव णवकारा हवंति बारसहिं । सयमटोत्तरमेदे वंति उववासा य (ज) स्स फलं ॥६॥ एकस्मिन् व्युत्सर्गे नव नमस्कारा भवन्ति द्वादशैः । शैतमष्टोत्तर एते भवन्ति उपवासा यस्य फलम् ॥ अस्या अर्थः-कायोत्सर्गेकस्य नमस्काग नव भवन्ति । कार्यान्सगीदशैरघोत्तरशतं भवन्ति । तेनाप्नोत्तरशतेनोपवासमेकं लभ्येत ॥ मूलगुणा वि य दुविहा सवणाणं तह य सावयाणं च । उत्तरगुणा तहेव य तेसिं सोहिं पवक्खामि ॥ ७ ॥ मूलगुणा अपि च द्विविधाः श्रमणानां तथा च श्रावकाणां च । उत्तरगुणाः तथैव च तेषां शुद्धिं प्रवक्ष्ये ॥ एइंदियादि काहुँ इंदियगणणाइ जाम चरिंदी। काउस्सग्गा य तहा बारसछच्चउतिहि खमणं ।। ८ ।। एकेन्द्रियादि कृत्वा इन्द्रियगणनया यावत् चतुरिन्द्रियान् । कायोत्सर्गाश्च तथा द्वादशषट्चतुस्त्रिभिः क्षमणं ॥ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायश्चित्तसंग्रहे अस्या अर्थः- एइदियेकायोत्सर्ग ( १ ) बेइंदियकायोत्सर्ग ( २ ) ते इंदि ce कायोत्सर्ग ( ३ ) चरिंदीय कायोत्सर्ग ( ४ ) । बारस छचउतिहिं खमण " अस्यार्थः - एकेन्द्रियाणां १२ ( द्वादशानां घाते ) उपवासमेकं । द्वीन्द्रियाणां ६ ( षण्णां घाते ) उपवासमेकं । त्रीन्द्रियाणां ४ ( चतुर्णी ) उपवासमेकं । चतुरिन्द्रियाणां ३ ( त्रयाणां ) उपवासमेकं । ७८ छत्तीसारसएवारसनवहिं छटुपडिकमणं । सीदिसयं णउदीहि य सट्ठी पणदालपहि मूलगुणं ॥ ९ ॥ पत्रिंशदष्टादशद्वादशनवकैः षष्ठप्रतिक्रमणं । अशीतिशतनवतिभिः च षष्ठिपंचचत्वारिंशद्भिः मूलगुणं ॥ अस्या अर्थः- एकेन्द्रियाणां अशीित्यधिकशतस्य पंचकल्याणमेकं पूर्वार्धप्रतिक्रमणं भवति । द्वीन्द्रियाणां नवतीनां पंचकल्याणं । त्रीन्द्रियाणां षष्ठीनां पंचकल्याणं । चतुरिन्द्रियाणां पंचचत्वारिंशानां पंचकल्याणं पूर्वार्धप्रतिक्रमणपूर्वकं भवति ॥ पंचिदिया असण्णी वहमाणेऽचेल मूलगुणवंते । थिर अथिर पयदचारी अप्पयदे वा वि इदरों (रे ) य ॥ १० ॥ पंचेन्द्रियाणामसंज्ञिनां वधेऽचेल मूलगुणवति । स्थिरेऽस्थिरे प्रयत्नचारिणि अप्रयत्ने वाऽपि इतरस्मिन् च ॥ अस्या अर्थ - एकासंज्ञिपंचेन्द्रिय अप्रमत्तः स्थिरः विपरीतः एवमप्रभगो sta: (?) 11 ताण कमेण य छेदो तिण्णुववासा य छड ( छड ) मूलगुणं । पणगं तिष्णुववासा छडं लहुमेव एकहि ॥ ११ ॥ तेषां क्रमेण च छेदः त्रय उपवासाश्च षष्ठं षष्ठं मूलगुणं । पंचकं त्रय उपवासाः षष्ठं लघु एव एकस्मिन् ॥ १ एकेन्द्रियजीव-ववे एकः कायोत्सर्गः । द्वन्द्रीये द्वौ इत्यादि । एवमग्रेऽपि ॥ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छेदशास्त्रम् । अस्या अर्थः---अष्टजनेभ्यः प्रायश्चित्तं प्रति क्रमेण । एकासंक्षिपंचेन्द्रिये हते मूलगुणे स्थिरः प्रयत्नचारी तस्योपवासत्रयं । मूलधारिणोऽप्रयत्ने स्थिरस्य ष, स्यात् । मूलगुणेऽस्थिरस्य यत्नपरम्य षष्ठं स्यात् । मूलगुणेऽस्थिरस्य अप्रयत्नपरस्य कल्याणं । उत्तरगुणे स्थिरस्य प्रयत्नपरस्य कल्याणं । उत्तरगुणे स्थिरस्य अप्रयत्नपरस्य उपवासत्रयं । उत्तरगुणेऽस्थिरस्य प्रयत्नपरस्य षष्ठमेकं । उत्तरगुणेऽस्थिरस्य अप्रयत्न चारिणः लघुकल्याणकमेकं । अथैकवारं अज्ञानतो ज्ञानतो वारं वारं वा मूलगुणधारिणां सभयत्नस्थिरस्त्रिरात्रं ( पष्ठं)। मूलगुणधारिणां अप्रयत्नतः ( स्थिराणां) लघुकल्याणामेकं मूलगुणेऽस्थिरः प्रयत्नपरः पंचकल्याणं । अस्थिरः अप्रयत्नः मूलच्छेदं । उत्तरगुणे स्थिरः प्रयत्नपरः उपवासत्रयं । उत्तरगुणे स्थिरः अप्रयलपरः षष्ठं । उत्तरगुणेऽस्थिरप्रयत्नपरः लघुकल्याणमेकं । अस्थिरोत्तरगुणस्य अप्रयत्नपरस्य पंचकल्याणमकं बहुवारं ॥ बहुवारेसु य छेदो छटुं लहु मासियं च मूलं पि। तिण्णुववासा छटुं लहु संठाणमढण्हं ॥ १२ ॥ बहुवारेषु च च्छेदः षष्ठं लघु मासिकं च मूलमपि । त्रय उपवासाः षष्ठं लघु संस्थानमष्टानाम् ।। अस्या गाथाया अर्थः पश्चिमगाथायां प्रागुक्तः ॥ उत्तरमूलगुणाणं पमाददप्पम्मि जाण मलहरणं । काउस्सरगुवयासा इंदियगणणा य पाणगणणा य ॥ १३ ॥ उत्तरमूलगुणानां प्रमाददर्पयोः जानीहि मलहरणं । कायोत्सर्गोपवासा इन्द्रियगणनया च प्राणगणनया च ।। अस्या अर्थः-उत्तरगुणधारिणः प्राणगणनया (इद्रियगणनया ) प्रमोदे कायोसर्गाः असंज्ञिपंचन्द्रियं यावत् । उत्तरगुणधारिणः द इन्द्रियगणनया प्राणगणनया उपवासाः। ( मूलगुणधारिणः प्रमादे इन्द्रियगणनया कायोत्सर्गाः) । मूलगुणधारिणो दर्पे प्राणगणनया उपवासा असंज्ञिपंचान्द्रयं यावत् । १ यत्नेकृतेऽपि जीववधे सति । २ अप्रयत्ने कृते । Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायश्चित्तसंग्रहे-- अहवा जत्ताजन्ते इंदियगणणा य पाणगणणा य । काउस्सग्गा होंति हु उबवासा बारसादीहि ॥ १४ ॥ अथवा यत्नायत्नयोः इन्द्रियगणनया च प्राणगणनया च । कायोत्सर्गा भवन्ति हि उपवासा द्वादशादिभिः ॥ अस्या अर्थः--एवं प्रयत्ने इन्द्रियगणनया कायोत्सर्गः । अप्रयन्नस्य प्राणगणनया कायोत्सर्गः ॥ रिसिसावयवालाणं इत्थीगोघादमि मलहरणं । बारसमासादीणं अद्धद्धकमेण छ? तवं ॥ १५ ॥ ऋषिश्रावकबालानां स्त्रीगोघातने मलहरणम् । द्वादशमासादीनां अर्धार्धक्रमेण षष्ठं तपः ॥ अस्या अर्थ:-ऋषिघातकस्य द्वादशमासं यावत् षष्ठं । श्रावकघातकस्य षण्मासास्त्रिरात्रं । बालकघातकस्य त्रिमास त्रिरात्रं । स्त्रीवधकस्य अर्धमासैकं षष्ठं । गोवधकस्य पंचविंशतिदिनानि त्रिरात्रं ॥ पासंडातभत्ता जोणिसरिसाण घादणे छेदी । छम्मासं छटुतवं अद्धद्धकमेण काययं ॥ १६ ॥ पाषंडतद्भक्तानां योनिसदृशानां घातने च्छेदः । षण्मासं षष्ठतपः अर्धार्धक्रमेण कर्तव्यं ॥ अस्या अर्थः-अन्यलिंगिवधायां षण्मासानि षष्ठं भवति । दिक्षितवधाय मासत्रयं त्रिरात्रं । तद्भक्ता महेश्वरादयस्तेषां वधायां सार्धमासं त्रिरात्रं ॥ बंभणखत्तियवइसा सुद्दा चउपायगमणघादम्मि । एयंतरअहमासे अद्धद्धं छटुमंते च ॥ १७ ॥ ब्राह्मणक्षत्रियवैश्यानां शूद्राणां चतुष्पदगमनघातन । एकान्तराष्टमासा अर्धाध षष्ठमन्ते च ।। Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छेदशास्त्रम् । अस्या अर्थः-ब्राह्मणवधायां मासाष्टकं एकान्तरं अन्ते षष्ठं । क्षत्रियघाते चतुर्मासमेकान्तरमन्ते षष्ठं । वैश्यवधे द्विमासमेकान्तरमन्ते षष्ठं । शूद्रवधे मासमेकान्तरं अन्ते षष्ठं । ग्राममृगे चतुष्पदवधे पंचदशदिवसमेकान्तरं अन्ते षष्ठं । तणमंसासिविहंगा उरपरिसप्पाण जलचरवहम्मि । चउदसआई काउं णवखमणाणि मलहरणं ॥ १८ ॥ तृणमांसा शिविहंगानां उरःपरिसर्पाणां जलचरवधे । चतुर्दशादिकं कृत्वा नवक्षमणानि मलहरणं ॥ अस्या अर्थः--तृणचराणां वधे चतुर्दशोपवासाः। मांसाहारिचतुष्पदवधे त्रयोदशोपवासाः । पक्षिवधे द्वादशोपवासाः। सर्पवधे एकादशोपवासाः । शरर(ट) वधे दशोपवासाः । जलचरवधे नवोपवासाः ॥ एवं प्रथमव्रतमुपगतम् । सइ पच्चक्ख परोक्खे उभयं तियकरण मोसभासिस्स । काओसग्गुववासा एगुत्तर असइ संठाणं ॥ १९ ॥ सकृत् प्रत्यक्ष परोक्षे उभयस्मिन् त्रिकरणे मृषाभाषिणः । कायोत्सर्गोपवासा एकोत्तरा असकृत् संस्थानं ॥ अस्या अर्थः-एकवार प्रत्यक्ष असत्यमुक्ते कायोत्सर्ग । परोक्षे असत्यमुक्त उपवासमेकं । प्रत्यक्षपरोक्षे असत्यमुक्ते उपवासद्वयं । मनोवचनकाये असत्यमुक्ते उपवासत्रयं । बहुवारं प्रत्यक्षे कल्याणमेकं । परोक्षेऽपि पंचकल्याणं । उभयासत्येऽपि पंचकल्याणम् ॥ एवं सत्यव्रतम् । सइ सुण्णम्हि समक्खे अणासभोगे अदत्तगहणम्मि । काउस्सगुववासा एगुत्तर असइ मूलगुणं ॥ २० ॥ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ प्रायश्चित्तसंग्रहे सकृच्छ्रन्ये समक्षे अनाभोगे अदत्तग्रहणे । कायोत्सर्गेपिवासा एकोत्तरा असकृत् मूलगुणं ॥ अस्या अर्थः-निर्जनेऽदृश्यमाने मोहेन गृहीतं तावत् क्षणेन पुनस्तत्रैव स्थापितं कायोत्सर्गैकेन शुद्धयति । प्रत्यक्षे उपवासः । अनालोचिते उपवासद्वयं । ज्ञाते गृहीते उपवासत्रयं । बहुवारान् गृहीते पंचकल्याणं । कस्येदं भणित्वा गृहीते पंचकल्याणम् ॥ अदत्तादानविरतिव्रतम् पादोरुणियमरहिए वंदणसहियस्स हीणसज्झाए । सुत्तस्स रेदखिरणे उवठावण दुण्णि खवणाणि ॥ २१ ॥ प्रदोषनियमरहिते वन्दनासहितस्य हीनस्वाध्याये | सुप्तस्य रेतः क्षरणे उपस्थापनं द्वे क्षमणे || अस्या अर्थः-- प्रथमनिशि समये प्रहरे नियमस्वाध्यायं विना देववन्दनाकृते तु सुते दुःस्वप्ने दृष्टे प्रतिक्रमणमुपवासद्वयं । नियमे कृते देववन्दनास्वाध्यायं विना निद्रायां रेतःस्रावे नियमसहितमुपवासमेकम् ॥ नियमे जुत्तस्स पुणो सेसे रहिदस्स छेद पुव्वह्नि । सज्झायरहियसुत्तो पावइ उववास नियमं च ॥ २२ ॥ नियमेन युक्तस्य पुनः शेषै रहितस्य छेदः पूर्वस्मिन् । स्वाध्याय रहितसुप्तः प्राप्नोति उपवासं नियमं च ॥ अस्या अर्थः- स्वाध्यायारहितः सुप्तः देववन्दनाप्रतिक्रमणकृते रात्रौ निद्रायां स्वप्ने सति रेतःपरिस्रावो जातः प्राप्नोति उपवाससहितं प्रतिक्रमणम् ॥ रादिं नियमे सुत्तो पच्छिमभायम्मि गहियसज्झाओ । णियमुववासेण तहा सोहिज्जइ रेदखिरणेण ॥ २३ ॥ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छेदशास्त्रम् । रात्रौ नियमेन सुप्तः पश्चिमभागे गृहितस्वाध्यायः । नियमोपवासाभ्यां तथा शुद्धयते रेतःक्षरणेन ॥ अस्या अर्थः-उदिते प्रहरे स्वाध्याये गृहीते नियमदेववन्दनाकृते निद्रायां दुःस्वप्ने जाते प्रतिक्रमणपूर्वकमुपवासं । अथ प्रतिक्रमणं विना उपवासद्वयम् ॥ सज्झायणियमसहिदे वंदणरहियस्स रेणिस्सरणे। उवठावण उववासो सोहिज्जइ रेदखिरणेण ॥ २४ ॥ स्वाध्यायनियमसहिते वन्दनारहितस्य रेतोनिःसरणे । उपस्थापनेन उपवासेन शुद्धयते रेतःक्षरणेन ॥ अस्या अर्थः-पूर्व एव कथितः ॥ सज्झायणियमवंदण तिणि वि काऊण जो सुयइ साहू। रेते णिस्सरणम्हि य उवठावण छटु दिवसम्मि ॥ २५ ॥ स्वाध्यायनियमवन्दनाः तिस्रोऽपि कृत्वा यः स्वपिति साधुः । रेतसि निःसरणे च उपस्थापनं षष्ठं दिवसे ॥ अस्या अर्थः-स्वाध्यायनियमवन्दनावसाने निद्रायामतिचारे प्रतिक्रमणपूर्वकं त्रिरात्रं । मध्यान्हे प्रतिक्रमणषष्ठम् ॥ अब्बंभं भासंतो इथिम्हि य मोहिदो य इच्छंतो। काउस्सग्गुववासो उववासा छह दप्पम्मि ॥ २६ ॥ अब्रह्म भाषमाणः स्त्रियां च मोहितश्चेच्छन् । कायोत्सर्गेपिवासौ उपवासौ षष्ठं दर्पे ॥ अस्या अर्थः---सकामवचनभाषी स्त्रीदर्शनाभिलाषे उपवासमेकं । चित्ताभिलाषपरिणामे उपवासौ द्वौ । स्त्रीदर्शनचित्ताभिलाषे-इन्द्रियोत्कोचने उपवासत्रयम् ॥ तिरियाईउवसग्गे अब्बंभं सेवयस्स मूलगुणं । मूलढाणं दप्पे तिरियाणं सुद्धस्स जणणाए ॥ २७ ॥ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायश्चित्तसंग्रहे तिर्यगाद्युपसर्गे अब्रम्ह सेवमानस्य मूलगुणं । मूलस्थानं दर्पण तिरश्वां शुद्धस्य जनज्ञाते । अस्या अर्थः-तिर्यंचं अब्रह्मसेवनात् पंचकल्याणं । लोकविदिते उद्धते मनोवाक्कायसंभवे मूलं याति ॥ चतुर्थ व्रतम् । उवयरणठवण लोहे दीणमुहो दाणगहणविक्खादे । संगग्गहणे खमणं छटुट्ठम मूलगुण मूलं ॥ २८ ॥ उपकरणस्थापने लोभे दीनमुखः दानग्रहणविख्याते । संगग्रहणे क्षमणं षष्ठं अष्टमं मूलगुणं मूलं ॥ अस्या अर्थः केनचित् पुरुषेण स्थापिते नष्टे सति उपवासः । लोभेन स्थापिते षष्ठोपवासः । दीनमुखो याच्यमानोऽष्टमं । बहुजनमध्येऽतीव याच्यमानो दीनः पंचकल्याणं । अवलुप्ते लुब्धो जातः मूलस्थानं याति ॥ पंचमं व्रतम् ।। रत्ति गिलाणभत्ते चउविह एकम्हि छटु * खमणाओ। उवसग्गे संठाणं चरियापवियस्स मूलमिदी * ॥ २९॥ रात्रौ म्लानभक्ते चतुर्विधे एकस्मिन् षष्ठं क्षमणं । उपसर्गे संस्थानं चर्याप्रविष्टस्य मूलमिति ॥ अस्या अर्थः-रात्रौ व्याधियुत्ते चतुर्विधाहारे षष्ठं । अथैकविधाहारे भुक्ते उपवासः । उपसर्गे रात्रिभोजी पंचकल्याणं । रात्रौ चर्याप्रविष्टः मूलं गच्छति । न तस्य पंक्तिभोजनमिति ॥ षष्ठं व्रतम् * पुष्पमध्यगतः पाठः पुस्तकाच्च्युतः । अतः स्वबुद्ध्या परिकल्प्य पूर्णीकृतः ।-सं ___ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छेदशास्त्रम्। वायामगमण मुणिणो उवमग्गे पासुगे असुद्धम्हि । काउस्सग्गो खमणं अपुण्णकोसह्मि दायव्वं ॥ ३० ॥ व्यायामगमने मुनेः उन्मार्गे प्रामुकेऽशुद्धे । कायोत्सर्गः क्षमणं अपूर्णकोशे दातव्यं ॥ अस्या अर्थः-गयउमध्ये व्यायामे प्रासुके कायोत्सर्गः । उत्पथगमनात् अप्रासुके उपवासः ॥ वासारत्ते दिवसे पासुगपंथम्हि इयर राइं च । तिण्णिदुयतियदुइकोसे एक्केकं तियचऊखमणा ॥३१॥ वर्षा-ऋतौ दिवसे प्रासुकपथे इतरस्मिन् रात्रौ च । त्रिद्वित्रिद्विकोशे एकैकं त्रिचतुःक्षमणानि ॥ अस्या अर्थः-प्राटाले प्रासुके दिवसे क्रोशत्रये उपवासमेकं । मध्यान्हेऽपराह्ने वा अप्रासुके दिवसे क्रोशद्वये उपवासमेकं । रात्रौ प्रासुके क्रोशत्रये उपवासत्रयं । रात्रौ अप्रासुके क्रोशद्वये उपवासचतुष्टयम् ॥ हेमंते विहु दिवसे पासुगपंथमि इयर राइं च । छच्चउछच्चउकोसा एक्केचं विणि तियखमणा ॥ ३२ ॥ हेमन्तेऽपि हि दिवसे प्रासुकपथे इतरस्मिन् रात्रौ च । षट्चतुःषट्चतुःक्रोशाः एकैकं द्वे त्रिक्षमणानि ॥ अस्या अर्थः-हेमन्तेऽपराह्ने प्रासुके क्रोशषण्णामुपवासमेकं । मध्यान्हेऽप्रासुके क्रोशचत्तुर्णा उपवासमेकं । रात्रौ प्रासुके क्रोशषण्णामुपवासद्वयं । रात्रौ अप्रासुके क्रोशचतुणों उपवासत्रयम् ॥ गिंभे दिवसम्मि तहा पासुगपंथेहि इयर राइं च । णवछणवछकोसे एक्केकं दो य दो खमणा ॥ ३३॥ ग्रीप्मे दिवसे तथा प्रासुकपथे इतरस्मिन् रात्रौ च । नवषट्नवषट्कोशे एकैक द्वे च द्वे क्षमणे ।। Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायश्चित्तसंग्रहे १९ अस्या अर्थः-ग्रीष्मे मध्यान्हे प्रासुकपथे नवक्रोशानां उपवासमेकं । रात्रौ प्रासुकपथे नवक्रोशानामुपवासद्वयं । अप्रासुके षण्णां क्रोशानां उपवासमेकं । अप्रासुके रात्रौ षण्णां क्रोशानामुपवासद्वयम् ॥ काउस्सग्गे सुज्झदि सत्तसु पादेसु पिच्छरहिदेसु । गब्बूदिगमण खमणं णोखमणं होइ णिप्पिच्छे ॥ ३४ ॥ कायोत्सर्गेण शुद्धयति सप्तसु पादेषु पिच्छिकारहितेषु । गव्यूतिगमने क्षमणं नोक्षमणं भवति निष्पिछे ॥ अस्या अर्थः--प्रकटार्थः ॥ जण्हम्मि विउस्सग्गे खमणं चउरंगुलम्मि तस्सुवरिं। तत्तो य दुगुणदुगुणा उववासा अंगुलचउक्के ॥ ३५॥ जानौ व्युत्सर्गेण क्षमणं चतुरंगुले तस्योपरि । ततश्च द्विगुणद्विगुणा उपवासा अंगुलचतुष्के ॥ अस्या अर्थः-नद्यामुत्तरणे जानुमात्रपानीयं भवति तदा कायोत्सर्गेण शुद्धयते। तवं चतुरंगुलप्रमाणेन द्विगुणद्विगुणाउपवासा भवन्ति ॥ र्यासमितिः । भासंताणं मझे जो वोल्लइ पुवछिण्णदोसं च । काउस्सग्गं छहं अहम अविरदपसुत्तबोधम्हि ॥ ३६ ॥ भाषमाणयोः मध्ये यः ब्रवीति पूर्वच्छिन्नदोषं च । कायोत्सर्ग षष्ठं अष्टमं अविरतप्रसुप्तबोधे । अस्या अर्थः-गोष्टिजनमध्ये गतच्छिन्नदोषेषु आत्मप्रतिष्टां कर्तुं ब्रूते एकवारामयं कायोत्सर्गेण शुद्धयति । एके दोसु विचक्खया अवरु जो आपणा बोलइ तस्स छई। णिंदा करतु बोलइ तस्स अट्ठमं । अप्रतिबोधविरोधवचनं परोपतापहिंसावचनं बोले महात्रिरात्रम् ॥ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छेदशास्त्रम् । छकम्मदेसयरणे उववासो अटुमं च गीदादी। चाउवण्णवराधे गण (दो) णिग्घाडणं होइ ॥ ३७ ॥ षटुर्मदेशकरणे उपवासः अष्टमं च गीतादेः । चतुर्वर्णापराधे गणतो निर्घाटनं भवति ॥ अस्या अर्थ:---गृहस्थषटूर्मोपदेशके उपवासमेकं । गीतं वाद्यं नृत्यं स्वयं करोति अष्टमं । चातुर्वर्ण्यस्यापराधं वदति स निर्घाटनीयो भवति-परगणे प्रेषणीय इति ॥ भाषासमितिः अण्णाणवाहिदप्पे भक्खणं कंदादि एकबहुवारं। काउस्सग्गुववासा खवणं पणगं च मूलगुणं ॥ ३८॥ अज्ञानव्याधिदः भक्षणं कन्दादेः एकबहुवारं । कायोत्सर्गोपवासौ क्षमणं पंचकं च मूलगुणं ।। अस्या अर्थः-अज्ञानत्वेन कन्दादिभक्षणं करोति एकवारं कायोत्सर्ग । बहु वारायां उपवासमेकं । न्याधिग्रस्ते एकवारायां उपवासमेकं । बहुवारायां खादति तदा कल्याणमेकं । अथ प्रमत्तो भूत्वा हरितकंदादिकं ज्ञात्वा भक्षयति तस्य पंचकल्याणं । अथ दश वर्षानुवर्षे खादति तस्य (स ) भूलस्थानं याति ॥ णिहवणं भणिय भुत्ते सालंवे य कुड्डढक्कस्स। चउरंगुलठिदिरहिदे खवणगिलाणे य छह ससेसु ॥ ३९॥ निष्ठीवनं भणित्वा भुक्ते वंशालंबेन च कुड्यावष्टंभस्य । चतुरंगुलस्थितिरहिते क्षमणं ग्लाने च षष्ठं शेषेषु ॥ अस्या अर्थः-व्याधिग्रस्तो निष्ठीवनं करोति । कुड्यावष्टंभं करोति । पादान्तरं चतुरंगुलं लंघयति तदा उपवासमेकं । अथ आरोग्यः दर्पण करोति तदा षष्ठं भवति । Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ प्रायश्चित्तसंग्रहे कागादिअंतराए उववासो गहिय उग्गहे भग्गे । जादे विवेगंकरणं सब्बं भुत्तस्स खमणं खु ॥४०॥ कागाद्यन्तराये उपवासः गृहीतावग्रहे भग्ने । जाते विवेककरणं सर्व भुक्तस्य क्षमणं खलु ॥ अस्या अर्थः-भोजनमकुर्वन् अ... 'तं शरीरे ल..... 'कादिविष्टं दृष्ट भुक्ते तदा उपवासः । अवग्रहं ज्ञात्वा भन्ने सति अन्तरायः कर्तव्यः । अथ न स्मरते मुक्तं तदा उपवासः ॥ चटुंतरायजादे सुदं पि भोत्तस्स होदि खमणं तु । सय भुंजमाण दिढे छहहम मुहे य पडिकमणं ॥ ४१॥ वृहदन्तरायजाते श्रुतेऽपि भोक्तः भवति क्षमणं तु । स्वयं भुज्यमाने दृष्टे षष्ठं अष्टमं मुखे च प्रतिक्रमणं ॥ अस्या अर्थः-बृहदन्तरायजाते गृहे भुक्तानन्तरं श्रुते तदा प्रतिक्रमणपूर्वकमुपवासं ! स्वहस्ते दृष्टे षष्ठं । स्वमुखोपलब्धेऽष्टमं प्रतिक्रमणपूर्वकम् ॥ सज्झायरहियकाले गामंतरगमण गोयरग्गं च । काउस्सग्गुववासो जहाकम होइ मलहरणं ॥ ४२ ॥ स्वाध्यायरहितकाले ग्रामान्तरगमनं गोचरगं च। कायोत्सर्गोपवासौ यथाक्रमं भवति मलहरणं ॥ अस्या अर्थः-पूर्वाह्ने विघटिकास्वाध्याये कायोत्सर्ग । एकग्रामे देववन्दना कृत्वा अपरग्रामे भुक्ते तदा उपवासः ॥ आधाकम्मे भुत्ते गिलाण णीरोय इक्कबहुवारे। उववास छ? मासिय मूलं पि य होइ मलहरणं ॥ ४३ ॥ १ त्यागः तद्भोजनपरिहार एव प्रायश्चित्तं । Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छेदशास्त्रम्। आधाकणि भुक्ते ग्लानः नीरोगः एकबहुवारे। उपवासः षष्ठं मासिकं मूलमपि च भवति मलहरणं ।। अस्या अर्थः-व्याधिग्रस्तः आधाकमणि भुक्ते तस्योपवासः । अथ बहुवारायां षष्ठं । अथ आरोग्यस्य पंचकल्याणं । बहुवारायां भुक्ते स मूलस्थानीभवति ॥ एषणासमितिः। कहादिवियडिचालण ठाणादो वा खिवेज्ज अण्णत्तं । काउस्सग्गं पाइय चक्खूविसयमि उववासो ॥४४॥ काष्ठादिवियडिचालनं स्थानतो वा क्षिपेदन्यत्र ! कायोत्सर्ग प्राप्नोति अचक्षुविषये उपवासः ॥ अस्या अर्थः-काष्ठादिवियडि अन्यत्र स्थितः अन्यत्र स्थापिते कायोत्सर्ग । अथातो वियडिं पृथक्कृत्वा रात्रौ स्थापितः उपवासमेकं । अन्धकारे विशेषतः ॥ आदाननिक्षेपणासमितिः। हरियादिबीज उवरि उच्चाराई करेइ राइम्हि । थोवे काउस्तम्गो उबवासो जाण बहुवारे ॥४५॥ हरितादिबीजानां उपरि उच्चारादिकं करोति रात्रौ । स्तोके कायोत्सर्ग उपवासं जानीहि बहुवारे ॥ अस्या अर्थ:---रात्रौ हरितकायोपरि वोसरणे कायोत्सर्ग । तदेव बहुवारान् उपवासम् ॥ प्रतिष्ठापनासमितिः । Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९० प्रायश्चित्तसंग्रहे परिसरसघाणचक्खूसोददिचारे पयत्तइयरस्स । काउस्सग्गुववासा एगुत्तरवड्डिया कमसो ॥ ४६ ॥ स्पर्शरसघ्राणचक्षुः श्रोत्रातिचारे प्रयत्नतरयोः । कायोत्सर्गोपवासा एकोत्तरवर्द्धिताः क्रमशः ॥ अस्या अर्थः- प्रयत्नाचारस्य मुनेः कायस्पर्शस्योपरिचित्ताभिलाषेकायोत्सर्ग एकः । रसस्योपरि चित्ताभिलाषे कायोत्सर्गौ २ ( द्वौ ) । घ्राणस्पृहाभिलाषे कायोत्सर्गाः ३ ( त्रयः ) । चक्षुः स्पृहायां कायोत्सर्गाः ४ ( चत्वारः ) । श्रोत्रस्पृहायां कायोत्सर्गा: ५ ( पंच ) । अथ अप्रयत्नचारिणः एकवारं चित्तोत्कोचे उपवासः १ ( एकः ) । तथा तेन क्रमेण जिव्हाघ्राणचक्षुःश्रवणानां एकवारचित्तोत्कोचे जाते सति उपवासमेकमिति एकैकोत्तरवृद्धया ॥ इन्द्रियनिरोधम् । वंदणणियमविरहिदे उववासो होइ कालछिण्णे य । तह सज्झायचउक्के काउसग्गो अवेलाए ॥ ४७ ॥ वन्दनानियमरहिते उपवासो भवति कालछिन्ने त्र । तथा स्वाध्यायचतुष्के कायोत्सर्गः अवेलायां ॥ अस्या अर्थः--वन्दनया विना उपवासः । पूर्वाह्णे देववन्दनां त्रीणि घटिका यावान् युक्तं । अपराह्ने घटिकां चत्वारि यावान् वन्दना । मध्यान्हें घटिकाद्वयं वन्दना स्वाध्यायचत्वारि न कुर्वति सति उपवासः । अवेलायां गृहीते सति कायोत्सर्गम् ॥ आवासयपरिहीणो अद्धं इक्कं च चउरमासाणि । खवणं पण संठाणं मूल िय होइ वासीि ॥ ४८ ॥ आवश्यकपरिहनिः अर्द्ध एकं च चतुर्मासान् । क्षमणं पचकं संस्थानं मूले च भवति वर्षे ॥ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छेदशास्त्रम्। अस्या अर्थः-घडावश्यक एक दिसव जइ न होइ उववासु होइ । मासमेकं कल्याणं । मासचउण्हं पंचकल्याणं । नियम न करत उपवासु । वर्षमेकं नियम न भवति षडावश्यकं वशते च्च मूलं जाते निय (म) सहैव वंदना । वेलातिक्रमो भवति तदुपवासं ॥ तिहि अदिकंते पक्खे चाउम्माले य जाम वासो य। सो छहावण छेदो णादूण य होदि कायव्वं ॥ ४९ ॥ त्रिषु अतिक्रान्तेषु पक्षेषु चतुर्मासेषु च यावत् वर्ष च । स षष्ठं उपस्थापनं छेदो ज्ञात्वा च भवति कर्तव्यम् ॥ अस्या अर्थः-त्रिपक्षे अथ मासदिवसहं अथवा वर्षदिवसहं प्रतिक्रमणं न भवति तदा मूलं याति। चातुर्मासे पंच प्रतिक्रमणा न भवन्ति द्विगुणमुपवासा भवन्ति ।। आवश्यकशुद्धिः । चाउम्मासियवरिसिराजुयंतरे लोच चेव अदिचारे । उववास छह मासिय गिलाणइयरेण अणुग्धाडं ॥ ५० ॥ चातुर्मासिकवार्षिकयुगान्तरे लोचे चैवातिचारे। उपवासः षष्ठं मासिकं ग्लानेतरेण अनुद्घाटं ॥ अस्या अर्थः-लोचे चातुर्मासिकेऽतिक्रमे तदा उपवासमेकं । संवत्सरे तु यदान भवति तदा षष्ठोपवासः भवति। पंचवर्षे पंचकल्याणं । निर्व्याधितस्तु निरन्तरं करोति ।। लोचः । उवसग्गवाहिकारणदप्पेणाचेलभंगकरणह्मि । उववासो छटु मासिय कमेण मूलं तदो इसइ ॥ ५१ ॥ उपसर्गव्याधिकारणदर्पण अचेलभंगकरणे । उपवासः षष्ठं मासिक क्रमेण मूलं ततः इच्छति ।। Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायश्चित्तसंग्रहेwwwwwwwwwwwwwwmmmmmmmmmmm.wwwmarmaraniwww अस्या अर्थः-उपसर्गभयेन वस्त्रपरिधानं करोति तदोपवासः । व्याधेः वस्त्रपरिधानं करोति तदा षष्ठमुपवासं । केनचित्कारणेन रागबुद्धिः पंचकल्याणं । दर्पण परिधानं मूलं याति । अथ प्रियाभिलाषे परिधानं तदा मूलं याति ॥ अचेलकम् । दंतवणण्हाणभंगे गिहत्थसिज्जा सराइए सुत्ते । एक्के वारे पणयं बहुवारे पंचकल्लाणं ॥ ५२ ॥ दन्तमनस्नानभंगे गृहस्थशय्यायां सरागेण सुप्ते । एकस्मिन् वारे पंचकं बहुवारे पंचकल्याणं ॥ अस्या अर्थः-मृदुशयनमवलोक्य क्षितिशयनं न करोति एकवारे कल्याणं । बहुवारायां पंचकल्याणं ॥ अस्नानक्षितिशयनदन्तधावनानि । अट्ठियअणेयभुत्ते पमाददप्पमि इक्कबहुवारे । पणगं मासिय छेदो मूलं च कमेण जणणादे ॥ ५३॥ अस्थितानेकभुक्ते प्रमाददर्प एकबहुवारे । पंचकं मासिकं छेदो मूलं च क्रमेण जनज्ञाते ॥ अस्या अर्थः-स्थितिभोजनकभोजनभंगे एकवारायां प्रमादे कल्याणं । बहुवारं प्रमादे पंचकल्याणं । एकभक्तं भग्नं द बहुवारे मूलं याति । चशब्दाजनेन ज्ञाते मोहेन भुक्ते मूलं याति ॥ स्थितिभोजनैकमक्ते । समिदिदियखिदिसयणे लोचे दंतवण संकिलेसाणं । काउस्सग्गुववासा बहुवारे मूलमिदराणं ॥ ५४॥ ___ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छेदशास्त्रम् । समितीन्द्रियक्षितिशयने लोचे दन्तमने संक्लेशानाम् । कायोत्सर्गोपवासौ बहुवारे मूलमितरेषाम् ।। अस्या अर्थः-एकवारे प्रमादे कृते कायोत्सर्ग । बहुवारायां उपवासं ॥ मूलगुणाः। अब्भोवगासठाणादिगा य अथिरा हु दुविह आदाय । अत्तोरणतरुमूलं थिरजोगा होंति णायव्या ॥ ५५ ॥ अभ्रावकाशस्थानादिकाश्च अस्थिरा हि द्विविध आतापः । अतोरणतरुमूलौ स्थिरयोगौ भवतः ज्ञातव्यौ ।। अस्या अर्थः-अभ्रावकाशस्थानमौनवीरासनानि चत्वारि चलयोगाः आतापनः स्थिरोऽस्थिरश्च । अतोरणयोगस्तरुमूलयोगौ एतौ स्थिरौ ॥ थिरजोगाणं भंगे वाहिपडिकारकण्णजावटुं। जे दिवहा ते खमणा पइण्णभग्गाण इयराणं ॥ ५६ ॥ स्थिरयोगानां भंगे व्याधिप्रतीकारकरणजापार्थम् । यावन्ति दिवसानि तावन्ति क्षमणानि प्रतिज्ञाभग्नानां इतरेषाम् ।। अस्या अर्थः-स्थिरयोगभंगे आगन्तुकदिनानि उपोषितव्यानि । अस्थिरयोगप्रतिज्ञाभंगे तेन च क्रमेण उपवासाः, परं किन्तु प्रतिक्रमणपूर्वकं स्थितिः ॥ सप्पडिकमणं मासिय तच्चुववासा तहेव लहुमासं । पढमे पक्खे मज्झिम पच्छिमपक्खे य जोगवहे ॥ ५७॥ सप्रतिक्रमणं मासिकं तावन्त उपवासाः तथैव लघुमासः । प्रथमे पक्षे मध्यमे पश्चिमपक्षे च योगवधे ।। Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायश्चित्तसंग्रहेvaram..... अस्या अर्थः-प्रथमे पक्षे योगहते प्रतिक्रमणपूर्वकं पंचकल्याणं । मध्यमे पक्षे योगभंगे सति आगामीयदिवसा भवन्ति तत्प्रमाणा उपवासाः कर्तव्याः । अन्तिमपक्षे योगभंगे सति लघुकल्याणम् ॥ उत्तरगुणाः। अप्पासुगे वसंतो सई बहुवारे य मोहहंकारे। उववास पणय मासिय सोचट्ठाणं च जाण मूलं तु ॥ ५८ ॥ अप्रासुके वसन् सकृत् बहुवारे च मोहाहंकाराभ्यां । उपवासं पंचकं मासिकं सोपस्थानं च जानीहि मूलं तु ॥ अस्या अर्थः-अप्रासुकस्थाने स्थिते सति प्रतिक्रमणपूर्वकं उपवासः । बहुवारे स्थिते सति पंचकल्याण । अहंकारात् स्थिते सति मूलस्थानं याति ॥ गामादिआसयाणं अजाणमाणो करेइ उवएसं । जाणंवो धम्महं पण मासिय मूल गारवि वि ॥ १९ ॥ ग्रामाद्याश्रितानां अजानानः करोति उपदेशं । जानानः धर्मार्थ पंचकं मासिकं मूलं गर्वेऽपि ॥ अस्या अर्थः-अजानमानो ग्रामाश्रयजनस्य उपदेशे दीयमाने प्रतिक्रमणसहित पंचकल्याणं । आगमं धर्मार्थ....."तस्य बहुवारमुपदिशति तदा प्रतिक्रमणसहितं पंचकल्याणं । गारवे बहुवारे उपदेशे मूलस्थानम् ॥ आलोयण तणुसग्गो अयाणमाणस्स पूयउवएसे। सई बहुवारे सुज्झदि उववासे पणय पडिकमणे ॥ ६० ॥ आलोचना तनूत्सर्गः अजानानस्य पूजोपदेशे । सकृत् बहुवारे शुद्धयति उपवासेन पंचकेन प्रतिक्रमणेन ॥ अस्या अर्थः-अजानतः स्तोकदेवार्चने हि उपदेसु देइ वि पूजाकरावता आलोचयित्वा कायोत्सर्गेण शुद्धयति । तथा च अज्ञानवत्वेन बहुधारायां स्तोकपूजा उपवासु । बृहत्पूजोपदेशे प्रतिक्रमणपूर्वकं कल्याणम् ॥ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छेदशास्त्रम् । जाणंतस्स विसोही पूयाकरणह्मि इक्कबहुवारे । मासं मासिय बहुसो वधकरणे थूलपडिकमणं ॥ ६१ ॥ जानानस्य विशुद्धिः पूजाकरणे एकबहुवारे । मासं मासिकं बहुशः वधकरणे स्थूलप्रतिक्रमणं ॥ अस्या अर्थः-आगमु जाणवि पूजोपदेशं दीयमाने कल्याणं । अर्चन विधि बहुवारे आगमं ज्ञाते सति पंचकल्याणं । आत्मनः सन्निधाने स्थित्वा हिंसादिधर्मोप. देशनं करोति बृहदर्चनहिंसा मूलस्थानम् ॥ इति रिया जावकालिय समणे भुत्तो पि एइ युंजेइ । अण्णाहे उववासो मासिय पडि कमण जणणादे ॥६२॥ अज्ञाते उपवासः मासिकं प्रतिक्रमणं जनज्ञाते ॥ अस्या अर्थः-नयनव्यथया जाते उपवासु । अदृश्यमाने व्यथाऽसक्ते सति उपवासु । जनपदेन ज्ञाते भयस्थितिधावमानेन वा उपवासं । तदेव भुंजाने बहुवारायां प्रतिक्रमणपूर्वकं कल्याणम् ॥ वदसणा दु भट्टे संभोगी जो मुहादिसंठप्पे ? । अरुहादिअवण्णेण य पावइ उववास पडिकमणं ।। ६३ ॥ व्रतदर्शनात्तु भ्रष्टेन संभोगी यः मुखादि संस्थिते । ? अर्हदाद्यवर्णेन च प्राप्नोति उपवासं प्रतिक्रमणं ॥ अस्या अर्थः--व्रतदर्शनभ्रष्टपुरुषेण सह सांगत्यदोषेण आगमविरुद्धवचनं ब्रूते । आगमु धम्मु देउ निंदे (आगमधर्मदेवनिन्दायां) पंचपरमेष्ठिप्रतिकूलपुरुषाणां सह संगः धर्मेण दोषस्य प्रतिक्रमणपूर्वकमुपवासम् ॥ विज्जामंतेचोज्जं अहंगणिमित्तमूलचुण्णाणि । जो कुणइ मोख णियमा पावइ उववास पडिकमणं ॥ ६४॥ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायश्चित्तसंग्रहे--- विद्यामंत्रातोद्याष्टाङ्गानिमित्तमूलचूर्णानि ।। यः करोति........नियमात् प्राप्नोति उपवासं प्रतिक्रमणं ॥ अस्या अर्थः-विद्योपजीवकमंत्रवाद्यष्टाङ्गनिमित्तोपजीविवशीकरणचूर्णस्नानपांनाग्रुपजीवकेन सह सांगत्ये प्रतिक्रमणपूर्वकमुपवासम् ॥ सुतत्थचोरियाए गिण्हंतो विणयपुच्छरहिओ य। आलोयण तणुसग्गो पावइ दितो वि एमेव ।। ६५ ।। सूत्रार्थ चर्या गृह्णन् विनयपृच्छारहितश्च । आलोचनां तनुसर्ग प्राप्नोति दददपि एवमेव ॥ अस्या अर्थः-सूत्राथु आगमु चोरिया वंचन (नां) यो जानाति । अथाविनयेन पृच्छति तत्रालोचनकायोत्सर्गम् ॥ सुत्तत्थं देसंतो सोदारे जो कुणेहिं असमाहिं । पावइ चउत्थ छेदो णिण्हवकारो य सुयगुरुणो ॥६६॥ सूत्रार्थ देशयन् श्रोतरि यः करोति असमाधि । प्राप्नोति चतुर्थं छेदं निन्हवकारश्च श्रुतगुरूणां ॥ अस्या अर्थः-आगमुसूत्रार्थदेसु (आगमसूत्रार्थदेशकः) अनालोचनः कथयति श्रोतृणां परिणामभंगे करोति श्रुतगुरुं न मन्यते तस्योपवासम् ॥ मासं पडि उववासो चाउम्मासे य तहेव अट्ट चत्तारि । संवच्छरिये बारस कायबा णिज्जरटाए ॥ ६७॥ मासं प्रत्युपवासः चतुर्मासे च तथैव अष्टौ चत्वारः । संवत्सरे द्वादश कर्तव्या निर्जरार्थिना ॥ अस्या अर्थ:--आषाढमाससंवत्सरिके उपवासा द्वादश । कार्तिकचतुर्मासे अष्ट । फाल्गुनचतुर्मासे चत्वारि ॥ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छेदशास्त्रम् । संथारमसोहंतो पयदापयदेसु खवण पणगं च। काउस्सग्गुववासो सुद्धासुद्धझि णावाए ॥ ६८॥ संस्तरमशोधयतः प्रयत्नाप्रयत्नयोः क्षमणं पंचकं च । कायोत्सर्गोपवासः शुद्धाशुद्धायां नावायां ॥ अस्या अर्थः-प्रयत्नाचारस्य संस्तरकमशोधयतः तस्योपवासं । अप्रयत्नाचारस्य कल्याण । मूलं न देंतस्स नावडा संबोधयित्वा नदीमुत्तरति नावायां नियमेन शुद्धयति ॥ अयउवयरणे णटे जावदिया अंगुलानि तावदिया। उबवासा कायव्वा वदंति घणअंगुला केई ॥६९॥ अय-उपकरणे नष्टे यावन्ति अंगुलानि तावन्तः । उपवासाः कर्तव्याः वदन्ति घनाङ्गुलानि केचित् ॥ अस्या अर्थः-लोहोपकरणे नष्टे सति यावन्ति अंगुलानि भवन्ति तावन्त उपवासाः । अपरे केचिदाचार्या घनचतुरस्राङ्गुलमानेनोपवासाः ॥ सेसुवयरणे णटे काउस्सग्गो जिणेहि णिद्दिट्रो। रूवादिधादणम्हि य यमेण दुप्परिणामकरणेण ॥७॥ शेषोपकरणे नष्टे कायोत्सर्गो जिनैः निर्दिष्टः । रूपादिघातने च यमेन दुष्परिणामकरणेन ॥ अस्या अर्थः-शेषोपकरणे नष्टे सति कायोत्सर्गः, उपकरणे भम्ने सति अपरे किंचित्कृतं तस्य दोष ज्ञात्वा कायोत्सर्ग । एकवारकपाटे आकर्षिते नियमेन शुद्धयति ।। चुलिका। जह सवगाणं भणियं सवगीणं तह य होइ मलहरणं । वज्जिय तियालजोयं दिणपाडमं छदमूलं च ॥ ७१ ॥ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ प्रायश्चित्तसंग्रहे यथा श्रमणानां भणितं श्रमणीनां तथा च भवति मलहरणं । वर्जयित्वा त्रिकालयोगं दिनप्रतिमां छेदमूलं च ॥ अस्या अर्थः-यत्प्रायश्चित्तं ऋषीणां यथा तेन विधिना आर्यिकाणां दातव्यं परं किन्तु त्रिकालयोगं सूर्यप्रतिमा न भवति । उत्तरगुणानां सामाचारो न भवति । केन कारणेन मूलच्छेदे जाते सति उपस्थापनायां न याति ॥ सामाचारो कहिओ अज्जाणं चेह जो विसेसो दु । तस्स य भंगेण पुणो गणिणा कुसलेण णिदिटुं॥७२॥ सामाचारः कथितः आर्याणां चेह यो विशेषस्तु । तस्य च भंगेन पुनः गणिना कुशलेन निर्दिष्टम् ॥ अस्या अर्थः-ऋषीणां आर्यिकाणां च सामाचारो न ज्ञायते । तथा च प्रायाश्चत्तं कथनीयम् ॥ थिरअथिरा अजाए पमाददप्पेहिं इक्कबहुवारे । तणुसय खमणं खमणं पणगं पणगं च छ? मूलगुणं ॥ ७३॥ स्थिरास्थिरार्यायां प्रमाददाभ्यां एकबहुवारे । तनुप्सर्गः क्षमणं क्षमणं पंचकं पंचकं च षष्ठं मूलगुणं ।। अस्या अर्थः-सामाचारो अ...."अ"..." अ....." य हि स्थिरचारिकाणां व्युत्सर्गनेकवारे प्रपादचारिणीनां च बहुवारम्नि बासं । अथिरचारिणीनां बहुवारायां कल्याणं । अथिरचारिणीनां प्रमादेन षष्ठं । तेषां बहुवारायां दर्पण पंचकल्याणं । अनेन प्रकारेण विधिना । ऋषीणां तथैव च । अजाण च धुप उववासो आउफायधादम्मि । काउस्सरजो कहिओ फायणीरेण पत्ताई ॥ ७४ ॥ आर्याणां चेलधावने उपवास: अप्कायघाते । कायोत्सर्गः कथितः प्रासुकनारेण पात्रादेः॥ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छेदशास्त्रम् । Ram अस्या अर्थः-आर्यिकानां शीततोयेन युगाधौते उपवासं । कंथा गोणी बस्त्रयुग एषां प्रत्येकतः उष्णजले प्रक्षालिते कायोत्सर्गम् ॥ मट्टियजलप्पमाणं णाडं कुड्डादिलेवकरणाए । दायव्वा विरदीणं काउस्तग्गादिमासंतं ॥७५ ॥ मृत्तिकाजलप्रमाणं ज्ञात्वा कुड्यादिलेपकरणे । दातव्यं विरतीनां कायोत्सर्गादिमासान्तम् ॥ अस्या अर्थ:--अस्पृष्टा दोषदर्शनदिवसात् दिवस चतुष्टयं यावत् आयम्बिलनिधियडीपुरिमंडलोपवासः कर्तव्यः ॥ आवसयापि मोणेण चेव तिस्ते सदा समुद्दिहा । वदरोहणं पि पच्छा कायव्यं गुरुसयासम्मि ।। ७६ ॥ आवश्यकान्यपि मौनेन चैव तस्याः सदा समुद्दिष्टानि । व्रतारोपणमपि पश्चात् कर्तव्यं गुरुसकाशे ॥ अस्या अर्थः-पुष्पं दृष्ट्वा षडावश्यकक्रिया मौनेन कर्तव्या । पश्चात् गुरूणां सन्निधौ व्रतारोपणम् ॥ तिविहं च होइ पहाणं तोएण वदेण मंतसंजुत्तं । तोएण गिहत्थाणं मंतेण वदेण साहूणं ॥ ७७ ॥ त्रिविधं च भवति स्नानं तोयेन व्रतेन मंत्रसंयुक्तं । तोयेन गृहस्थानां मंत्रेण व्रतेन साधूनाम् ॥ आर्याणां विशेषप्र यश्चित्तम् । जं सवणाणं भणियं पायच्छितं पि सावयाणं पि। दोण्हं तिण्हं छण्हं अद्धद्धकण दायव्यं ॥७८' Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायश्चित्तसंग्रहे यत् श्रमणानां भणितं प्रायश्चित्तं अपि श्रावकानामपि । द्वयोः त्रयाणां षण्णां अर्धार्धक्रमेण दातव्यं ॥ अस्या अर्थः-ऋषीणां यत्प्रायश्चित्तं तच्छ्रावकाणामपि भवति । परं किन्तु उत्तमश्रावकाणां ऋषेः प्रायश्चित्तस्य अर्द्ध । तस्यार्ध ब्रह्मचारिणां-तदधै मध्यमश्रावकस्य प्रायश्चित्तं । तदर्धे जघन्यश्रावकस्य प्रायश्चित्तं ॥ केई पुण आयरिया विसेससुद्धिं कहति तिण्हं पि । वियतियचउत्थभायं गहिऊण य होइ दायव्वं ॥ ७९ ॥ केचित्पुन आचार्याः विशेषशुद्धिं कथयन्ति त्रयाणामपि । द्विकत्रिकचतुर्थभागं गृहीत्वा च भवति दातव्यं ॥ अस्या अर्थः-ऋषीणां प्रायश्चित्तस्य उत्तमश्रावकस्य द्विभागं प्रायश्चित्तं । ब्रह्मचारिणां ऋषीणां प्रायश्चित्तस्य त्रिभागो दातव्यः । ऋषीणां प्रायश्चित्तस्य चतुर्थभागः श्रावकस्य दातव्यः ॥ छण्हं पि सावयाणं पंचमहापातकं पमादेसु । जिणमहिमा वि य भणिया विसेससोही जिणवरोहि ॥ ८० ॥ षण्णामपि श्रावकाणां पंचमहापातकं प्रमादेषु । जिनमहिमापि च भणिता विशेषशुद्धिः जिनवरैः ।। अस्या अर्थः-पंचमहापातकं प्रति प्रायश्चित्तोपरि जिनपूजाविशेषशुद्धयर्थाय गाथा ॥ तेसिं विसेससोही महुमंसमजभक्खिदे दप्पे। बारस खवणाणि पुणो छटुं खु प्रमादचारिस्स ॥ ८१ ॥ तेषां विशेषशुद्धिः मधुमांसमद्यभक्षिते दर्पण। द्वादश क्षमणानि पुनः षष्ठं खलु प्रमादचारिणः ॥ अस्या अर्यः--प्रायश्चित्तजनानां षण्णां मधुमांसमद्यभक्षिते सति दर्पण उपवासद्वादशप्रायश्चित्तं । प्रमादवशे षष्ठं प्रायश्चित्तं ॥ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छेदशास्त्रम् । १०१ मुत्तपुरीसे रेदे अभक्खभक्खम्मि होइ तह चेव । पंचुंबरादिभक्खे पमादचारीण उववासो।। ८२ ॥ मूत्रपुरीषे रेतसि अभक्ष्यभक्षे भवति तथा चैव । __पंचोम्बरादिभक्षे प्रमादचारिणां उपवासः ॥ अस्या अर्थः--दर्पण मूत्रपुरीषरेतोभक्षणे सति उपवासा द्वादश । प्रमादे सति षष्ठं । अथ क्षीरवृक्षाणां पंचोदुम्बरफलानि भक्षमाणे प्रमादे उपवासमेकं । दर्पण भक्षिते षष्ठं ॥ गोघादवंदिगहणे अवलंबियमडय पिड किमिटे। छह उववासा कहिया कारुयचंडालअण्णपाणेण ॥ ८३ ॥ गोघातवन्दिग्रहणेन अवलंबितमृतस्य स्पृष्टं कृमिदष्टे । षडुपवासाः कथिताः कारुकचांडालान्नपानेन ॥ अस्या अर्थः-गोघातेन मृतस्य । अथ धृतेन मारित (मृतस्य)। अथ बद्धन मृतः। मृतकस्य कृमि देहे जाते कुहियलिंगशरीरे उपवासाः षड् भवन्ति । कारुकगृहचाण्डालखाने पाने उपवासाः षड् भवन्ति । अथ तैः सह संसृष्टे उपवासाः षट् ॥ मादसुदादिसजोणी चंडालीणं च जो (य) गच्छंतो। बत्तीसा उववासा दायव्वा सोहणहाए ॥ ८४ ॥ - मातृसुतादिस्वयोनीः चांडालीश्च यः गच्छन् । द्वात्रिंशदुपवासाः दातव्याः शोधनार्थम् ।। अस्या अर्थ:-माता दुहिता चाण्डालिका ताभिः सह गमनं स्वप्ने तदा प्रायश्चित्तं द्वात्रिंशदुपवासाः ॥ कारुयपत्तम्मि पुणो भुत्ते पीदे वि तत्थ मलहरणं । पंचुववासा णियमा णिद्दिट्टा छेदकुसलेहि ॥ ८५॥ कारुकपात्रे पुनः भुक्ते पीतेऽपि तत्र मलहरणं । पंचोपवासा नियमात् निर्दिष्टाः छेदकुशलैः ।। Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायश्चित्तसंग्रहे— अस्या अर्थः- करुणां गृहे यदा खानं पानं तदा पंचोपवासा भवन्ति ॥ लोइयसूरत्तविही जलाइपरदेसवालसण्णासे । मरिदे खणे ण सोही वद सहिदे चेव सागारे ॥ ८६ ॥ लौकिकशूरत्वविधिना जलादिपरदेशबालसन्यासेन । मृते क्षणे न शुद्धिः व्रतसहिते चैव सागारे ॥ अस्या अर्थः- लौकिकशौर्येण मृते, पानीये नावादिप्रविष्टेन मृते, प्रवासेन मृते, बालमरणेन मृते, संन्यासेन मृते, व्रतसहिते श्रावके मृते सूतकं नेति ॥ पण दस बारस णियमा पण्णरसएहिं तत्थ दिवसेहिं । खत्तियबंभणवइसा सुद्दाइ कमेण सुज्झति ॥ ८७ ॥ पंचभिः दशभिः द्वादशभिः नियमात् पंचदशभिः तत्र दिवसैः । क्षत्रियब्राह्मणवैश्याः शूद्राः क्रमेण शुद्धयन्ति ॥ काऊण य जिणपूया अहिसेवा तेण तस्स पहाणं च । उवयरणवत्थपुव्वं दायव्वं चउव्विहं दाणं ॥ ८८ ॥ कृत्वा च जिनपूजां अभिषेकं तेन तस्य स्नानं च । उपकरणवस्त्रपूर्व दातव्यं चतुर्विधं दानं ॥ १०२ अस्या अर्थः --- प्रायश्चित्तानन्तरं जिनपूजाभिषेकाः ततस्तेनैव जिनस्नानोदकेन आत्मस्नानं करणीयं । ततस्तु उपकरणवस्त्रचतुर्विधं दानं देयमिति ॥ तह य सुवण्णादीणं दायव्वं इच्छियाण जहजोग्गं । सिरमुंडणं च कुज्जा लोयाण य चित्तगहणहं ॥ ८९ ॥ तथा च सुवर्णादीनां दातव्यं इच्छितानां यथायोग्यं । शिरोमुंडनं च कुर्यात् लोकानां च चित्तग्रहणार्थं ॥ जावदिया परिणामा तावदिया होंति तत्थ अवराहा । पायच्छित्तं सक्कइ दादु काहुं च को समए ॥ ९० ॥ · Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छदशास्त्रम् । १०३ यावन्तः परिणामा तावन्तो भवन्ति तत्रापराधाः । प्रायश्चित्तं शक्नोति दातुं कर्तु च कः समये ॥ अणुकंपा कहणेण य विरामवदसहण "उवओगे। पादद्धतयं सव्यं पावइ कज्जं ण संदेहो ॥ ९१ ॥ अनुकम्पाकथनेन च ................."उपयोगे । पादात्रियं सर्व प्राप्नोति कार्यं न सन्देहः ॥ अस्या अर्थः-अनुकम्पा सच्चतुर्भागापहारो भवति । गुरुसकाशात् प्रकटीकृत्य श्रुतमात्रादेव सद्योऽधं तस्य नश्यति, पुरुषवदत्रिदोषत्रिभागं नश्यति । व्रतारोहणी गृहीत्वा प्रकर्षचारेण सर्वदोषाद्विरतिः ॥ पुवायरियकयाणि य आलोचित्ता मया समुदिता । जं आगमे विरुद्धं अवणिय पूरंतु छेदण्हू ॥९२ ॥ पूर्वाचार्यकृतानि च आलोच्य मया समुद्दिष्टानि । यदागमेन विरुद्धं अपनीय पूर्यन्तु छेदज्ञाः ॥ एवं पायच्छित्तं चाउव्वण्णस्स सोहणटाए। वुच्चइ छेदाणउदी णउदिगाहाहि णिदिदं ॥ ९३ ॥ एवं प्रायश्चित्तं चतुर्वर्णस्य शोधनार्थम् । वक्ति छेदनवतिः नवतिगाथाभिः निर्दिष्टम् ॥ भविया जं अल्लीणा संसारमहोवहिं समुत्तरितुं । गच्छंति सिद्धिखेत्तं गंददु जिणसासणं सुइरं ॥ ९४॥ भव्याः यदाश्रिताः संसारमहोदधिं समुत्तीर्य । गच्छन्ति सिद्धिक्षेत्रं नन्दतु जिनशासनं सुचिरं ॥ इति नवतिवृत्तिः समाप्ता। Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री गुरुदास - विरचिता प्रायश्चित्त चूलिका | -००/० श्रीनन्दिगुरुकृत- विवरणसहिता । 悠 प्रणम्य परमात्मानं केवलं केवलेक्षणम् । मयातिधास्यते किंचिच्चूलिकाविनिबन्धनम् ॥ १ ॥ अथ तत्र तावदिष्टदेवतानमस्कारो निर्विघ्नार्थः शिष्टव्यवहारपरिपालनार्थश्व स्तुयते; योगिभिर्योगगम्याय केवलायाविनाशिने । ज्ञानदर्शनरूपाय नमोस्तु परमात्मने ॥ १ ॥ इति । , 1 नमोऽस्तु - नमस्कारोऽस्तु नमस्कारो भवतु । कस्मै ! परमात्मने - आत्मा जीव उपयोगलक्षणः, परमः प्रधानः संसारासारापारसागरसमुत्तीर्ण इत्यर्थः, स चासौ आत्मा च परमात्मने नमः । किंविशिष्टाय ? योगगम्याययोगः समाधिः शुभाशुभभावाभावस्वभावः सम्यग्ज्ञानमित्यर्थः तेन गम्य इति योगगम्यो योगविषय इत्यर्थः । कैः १ योगिभिः -- ध्यानिभिः । पुनरपि कथंभूताय ? केवलाय शुद्धाय निष्कलायेति यावत् । अविनाशिने - अव्ययाय | पुनरपि कथंभूताय ? ज्ञानदर्शनरूपाय - ज्ञानं केवलज्ञानं, दर्शनं केवलदर्शनं, ज्ञानदर्शनमेव रूपं स्वरूपं यस्य स ज्ञानदर्शनरूपः, तदविनामावादनन्तवीर्यानन्त सौख्यादीनां तदन्तर्भावः । एवंविधमतीतानागतवर्तमानकालगोचरं सामान्यापेक्षयैकं सिद्धपरमेष्ठिनं प्रणम्य पूर्व, तदनन्तरं प्रायश्चित्तचूलिका विधियते ॥ १ ॥ मूलोत्तरगुणेष्वीष द्विशेषव्यवहारतः । साधूपासक संशुद्धिं वक्ष्ये संक्षिप्य तद्यथा ॥ २ ॥ Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायश्चित्त-चूलिका। १०५ मूलोत्तरगुणेषु-मूलोत्तरविशेषेषु, मूलगुणा द्विविधा यतीनां श्रावकाणां च, तत्र यतिमूला अष्टाविंशतिः अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहादयः । श्रावकाणां मूलगुणा विविधा अष्टौ मद्यमांसमधुपंचोदुम्बर परित्यागाः । उत्तर गुणा यतीनामनेकविकल्पा आतापनतोरणस्थानमौनादयः । श्रावकाणामुत्तरगुणाः सामायिकोषधोपवासप्रभृतयस्तेषु विषये तान प्रति । ईषत्-मनाक किंचित् स्तोकं । विशेषव्यवहारतः--विशेषव्यवहारात् विशेषप्रायश्चित्तशास्त्रेभ्यः सकाशात् । साधूपासकसंशुद्धिं-~-साधूनां यतीनां, उपासकानां श्रावकाणां, संशुद्धिं विशुद्धिं प्रायश्चित्तं । वक्ष्ये--कथयिष्ये । संक्षिप्य-समासतः। तद्यथा--भवति, तथा कथ्यते ॥२॥ एकेन्द्रियादिजन्तूनां हृषीकगणनाद्वधे। चतुरिन्द्रियकुद्धानां प्रत्येकं तनुसर्जनम् ॥ ३॥ एकेन्द्रियाः पंचप्रकाराः पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतिकायिकाः (वनस्पतिकायिकाः) विभेदाः प्रत्येकवनस्पतयोऽनन्तकायवनस्पतयश्चेति । तत्र प्रत्येककायिका एकजीवस्यैक शरीरं ते च पूगफलनालि केरादयः। अनन्तकायिका अनन्तजीवानामेकशरीरं तेऽपि गुडूचीसूरणादयः । आदिशब्देन द्वीन्द्रियाः शंखशुक्त्यादयः, त्रीन्द्रियाः कुन्थुपिपीलिकाप्रभृतयः, चतुरिन्द्रिया भ्रमरमक्षिकाप्रमुखाः, पंचेन्द्रिया मनुष्यमत्स्यमकरोरगादयः । तेषां जन्तूनां जीवानां वधे । हृषीकगणनात् -~-इन्द्रियसंख्यया प्रायश्चित्तं भवति । वधे--विनाशे मारणे च सति । चतुरिन्द्रियकुद्धानां-चतुरिन्द्रियपर्यन्तानां ! प्रत्येक--यथासंख्यं । तनुसर्जनं---तनुः शरीरं पंचप्रकारं औदारिक, वौकयिकं, आहारकं, तैजसं, कार्मणमिति, तस्याः पंचप्रकाराया अपि तनोरुत्सर्जनं परित्यजनं मूर्छाममत्वाभावः तनूत्सर्जनं कायोत्सर्ग इत्यर्थः । स च शुद्धोपयोगलक्षणं विशुद्धात्मरूपं विश्वात्मकं लोकालोकावभासिनं परमात्मानमेव निर्जरार्थ ध्यायतः साधुर्भवति । पंचेन्द्रियाणामग्रतः प्रायश्चित्तं वक्ष्यति ॥ ३॥ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ प्रायश्चित्तसंग्रहेउत्तरमूलसंस्थेषु प्रमादाद्दर्पतश्छिदा। कायोत्सर्गोपवासाः स्युरिन्द्रियप्राणसंख्यया ॥४॥ उत्तरमूलसंस्थेषु-उत्तरमूलगुणाऽऽस्थितेषु । प्रमादात्-यत्ने कृतेऽपि जीववधे सति । दीत्-अप्रयत्नाद्धतोः। छिदा–छेदः प्रायाश्चत्तं । कायोत्सर्गोपवासाः-कायोत्सर्गाः उपवासाश्च । स्युः-भवेयुः । इंद्रियप्राणसंख्यया-इन्द्रियप्राणगणनया। तत्र तावदिन्द्रियाणि निगद्यन्ते-एकेन्द्रियाणां पंचानामपि प्रत्येकमेकमेकेन्द्रियं स्पर्शनम् । द्वीन्द्रियस्य जन्तोः दे इन्द्रिये स्पर्शनं रसनं च । त्रीन्द्रियस्य त्रीणीन्द्रियाणि स्पर्शनं रसनं घ्राणं च । चतुरिन्द्रियानां चत्वारि स्पर्शनं रसनं घ्राणं चक्षुश्च । पंचेन्द्रियस्य. पंचेन्द्रियाणि स्पर्शनं रसनं घ्राणं चक्षुः श्रोत्रं चेति । प्राणाश्चत्वारो भवन्ति इन्द्रियप्राणबलोच्छासनिश्वासप्राणायुःप्राणा इति । तत्रेन्द्रियप्राणः पंचप्र. कारः प्रागुक्त एव । बलप्राणस्त्रिविधः मनोबलं वचनबलं कायबलमिति । एते सर्वे दश प्राणा भवन्ति । उक्तं च पंचेन्द्रियाणि त्रिविधं बलं च सोच्छासनिश्वासयुतास्तथायुः ॥ प्राणा दशैते भगवद्भिरुक्तास्तेषां वियोगीकरणं तु हिंसा ॥ १ ॥ इति । एकेन्द्रियस्य चत्वारः प्राणाः स्पर्शनेन्द्रियं, कायबलं, उच्छासनिश्वासप्राणः, आयुरिति । द्वीन्द्रियस्य षट्प्राणा भवन्ति स्पर्शनरसनमिति द्वे इन्द्रिये, कायबलं, वाग्वलं, उच्छासनिश्वासप्राणः, आयुरिति । त्रीन्द्रियस्य सप्त प्राणा भवन्ति पूर्वोक्ता एव षट् घ्राणेन्द्रियाधिकाः । चतुरिन्द्रियस्याष्टौ प्राणाः पूर्वोक्ताः सप्त चक्षुरिन्द्रियाभ्याधिकाः । असंज्ञिपंचेन्द्रियस्य नव प्राणा भवन्ति प्रगुद्दिष्टा अष्ट श्रोत्रन्द्रियाभ्यधिकाः । संज्ञिपंचेन्द्रियस्य दश प्राणाः प्रागुद्दिष्टा नव मनोबलालिंगिता इति । तत्रेन्द्रियप्राणगणनयोच्यतेउत्तरगुणधारिणः प्रयत्नवतः इन्द्रियप्राणगणनया कायोत्सर्गा भवन्ति । स्थिरस्येन्द्रियगणनया कायोत्सर्गा भवन्ति-एकेन्द्रियस्य वधे एक कायोत्सर्गः द्वीन्द्रिये द्वौ कायोत्सर्गौ, त्रीन्द्रिये त्रयः कायोत्सर्गाः, Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायश्चित्त-चूलिका | १०७ 1 चतुरिन्द्रिये चत्वारः, पंचेन्द्रिये पंच | अस्थिरस्य प्राणगणनया कायोत्सर्गाः सन्ति - एकेन्द्रियस्य बधे चत्वारः कायोत्सर्गाः, द्वीन्द्रिये षट् त्रीन्द्रिये सप्त, चतुरिन्द्रियेऽष्टौ असंज्ञिपंचेन्द्रिये नव, संज्ञिपंचेन्द्रिये दश कायोत्सर्गाः भवन्ति । अप्रयत्नव्रतस्थिरस्येन्द्रियगणनया कायोत्सर्गाः उपवासाः । अस्थिरस्य प्राणगणनया कायोत्सर्गा उपवासा भवन्ति । मूलगुणधारिणः प्रयत्नचारिणः स्थिरस्येन्द्रियगणनया कायोत्सर्गाः, अस्थिरस्य प्राणगणनया भवन्ति । अप्रयत्नचेष्टस्य स्थिरस्येन्द्रियगणनया कायोत्सर्गाः उपवासाः । अस्थिरस्य प्राणगणनयोपवासा भवन्ति ॥ ४ ॥ अथवा यत्न्ययत्नेषु हृषीकप्राणसंख्यया । कायोत्सर्गा भवन्तीह क्षमणं द्वादशादिभिः ॥ ५ ॥ अथवा - अन्यमतेन । यत्न्ययत्नेषु — यत्निष्वप्रयत्नवत्सु [ प्रयत्नेषु ] पुरुषु प्रत्येकं । हृषीकप्राणसंख्यया --- इन्द्रियप्राणगणनया प्रायश्चित्तं, ( प्रयत्नपरेषु इन्द्रियगणनया ) अप्रयत्नपरेषु प्राणगणनया कायोत्सर्गा:भवन्ति — सन्ति । इह - अस्मिन् शास्त्रे | क्षमणं - उपवासस्तु । द्वादशादिभिः - द्वादशप्रभृतिभिरे केन्द्रियादिभिर्भवति । द्वादशभिरे केन्द्रियैरेक उपवासः । षड्भिः द्वीन्द्रियैरुपवासः । चतुर्भिस्त्रीन्द्रियैरुपवासः । त्रिभिश्चतुरिन्द्रियैरुपवास इति ॥ ५ ॥ पत्रिंशमिश्रभावार्कग्रहैकेषु प्रतिक्रमः । एकद्वित्रिचतुःपंचहृषीकेषु स षष्ठयुक् ॥ ६ ॥ षट्त्रिंशन्मिश्रभावार्कय हैकेषु — मिश्रभावा अष्टादश ज्ञानदर्शनादयः, अर्का : द्वादश, ग्रहा नव तेषु षटूत्रिंश [ स ] दादिषु । प्रतिक्रमः -प्रतिक्रमणं उपस्थानं । एकद्वित्रिचतुः पंचहृषीकेषु – एकेन्द्रियादिषु, एकस्मिन पंचेन्द्रिये प्रत्येकं सः । षट्त्रिंशत्सु एकेन्द्रियेषु अष्टादशसु द्वीन्द्रियेषु द्वादशसुत्रीन्द्रियेषु नवसु चतुरिन्द्रियेषु एकस्मिन् पंचेद्रिये प्रत्येकं । सः -पूर्वोपदिष्टः प्रतिक्रमः प्रायश्चित्तं भवति । षष्ठयक्षष्ठेन द्वाभ्यां निरन्तराभ्यां उपवासाभ्यां युतः समन्वितः । उक्तं चान्यैः www Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ प्रायश्चित्तसंग्रहे वारसमाई काउं चउआलस अंतु जाव विस्से तु । ? नियमेण पुन्वोच्छे उवरि पडिक्कमेण पुन्वं तु ॥ इति । निष्प्रमादः प्रमादी च प्रत्येकं स स्थिरोऽस्थिरः । मूलधार्युत्तराधारस्तस्यासंज्ञिविघातिनः ॥ ७॥ निष्प्रमादः-प्रमादः संज्वलनतीवोदय; प्रमादान्निष्क्रान्तोनिष्प्रमादः । प्रमादो यस्यास्तीति प्रमादी । प्रत्येक-एक एक प्रति । सः-निष्प्रमादः प्रमादी च । स्थिर:--लब्धप्रतिष्ठः, अपरोऽपि, अस्थिरश्च परश्च (स्व) भाव इति निष्प्रमादो द्विभेदभिन्नो भवति । प्रमादी च विभेदः । एवं चतुष्प्रकारो मूलधारी-मूलगुणधारी भवति । उत्तराधारः-उत्तरगुणोपपन्नोऽपि चतुर्विधो भवति । तस्य-पूर्वाभिहितस्य मूलगुणधारिण उत्तरगुण धारिणश्च । असंज्ञिविघातिनः--असंज्ञिपंचेद्रियोपमर्दिनः प्रायश्चित्तमुपरि वक्ष्यते ॥ ७॥ उपवासास्त्रयः षष्ठं षष्ठं मासो लघुः सकृत् । कल्याणं त्रिचतुर्थानि कल्याणं षष्ठकं क्रमात् ॥ ८॥ उपवासा:-क्षमणानि, त्रयः भवन्ति । षष्ठं-दौ उपवासौ । पुनः षष्ठं । मासो लघुः-लघुमासः । सकृत्-एकवारं । कल्याणं-पंचकं । विचतुर्थानि-त्रीणि चतुर्थानि वय उपवासा इत्यर्थः । पुनः कल्याणपंचकं । षष्ठं । क्रमात्-क्रमेण । एतानि प्रायश्चित्तानि मूलोत्तरगुणधारिणः सकृ. दसज्ञिपचन्द्रिये हते सति यथासंख्यं भवन्ति ॥ ८ ॥ षष्ठं मासो लधुर्मूलं मूलच्छेदोऽसकृत्पुनः । उपवासास्त्रयः षष्ठं लघुमासोऽथ मासिकम् ॥ ९॥ षष्ठं-षष्ठप्रायश्चित्तं । मासो लघुः-लघुमासः । मूलं-मासिकं । मूलच्छेदः-पुनरपि मासिकप्रायश्चित्तं । असकृत्पुनः-अनेकवारं तु । उपवासास्त्रयः--त्रीणि क्षमणानि। षष्ठं-षष्ठप्रायश्चित्तं । लघुमासः---लघुमास Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायश्चित्त-चूलिका। ५०९ प्रायश्चित्तं । अथ-अनन्तरं । मासिकं-पंचकल्याणं । एतच्चासकृदसंज्ञिपंचे. न्द्रियस्य वधे कृते सति तयोरेव यथासंख्यं प्रायश्चित्तं भवति ॥ ९ ॥ एतत्सान्तरमाम्नातं संज्ञिनि स्यान्निरन्तरम् । तीव्रमंदादिकान् भावानवगम्य प्रयोजयेत् ॥ १० ॥ एतत्-अदः प्रागुक्तं प्रायश्चित्तं । सान्तरं-~-सव्यवधानं व्याधिप्रभृतिकारणसमागमे सत्याचार्यानुज्ञया विश्रम्यापि क्रियते इति सान्तरं । आम्नातं-अभिहितं । संज्ञिनि स्यान्निरन्तरं-संज्ञी शिक्षाक्रियालापग्राही तस्मिन् निहते सति, स्याद्भवेत्, निरन्तरं यदसंज्ञिपंचेन्द्रियोद्दिष्टं प्रायश्चित्तं संज्ञिपंचेन्द्रिये तदेव निरन्तरं व्यवधानविवर्जितं भवति । तीव्रमंदादिकान् भावान्-भावाः परिणामः स च त्रिविधो भवति शुभाशुभविशुद्धविशेषात् । तत्र शुभः पुण्योपचयहेतुः । अशुभः पापोपचयकारणं द्वेषात्मपरिणामोऽशुभः । रागरूपः शुभोऽपि भवत्यशभश्च । विशुद्धोऽनुभः यात्मकः । स पक्षकस्तेन्यस्तानां ? भवति । तत्राशुभो भावस्त्रिविधतीब्रो मन्दो मध्य इति । तत्र चाशुभस्तीवः कृष्णलेश्यो, मध्यमो नीललेश्यो, मन्दः कपोतलेश्य इति । शुभोऽपि त्रिभेदभिन्नो भवति । तत्र शुभो मंदस्तेजोलेश्यः, मध्यमः पद्मलेश्यः, तीवः शुक्ललेश्यः । पुनस्तीवादयो भावास्तीव्रतरतीव्रतमभेदविशेषविशिष्टा भवंति । पुनस्तेऽपि प्रत्यकं त्रिविधाः । एवं शुभभावाश्च तावद्यावदसंख्येया लोका इति । एवमेतान । अवगम्य-ज्ञात्वा। प्रयोजयेत्-प्रायश्चित्तं सम्बन्धयेत् ॥ १० ॥ साधूपासकबालस्त्रीधेनूनां घातने क्रमात् । याववादशमासाः स्यात् षष्ठमर्धार्धहानियुक् ॥ ११ ॥ साधूपासकबालस्त्रीधेनूना-साधुर्यती रत्नत्रयधारी, उपासकः संयतासंयतः, बालः शिशुः, स्त्री योषिन्महिला, धेनुगौः तासां। घातने-व्यापादने क्रमात्-यथाक्रमेण । याववादशमासाः-द्वादशमासा यावत् । स्यात् Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० प्रायश्चित्तसंग्रह षष्ठेन पारणा षष्ठेन षष्ठेन पारण। यतं भवति । श्राव भवेत् । षष्ठं-षष्ठोपवासः । ऋषिहत्यायां सत्यां द्वादशमासा यावत् षष्ठेन षष्ठेन कृत्वा पारणं प्रायश्चित्तं भवति । अर्धाधहानियुक्- अर्धाधहानियुतं ततस्तदेव षष्ठमर्धिहानियुक्तं भवति । श्रावकस्य घाते कृते सति षण्मासाः षष्ठेन षष्ठेन पारणं । बालस्य घाते सति त्रयो मासाः षष्ठेन षष्ठेन पारणं । स्त्रीघाते सा? मासः षष्ठेन षष्ठेन पारणं । गोधाते त्रयोविंशतिदिवसाः षष्ठेन षष्ठेन पारणाप्रायश्चित्तं भवति ॥ ११ ॥ पाषंडिनां च तद्भक्ततधोनीनां विधातने । आषण्मासं भवेत्षष्ठं तदर्धार्ध ततः परम् ॥१२॥ पाषंडिनां--अन्यलिंगिनां भौतिकभिक्षुपरिबाटकापालिकादीनां । तद्भक्ततधोनीनां तेषां पाषण्डिनां ये भक्ता उपसेविनः माहेश्वरादयस्तेषां, तयोनीनां माहेश्वरादीनां योनीनां योनिभूतानां स्वजनानामित्यर्थः तेषां च । घातेने सति । आषण्मासं भवेत् षष्ठं--पाषण्डिघाते सति आषण्मासं यावत्, षष्ठं षष्ठप्रायश्चित्तं भवति । तदर्धार्ध ततः परं--तस्य षण्मासघष्ठस्य यथागममधि, ततः परं तदनन्तरं भवति । तद्भावधे त्रयो मासाः षष्ठप्रायश्चित्तं भवति । (तयोनिवधे सा| मासः षषप्रायश्चित्तं भवति )॥ १२ ॥ ब्राम्हणक्षत्रविदछूद्रचतुष्पदविघातिनः। एकान्तराष्टमासाः स्युः षष्ठाद्यन्ताश्च पूर्ववत् ॥ १३ ॥ ब्राह्मणक्षत्रविद्रचतुष्पदविघातिनः-ब्राह्मणाः लौकिका विप्राः, क्षत्राः क्षत्रियाः, विशो वैश्याः, शूद्रास्तत्प्रेषणकारिणः तक्षाभीरकुम्भकारादयः चतुष्पदास्तान विहन्तीत्येवं शीलस्तद्विघाती । अथवा तद्विघातोऽस्यास्तीति तद्विघाती तस्य ब्राह्मणक्षत्रविट्छूद्रचतुष्पदविधातिनः साधोः । एकान्तराष्टमासा:---एकान्तरेण एकान्तरोपवासेन, अष्टमासाः अष्टौ त्रिंशद्रात्राः । स्युः--भवेयुः । षष्ठायन्ताः---षष्ठाद्याः षष्ठान्ताश्च आदावन्ते च षष्ठं भवतीत्ययमर्थः। पूर्ववत्-अर्धाहानितः । लौकिकब्राह्मणघाते कथंचि ___ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायश्चित्त-चूलिका। १११ संपन्ने षष्ठायन्ता अष्टमासा एकान्तरोपवासेन प्रायश्चित्तं भवति । क्षत्रियघाते चत्वारो मासाः । वैश्यपाते द्वौ मासौ । शूद्रघाते मासः । चतुष्पदविधाते सत्यर्धमासो भवति ॥ १३ ॥ तृणमांसात्पतत्सर्पपरिसर्पजलौकसाम् । चतुर्दशनवाद्यन्तक्षमणानि वधे छिदा ॥ १४ ॥ तृणमांसात्पतत्सर्पपरिसर्पजलौकसां-तृणात् तृणचरः, मांसात्मांसाशी, पतत् पक्षी, सर्पो विषधरः, परिसर्पः गोधेराविः, जलौकसो जलचरास्तेषां घाते सति । चतुर्दशनवाद्यन्तक्षमणानि-चतुर्दशादीनि नवान्तानि क्षमणानि उपवासाः । वधे-घाते । छिदा-छेदः प्रायश्चित्तं भवति । तृणचरस्य. मृगशश करोधादेविधाते चतुर्दशोपवासा भवन्ति । मांसाशिनः सिंहव्याघ्रचित्र मादेविघाते त्रयोदश उपवासाः । तित्तिरिमयूरकुर्कटपारापतादिपक्षिविशेषविधाते द्वादशोपवासाः । सर्पगौनसादौ सर्पजातिव्यापादने एकादशोपवासाः । गोधेरककृकलासादिपरिसर्पविनाशे दशोपवासाः । मकरशिशुमारमत्स्य कच्छपादीनां विनाशने नवोपवासाः सन्ति ॥ १४ ॥ प्रथमं व्रतम् प्रत्यक्षे च परोक्षे च द्वयेऽपि च विधानृते । कायोत्सर्गोपवासाः स्युः सकृदेकैकवर्धनात् ॥ १५ ॥ प्रत्यक्षे च–व्यक्तं । परोक्षे-असमक्षं च । तद्वयेऽपि-प्रत्यक्षे परोक्षे च। त्रिधा--मनसा, वचसा, कायेन च। अनुते-असत्यभाषणे कृते सति । कायोत्सर्गोपवासाः--कायोत्सर्गा उपवासाश्च प्रायश्चित्तं । स्युः--भवेयुः । सकृत्---एकवारं । एकैकवर्धनात्--एकोत्तरवृद्धया। च शब्दोऽनुकृष्टे समुच्चयार्थः । तेन सप्रतिक्रमणाः कायोत्सर्गापवासाः सन्ति । प्रत्यक्षमृषा १ द्विरुक्तोयं शब्दः पुस्तके। Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ प्रायश्चित्तसंग्रहे RA बादे एकः कायोत्सर्ग उपवासश्च प्रतिक्रमणः । परोक्षे मृषावादे दो कायोत्सर्गोपवासौ च प्रतिक्रमणे । उभयस्मिन् मृषावादे त्रयः कायोत्सर्गा उपबासाश्च प्रतिक्रमणः (णाः)। त्रिधामृषावादे चत्वारः कायोत्सर्गाः उपवासाश्च प्रतिक्रमणपुरस्सरा भवन्ति एकबारम् ॥ १५॥ असकृन्मासिकं साधोरसदोषाभिभाषिणः । कषायादभियुक्तस्य परैर्वा द्विगुणादि तत् ॥ १६ ॥ असकृन्मासिकं--अन्त इति वर्तते तेन असकृदनेकवारमनृते सति मासिकं पंचकल्याणं प्रायश्चित्तं भवति । साधोरसदोषाभिभाषिणः-- साधार्यतेः संबन्धिनः, असतोऽविद्यमानस्य, दोषस्यापराधस्य, यः कश्चिन्मुनिरभिभाषणशीलस्तस्य । कषायात्--क्रोधमानमायालोभैर्हेतुभूतैः। अभियुक्तस्य परैर्वा--परैरन्यैर्वा समीपस्थितैः, अभियुक्तस्य प्रेरितस्य सतः । द्विगुणादि तत्-पूर्वोक्तं प्रायश्चित्तं कायोत्सर्गादिमासिकपर्यन्तं द्विगुणादि भवति द्विगुणं त्रिगुणं चतुर्गुणं पंचगुणं अधिकगुणं च वापि देयम् ॥ १६ ॥ नीचः पैशून्ययुष्टस्य गच्छाद्देशाबहिष्कृतिः तच्छुत्वा मन्यमानोऽपि दोषपादांशमश्नुते ॥ १७॥ नीच:--पृथग्भूतस्य निकृष्टस्य । पैशून्ययुष्टस्य--पिशुनो दुर्जनः तस्य भावः पैशून्यं तेन युष्टस्य सेवितस्योपहतस्य सतः। गच्छात्---गणात् । देशात्-विषयाच्च । बहिष्कृतिः-बहिष्करणमुद्वासनं प्रायश्चित्तं भवति । तच्छ्रुत्वा-तत्साधोः सम्बन्धि पैशुन्यं श्रुत्वा आकर्ण्य । मन्यमानोऽपिमन्धानश्च मुनिः । दोषपादांशं-तद्दोषचतुर्भागं । अनुते-लभते ॥ १७॥ द्वितीयं व्रतम् सकृच्छून्ये समक्षं चानाभोगेऽदत्तसंग्रहे । कायोत्सर्गोपवासाः स्युः प्राग्वन्मूलगुणोऽसकृत् ॥१८॥ ___ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायश्चित्त-चूलिका। ११३ सकृत् -एकवारं । शून्ये-विजने । समक्षं-सपक्षाणां प्रत्यक्षं । अनाभोगे-मिथ्यादृष्टयादीनामपरिपश्यतां विशेषवतः पदार्थस्य । अदत्तसंग्रह-अवितीर्णग्रहणे सति । कायोत्सर्गोपवासाः-कायोत्सर्गा उपवासाश्च । स्युः-भवेयुः । प्राग्वत्-पूर्ववत् एकोत्तरवृद्ध्या इत्यर्थः। चशब्दात्प्रतिक्रमणपुरस्सराः कायोत्सर्गोपवासाः सन्ति । शून्येऽदत्तादाने एकः कायोत्सर्ग उपवासश्च सप्रतिक्रमणः । प्रत्यक्षमदत्तादाने सति द्वौ कायोत्सर्गों द्वावुपवासौ सप्रतिक्रमणौ सुवर्णहिरण्यादौ तु मूलगुणप्रायश्चित्तं भवति । मूलगुणोऽसकृत्-असकृदनेकवारं अदत्तादाने मूलगुणः पंचककल्याणं स्यात् ॥ १८॥ आचार्यस्योपधेरा विनेयास्तान् विना पुनः । सधर्माणोऽथ गच्छश्च शेषसंघोऽपि च क्रमात् ॥ १९ ॥ आचार्यस्य--गणिनः । उपधेः--पुस्तकाद्युपकरणस्य । अर्हा:-- योग्याः । विनयाः--तच्छिष्याः । तान् विना पुनः--शिष्यैर्विना तु। सध. मणिः---गुरुभ्रातरः अर्हाः । अथ--अनन्तरं सधर्मणो विना । गच्छ:स्वगणोऽपि त्रिपुरुषान्वयोऽपि अर्हः । गच्छं विना, शेषसंघोऽपि च---शेषो. ऽवशिष्टः संघश्च सप्तपुरुषान्वयोऽपि योग्यः । कमात्--क्रमेण यथान्यायं यथाक्रमं परिपाट्या ॥ १९॥ सर्वे स्वामिवितीर्णस्य योग्यो ज्ञानोपधेरपि । स्वामिना वा वितीर्यत यस्मै सोऽपि तमर्हति ॥२०॥ सर्वे-निरवशेषाः साधवः शिष्यादयोऽन्यसम्बन्धिनोऽपि । स्वामिवितीर्णस्य-उपकरणस्य, प्रभुणा प्रवितीर्णस्योपकरणस्य अर्हा भवन्ति । योग्यो ज्ञानोपधेरपि-ज्ञानोपधेः पुस्तकस्य तु योग्यः य एव योग्यो ज्ञानी स एवाहः । स्वामिना वा वितीर्येत यस्मै-वा अथवा, स्वामिना पुस्तकपतिना, यस्मै साधवे, वितीर्यत दीयते । सोऽपि- स च । तं-ज्ञानोपधिं । अर्हति-भजति गृह्णाति ॥ २० ॥ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायश्चित्तसंग्रहे— एवंविधि समुल्लंघ्य यः प्रवर्तेत मूढधीः । बलवन्तं समासृत्य यो वादत्ते प्रदोषतः ॥ २१ ॥ ११४ - एवंविधिं - एवंभूतां व्यवस्थां । समुल्लंघ्य — अतिक्रम्य । यः कश्चित् साधुः । प्रवर्तेत - प्रवर्तते चेष्टते । मूढधीः मूढबुद्धिः । बलवन्तं समासृत्य यो वादत्ते वा अथवा, यो यतिः, बलवन्तं बलिनं नरेन्द्रादिकं, समासृत्य उपपद्य, आदत्ते गृह्णाति उपकरणं । प्रदोषतः - प्रदोषात् प्रदेवात्, तस्य वक्ष्यमाणो दण्डः ॥ २१ ॥ सर्वस्वहरणं तस्य षण्मासः क्षमणं भवेत् । योऽन्यथापि तमादत्ते तस्य तन्मौनसंयुतं ॥ २२ - तस्य- - तस्यान्यायविधायिनः । सर्वस्वरहणं – निरवशेषपुस्तकाद्युपकरणापहारो दण्डः । षण्मासः क्षमणं -- षण्मासान् यावदेकान्तरोपवासश्च । भवेत् स्यात् । योऽन्यथापि तमादत्ते-यः साधुः, अन्यथापि अन्येनापि केनचित्प्रकारान्तरेण, तमुपधिं, आदत्ते गृह्णाति । तस्य - साधोः | तत् - तदेव प्रागभिहितं षण्मासक्षमणं प्रायश्चित्तं भवति । मौनसंयुतं -- मौनेन समन्वितम् ॥ २२ ॥ तृतीयं व्रतम् । ― क्रियात्रये कृते दृष्टे दुःस्वप्ने रजनीमुखे । सोपस्थानं चतुर्थं नित्यमाभुक्ती प्रतिक्रमः ॥ २३ ॥ क्रियात्रये - स्वाध्यायनियमवंदना करणत्रितये । कृते सति, विहिते सति । दृष्टे - विलोकिते । दुःखमेरेतयुतौ सतीत्यर्थः । रजनीमुखेप्रदोषसमये । सोपस्थानं चतुर्थी - सोपस्थानं सप्रतिक्रमणं, चतुर्थमुपवासः । नियमाभुक्ती नियमो लघुप्रतिक्रमणं, अभुक्तिरुपवासः । प्रतिक्रमः - अयं प्रतिक्रमो नियम इति ग्राह्यः । रात्रेः प्रथमभागे स्वाध्यायाद्यन्यतरक्रियां Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायश्चित्त-चूलिका। विधाय सुप्तस्य दुःस्वप्ने सति सप्रतिक्रमणोपवासः प्रायश्चित्तं भवति । क्रियाद्वयं विधाय सुप्तस्य दुःस्वने सति नियमोपवासौ भवतः । क्रियात्रयमपि कृत्वा प्रसुप्तस्य सतः दुःस्वप्ने सति नियमः प्रायश्चित्तं भवतीति यथाक्रमं योज्यम् ॥ २३ ॥ नियमक्षमणे स्यातामुपवासप्रतिक्रमौ । रजन्या विरहे तु स्तः क्रमात् षष्ठप्रतिक्रमौ ॥ २४॥ नियमक्षमणे-नियमोपवासौ । स्यातां-भवेतां । उपवासप्रतिक्रमौउपवासप्रतिक्रमणौ । रजन्या विरहे तु-रात्रेः पश्चिमप्रहरे पुनः । स्तःभवतः । कमात्--क्रमेण यथासंख्यं । षष्ठप्रतिक्रमौ---षष्ठप्रतिक्रमणौ । रात्रेश्वरमप्रहरे एकां क्रियां विधाय संसुप्तस्य दुःस्वप्ने सति नियमोपवासौ प्रायश्चित्तं । क्रियाद्वयं विधाय शयितस्य दुःस्वप्ने सति उपवासेन सह प्रतिक्रमणो भवति । (किंयात्रयं विधाय शयितस्य दुःस्वप्ने सति सप्रतिक्रमणं षष्ठं प्रायश्चित्तं भवति )॥ २४ ॥ मद्यमांसमधु स्वप्ने मैथुनं वा निषेवते । उपवासोऽस्य दातव्यः सोपस्थानश्च चेद्बहु ॥ २५ ॥ मद्यमांसमधु-मद्यं सुरा, मांसं पिशितं, मधु माक्षिकं । स्वप्ने—निद्रायां । मैथुनं वा–अब्रह्म वा । निषेवते-यद्यनुभवति । तदानीं, उपवासोऽस्य दातव्यः-उपवासः प्रायश्चित्तं, अस्य एतस्य साधोः, दातव्यो देयः । सोपस्थानश्च--प्रतिक्रमणायोपलक्षितो भवति । चेद्बहु-यदि मद्यमांसमैथुनादि बहु निषेवितं भवति ॥ २५ ॥ तरुण्या तरुणः कुर्यात्कथालापं सकृयदि । - उपवासोऽस्य दातव्योऽसकृत् षण्मासपश्चिमः ॥२६॥ १ नायं कंसस्थः पाठः पुस्तके अर्थानुसारित्वात् स्वबुद्धथा परिकल्प्य संयोजितः। पदयतु छेदपिण्डस्य ५७-५८ गाथाद्वयं । Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायश्चित्तसंग्रहे Narror.mrrrrrrrrrrrrrrrrrrr....mare तरुण्या-स्त्रिया सह । तरुणो-युवा यतिः । कुर्यात्-करोति । कथालापं-कथा वाक्यप्रबंध, आलापं सामान्यवचनं । सकृत्-एकवारं । यदि-चेत् कथंचित् । उपवासोऽस्य दातव्यः-उपवासः प्रायश्चित्तं, अस्य एतस्य स्त्रीकथालापकारिणः, दातव्यो देयः । असकृत् - अनेकवारं । यदि स्त्रीभिः सह कथालापं करोति तदा स एवोपवासः । षण्मासपश्चिमः--षण्मा. सावधिर्भवति ॥ २६ ॥ .. स्त्रीजनेन कथालापं गुरूनुल्लंध्य कुर्वतः । स्यादेकादि प्रदातव्यं षष्ठं षण्मासपश्चिमं ॥ २७ ॥ स्त्रीजनन कथालापं-स्त्रीजनेन योषिन्निवहेन सह, कथालापं रहस्यादि समुल्लापं । गुरूनुलंध्य-आचार्योपाध्यायादिभिर्विनिवारितस्यापि । कुर्वतो-विदधानस्य । स्यात्---भवेत् । एकादि प्रदातव्यं षष्ठं-एकषष्ठादि प्रायश्चित्तं प्रदातव्यं । षण्मासपश्चिमं-षण्मासावधि ॥ २७ ॥ स्त्रीजनेन कथालापं गुरूनुलंध्य कुर्वतः । त्याग एवास्य कर्तव्यो जिनशासनदूषिणः ॥ २८॥ . स्त्रीजनेन-महिलासमूहेन । कथालापं-गुह्यकथासमुल्लापं । गुरूनआचार्यादीन् । उल्लंघ्य-अतिक्रम्य । कुर्वतो-विदधतः । त्याग एवास्य कर्तव्यः-अस्य निरंकुशस्य त्याग एव उद्वासनमेव कर्तव्यो विधेयः । जिनशासनदूषिणः सर्वज्ञाज्ञाकलङ्ककारिणः ॥ २८॥ स्थातुकामः स चेद्भूयस्तिष्ठेत्क्रमणमौनतः । आषण्मासमयः कालो गुरूद्दिष्टावधिर्भवेत् ॥ २९ ॥ स्थातुकामः--स्थातुमनाः । सः---पूर्वोक्तः । चेत् (१)। समयः (!)। गुरूद्दिष्टावधिः--आचार्योपदिष्टमर्यादः । भवेत्--स्यात् । यावन्तं कालं आचार्योऽभीच्छति तावान् कालो भवति ॥ २९ ॥ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायश्चित्त-चूलिका। १९७ दृष्ट्वा योषामुखाद्यङ्ग यस्य कामः प्रकुप्यति । आलोचना तनूत्सर्गस्तस्य च्छेदो भवेदयम् ॥ ३० ॥ दृष्ट्वा-अवलोक्य। योषामुखाद्यङ्गं-स्त्रीवदनायवयवं । यस्य-कस्यचिन्मन्दभाग्यस्य । कामो--ऽभिलाषः । प्रकुप्यति--उत्कोचमायाति । आलोचना-गुरुभ्यः स्वदोषविनिवेदनं । तनूत्सर्ग:-कायोत्सर्गः । तस्यप्रागुक्तस्य साधोः । छेदः-प्रायश्चित्तं । भवेत् स्यात् । अयं-एषः ॥ ३० ॥ स्त्रीगुह्यालोकिनो वृष्यरससंसेविनो भवेत् । रसानां हि परित्यागः स्वाध्यायोऽचित्तरोधिनः ॥ ३१ ॥ स्त्रीगुह्यालोकिनः-स्त्रीणां गुह्यादेः योनिप्रभृत्यवयवस्यालोकनशीलस्य लिंगिनः । वृष्यरससंसेविनः वृषाणीन्द्रियाणि तेभ्यो हिता बलोपचयविधायिनो वृष्यास्ते च ते रसाश्च वृष्यरसास्तान् संसेवते इत्येवं शीलः वृष्यरससंसेवी तस्य च । भवेत् -स्यात् । रसानां-दधिदुग्धशाल्योदनघृतपूरादीनामिन्द्रियबलवर्धनानां । हि-स्फुटं । परित्यागः-परिवर्जनं प्रायश्चित्तं भवति । स्वाध्यायोऽचित्तरोधिनः-स्वाध्यायोऽपराजितादिपरममंत्रपदजपः परमागमाध्ययनं च सोऽयमनुचरतः स्वाध्यायो विशुद्धध्यानाधारभूतः प्रायश्चित्तं भवति प्रज्ञातिशयाध्यवसानविशुद्धिहेतुत्वात् । उक्तं चमनः सदाधिगमे प्रसक्तं वाक्यार्थयोगे नयने पदेषु । श्रुतिः श्रुतौ निश्चलविग्रहस्य ध्यानेऽपि चैकाम्यमिहापि तुल्यम् ॥१॥ इत्यादि । अचित्तरोधिनो मनोरोधविरहितस्य सतः साधोः तत्वाभ्यास एव प्रायश्चित्तं भवति ॥ ३१॥ चतुर्थम्। Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ प्रायश्चित्तसंग्रहे उपधेः स्थापनाल्लोभादैन्यादानप्ररूढितः। संग्रहात क्षमणं षष्ठमष्टमं मासमूलके ॥ ३२ ॥ उपधेः--गृहस्थोपकरणस्य । स्थापनात्-प्रणिधानात् । लोमात्मूर्छायाः । दैन्यात्-कार्पण्यात् । दानप्ररू ढतः -रूढिप्रदानात् प्रसिद्धदानग्रहणात् । संग्रहात्-~-सर्वपरिग्रहग्रहणाद्धेतोः । क्षमण-मुपवासः । षष्ठं-षष्ठप्रायश्चित्तं । अष्टमं-~-अष्टमदण्डनं ।मासमूलके-द्वे, मास: मासिकं, मूलं पुनर्दीक्षा । गृहस्थमात्रास्थापने क्षमणं प्रायश्चित्तं सोपस्थानं । सुवर्णहिरण्यादिपरिग्रहलोभे च सति षष्ठं । याचित्वा सुवर्णहिरण्यादिपरिग्रहादानेष्टमं । ग्रहणसंक्रान्तिव्यतिपातादिषु प्रसिद्धेषु हिरण्यसुवर्णादिसंग्रहणे सति मासिकं । हिरण्यसुवर्णमणिमुक्ताफलादिसाभोगपरिग्रहसमादाने मूलं प्राय: श्चित्तं भवति ॥ ३२॥ पंचमम् । रात्रौ ग्लानेन भुक्ते स्यादेकस्मिँश्च चतुर्विधे। उपवासः प्रदातव्यः षष्ठमेव यथाक्रमम् ॥ ३३ ॥ रात्रौ-निशि । ग्लानेन-व्याधिविशेषपरिश्रमविविधोपवासादिपरिपी. डितेन सता कर्मोदयवशात् प्राणसंकटे । भुक्ते-ऽभ्यवहृते सति । स्यात्भवेत् । एकस्मिन्-भुक्ते एकतराहारे भुक्ते, सति । चतुर्विधे चतुष्प्रकारे अशने पाने खाये स्वाये च । उपवास:--क्षमणं । प्रदातव्यः-प्रदेयः । षष्ठमेव षष्ठं । यथाक्रम--यथासंख्यं । एकस्मिन्नाहारे क्षमणं । चतुर्विधाहारे षष्ठमिति प्रयोज्यम् ॥ ३३॥ षष्टम् । व्यायामगमनेऽमार्गे प्रासुकेऽप्रासुके यतेः । कायोत्सर्गोपवासौ स्तोऽपूर्णेकोशे यथाक्रमम् ॥ ३४ ॥ ___ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायश्चित्त-चूलिका। ११९ व्यायामगमने-पादश्रमकरणप्रयाणे सति । अमार्गे---उत्पथे । प्रासुके--प्रगता असवः प्राणा यस्मादसौ प्रासुकः विजन्तुकस्तस्मिन् । अप्रासुके-सजन्तुके च । यतेः-~साधोः । कायोत्सर्गोपचासौ-कायो। त्सर्गः उपवासश्च एतौ द्वावपि । स्तः-भवतः । अपूर्ते (%)-असंभृते । क्रोशे-गव्यूतौ दिदण्डसहस्रप्रमाणेऽध्वनि । यथाक्रम-यथासंख्यं । प्रासुकमार्गेण व्यायामनिमित्तं गतस्य कायोत्सर्गः । अप्रासुकमार्गेणोपवास इति ॥ ३४॥ घननीहारतापेषु क्रोशैर्वन्हिस्वरग्रहैः । क्षमणं प्रासुके मार्गे द्विचतुःषड्भिरन्यथा ॥ ३५ ॥ घननीहारतापेषु-धनः घनकालः वर्षाकालः, नीहारः नीहारकालः शीतकालः, तापः तापकालः उष्णसमयः तेषु । क्रोशैः-गव्यूतिभिः । वन्हिस्वरग्रहै:--वन्हयः त्रयः, स्वराः षट्, ग्रहा नव तैः कृत्वा गमने सति । क्षमणं--उपवासः । प्रासुके मार्गे-विजन्तुके वर्त्मनि । द्विचतुःषड्भिरन्यथा--अन्यथाऽन्येन प्रकारेण अप्रासुके मार्गे द्विचतुःषभिः क्रोशैः क्षमणं । द्वाभ्यां वर्षाकाले अप्रासुके मार्गे गमने सति उपवास: प्रायश्चित्तं भवति । चतुः क्रोशेषु शीतकालेऽप्रासुकमार्गे गमने क्षमणं प्रायश्चित्तं भवतीति यथाक्रमं योज्यं । एतदिवसे उत्तरत्र रात्रिग्रहणात् ॥ ३५ ॥ दशमादृष्टमाच्छुद्धो रात्रिगामी सजन्तुके। विजन्तौ च त्रिभिः क्रोशैर्मार्गे प्रावृषि संयतः ॥ ३६॥ दशमात्-चतुर्मिनिरन्तरोपवासैः । अष्टमात्-त्रिभिर्निरन्तरोपवासैः । शुद्धो--विशुद्धो भवति । रात्रिगामी-रात्रौ गच्छतीत्येवंशीलः रात्रिगामी निशाप्रयासी। सजन्तु के--सजीवे मार्गे । विजन्तौ च प्रासुकेऽपि । त्रिभिः क्रोशैः--त्रिभिर्गव्यूतिभिः । मार्गे-वर्त्मनि । प्रावृषि-प्रावृट्काले । संयतः-साधुः । प्रावटकाले कथंचिद्रात्रिगमने सति अप्रासुकमार्गेण दशमं प्रायश्चित्तं भवति। त्रिभिः क्रोशैः प्रासुके चाष्ठमात् संशुद्धयति ॥ ३६॥ Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० प्रायश्चित्तसंग्रहे summmniwwwwwwwwwwwww.......... हिमे क्रोशचतुष्केणाप्यष्टमं षष्ठमीर्यते। . ग्रीष्मे क्रोशेषु षट्सु स्यात् षष्ठमन्यत्र च क्षमा ॥ ३७ ॥ हिमे-हिमकाले । क्रोशचतुष्केणापि--गव्यूतिचतुष्टयेन गत्वा । अष्टमं--अष्टमप्रायश्चित्तं भवति । प्रासुके तु षष्ठं स्यात् । ग्रीष्मे----उष्णकाले । कोशेषु षट्सु-षट्सु गव्यूतिषु । स्यात्-भवेत् । षष्ठं-दावुपवासौ निरन्तरौ । अन्यत्र च-प्रासुकमार्गेऽपि । क्षमा-क्षमणमुपवासः । उष्णकाल षट्सु क्रोशेष रात्रिगमने सति अप्रासुकमार्गेण षष्ठं प्रायश्चित्तं । प्रासुकमार्गे पुनः क्षमणं भवति ॥ ३७॥ सप्रतिक्रमणं मूलं तावन्ति क्षमणानि च । स्याल्लघुः प्रथमे पक्षे मध्येन्त्ये योगभंजने ॥ ३८॥ सप्रतिक्रमणं--प्रतिक्रमणया सहितं । मूलं--पंचकल्याणं । तावन्तितत्प्रमाणानि । क्षमणानि च--उपवासाश्च । स्यात्--भवेत् । लघुः-- लघुमासः । प्रथमे पक्षे-आये पंचदशरात्रे । मध्ये-मध्यकाले । अन्त्ये-- अन्ते भवोऽन्त्यस्तस्मिन्नन्त्ये चरमे पक्षे । योगभंजने-योगभंगे। वर्षासु राविद्धर ( ? ) देशभंगादिकारणाद्योगे भग्ने सति प्रथमपक्ष एव सोपस्थानं मासिकं प्रायश्चित्तं भवति । प्रथमपक्षार्धे यावन्तो दिवसा तिष्ठन्ति तावन्त उपवासाः प्रायश्चित्तं । ततोऽन्त्ये काले पक्षे शेषे भिन्ने सति लघुमासः प्रायश्चित्तं भवति ॥ ३८ ॥ जानुदन्ने तनूत्सर्गः क्षमणं चतुरंगुले ।। द्विगुणा द्विगुणास्तस्मादुपवासाः स्युरम्भसि ॥ ३९ ॥ जानुदघ्न-जानुमात्रे । अंभसि-। तनूत्सर्ग:-कायोत्सर्ग । क्षमणंउपवासः प्रायश्चित्तं तस्य । चतुरंगुले--चतुरंगुलप्रमाणे सति । द्विगुणा द्विगुणास्तस्मात्-ततः । उपवासाः-क्षमणानि । स्यु:-भवेयुः । अंभसि पानीये मध्येन गतस्य सतः कायोत्सर्गः प्रायश्चित्तं भवति । ततश्चतुरंगुले ___ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायश्चित्त-चूलिका। पानीये गतस्य उपवासः । ततः परं चतुरंगुले चतुरङ्गले जले सति द्विगुणा द्विगुणा उपवासा भवन्ति ॥ ३९ ॥ दण्डैः षोडशभिर्मेये भवन्त्येते जलेऽअसा। __ कायोत्सर्गोपवासास्तु जन्तुकीर्णे ततोऽधिकाः ॥ ४० ॥ दण्डैः-चतुर्हस्तप्रमाणैः । षोडशभिर्मेये-षोडशभिर्दण्डै#ये परिच्छेदाः । भवन्ति-सन्ति । एते-इमे प्रागुक्ताः । जले-पानीये। अंजसा-परमार्थेन स्फुटं । कायोत्सर्गोपवासाः-कायोत्सर्गा उपवासाश्च सन्ति । जन्तुकीर्णे-तु, जन्तुकीर्ण पुनः प्राणिगणसंभूते सति । ततः-तेभ्यः कायोत्सर्गोपवासेभ्यः । अधिका:--प्रवृद्धाः । षोडशदण्डप्रमाणे पानीये मध्येन गतस्य साधोः पूर्वोक्ताः कायोत्सर्गोपवासा भवन्ति न न्यूने । सजुन्तुके तु ततोऽभ्यधिकाश्च पूर्वोद्दिष्टप्रायश्चित्तप्रमाणकायोत्सर्गोपवासेभ्यः सकाशात् सातिरेकाः सातिरेकाः कायोत्सर्गोपवासा भवन्तीत्यर्थः ॥ ४० ॥ स्वपरार्थप्रयुक्तैश्च नावाद्येस्तरणे सति। स्वल्पं वा बहु वा दद्याज्ज्ञातकालादिको गणी ॥ ११ ॥ स्वपरार्थप्रयुक्तैश्च-स्वार्थमात्मनि निमित्तं, परार्थमन्यजनहेतोः, प्रयुक्तैः प्रेरितैः प्रयोजितैः । नावाद्यैः-द्रोणीप्रभृतिभिः कृत्वा । तरणे-जले उत्तरणे । सति-विद्यमाने । स्वल्पं-स्तोकं कायोत्सर्ग । बहु वा-अथवा भर्यपि । दद्यात्-प्रयच्छेत् । ज्ञातकालादिकः-अवमितकालादिकः कालमवबुद्ध्य प्रायश्चित्तं वितरति । गणी --आचार्यः ॥ ४१ ॥ दक्षेण गणिना देयं जलयाने विशोधनम् । साधूनामपि चार्याणां जलकेलिमहासृणिः ॥४२॥ दक्षेण-कुशलेन । गणिना-आचार्येण । देयं-दातव्यं । जलयाने पानीयगमने । विशोधनं-प्रायश्चित्तं। साधूनां--यतीनां । अपि चार्याणां १ अस्य स्थाने केलि इति पाठः पुस्तके । Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ प्रायश्चित्तसंग्रहे अपि च संयतिकानां च । जलकेलिमहासृणिः--जलकेलिः जलकीडा तस्या विनिवारणे महासृणिश्च तस्य प्रायश्चित्तं नाम ॥ ४१ ॥ युग्यादिगमने शुद्धिं द्विगुणां पथिशुद्धितः। ज्ञात्वा नृजातं वाचार्यो दद्यात्तदोषघातिनीम् ॥ ४३॥ ___ युग्यादिगमने-युग्ययानादिप्रयाणे । अस्य [वि] शुद्धि-प्रायश्चित्तं । द्विगुणां-द्विः (?)। पथिशुद्धितः--पथः शुद्धिः पथिशुद्धिस्तस्याः पथिशुद्धितः मार्गगमनप्रायश्चित्तात् सकाशात् । ज्ञात्वा--अवबुद्धय ।नृजातंपुरुषजातसामान्यं मन्दग्लानादिकं । आचार्यो-गणेन्द्रः । दद्यात्प्रयच्छेत् । तद्दोषघातिनी-तस्य पुरुषस्य दोषघातिनी, अथवा स चासो दोषश्च तद्दोषस्तस्य घातिनी शीलां विनाशिकां शुद्धिं । वम॑गमने यत्प्रा. यश्चित्तं प्राविनिश्चित्तं तदेव दोलिकादिगमने कथंचित्सम्पन्ने सति द्विगुणं भवतीति योज्यम् ॥ ४३॥ सप्तपादेषु निष्पिच्छः कायोत्सर्गाद्विशुद्ध्यति । गव्यूतिगमने शुद्धिमुपवासं समश्नुते ॥४४॥ सप्तपादेषु-सप्तसु पादेषु गमने सति । निष्पिच्छः-प्रतिलेखविरहितः साधुः । कायोत्सर्गात्-तनूत्सर्गात्प्रायश्चित्तात् । विशुद्धयति-निर्दोषो भवति । गव्यूतिगमने--क्रोशमात्रप्रयाणे सति निष्पिच्छः । शुद्धिं प्रायश्चित्तं । उपवास-क्षमणं । समश्नुते--प्राप्नोति । द्विगुणमित्यधिकाराकोशादनन्तरं प्रतिक्रोशं द्विगुणां द्विगुणां शुद्धिं समश्नुते इति व्याख्यातव्यम् ॥ ४४॥ ईर्यासमितिः। भाषासमितिमुन्मुच्य मौनं कलहकारिणः । क्षमणं च गुरूद्दिष्टमपि षदकर्मदेशिनः ॥ ४५ ॥ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायश्चित्त-चूलिका। १२३ भाषासमितिमुन्मुच्य-भाषासयमं उन्मुच्य परिहत्य व्यतिक्रम्य । मौन कलहकारिण:-कलिविधायिनः मुनेः, मौनं वाचंयमत्वं वाक्संयमः प्रायश्चित्तं भवति।क्षमणं च गुरूद्दिष्टमपि स्यात् ] गुरुद्दिष्टमाचार्योद्दिष्टमपि । षट्कर्मदे शिन:- षटकर्मदेशिनो हि प्रायश्चित्तमपि, वाणिज्यविद्योपदेशिनः षड्जी-.. वनिकायवाधाभिः कर्मोपदेशिनो वापि क्षमणं प्रायश्चित्तं भवति ॥४५॥ असंयमजनज्ञातं कलहं विदधाति यः। बहूपवाससंयुक्तं मौनं तस्य वितीर्यते ॥ ४६॥ असंयमजनज्ञातं-मिथ्यादृष्टिलोकावबुद्धं । कलह-कलिं । विद-- धाति-करोति । य:--साधुः । बहूपवाससंयुक्तं-भूरिक्षमणसमन्वितं ।। मौनं-वाचंयमत्वं । तस्य-साधोः । वितीर्यते-दीयते ॥ ४६॥ __ कलहेन परीतापकारिणः मौनसंयुताः । उपवासा मुनेः पंच भवन्ति ऋविशेषतः ॥४७॥ . कलहेन-कलिना कृत्वा । परीतापकारिणः-सन्तापविधायिनः । मौनसंयुता:-वाचंयमत्वोपलक्षिताः । उपवासा:-क्षमणानि । मुनेःसाधोः । पंच-पंचोपवासाः । भवन्ति–सन्ति । नृविशेषतः-पुरुषविशेषात् । मन्दग्लानादिपुरुषविशेषमगवगम्य देयाः ॥ ४७ ॥ जनज्ञातस्य लोचस्य बहुभिः क्षमणैः सह ।। आषण्मासं जघन्येन गुरूद्दिष्टं प्रकर्षतः॥४८॥ जनज्ञातस्य- सकललोकावगतस्य कलहस्य सतः । लोचस्य-वालो-- पाटस्य भवति । बहुभिः-भूरिभिः । क्षमणै-रुपवासैः । सार्ध-समं । आषण्मासं जघन्येन-जघन्येन सर्वतः स्तोककालेन आषण्मासं एकोपवासादिषण्मासपर्यन्तं प्रायश्चित्तं । गुरूद्दिष्टं प्रकर्षतः---प्रकर्षणोत्कर्षण गुरूद्दिष्टमाचार्योपदिष्टं भवति ॥ ४८ ॥ १ अस्य स्थाने पुस्तके लोचश्चेति पाठः, किन्तु मूले लोचस्येति Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ प्रायश्चित्तसंग्रहे हस्तेन हन्ति पादेन दण्डेनाथ प्रताडयेत् । _एकाद्यनेकधा देयं क्षमणं नृविशेषतः॥४९॥ हस्तेन-करेण । हति--ताडयति । पादेन-चरणेन । दण्डेनलकुटेन । अथ-अथवा । प्रताडयत्-हंति । यदि साधुः कथमपि तदा, एकादि-एकप्रभृति । अनेकधा-अनेकप्रकारं । क्षमणं-उपवासः । देय-दातव्यं । नृविशेषतः-पुरुषविशेषेण ॥४९॥ यश्च प्रोत्साह्य हस्तेन कलहयेत् परस्परं । असंभाष्योऽस्य षष्ठं स्यादाषण्मासं सुपापिनः ॥ ५० ॥ यश्च--योऽपि यतिरूपः । प्रोत्साह्य--प्रचोद्य । हस्तेन-करेण । कलहयेत्-कलहं कारयेत् । परस्परं-अन्योन्यं । सः, असंभाष्यो-नभिलाप्यः । अस्य-एतस्य । षष्ठं-प्रायश्चित्तं । स्यात्-भवेत् । आषण्मासं-षण्मासपर्यन्तं । सुपापिनः-पापिष्ठस्य ॥ ५० ॥ छिन्नापराधभाषायामप्यसंयतबोधने । नृत्यगायेति चालापेऽप्यष्टमं दण्डनं मतम् ॥ ५१ ॥ छिन्नापराधभाषायां--कृतप्रायश्चित्तस्य दोषस्य पुनः परिभाषणे कृते सति । अप्यसंयतबोधने-सुप्तस्यासंयतस्य विरतस्योत्थापनेऽपि । नृत्यगायेति चालापे-नृत्यनटगाय आलापय (?) इति एवमपि आलापे निगदिते । चशब्दात् व (न) तने च गाने च । अष्टमं-त्रयउपवासाः निरन्तराः । दण्डनं-प्रायश्चित्तं । मतं-इष्टम् ॥ ५१ ॥ चतुर्वर्णापराधाभिभाषिणः स्यादवन्दनः । असंभाष्यश्च कर्तव्यः स गाणं गणिकोऽपि च ॥ ५२ ॥ चतुर्वर्णापराधाभिभाषिणः-चतुर्वणः ऋषिवर्णः ऋषिमुनियत्यनगाराः साध्वा श्रावक श्राविका वा तस्यापराधं दोषं अभिभाषते इत्येवं शीलः साधुः । स्यात्-भवेत् । अवन्दनः~अवन्यः । असंभाष्यश्च-अनभि Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायश्चित्त-चूलिका। लाप्यश्च । कर्तव्यः-करणीयः पुरुषः । गाणं गणकोऽपि च-गाणं गणिकश्च कर्तव्यः गाणं गणको नाम तस्माद्गणानिर्घाटनीयः । पुनरस्मादपि भूयोऽन्यतोऽपि उद्वासयितव्यः । ततो यदि पश्चात् तापसन्तापचित्तः सन्नेवं प्रणिगदति यथा भगवन् ! मम प्रायश्चित्तं ददतेति। ततश्चातुर्वर्ण्यश्रमणसंघमध्ये तस्य विशुद्धिविधेयेति ॥ ५२ ॥ भाषासमितिः। अज्ञानाद्याधितो दर्पात् सकृत्कन्दाशनेऽसकृत् । कायोत्सर्गः क्षमा शान्तिः पंचकं मासमूलके ॥ ५३ ।। अज्ञानात्-मोहात् । व्याधितो-व्याधे रोगात् । दत्-ि ~अहंकाराखेतोः ।सकृत्-एकवारं। कन्दाशने-कन्दा आई(द्र)ककंदादयः, इह कन्दग्रहणमुपलक्षणार्थ, आदिशब्दो वात्र लुप्तनिर्दिष्टः, तेन कन्दफलबीजमूलाद्यप्रासुकं संगृहीतं भवति । तत्र कन्दा सूरणपिण्डालुरताल्वादयः, फलानि आम्रप्रमुखबीजपूरकादीनि, बीजानि गोधूममुद्माषराजमाषादीनि, मूलानि सौंभाजनकैरंडमूलादीनि तेषांमशने भक्षणे कृते सति । असकृत्-अनेकवारं च। कायोत्सर्गः-तन्त्सर्गः।क्षमा-क्षमणं ।क्षान्तिः-उपवासः। पंचकंकल्याणकं । मासमूलके-मासः मासिकं, मूलं पुनर्दीक्षा । आगममजानानः अप्रासुकमिति वा । अनवबुद्ध्यमानो यदि कन्दमूलाद्यभ्यवहरति तदा सकृ. त्कायोत्सर्गः प्रायश्चित्तं भवति । असकृदुपवासः । जानन्नपि व्याधिबाधित: सन् परिखादति तदानीं सकृदुपवासः। असकृत्पंचकं लभते । निःशंकः सन् समुत्पाद्य संछिद्य कन्दमूलादि रसायनादिनिमित्तमत्ति तदा सकृन्मा. सिकं । असकृत्साभोगेन मूलं प्रायश्चित्तमवामोति। अथवा ज्ञाने सकृदत्यन्त. स्तोके आलोचना, अन्यत्र कायोत्सर्गः ॥ ५३॥ कुड्याद्यालम्ब्य निष्ठय चतुरङ्गलसंस्थितिम् । त्यक्त्वोक्त्वा क्षमणं ग्लाने भुक्ते षष्ठं तथा परे ॥ ५४॥ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ प्रायश्चित्तसंग्रहे-- कुड्यं-भित्तिः, आदिशब्देन स्तंभप्रभृति च । आलम्ब्य-आश्रित्य । निष्ठूय-निष्ठीवनं विधाय। चतुरंगुलसंस्थितिं त्यक्त्वा--चतुरंगुलान्तरितपादविन्यासं चोन्मुच्य । उक्त्वा-निगद्य भुक्ते सति । क्षमणं-उपवासः । ग्लाने--च, पवासादिपरिपीडिते पुरुषे।भुक्ते-भुक्तवति प्रायश्चित्तं भवति । षष्ठं तथा परे-तथा- तेनैव न्यायेन, परे परस्मिन अग्लाने पुरुषे पूर्वोक्तविधानेन भुक्ते सति, षष्ठं प्रायश्चित्तं भवति ॥ ५४ ॥ काकादिकान्तरायेऽपि भन्ने क्षमणमुच्यते । गृहीतावग्रह त्यागः सर्व भुक्तवतः क्षमा ॥ ५५ ॥ काकादिकान्तरायेऽपि भग्ने--काकामेध्यच्छदिरोधरुधिरावलोकनाश्रुपातादिकान्तराये भने खंडिते सति । क्षमणं-उपवासप्रायश्चित्तं । उच्यते- ऽभिधीयते । गृहीतावग्रहे--उपात्तनिवृत्तौ च भंगे सति । त्यागःकृतनिवृत्तेर्वस्तुनः भोजने क्रियमाणे सति पुनः संस्मृतेः त्यागः तद्भोजनपरिहार एव प्रायश्चित्तं । सर्व भुक्तवतः-सर्वमाहारं भुक्तस्य सतः । क्षमा-उपवासो दण्डो भवति ॥ ५५ ॥ महान्तरायसंभूतौ क्षमणेन प्रतिक्रमः। भुज्यमानेक्षते शल्ये षष्ठेनाष्टमतो मुखे ॥ ५६ ॥ महान्तरायसंभूतौ-महान्तरायसंभवे अस्थिसंसक्तानसंसेवने सति । क्षमणेन-उपवासेन सह । प्रतिक्रमः--प्रतिक्रमणप्रायश्चित्तं भवति । भुज्यमाने-अद्यमाने ओदनादौ विषयभूते । ईक्षिते-दृष्टे सति। शल्येअस्थि (?) षष्ठेन षष्ठप्रायश्चित्तेन सह प्रतिक्रमः । अष्टमतः अष्टमेन सह प्रतिक्रमः प्रायश्चित्तं भवति । मुखे-आस्ये सति । इह शल्यग्रहणमुपलक्षणार्थ । अतः सार्द्रचर्मरुधिरादावप्येवमेव प्रायश्चित्तं भवति ॥५६॥ आधाकर्मणि सव्याधेनिधेिः सकृदन्यतः । उपवासोऽथ षष्ठं च मासिकं मूलमेव च ॥ ५७ ॥ ___ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायश्चित्त- चूलिका । अध्यारोपः आधाकर्मणितस्याः कर्म क्रिया .. स्मिन्नाधाकर्मणि षड्जीवनिकायवधविधानाभिसन्धिपूर्वकं स्वतः स्वभावादेव निष्पन्नान्नपाने । सव्याधेः - सरोगस्य । निर्व्याधेः -- नीरोगस्य । सकृत् - एकवारं । अन्यतः- - अन्यस्मात् असकृदित्यर्थः । उपवासः - क्षमणं । अथानन्तरं । षष्ठं – प्रायश्चित्तं । मासिकं – पंचकल्याणं । मूलमेव च - पुनर्दीक्षा । व्याध्यधीनत्वात्सकृदाधाकर्मणि भुक्ते सति उपवासप्रायश्चित्तं भवति । असकृत् षष्ठं । निर्व्याधिना सकृदाधाकर्मणि भुक्ते मासिकं । असकृत्सर्वकालं षड्जीवनिकायानामाबाधामाधाय भुक्ते सति मूलमेव प्रायश्वित्तं भवति ॥ ५७ ॥ --- - -आधानमाधा स्वाध्यायसिद्धये साधुर्यद्युद्देशादि सेवते । प्रायश्चित्तं तदा तस्य सर्वदैव प्रतिक्रमः ॥ ५८ ॥ --- स्वाध्यायसिद्धये - स्वाध्यायाय भवति निमित्तं ( पठननिमित्तं ) । साधुरपि । यदि -- चेत् । उद्देशादि – उद्देशकादिदोषजातं । सेवते - अनुभवति । प्रायश्वितं विशुद्धिः । तदा तदानीं । तस्य — उद्देशादिनिषेविणः । सर्वदेव सर्वकालमपि । प्रतिक्रमः — प्रतिक्रमणं । इहापि प्रतिकमो नियम इति वेदितव्यः ॥ ५८ ॥ I एकं ग्रामं चरेद्भिक्षुर्गन्तुमन्यो न कल्पते । द्वितीयं चरतो ग्रामं सोपस्थानं भवेत्क्षमा ॥ ५९ ॥ एकं ग्रामं-- एकं नगरादिसन्निवेशं । चरेत् — चरति भिक्षार्थ पर्यटति । भिक्षुः - यतिः । गन्तुमन्यो न कल्पते - एकस्मिन् ग्रामे चर्यार्थ पर्यट्य तस्मिन्नेव दिवसे भिक्षार्थं द्वितीयो ग्रामं गन्तुं न कल्पते नोचितः । द्वितीयं -- अन्यं । चरतो -- भ्रमतः ग्रामं । सोपस्थानं-- सप्रतिक्रमणा भवेत् स्यात् । क्षमा--क्षमणम् ॥ ५९ ॥ स्वाध्यायर हेते काले ग्रामगोचरगामिनः । कायोत्वसौ हि यथाक्रममनूदितौ ॥ ६० ॥ १.२७ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ प्रायश्चित्तसंग्रहे-- स्वाध्यायरहिते--स्वाध्यायवर्जिते । काले-समये स्वाध्यायकाले स्वाध्यायक्रियामागमाध्ययनं वाविधाय । ग्रामगोचरगामिनः-ग्रामगामिनः गोचरगामिनश्च व्याध्युपवासादिकारणात् भिक्षार्थ प्रविष्टस्य सतः साधोः। कायोत्सर्गोपवासौ---ग्रामान्तरगतस्य कायोत्सर्गः । चर्यार्थ प्रविष्टस्योपवासः प्रायश्चित्तं भवतीति यथाक्रममभिसम्बन्धः ॥ ६०॥ एषणासमितिः । काष्ठादि चलयेत् स्थानं क्षिपेद्वापि ततोऽन्यतः । कायोत्सर्गमवामोति विचक्षुविषये क्षमा ॥६१॥ काष्ठादि--दारूपलतृणकर्परप्रमुखं वस्तु । चलयेत्--कंपयति ।स्थानात्-- प्रदेशात् । क्षिपेद्दापि ततोऽन्यतः--ततस्तस्मात्स्थानात्, क्षिपेदा विसृजेद्वा, अन्यतोऽन्यास्मन् प्रदेशे तदा । कायोत्सर्ग--तनूत्सर्ग । अवामोति-- लभते । अचक्षुर्विषये--अदृष्टिगोचरे। क्षमा--क्षमणं प्रायश्चित्तम् ॥६१॥ आदाननिक्षेपणासमितिः । ऊर्ध्व हरिततृणादीनामुच्चारादिविसर्जने । कायोत्सर्गो भवेत् स्तोके क्षमणं बहुशोऽपि च ॥ ६२ ॥ ऊर्ध्व--उपरि । हरिततणादीनां--हरिततृणमच्छतृणं, आदिशब्दन बीजाङ्करशिलभेदपृथ्वीभेदादीनां चोपरिष्टात् । उच्चारादिविसर्जने---मूत्रपुरी षादिमलोज्झने कृते सति । कायोत्सर्गः--तनूत्सर्गः। भवेत्---स्यात् । स्तोके--स्तोकवारे । क्षमणं बहुशोऽपि च बहुवारेष--च क्षमणमुपवासः प्रायश्चित्तं भवति ॥ ६२॥ प्रतिष्ठापनासमितिः। Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायश्चित्त- चूलिका । स्पर्शादीनामतीचारे निष्प्रमादप्रमादिनाम् । कायोत्सर्गोपवासाः स्युरेकैकपरिवर्द्धिताः ॥ ६३ ॥ स्पर्शादीनां - - स्पर्शरसघ्राणचक्षुःश्रोत्रेन्द्रियाणां । अतीचारे-दोषे अनिरोधे सति । निष्प्रमादप्रमादिनां - - निष्प्रामदस्य अप्रमत्तस्य, प्रमादिनः प्रमादवतव पुरुषस्य । कायोत्सर्गोपवासाः -- कायोत्सर्गा उपवासाश्च । स्युः -- भवेयुः । एकैकपरिवर्द्धिताः -- एकोत्तरवृद्धिमधिरोपिताः । स्पर्शः कर्कशमृदुगुरुलघुशीतोष्णस्निग्धरूक्षभेदादष्टविधः । रसस्तिक्तकटुककषायाम्लमधुरलवणविशेषात् षड़िधः । गन्धो द्विविधः सुरभिरसुरभिश्च । रूपं पंचप्रकारं कृष्णनीलपीतशुकुलोहितविशेषात् । शब्दः षडर्षभगान्धारमध्यमपंचमधैवतनिषादविशेतः सप्तप्रकारः । तेषु विषये दोषविशेषविशुद्धिरियं भवति । अप्रमत्तस्यैकोत्तर वृद्ध्यादिकायोत्सर्गा भवन्ति - स्पर्शे एक: कायोत्सर्गः, रसे द्वौ, घाणे त्रयः, चक्षुषि चत्वारः, श्रोत्रे पंच । प्रमत्तस्योपवासा भवन्ति--स्पर्शे एक उपवासः, रसे दौ, घ्राणे त्रयः, चक्षुषि चत्वारः, श्रोत्रे पंच उपवासा इति ॥ ६३ ॥ इन्द्रियनिरोधम् । १२९ चन्दनानियमध्वंसे कालच्छेदे विशोषणम् । स्वाध्यायस्य चतुष्केऽपि कायोत्सर्गो विकालतः ॥ ६४ ॥ - , वन्दनानियमध्वंसे – वन्दना अर्हदादीनामभिवादः, नियमो दैवसिकादिप्रतिक्रमणं, तयोः ध्वंसे विनिपाते सति पूर्वाह्नमध्यान्हापराह्नदेववन्दनादिविरहे रात्रिगोचरादिनियमवर्जने च । कालच्छेदे - स्वकालातिक्रमे च । विशोषणं - विशोषः उपवासः प्रायश्चित्तं भवति । स्वकालश्च वन्दनायाः सन्ध्याकालः, दैवसिक नियम स्यादित्यविम्बार्द्धास्तमनात्पूर्वमेव रात्रिनियमस्य प्रभास्फोटात्प्रागेव परिसमापनं । स्वाध्यायस्य चतुष्केऽपि - प्रारम्भः Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० प्रायश्चित्तसंग्रहे स्वाध्यायस्य चतुष्टये च विषये ध्वंसे सति विशोषणं प्रायश्चित्तं भवति । कायोत्सर्गो विकालतः — विकालतः विकालात् स्वाध्यायस्य कालविच्छेदे सति कायोत्सर्गः प्रायश्चित्तं । स्वाध्यायस्य कालोऽपि दिवसे पूर्वाह्णे घटिकाये सति, अपराह्णेऽन्त्य नाडिकात्रयात्पूर्वे, रात्रौ प्रथमभागे नाडीत्रये गते सति चरमभागेऽन्त्यनाडित्रयात्प्राक् ॥ ६४ ॥ " प्रतिमासमुपोषः स्याच्चतुर्मास्यां पयोधयः । अष्टमासेष्वथाष्टौ च द्वादशाब्दे प्रकीर्तिताः ॥ ६५ ॥ - प्रतिमासं - मासं प्रति । उपोषः — उपोषणं । स्यात् भवेत् । मासे मासे उपवासोऽवश्यं कर्तव्यः । चतुर्मास्यां पयोधयः- चतुर्षु मासेषु गतेषु पयोधयः समुद्राश्चत्वार उपवासा अवश्यं कर्तव्याः । अष्टमासेष्वथाष्टौ चअष्टमासेषु अष्टसु मासेषु, अथ अनन्तरं, अष्टौ च अष्ट उपवासा विधातव्याः । द्वादशाब्दे - अब्दे वर्षे द्वादश उपवासाः करणीयाः । प्रकीर्तिताःकथिताः ॥ ६५ ॥ -- पक्षे मासे कृतेः षष्ठं लंधने सप्रतिक्रमम् । अन्यस्या द्विगुणं देयं प्रागुक्तं निर्जरार्थिनः ॥ ६६ ॥ पक्षे मासे-पक्षे पंचदशरात्रे, मासे त्रिंशद्रात्रे च विषये या कृतिः क्रिया प्रतिक्रमणा तस्याः लंघने सकृत् सति । षष्ठं – षष्ठोपवासः प्रायश्चित्तं भवति । लंघने -- अतिक्रमणे । सप्रतिक्रमं - प्रतिक्रमणया सह । अन्यस्याः -- परस्याः चातुर्मास्याः सांवत्सरिकायाश्च क्रियायाः लंघने सति । सप्रतिक्रमणं, द्विगुणं द्विः । देयं - दातव्यं । प्रागुक्तं पूर्वोपदिष्टं प्रायश्वित्तं । चातुर्मास्याः क्रियाया विलंघने सति अष्टौ उपवासा भवन्ति, सांवत्सरिकायाश्चतुर्विंशतिरुपवासाः सन्ति । निर्जरार्थिनः – कर्मक्षयाभिलाषिणः साधोः ॥ ६६ ॥ आवश्यकम् । - Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायश्चित्त-चूलिका । चतुर्मासानथो वर्ष युगं लोचं विलंघयेत् । क्षमा षष्ठं च मासोऽपि ग्लानेऽन्यत्र निरन्तरः ॥६७॥ चतुर्मासान-चतुरो मासान् । अथो-अथवा । वर्ष-संवत्सरं । युगंपंचवर्षाणि । लोचं-बालोत्पाटं । विलंघयेत्-प्रापयति यदि तदानीं यथाक्रम, क्षमा-उपवासः । षष्ठं च-षष्ठोपवासः । मासोऽपि~मासिक चेत्येतानि प्रायश्चित्तानि भवन्ति । ग्लाने-आतुरें । अन्यत्र-अन्यस्मिन् पुरुषे निर्व्याधौ । निरन्तरः-व्यवधानविरहितो मासो विशुद्धिर्भवति ॥६॥ लोचः। उपसर्गाद्रुजो हेतोर्दर्पणाचेलभंजने । क्षमणं षष्ठमासौ स्तो मूलमेव ततः परं ॥ ६८ ॥ उपसर्गात्-स्वजननरेश्वरादिभिः परिगृहीतस्यात्यन्तसंकटपरिपतितस्य यतेः सतः । रुजो-व्याधेः । हेतोः-केनापि निमित्तेन सता रूपपरिवर्ते कृते सति । दर्पण-गर्वेण चाहंकारं कृत्वा । अचेलभंजने आचेलक्यभंगे कृते यथाक्रममेतानि प्रायश्चित्तानि भवन्ति । क्षमणं-उपवासः । षष्ठमासौषष्ठं षष्ठोपवासः, मासो मासिकं च । स्तः-भवतः । मूलमेव ततः परंततः परं तदनन्तरं दर्पतः मूलमेवेति नान्यत्प्रायश्चित्तम् ॥ ६८ ॥ आचेलक्यम् । दन्तकाष्ठे गृहस्थाहंशय्यासंस्नानसेवने । कल्याणं सकृदाख्यातं पंचकल्याणमन्यथा ॥ ६९ ॥ दन्तकाष्ठे--दन्तधावने कृते सति । गृहस्थाईशय्यासंस्नानसेवने गृहस्थाहीया गृहिजनोचितायाः, शय्यायाः तल्पस्य शयनस्य, संस्नानस्य १ निरन्तरमिति मूल पाठः पुस्तके । Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ प्रायश्चित्तसंग्रहे च सेवने भंजने सति । कल्याणं-पंचकं भवति । सकृत्-एकवारं । आख्यातं-अभिहितं । पंचकल्याणं-मासिकं । अन्यथा-अन्येक प्रकारेण असकृदित्यर्थः ॥ ६९ ॥ अस्नानक्षितिशयनदन्तधावनानि । - अस्थित्यनेकसंभुक्तेऽदर्प दर्षे सकृन्मुहुः। कल्याणं मासिकं छेदः क्रमान्मूलं प्रकाशतः ॥ ७० ॥ अस्थित्यनेकसभुक्ते-संभोजनं भक्तिः, अस्थितिरनूलभावः तया अस्थित्या संभोजनं, न एकं अनेकं अनेकं च तच्च संभुक्तं चानेकसंभुक्तं अनेक वारभोजनं, तस्मिन्नस्थितिभोजनेऽनेकभक्ते च सति ।अद-अगर्वे ।दअहंकारे। सकृत्-एकवारं । मुहुः-पुनः । कल्याणं-पंचकं अनहंकारे सकृत् । असकृन्मासिकं । दर्पतः सकृत् प्रवज्याच्छेदः । असकृत, क्रमात्क्रमेण, मूलं-पुनर्दीक्षा । प्रकाशतः-प्रकाशात् साभोगेन लोकानामवलोकमानानां स्थितिभुक्तैकभक्तमूलगुणयोर्भगे प्रायश्चित्तं भवति ॥ ७० ॥ . स्थितिभोजनकभक्ते। समितीन्द्रियलोचेषु भूशयेऽदन्तघर्षणे। कायोत्सर्गः सकृद्भूयः क्षमणं मूलमन्यतः ॥ ७१ ॥ समितीन्द्रियलोचेषु--समितिषु ईयीभाषेषणादाननिक्षेपणप्रतिष्ठापनसमितिषु, इन्द्रियेषु स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुःश्रोत्रेषु, लोचे बालोत्पाटे । भूशये-भूमिशयने । अदन्तघर्षणे-अदन्तधावने मूलगुणेषु च । सर्वेष्वेतेषु मूलगुणेषु संक्लेशादिदोषविशेषे समुत्पन्ने सति अतिस्तोके मिथ्याकारः ततोऽधिके स्वनिन्दा, ततोऽपि गर्दा, ततश्चालोचना, ततो लघुकायोत्सर्गः, ततो मध्यमकायोत्सर्गः, ततः प्रवर्धमानस्तावद्यावन्महाकायोत्सर्गोष्टोत्तरशतो Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायश्चित्त-चूलिका। १३३ च्छासप्रमाणः । सकृत्-एतदेकवारे प्रायश्चित्तं । भूयः क्षमणं-भूयः पुनः पुनः भंगविशेषे सति पुरुमंडलनिर्विकृत्यैकस्थानाऽऽचाम्लानि भवन्ति तावद्यावत्सर्वोत्कृष्टभंगे सति क्षमणमुपवासः सोपस्थानं प्रायश्चित्तं भवति । मूलमन्यतः-अन्यतः अन्येषु मूलगुणेषु पंचमहाव्रतेषु षडावश्यकेषु आचेलक्येऽस्नाने स्थितिभोजने एकभक्त इत्येतेषु सर्वेषु भंगे सकृत् सोपस्थानं क्षमणं प्रायश्चित्तं भवति । तदेवासकृदहंकाराप्रयत्नास्थिरादिषु पुरुष. विशेषात्प्रवर्धमानं षष्ठाष्टमदशमद्वादशोपवासार्धमासमासोपवासषण्माससंद. सरादि ततो भवति, तदनन्तरं दीक्षाच्छेदो दिवसादिप्रायश्चित्तं, ततः सर्वोत्कृष्टं मूलं विशुद्धिर्भवति ॥ ७१ ॥ मूलगुणाः । दुमूलातोरणौ स्थास्नू आतापस्तद्वयात्मकः । चलयोगा भवन्त्यन्ये योगाः सर्वेऽथवा स्थिराः ॥ ७२ ॥ द्रुमूलातोरणौ स्थास्नू-ट्ठमूलो द्रुममूलः वृक्षमूलो योगः, अतोरणोऽतोरणयोगश्चैतौ द्वावपि योगविशेषौ, स्थास्नू स्थिरौ स्थिरयोगौ भवतः । आतापस्तइयात्मकः-आतापः आतापनयोगः । तद्दयात्मकः चरस्थिरस्वभाको भवति चरोऽपि भवति स्थिरश्च भवति । अस्मिन् देशकाले मयातापनयोगोऽवश्यं विधेय इत्यभिसन्धिनियमितः स्थिरः तद्विपरीतश्चल इति । चलयोगाः-चलयोगविशेषाः । भवन्ति-सन्ति । अन्ये-परेऽभावकाशस्थानमौनादिकाः । योमाः सर्वेऽथवा स्थिराः-अथवान्येन प्रकारेण, सर्वेऽपि निर्विशेषाश्च, योमास्तपोविधयः, स्थिरा ध्रुवा अपरिहार्यत्वात् आतत्परिसमाप्तेः ॥ ७२॥ भंजने स्थिरयोगानां नमस्कारादिकारणात् । दिनमानोपवासाः स्युरन्येषामुपवासना ॥७३॥ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायश्चित्तसंग्रहे भंजने--भंगे सति । स्थिरयोगाना-ध्रुवयोगानां । नमस्कारादिकारणात्-वृक्षमूलादियोगे परिगृहीते सति अत्यन्तमक्षिकुक्षिशिरःशूलविसूचिकासोपसर्गादिकारणवशात् कर्णेजपभेषजप्रभूतनिमित्तात् । दिनमानोपवासः-दिनमानेन दिवसप्रमाणेन, योगभंगे संजाते सति यावन्तोऽद्याफि योगदिवसाः समवतिष्ठन्ते तावन्त उपवासाः । स्युः-भवेयुः । अन्येषां-अपरेषां स्थानमौनावग्रहादीनां योगानां भंगे कथंचित् संजाते सति आलोचनादि प्रायश्चित्तं भवति तावद्यावत्, उपवासनं-उपवासः सोपस्थानो भवति ॥ ७३॥ तत्प्रतिष्ठा च कर्तव्याभ्रावकाशे पुनर्भवेत् । चतुर्विधं तपश्चापि पंचकल्याणमन्तिमम् ॥ ७४ ॥ तत्प्रतिष्ठा च-तेषु स्थानमौनावग्रहादिषु योगेषु प्रतिष्ठा च पुनर्व्यवस्थापनमपि । कर्तव्या-करणीया, प्रायश्चित्तं प्रदाय पुनरपि तत्रैव योगे स्थापयितव्य इत्यर्थः । अभ्रावकाशे पुनः-बहिःशयने तु । भवेत् स्यात् । चतुर्विधं-चतुष्प्रकारं प्रायश्चित्तं आलोचना प्रतिक्रमणं उभयं विवेकः, स च द्विविधः स्थानक्वेिको गणविवेश्च । अन्तिम इत्येवमष्टमं भवति, तपस्वी (तपश्चापि )-उपवासाद्यपि भवति पुरुमंडलनिर्विकृत्येकस्थानाचाम्लक्षमणकल्याणषष्ठाष्टामदशमद्वादशादि तावद्यावत्, पंचकल्याणंमासिकं । अन्तिमं-पश्चिमं भवति ॥ ७४ ॥ सकृदप्रासुकासेवेऽसकृन्मोहादहंकृतेः । क्षमणं पंचकं मासः सोपस्थानं च मूलकम् ॥ ७५॥ सकृत्-एकवारं । अप्रासुकासेवे-त्रसस्थावरायुपहतवसतिप्रभृतिप्रदेशसंसेवने सति । असकृत्-अनेकवारं । मोहात्-स्नेहात् अज्ञानतः । अहंकृतेः-अहंकारात् दर्पात् । क्षमणं-मोहात् स्तोककाले उपवास: प्रायश्चित्तं भवति । बहुशः, पंचकं-कल्याणं । दर्पात् स्तोककालं, Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायश्चित्त-चूलिका। १३५ मासः-पंचकल्याणं सोपस्थान--सप्रतिक्रमणं भवति । बहुशो वसतिसमारंभग्रामक्षेत्रादिचिन्ताभिधायिनो, मूलं—प्रायश्चित्तं भवति ॥७५॥ ग्रामादीनामजानानो यः कुर्यादुपदेशनम् । जानन् धर्माय कल्याणं मासिकं मूलगः स्मये ॥ ७६ ॥ ग्रामादीनां-ग्रामपुरखेटकर्वटमटंबगृहवसतिप्रभृतिसन्निवेशानां । अजानानःदोषमनवबुद्धयमानः सन् । यो-यतिः । कुर्यात्-विदधाति । उपदेशनं-उपदेशं । जानन्--अवगच्छन्नपि । धर्माय-धर्मार्थ उपदेशं यदि वितनुते तदानीं अजानाने कल्याणं । धर्मकारणे, मासिकं-पंचकल्याणं प्रायश्चित्तं गच्छतीति । मूलगः--मूलं प्रायश्चित्तं गच्छतीति मूलगः । स्मये-गर्वे सति । यदि दर्पण ग्रामायुपदेशनं करोति तदा मूलं प्रायश्चित्तं समश्नुते ॥ ७६ ॥ __ आलोचना तनूत्सर्गः पूजोद्देशेऽप्रबोधने। सोपस्थाना सकृद्देया क्षमा कल्याणकं मुहुः ॥ ७७ ॥ आलोचना- गुरुभ्यः स्वदोषविनिवेदनं । तनूत्सर्ग:-कायोत्सर्गः । पूजोद्देशे-पूजोपदेशने कृते सति । अप्रबोधने-अज्ञे पुरुषे । सोपस्थाना सकृद्देया-आरंभपरिमाणं परिज्ञाय आलोचना वा कायोत्सर्गो वा तावद्यावत्, क्षमा-क्षमणं, सोपस्थाना सप्रतिक्रमणा, सकृदेकदिवसेषु, देया दातव्या । कल्याणकं मुहुः-मुहुः पुनः पुनर्यदि पूजाविधानं देशयति तदानीं कल्याणपंचकं प्रायश्चित्तं दातव्यं भवति ॥ ७७ ॥ जानानस्यापि संशुद्धिः सकृच्चासकृदेव च । सोपस्थानं हि कल्याणं मासिकं मूलमावधे ॥ ७८ ॥ जानानस्यापि दोषमवगच्छतोऽपि पुरुषस्य पूजोपदेशे सति । संशुद्धिःप्रायश्चित्तं भवति । सकृत्--एकवारं । असकृदेव च-अनेकवारमपि। सोप स्थानं हि कल्याणं-सकृत्सोपस्थानं सप्रतिक्रमणं; हि स्फुटं, कल्याणपंचकं Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायश्चित्तसंग्रहे *A/vvvvvvvvvvvvvvv भवति । असकृत्, मासिकं-पंचकल्याणं । मूलं--पुनर्दीक्षा भवति । आवधे आ समन्तात् वधे षड्जीवनिकायानां महारम्भे सति ॥ ७८ ।। सल्लेखनेतरे ग्लाने सोपस्थाना विशोषणा। अनाभोगेऽथ साभोगे प्रभुक्ते मासिकं स्मृतम् ॥ ७९ ॥ सल्लेखनेतरे ग्लाने--संन्यासे प्रतिष्ठितः सन् यदि क्षत्तृट्परीषहविबाधितस्तस्मिन इतरे, ग्लाने सामान्येनाष्टोपवासपक्षोपवासमासोपवासप्रमुखोपवासविशेषपीरपीडितस्तस्मिंश्च प्रभुक्ते सति । सोपस्थाना-सप्रति. क्रमणा । विशोषणा-उपवासः । अनाभोगे-केनचिदविज्ञाते सति । अथ-अथवा । साभोगे-लोकैः समवबुद्धिः (द्धे)। प्रभुक्ते-भोजने सति । मासिकं-पंचकल्याणं स्मृतम् ॥ ७९ ॥ स्यात् सम्यक्त्वव्रतभ्रष्टैर्विहारे मासिकं क्षमा । जिनादीनामवर्णादौ सोपस्थानाङ्गसंस्कृते ? ॥ ८० ॥ स्यात्-भवेत् । सम्यक्त्वव्रतभ्रष्टैः--सम्यक्त्वपरिच्युतैः पुरुषैः सह, व्रतभ्रष्टैः दुःशीलताकोधमानमायालोभाविनयसंघायशस्कारादित्वादिदोषविशेषदूषितवतैश्च सह । विहार-विहरणे भ्रमणे आचरणे कृते सति । मासिकं-पंचकल्याणप्रायश्चित्तं भवति । क्षमा जिनादीनामवर्णादौ-जिनादीनामर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसाधूनां, अवर्णादौ असदोषाभिभाषणाविनयशंकाकांक्षादौ उपवासः प्रायश्चित्तं भवति ॥ ८० ॥ निमित्तादिकसेवायां सोपस्थानोपवासनम् । सूत्रार्थाविनयाद्येष्वङ्गोत्सर्गालोचने स्मृते ॥ ८१ ॥ निमित्तादिकसेवायां- निमित्तमष्टविधं । उक्तं च वंजणमंगं च सरं छिन्नं भोमं च अंतरिक्खं च । लक्खण सिविणं च तहा अट्टविहं होइ णिम्मितं ॥ इति । तस्व आदिशब्देन वैयकवियामंत्राणामपि उपसेवने समुपजीवने सति। Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायश्चित्त-चूलिका। सोपस्थानोपवासनं-सोपस्थानं सप्रतिक्रमणं उपवासनमुपवासः प्रायश्चित्तं भवति । सूत्रार्थाविनयायेषु--सूत्रं आगमपाठः, अर्थोऽभिधेयं, तयोरविनयायेषु अविनयनिन्हवबहुमानक्षेत्रकालायशोधनप्रमुखदोषेषु, अथवा सूत्रार्थमप्रश्नयत्तेत् कथमयमपमर्थो (१) भवंद्भिनिर्णीत इति वैयात्येनोपाददानस्यायं दण्डः । अंगोत्सर्गालोचने--अंगोत्सर्गः कायोत्सर्गः, आलोचना च इत्येते हे प्रायश्चित्ते । स्मृते-कथिते ॥१८१॥ सूत्रार्थदेशने शैक्ष्येऽसमाधानं वितन्वतः । चतुर्थ निन्हवेऽप्वेवमाचार्यस्यागमस्य च ॥ ८२॥ सूत्रार्थदेशने-सूत्रार्थयोर्देशने उपदेशे कथने विशेषभूत शैक्षके । असमाधान--संक्लेशं । वितन्वतः--कुर्वतः । चतुर्थ--उपवासः प्रायश्चित्तं । निन्हवेऽप्येवं--निन्हवेऽपि निन्हुतौ च । एवं एवं उपवास एव विशुद्धिर्भवति । आचार्यस्य-गणेन्द्रस्य । आगमस्य च-श्रुतस्यापि ॥ ८२ ॥ संस्तराशोधने देये कायोत्सर्गविशोषणे। शुद्धेशुद्ध क्षमा पंचाहोऽप्रमादिप्रमादिनोः ॥ ८३॥ संस्तराशोधने-संस्तरस्याशोधनेऽतात्पर्ये सति । देये-दातव्ये । कायोत्सर्गविशोषणे-कायोत्सर्गः तनूत्सर्गः, विशोषणमुपवास इत्येते हे । शुद्ध-शुद्धप्रदेशे । अशुद्धे-अप्रासुकप्रदेशे । क्षमा-क्षमणं । पंचाहः-- पंचकं । अप्रमादिप्रमादिनोः-अप्रमादिनः प्रमादिनश्च । प्रासुकप्रदेशे प्रसुप्तस्य संस्तरमशोधयतः साधोरप्रमत्तस्य कायोत्सर्गः प्रायश्चित्तं । प्रमादिनः उपवासः । अप्रासुकक्षेत्रे प्रसुप्तस्योपवासोऽप्रमत्तस्यः । (प्रमत्तस्य ) कल्याणं भवतीति यथासंख्यं योज्यम् ॥ ८३॥ लोहोपकरणे नष्टे स्यात्क्षमाडुलमानतः । केचिद्धनाडुलैरूचुः कायोत्सर्गः परोपधौ ॥ ८४ ॥ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ प्रायश्चित्तसंग्रहे—. लोहोपकरणे - अयोमयोपध सूचीनखरदनक्षुरप्रमुखे । नष्टे - अपलापिते सति । स्यात् -- भवेत् । क्षमा-उपवासः प्रायश्चित्तं । अंगुलमानतः - अंगुलप्रमाणेन । यावन्ति तस्य नष्टलोहोपकरणस्याङ्गुलानि तावन्ति क्षमणानि प्रायश्चित्तं भवति । केचिद्धनाङ्गलैरूचुः - केचिदाचार्याः घनाकुलैस्तस्य लोहोपकरणस्य घनीकृतस्य यावन्ति अंगुलानि भवन्ति तावन्ति क्षमणानि सन्तीत्यूचुर्जगदुः कथितवन्तः । कायोत्सर्गः परोपधौ --परस्यान्यस्य च ( व . ) कलक प्रतिलेखन कमण्डलुप्रभृतेरुपधेरुपकरणस्य नाशे सति कायोत्सर्गः प्रायश्चित्तं भवति ॥ ८४॥ रूपाभिघातने चित्तदूषणे तनुसर्जनम् । स्वाध्यायस्य क्रियाहानावेवमेव निरुच्यते ॥ ८५ ॥ रूपाभिघातने —- आलिखितमनुष्यादिरूपस्य प्रतिबिंबस्य अभिघातने परिमार्जने कृते सति । चित्तदूषणे - विषयाभिलाषादिदुष्परिणामोत्पत्तौ च सत्यां । तनूत्सर्जनं -- कायोत्सर्गः प्रायश्चित्तं । स्वाध्यायस्य क्रियाहानौ - स्वाध्यायत्रियां श्रुतभक्तिपूर्वी विधाय आगमपदजनपरिपठनविधानस्य केनचित्कारणेनाऽकरणे सति । एवमेव --- पूर्वोक्तक्रमेणैव कायोत्सर्ग एव प्रायश्वित्तं । निरुच्यते - निश्चीयते ॥ ८५ ॥ C योsप्रियङ्करणं कुर्यादनुमोदेत चाथवा । दूरस्थोऽसौ जिनाज्ञायाः षष्ठं सोपस्थितिं व्रजेत् ॥ ८६ ॥ यः -- यः कश्चित् साधुः । अप्रियङ्करणं – अप्रियकरणमनिष्टविधानं स्वाध्यायनियमवन्दनादिक्रियाणां हीनादिकरणं । कुर्यात् करोति । अनुमोदेत च-- अनुमन्येत च । अथवा – अहोस्वित् । दूरस्थोऽसौ जिना - ज्ञायाः - जिनागमात् तत्रस्थो बहिर्भूतः; असौ स साधुः पूर्वोक्तः । षष् सोपस्थितिं व्रजेत् — सोपस्थानं षष्ठं षष्ठप्रायश्चित्तं व्रजेद्रच्छति प्राप्नोति ॥ ८६ ॥ - # १ सोऽपि स्थिति इति पाठः पुस्तके ठीकानुसारेण परिवर्तितः । - Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायश्चित्त- चूलिका | तृणकाष्ठकवाटानामुद्घाटनविघट्टने । चातुर्मास्याश्चतुर्थं स्यात् सोपस्थानमवस्थितिम् ॥ ८७ ॥ तृणकाष्ठकवाटानां तृणकाष्ठकवाटकादीनां वस्तूनां । उद्घाटने - विवरणे च । विघट्टने - सम्बन्धे च कृते सति । चातुर्मास्याः -- चतुर्यो मासेभ्योऽनन्तरं । चतुर्थ - उपवासः । स्यात् भवेत् । सोपस्थानंसप्रतिक्रमणं - | अवस्थितिं - निश्चितं ध्रुवम् ॥ ८७ ॥ --- --- १३९. ---- शश्वद्विशोधयेत् साधुः पक्षे पक्षे कमण्डलुम् । तदशोधयतो देयं सोपस्थानोपवासनम् ॥ ८८ ॥ शश्वत् - सर्वकालं । विशोधयेत् — अन्तः प्रक्षालयेत् सम्मूर्च्छनानेराकरणाय । साधुः - मुनिः । पक्षे पक्षे – प्रतिपक्षं । कमण्डलुं -- जलकुण्डिकां । तदशोधयतः -- तत्कमण्डलुं अशोधयतः अनिर्लेपयतः । देयंदातव्यं । सोपस्थानोपवासनं -- सोपस्थानं सप्रतिक्रमणं, उपवासनं उप वासः ॥ ८८ ॥ मुखं क्षालयतो भिक्षोरुदविन्दुर्विशेन्मुखे | आलोचना तनूत्सर्गः सोपस्थानोपवासनम् ॥ ८९ ॥ मुखं- आस्यं । क्षालयतो-- धावयतः सतः । भिक्षोः - साधोः । उदविन्दुः- उदक विन्दुः । विशेत् यदि प्रविशति । मुखे वक्त्रे | तदानीं आलोचना प्रायश्वितं । तनूत्सर्गः कायोत्सर्गः | सोपस्थानोपवासनं - सोपस्थानं सप्रतिक्रमणं, उपवासनं उपवासः, एतानि प्रायश्वित्तानि भवन्ति ॥ ८९ ॥ आगन्तुकाश्च वास्तव्या भिक्षाशय्यौषधादिभिः । अन्योन्यागमनाद्यैश्च प्रवर्तन्ते स्वशक्तितः ॥ ९० ॥ आगन्तुकाः प्राघूर्णकाः । वास्तव्याश्च -- स्थायिनोऽपि यतयः भिक्षाशय्यौषधादिभिः -- भिक्षा चर्या, शयनं संस्तरः, औषधं भेषजं, Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० प्रायश्चित्तसंग्रहे तैः कृत्वा । आदिशब्देन आप्रस्ता (पृच्छा) लोचनाव्याख्यानवात्सल्यसंभाषणादिभिरपि । अन्योन्यागमनाद्यैश्व - परस्परसंकाशं गमनागमन विन-याभ्युत्थानप्रभृतिभिश्व प्रकारैः । प्रवर्तन्ते —— चेष्टन्ते । स्वशक्तितः-आत्मशक्त्या सर्वसामर्थ्यात् ॥ ९० ॥ - विधिमेवमतिक्रम्य प्रमादाद्यः प्रवर्तते । तस्मात् क्षेत्रादसौ वर्षमपनेयः प्रदुष्टधीः ॥ ९१ ॥ - विधि-विधानक्रमं । एवं - एवंविधं । अतिक्रम्य - उल्लंघ्य । प्रमादात्- शैथिल्यात् । यो - यतिः । प्रवर्तते - चेष्टते । तस्मात् क्षेत्रादसौ - असौ स साधुः, तस्मात्ततः, क्षेत्राद्विषयात्सकाशात् । वर्षे - संवत्सरमात्रं कालं । • अपनेयः - निर्घाटयितव्यः । प्रदुष्टधीः -- दुष्टमतिः ॥ ९१ ॥ शिलोदरादिके सूत्रमधीते प्रविलिख्य यः । चतुर्थालोचने तस्य प्रत्येकं दण्डनं मतम् ॥ ९२ ॥ --- - शिलोदरादिके — शिलायां दृषदि पाषाणे, उदरे ऊरौ, आदिशब्देन भूमिबाहु जंघाप्रभृतावपि । सूत्रं -- आगमनिबन्धं । अधीते —— यतिः । प्रविलिख्य यः । चतुर्थालोचने- चतुर्थमुपवासः, आलोचना दोषप्रकाशना एते द्वे । तस्य - पुर्वोक्तस्य । प्रत्येकं - यथासंख्यं । दण्डनं - प्रायश्चित्तं । मतं - अभ्युपगतं । शिलातल भूप्रदेशादिषु उपवासः । उदरोरु जंघावाव्हादिषु आलोचना ॥ ९२ ॥ जातिवर्णकुलोनेषु भुंक्तेऽजानन प्रमादतः । सोपस्थानं चतुर्थं स्यान्मासोऽनाभोगतो मुहुः ॥ ९३ ॥ जातिवर्ण कुलोनेषु - जातिर्मातृपक्षः, वर्णाः ब्राह्मणक्षत्रियवैश्यशूद्राः, कुलं वंशः पितृपक्षः, तैरूनेषु च्युतेषु विषयभूतेषु । कुलजातिविकला १ प्रभृतावऽपसूत्र इति पाठः पुस्तके | Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायश्चित्त-चूलिका। १४१ वेश्यादयः, वर्णविकलाः सूतादयः, तेषु यदि । भुंक्ते--अभ्यवहरति । अजानन--अनवबुद्धयमानः । प्रमादतः कथंचिदेकवारं । तदानीं तस्य, सोपस्थानं-सप्रतिक्रमणं । चतुर्थ--उपवासः । स्यात्-भवेत् । मास:मासिक प्रायश्चित्तं भवति । अनाभोगतः-अनाभोगेन अप्रकाशेन । मुहुःपुनः पुनः, भुंजानस्य साधोः ॥ ९३॥ जातिवर्णकुलोनेषु भुंजानोऽपि मुहुर्मुहुः। साभोगेन मुनिनूनं मूलभूमि समभुते ॥ ९४॥ जातिवर्णकुलोनेषु–जातिवर्णकुलगर्हितेषु । भुंजानोऽपि-अनंश्च । मुहुर्मुहुः-पौनःपुन्यात् । साभोगेन–सप्रकाशतः । मुनिः-साधुः । नूनं-निश्चितं । मूलभूमि-मूलस्थानं । समश्नुते-प्रामोति ॥ ९४ ॥ चतुर्विधमथाहारं देयं यः प्रतिषेधयेत् । . प्रमादाद्दष्टमावाञ्च क्षमोपस्थानमासिके ॥ ९५॥ चतुर्विधमथाहार-अथ अथवा, चतुर्विधं चतुष्प्रकारं अशनपान. साथस्वाद्यभदात्, आहारं भोजनं । देयं-दीयमानं । यःकश्चिन्मुनिः। प्रतिषेधयेत्-निवारयति । प्रमादात्-विस्मरणात् । दुष्टभावाच्च-दौर्जन्यात, तदा प्रत्यकं । क्षमा--उपवासः । उपस्थानमासिके-उपस्थानं प्रतिक्रमणं, मासिकं पंचकल्याणं एते द्वे । प्रमादादिनिवारयतः उपवासः प्रायश्चित्तं । प्रदेषात् सप्रतिक्रमणं सामायिकं (मासिकं ) भवति ॥ ९५॥ ज्ञानोपध्यौषधं वाथ देयं यः प्रतिषेधयेत् ।। प्रमादेनापि मासः स्यात् साध्वावासमथो मुहुः ॥ ९६ ॥ ज्ञानोपध्यौषधं वाथ-~~-अथवा ज्ञानोपधिं ज्ञानोपकरणं पुस्तकं, औषधं भेषजं । देयं-वितीर्यमाणं । यः-पुरुषः । प्रतिषेधयेत्-निषेधयति । १ अनाभोगेन इति पाठः पुस्तके । Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ प्रायश्चित्तसंग्रहे-- प्रमादेनापि-एकवारमपि तस्य । मासः स्यात्-पंचकल्याणं प्रायश्चित्तं भवति । साध्वावासमथो मुहुः-अथो अथवा, साध्वावासं साधूनां यतीनां देयमावासं आवसतिं, मुहुः पुनः पुनः, यदि निषेधयति तदापि मासिकमेव भवति ॥ ९६ ॥ चतुर्विधं कदाहारं तैलाम्लादि न वल्भते। आलोचना तनूत्सर्ग उपवासोऽस्य दण्डनम् ॥ ९७ ॥ चतुर्विधं-चतुर्भेदं । कदाहार--कदन्नं । तैलाम्लादि-तैलकंजिकादि, दीयमानं व्याधिप्रभृतिकारणमन्तरेणापि । न वल्भते-न भुक्ते । आलोचना- तनूत्सर्ग:-कायोत्सर्गः । उपवासश्चेत्येतानि । अस्य-एतस्य पुरुषस्य । दण्डनं--प्रायश्चित्तं भवति ॥ ९७ ॥ वैयावृत्यानुमोदेऽपि तद्रव्यस्थापनादिके। पथ्यस्यानयने सम्यक् सप्ताहादुपसंस्थितिः ॥ ९८॥ वैयावृत्यानुमोदेऽपि-वैयावृत्यं शरीराहारौषधादिभिरुपकारकरणं तस्यानुमोदे मन्दग्लानादिकारणसमाश्रयादनुमतौ च सत्यां । तद्रव्यस्थापनादिके-तस्य वैयावृत्त्यस्य, द्रव्याणां भाजनप्रभृतीनां , स्थापनादिके निधानधावनबन्धनादिक्रियाविशेषे कृते । पथ्यस्यानयने आतुरोचिताहारविशेषोपढौकने च । सम्यक्-प्रयत्नेन । सप्ताहात्-सप्तरात्रादनन्तरं । उपसंस्थितिः-उपस्थानं प्रतिक्रमणं प्रायश्चित्तं भवति । उपवासोऽनुक्तोऽपि लभ्यते तदविनाभावात् प्रतिक्रमणायाः॥९८॥ स्वच्छन्दशयनाहारः प्रमाद्यन् करणे व्रते। द्वयोरप्यविशुद्धित्वाद्वारणीयस्त्रिरात्रतः ॥ ९९ ॥ स्वच्छन्दशयनाहारः-स्वस्यात्मनः, छन्देनेच्छया, शयनशीलपुरुषः स्वमनीषिकया भोजनशीलश्च । प्रमाद्यन्--प्रमादं विदधच्च । करणे व्रतेकरणं क्रिया त्रयोदशविधा पंचनमस्काराः षडावश्यकानि आसेधिका Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायश्चित्त-चूलिका। १४३ निषेधिकेति', व्रतानि पंचमहाव्रतानि तेष्वनादरं वितन्वानः । द्वयोरपिकारकोफेक्षकयोः । अविशुद्धित्वात्-सदोषित्वाद्धेतोः । वारणीयःनिषेद्धव्यः । त्रिरात्रतः-दिनत्रयानन्तरम् ॥ ९९ ॥ .... भूरिमृज्जलतः शौचं यो वा साधुः समाचरेत् । ... .. सोपस्थानोपवासोऽस्य वस्तिवादिकेष्वपि ॥ १०॥ - भूरिमृज्जलतः-प्रचुरमृतिकया बहुपानीयेन च । शौचं-विशुद्धिं । यो वा साधुः वा अथवा, यः साधुर्यो मुनिः । समाचरेत् - (करोति) (वस्तिवादिकेष्वपि)-वमनविरेचनादिचिकित्साकरणे च । (अस्यसाघोः) । सोपस्थानोपवासो-भवति ॥ १०॥ ... चण्डालसंकरे स्पृष्टे पृष्टे देहेऽपि मासिकम् । तदेव द्विगुणं भुक्ते सोपस्थानं निगद्यते ॥ १०१॥ चण्डालसंकरे-चाण्डालादिभिः संकरे व्यतिकरे, संस्पृष्टे सति भवति विद्यमाने । पृष्टे देहेपि-शरीरे पृष्टेऽपि उपचिंतेऽपि । मासिकं-पंचकल्याणं प्रायश्चित्तं । ( तदेव ) द्विगुणं भुक्ते-अजानानेन चाण्डालादीनां हस्तेन तद्दर्शने वा अभ्यवहृते सति (तदेव पूर्वोक्तं प्रायश्चित्तं । द्विगुणं ) सोपस्थानं-सप्रतिक्रमणं । निगद्यते--अभिधीयते ॥ १०१॥ असन्तं वाथ सन्तं वा छायाघातमवामुयात् । यत्र देशे स मोक्तव्यः प्रायश्चित्तं भवेदपि ॥ १०२॥ ___ असन्तं वा-अविद्यमानं वा । अथ वा सन्तं-सद्भूतं । छायाघातंमाहात्म्यविनाशनं अपमानं । आमुयात्-आलभते । यत्र-यस्मिन् । देशे-विषये । स मोक्तव्यः--स पूर्वोक्तो देशः मोक्तव्यः परिहार्यः (प्रायश्चित्तं भवेदाप)-प्रायश्चित्तं च तथा स्यात् ॥ १०२ ॥ ...१ निषधेति पुस्तके। Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ प्रायश्चित्तसंग्रहे दोषानालोचितान पापो यः साधुः संप्रकाशयेत् । मासिकं तस्य दातव्यं निश्चयोदण्डदण्डनम् ॥ १०३॥ दोषान्-अपराधान् । आलोचितान्-निवेदितान् । पापः-पापिष्ठः । यः-कश्चित् । साधुः- । संप्रकाशयेत्-लोकेभ्यः परिकथयेत् तस्य भदं विदध्यात् । मासिकं तस्य दातव्यं--पंचकल्याणं तस्य साधोदेयं । निश्चयोद्दण्डदण्डनं-निश्चयेन नियमेन, उद्दण्डं उद्धत्तं, दण्डनं प्रायश्चित्तम् ॥ १०३॥ स्वकं गच्छं विनिर्मुच्य परं गच्छमुपाददन् । अर्धनासौ समाच्छेद्यः प्रव्रज्यायाः विसंशयम् ॥ १०४ ॥ स्वकं-स्वकीयं यत्र दीक्षितः तं । गच्छं-गणं । विनिर्मुच्य-परित्यज्य। परं गच्छमुपाददत् - गृह्णन् । अर्द्धनासौ समाछेद्यः प्रवज्यायाःदीक्षाया अख़्शेन, असौ स साधुः, समाछेद्यः खण्डयितव्यः । विसंशयंनिःसन्देहम् ॥ १०४ ॥ यः परेषां समादत्ते शिष्यं सम्यक् प्रतिष्ठितम् । मासिकं तस्य दातव्यं मार्गमूढस्य दण्डनम् ॥ १०५॥ यः-कश्चिदाचार्यः परेषां-अन्येषां साधूनां । समादत्ते-स्वीकरोति । शिष्यं-विनेयमन्तेवासिनं । सम्यक्प्रतिष्ठितं-सम्यग्विधानेन रत्नत्रये व्यवस्थितं । मासिकं तस्य दातव्यं तस्य पूर्वोक्तस्य परशिष्यादायिनः, मासिकं पंचकल्याणं, दातव्यं देयं । मार्गमूढस्य दण्डनं-प्रायश्चित्तम् ॥ १०५॥ ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्या योग्याः सर्वज्ञदीक्षणे । कुलहीने न दीक्षास्ति जिनेन्द्रोद्दिष्टशासने ॥ १०६ ॥ ब्राह्मणाः-विप्राः । क्षत्रिया:-राजानः । वैश्याः-वणिजः, कृतयुगादिव्यवस्थापितवर्णत्रयसमुत्पन्नाः । योग्याः- उचिता अर्हाः । सर्वज्ञदी Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायश्चित्त-चूलिका। १४५ क्षायां-निर्ग्रन्थलिंगस्य ! कुलहीने--कुलविकले वर्णत्रयपरिच्युते । न दीक्षास्ति-निर्यन्थलिंगं न भवति । जिनेन्द्रोद्दिष्टशासने-जिनेन्द्रोपदिटदर्शने । उक्तं च त्रिषु वर्णेष्वेकतमः कल्याणं ( णां ) गः तपःसहो वयसा । सुमुखः कुत्सारहितो दीक्षाग्रहणे पुमान् योग्यः ॥ इत्यादि । न्यक्कुलानामचेलैकदीक्षादायी दिगम्बरः । जिनाज्ञाकोपनोनन्तसंसारः समुदाहृतः ॥ १०७ ॥ न्यक्कुलानां--नीचकुलानां वर्णत्रयबहिर्भूतानां । अचेलैकदीक्षादायी-अचेलां निर्ग्रन्थां, एकां सकल जगत्प्रधानभूतां, दीक्षां प्रव्रज्यां ददातीत्येवं शीलः । दिगम्बर:-साधुः। जिनाज्ञाकोपनः सर्वज्ञवचनप्रतिकूलः । अनन्त संसार:-अपर्यन्तभवसन्ततिः । समुदाहृतःपरिकथितः ॥ १०७ ॥ दीक्षां नीचकुलं जानन् गौरवाच्छिष्यमोहतः। यो ददात्यथ गृह्णाति धर्मोद्दाहो द्वयोरपि ॥ १०८॥ दीक्षां--प्रव्रज्यां । नीचकुलं-भ्रष्ट कुलं । जानन्-अवगच्छन्नपि । गौरवात्-ऋद्धिगर्वात् । शिष्यमोहतः-शिष्यस्नेहात् । यो-यः साधुः । ददाति-निर्ग्रन्थलिंगं प्रयच्छति । अथ गृह्णाति-अथवा यः पुरुषो निग्रन्थरूपमाददाति । तयोः, धर्मोद्दाहः-चतुर्वर्णोपतप्तिः धर्मदूषणं । द्वयोरपि-उभयोश्च आदातृगृहीत्रोर्भवति ॥ १०८ ॥ अजानाने न दोषोऽस्ति ज्ञाते सति विवर्जयेत् । आचार्योऽपि स मोक्तव्यः साधुवगैरतोऽन्यथा ॥ १०९॥ अतोऽन्यथा--- अतः एतस्मान्न्यायात सकाशात, अन्यथा अन्येन विधिना । स-पूर्वोक्तः । आचार्यः---सूरिः । मोक्तव्यः-ताज्यः । साधुवर्ग:--माधुसमहैः ॥ १०९ ॥ १ पूर्वार्धस्य टीकापाठः त्रुटितोऽवभाति, सुगमः । Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ प्रायश्चित्तसंग्रहे शिष्ये तस्मिन् परित्यक्ते देयो मासोऽस्य दण्डनम् । चाण्डालाभोज्यकारूणां दीक्षणे द्विगुणं च तत् ॥ ११० ॥ शिष्ये-विनेये । तस्मिन्-पूर्वोद्दिष्टे अकुलीने । परित्यक्ते-परिहते सति । देयो मासोऽस्य--अस्य एतस्याचार्यस्य, देयो दातव्यः, मासो मासिकं प्रायश्चित्तं । चाण्डालाभोज्यकारूणां--चाण्डालानां मातंगादीनां, अभोज्यकारूणां अभोज्यानां कारूणां च रजकवरुटकल्लपालप्रभृतीनां च । दीक्षणे-दीक्षादाने सति । द्विगुणं च तत्--पूर्वोक्तं मासिकं प्रायश्चित्तं द्विगुणं भवति द्विदतिव्यं भवति ॥ ११० ॥ अनाभोगेन चेत्सूरिदोषमाप्नोति कुत्रचित् । अनाभोगेन तच्छेदो वैपरीत्याद्विपर्ययः ॥ १११ ॥ अनाभोगेन-अप्रकाशेन । चेत्-~-यदि । सूरि:---आचार्यः । दोषंअपराधं । आप्नोति । कुत्रचित्-कचिदपि तदा । अनाभोगेन तच्छेदःतस्य आचार्यस्य च्छेदः प्रायश्चित्तं, अनाभोगेनाप्रकाशेनैव भवति । वैपरीस्याद्विपर्ययः-वैपरीत्यात्तव्यत्ययात्, विपर्ययः विपर्यासो भवति-साभोगतः साभोगेनैव प्रायश्चित्तं भवति ॥ १११ ॥ क्षुल्लकानां च शेषाणां लिंगप्रभ्रंशने सति । तत्सकाशे पुनर्दीक्षा मूलात् पाषंडिचेलिनाम् ॥ ११२ ॥ क्षुल्लकानां-सर्वोत्कृष्टश्रावकाणां । शेषाणां च-स्त्रीणामपि आर्याणां । लिंगप्रभ्रंशने-केनापि कारणेन दीक्षाभंगे। सति-विद्यमाने । तत्सकाशे पुनर्दीक्षा–यस्य पार्वे पुरा प्रव्रज्या समुपात्ता । तस्यैव सकाशे समीपे पुनरपि दीक्षोपादानं भवति नान्यस्याचार्यस्याभ्यासे । मूलात् पाषंडिचेलिना-लिंगवर्जितानां अन्यलिंगिनां, चेलिनां गृहस्थानां मिथ्यादृष्टीनां श्रावकाणां च, मूलात् मूलप्रभृत्येव दीक्षा भवति ॥ ११२ ॥ कुलीनक्षुल्लकेष्वेव सदा देयं महाव्रतम् । सल्लेखनोपरूढेषु गणेन्द्रेण गुणेच्छुना ॥ ११३ ॥ Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायश्चित्त चूलिका । कुलीन क्षुल्लकेष्वेव - कुलीनेषु कुलपुत्रेषु ब्राह्मणक्षत्रियवैश्यविशुद्धोभयकुलसमुत्पन्नेषु व्यङ्गादिकारणसंश्रयात् क्षुल्लक व्रताधिष्ठितेषु सत्सु । सदा-सर्वकालं । देयं दातव्यं । महाव्रतं --निर्ग्रन्थलिंगं । सल्लेखनोपरूढेषु -- संस्तरमाश्रितेषु नान्येषु क्षुल्लकेषु । गणेन्द्रेण - गणचारिणा । गुणेच्छुना - गुणाभिलाषिणा ॥ ११३ ॥ ऋषि-प्रायश्चित्तम् । समाचारसमुद्दिष्टविशेषभ्रंशने पुनः । स्थैर्यास्थैर्यप्रमादेषु दर्पतः सकृन्मुहुः ॥ ११५ ॥ साधूनां यद्वदुद्दिष्टमेवमार्यागणस्य च । दिनस्थानत्रिकालोनं प्रायश्चित्तं समुच्यते ॥ १९४ ॥ साधूनां - ऋषीणां । यद्वत् यथैव । उद्दिष्टं - प्रतिपादितं । एवमार्यागणस्य च - आर्यागणस्यापि संयतिकासमूहस्य च एवमेव प्रायश्चित्तं भवति । अयं तु विशेषः, दिनस्थानत्रिकालोनं - दिनस्थानं दिवसप्रतिमायोगः, त्रिकालः त्रिकालयोगः, ताभ्यामूनं हीनं रहितं । प्रायश्चित्तंविशुद्धिः । समुच्यते - अभिधीयते ॥ ११४ ॥ १४७ ******** समाचारसमुद्दिष्ट विशेषभ्रंशने पुनः - समाचारे ये केचन कार्याकार्यमन्तरेण परगृहगमनरोधनस्नपनपचनषडिधारंभप्रभृतयो विशेषास्तेषां भ्रंशे स्खलने तु सति । स्थैर्यास्थैर्यप्रमादेषु - स्थैर्ये स्थिरत्वे, अस्थैर्ये अस्थिरत्वे, प्रमादे कथंचिद्दोषसम्पन्ने । दर्पतः - अहंकाराच्च । सकृत् - एकवारं । मुहु:पुनः पुनः । एतेषु यथासंख्यं प्रायश्चित्तानि वश्यन्ते ॥ ११५ ॥ कायोत्सर्गः क्षमा क्षान्तिः पंचकं पंचकं क्रमात् । ष षष्ठं ततो मूलं देयं दक्षगणेशिना ॥ ११६ ॥ कायोत्सर्ग : --- तनुत्सर्गः । क्षमा – उपवासः । क्षान्तिः - क्षमणं । पंचकं - कल्याणं । पुनः, पंचकं । क्रमात् - - क्रमेण । षष्ठं - - षष्ठं प्रायश्चित्तं । पुनरपि षष्ठमेव । ततो मूलं - तदनन्तरं मूलं पंचकल्याणं । देयं - दातव्यं । दक्षगणेशिना -- निपुणगणेन्द्रेण ॥ ११६ ॥ १ सप्ताक्षराण्येव पुस्तके | Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ प्रायश्चित्तसंग्रहे मृजलादिप्रमां ज्ञात्वा कुड्यादीनां प्रलेपने। कायोत्सर्गादिमूलान्तमार्याणां प्रवितीर्यते ॥ ११७ ॥ मृजलादिप्रमां-मृन्मृत्तिका, जलं पानीयं, आदिशब्देनाग्निवायुप्रत्येकानन्तवनस्पतीनां च, प्रमां प्रमाणं । ज्ञात्वा-अवबुध्य । कुड्यादीनां भित्तिभूमिभेषजभाण्डादिद्रव्याणां । प्रलेपने-उपदेहने कृते सति । प्रलेपनग्रहणमुपलक्षणमात्रं तेनाग्निसमारंभादिक्रियाविशेषेषु च सत्सु परिमाणमवगम्य देयं प्रायश्चित्तं । कायोत्सर्गादिमूलान्तं-कायोत्सर्गस्तनूत्सर्गः, तदादि तत्प्रभृति, मूलं पंचकल्याणं, तदन्तं तत्पर्यवसानं । आर्यागां-संयतिकानां । प्रवितीर्यते--प्रदीयते । विडालपदादिमात्रेषु मृत्तिकादिषु कायोत्सर्गः । सर्वोत्कृष्टं पंचकल्याणं भवति मध्ये विकल्पः । उक्तं च पुढविं विडालपयमेत्तमक्खणंतो जलंजलिं तह य । दीवयसिहापमाणं हुयासणं विज्जवंतो य ॥ १ ॥ वियणेणं वीयंतो वाराओ दुण्णि तिणि वा होई। एक्कं हि य बहुदोसे काउस्सग्गो वि तं लहई ॥ २ ॥ वस्त्रस्य क्षालने घाते विशोषस्तनुसर्जनम् । प्रासुकतोयेन पात्रस्य धावने प्रणिगद्यते ॥ ११८ ॥ वस्त्रस्य-चीवरस्य । क्षालने-धावने । घाते-अपां अप्कायिकानां घाते विराधने सति । विशोषः-विशोषणमुपवासः प्रायश्चितं । तनु. सर्जनं--कायोत्सर्गः । प्रासुकतोयेन-प्रासुकपानीयेन । पात्रस्य-भिक्षाभाण्डस्य । धावने-प्रक्षालने कृते सति । प्रणिगद्यते--परिकीर्यत इति यथाक्रमं योज्यम् ॥ ११८ ॥ वस्त्रयुग्मं सुबीभत्सलिंगप्रच्छादनाय च । आर्याणां संकल्पन तृतीये मूलमिष्यते ॥ ११९॥ वस्त्रयुग्मं-वस्त्रयुगलं । सुबीभत्सलिंगप्रच्छादनाय-सुबीभत्सं सुष्टु बीभत्समदर्शनीय, लिंग रूपं, तस्य प्रच्छादनाय पिर्धानार्थ । आर्याणां-- Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायश्चित्त-चूलिका। तपस्विनीनां, संकल्पेन-संप्रकल्पिते धृते । तृतीये मूलमिष्यते--तृतीये वस्त्रे गृहीते सति आर्याणां, मूलं मासिकं, इष्यते निश्चीयते ॥ ११९ ॥ याचितायाचितं वस्त्रं भैक्ष्यं च न निषिद्धयते । दोषाकीर्णतयाणामप्रासुकविवर्जितम् ॥ १२० ॥ ___ याचितं-भिक्षित, अयाचितं-स्वयमेवोपलब्धं च । वस्त्रं-अम्बरं । भैक्ष्यं-भिक्षाणां समुहश्च । न निषिध्यतेन निवार्यते । दोषाकीर्णतया-दोषबाहुल्येन हेतुभूतेन । आर्याणां-विरतिकानां । अप्रासुकवि. वर्जितं-सावद्यविरहितम् ॥ १२० ॥ तरुणी तरुणेनामा शयनं गमनं स्थितिम् । विदधाति ध्रुवं तस्याः क्षमाणां त्रिंशदाहृता ॥ १२१ ॥ __तरुणी-युवतियॊवनस्था । तरुणेन-यना । अमा-सह । शयनंस्वापं । गमनं--यानं । स्थिति--स्थानं कायोत्सर्ग सहासनं वा । या आर्या, विदधाति--करोति । ध्रुवं--निश्चितं । तस्याः--पूर्वोक्तायाः संयतिकायाः । क्षमाणां--क्षमणानां । त्रिंशत्, आहृता-उदाहृता परिकथिता ॥ १२१ ॥ तारुण्यं च पुनः स्त्रीणां षष्ठिवर्षाण्यनूदितम् । तावन्तमपि ताः कालं रक्षणीयाः प्रयत्नतः ॥ १२२॥ तारुण्यं च पुनः-तरुणत्वं यौवनं तु । स्त्रीणां-योषाणां । षष्ठिवर्षाणि-पष्ठिसंवत्सरान् यावत् । अनूदितं--अनूक्तं कथितं । तावन्तमपि ताः कालं-तावन्तमाप तावन्तं च, ता आर्यकाः, कालं समयं षष्ठिवर्षप्रमाणं । रक्षणीयाः-पालनीयाः । प्रयत्नतः--तात्पर्यात् ॥ १२२ ॥ दर्पण संयुताथार्या विधत्ते दन्तधावनं । रसानां स्यात् परित्यागश्चतुर्मासानसंशयम् ॥ १२३ ॥ - दर्पण-अहंकारेण । संयुता--समन्विता । अथ-अथवा । आर्या --- विरतिका। विधत्ते--करोति । दन्तधावनं-दन्तघर्षणं । यदि तदा । Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० प्रायश्चित्तसंग्रहे रसानां स्यात्-भवेत् । परित्याग:--परिवर्जनं । चतुर्मासान् (चतुरः) त्रिंशद्रात्रान् यावत् । असंशयं-निःसन्देहम् ॥ १२३ ।। अब्रम्हसंयुता क्षिप्रमपनेयापि देशतः।। सा विशुद्धिबहिर्भूता कुलधर्मविनाशिका ॥ १२४ ॥ अब्रह्मसंयुता-अब्रह्मणा मैथुनेन संयुता संगता । क्षिप्रं--शीघ्रं । अपनेया-निर्घाटनीया । अपि देशतः-आस्तां तावद्ग्रामादेः देशादपि तद्विषयादपि उद्वासनीया । सा विशुद्धिबहिर्भूता--सा पूर्वोक्ता संयतिकारूपधारिणी; विशुद्धिबहिर्भूता प्रायश्चित्तविवर्जिता । कुलधर्मविनाशिकाकुलं गुरुकुलं च धर्मो जिनशासनं तयोर्विनाशिका दूषिका ॥ १२४ ॥ तदोषभेदवादोऽपि पण्डितानां न कल्पते । अन्योक्तं लक्षणीयं न तत्प्रहेयं प्रयत्नतः ॥ १२५॥ तदोषभेदवादोऽपि-तस्य पूर्वोक्तसंयमविषयस्य दोषस्य भेदवादः प्रकाशनं च । पण्डिताना-सम्यग्ज्ञानवतां पुरुषाणां । न कल्पते-न युज्यते। अन्योक्तं लक्षगीयं न-अन्यैरपि कैश्चिदुक्तमभिहितमपि लक्षणीयं न-न लक्षणीयं न लक्षयितव्यं नोपलक्षणीयं । तत्प्रहेयं-तज्जल्पनकं, प्रहेयं परित्याज्यमेव । प्रयत्नतः-अत्यन्ततात्पर्यात् ॥ १२५ ॥ यतिरूपेण वाच्याता चेदार्यानामधारिका। हा! हा ! कष्टं महापापं न श्रोतुमपि युज्यते ॥ १२६ ॥ यतिरूपेण-संयतनामधारिणा सह । वाच्याप्ता चेत् --यदि वाच्याप्ता वाच्यं जल्पनकं, आप्ता प्राप्ता, भवति । आर्यानामधारिका--विरतिकाभिधानवाहिका । हा हा कष्टं-हा हा विग्धिक्, कष्टं निकृष्टं । महापापंमहापातकं । तत्तेन, श्रोतुमपि न युज्यते--आस्तां तावज्जल्पनं संप्रश्नो वा श्रोतुमपि आकर्णयितुमपि न युज्यते न कल्पते न वर्तते ॥ १२६ ॥ उभयोरपि नो नाम ग्राह्यं धिङीचकर्मणोः। अन्यश्चेत्कोऽपि तद्ब्रूयात् पिधातव्य ततः श्रुती ॥ १२७ ॥ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायश्चित्त-चूलिका। १५१ उभयोरपि-द्वयोरपि रूपधारिणोः । नो नाम ग्राह्य-नामाभिधानं नो ग्राह्यं नादेयं न वक्तव्यं । धिक्--कष्टं । नीचकर्मणोः-निकृष्टचेष्टयोः । अन्यश्चेत्कोऽपि तब्रूयात्-चेयदि, अन्यः कोऽपि अपरश्च कश्चित्, तत्पूर्वोक्तं दूषणं, ब्रूयाज्जल्पति । पिधातव्ये ततः श्रुतीपिधातव्ये छादयितव्ये, ततस्तदनन्तरं, श्रुती कर्णौ ॥ १२७ ॥ स नीचोऽप्यनुते शुद्धिं शुद्धबुद्धिः प्रयत्नतः। देशकालान्तरात्तत्र लोकभावमवेत्य च ॥ १२८॥ सः-पूर्वोक्तसंयमरूपानुकारी । नीचोऽपि-अधर्मोऽपि । अनुते---- प्रामोति । शुद्धिं--प्रायश्चित्तं । शुद्धबुद्धिः-विविक्तमतिः सन् । प्रयत्नतः-प्रयत्नेन सम्यग्विधानेन । देशकालान्तरात्-कालान्तरे महति कालेऽतिकान्ते । तत्र लोकभावमवेत्य च-तत्र देशे यत्र प्रायश्चित्तं तस्य प्रदीयते, लोकभावं जनपरिणामं, अवेत्य च परिज्ञायापि अस्मिन् देशे दोषं न तावत्कोऽपि परिगृह्णातीति सम्यगवगम्य । अनेन विधानेनास्य विशुद्धिविधीयते ॥ १२८॥ शपथं कारयित्वाथ क्रियामपि विशेषतः । बहूनि क्षमाणान्यस्य देयानि गणधारिणा ॥ १२९॥ शपथं-कोश । कारयित्वा--विधाप्य । अथ-अनन्तरं । क्रियामपि-प्रतिक्रमणं च । विशेषतः-सविशेषं । बहूनि क्षमणानि-बहब उपवासाः । अस्य-एतस्य साधोः । देयानि-दातव्यानि । गणधारिणा-गणधरेण ॥ १२९ ॥ द्रव्यं चेद्धस्तगं किंचिद्वन्धुभ्यो विनिवेदयेत् । तदास्याः षष्ठमुद्दिष्टं सोपस्थानं विशोधनम् ॥ १३० ॥ द्रव्यं-वित्तं । चेत्-यदि । हस्तगं-करस्थं । किंचित्-किमपि हिरण्यसुवर्णादि यत्तत् । बन्धुभ्यः-स्वजनेभ्यः । विनिवेदयेत् -प्रयच्छति । तदा-तस्मिन् काले । अस्याः--एतस्या आर्यायाः । षष्ठं--षष्ठ प्राय ___ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ प्रायश्चित्तसंग्रहे श्चित्तं । उद्दिष्टं-कथितं । सोपस्थानं--सप्रतिक्रमणं । विशोधनं-मल हरणम् ॥ १३० ॥ येन केनापि तल्लब्धं पुनद्रव्यं च किंचन । वैयावृत्यं प्रकर्तव्यं भवेत्तेन प्रयत्नतः ॥ १३१ ॥ येन केनापि-येन केनचिदुपायेन । तत्-पूर्वोक्तं । लब्धंप्राप्तं । पुनः-पुनरपि भूयः । द्रव्यं च-धनमपि । किंचन--कियदपि । वैयावृत्यं प्रकर्तव्यं भवेत्तेन-तेनार्थेन, वैयावृत्यं धर्मप्राणिनामुपकारः, प्रकर्तव्यं विधेयं, भवेत् स्यात् । प्रयत्नतः-प्रयत्नान्निराबाधं । तदेव तस्याः प्रायश्चित्तम् ॥ १३१ ॥ भ्रातरं पितरं मुक्त्वा चान्येनापि सधर्मणा । स्थानगत्यादिकं कुर्यात् सधर्मा छेदभागपि ॥ १३२ ॥ भ्रातर--सहोदरं । पितरं--जनकं । मुक्त्वा -परित्यज्य । अन्येन-- परेण । अपि सधर्मणा--सधर्मणापि आस्तां तावदन्येन पुरुषेण गुरुभ्रात्रापि सह यदि, स्थानगत्यादिकं-स्थानं कायोत्सर्ग, गतिर्यानं मार्गगमनं, आदिशब्देनागमनं सहस्थितिप्रभृतिं च एकाकिनी, कुर्यात्-विधत्ते तदानीं, सधर्मा छेदभागपि-आस्तां तावदार्या सधमपि गुरुभ्रातापि, छेदभाक् प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ १३२ ॥ बहून् पक्षांश्च मासांश्च तस्या देया क्षमा भवेत् । बलं भावं वयो ज्ञात्वा तथा सापि समाचरेत् ॥ १३३ ॥ बहुन् - अनेकान् । पक्षान्-पंचदशरात्रान् । मासांश्च-त्रिंशद्रात्रानपि । तस्याः--पूर्वोक्ताया आर्यायाः । देया--दातव्या । क्षमाक्षमणं । भवेत्-स्यात् । बलं-सामर्थ्य स्थाम । भावं-परिणामं तीव्रमन्दमध्यमविशेषविशिष्टैः । वयः--दशां। ज्ञात्वा-अवगम्य। तथा---तेनैव न्यायेन । सापि--प्रागभिहितार्या च । समाचरेत्-कुर्यात् ॥ १३३ ।। Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायश्चित्त-चूलिका। १५३ mirmirror.rrrrrrrrrrrrrrrrr क्षान्त्या पुष्पं प्रपश्यन्त्या तद्दिनात् स्याच्चतुर्दिनम् । आचाम्लनीरसाहारः कर्तव्या चाथवा क्षमा ॥ १३४॥ क्षान्त्या-आर्यया । पुष्पं-रजः । प्रपश्यन्त्या---अवलोकमानया । तदिनात्-यस्मिन् दिवसे तदृष्टं तस्मादिनादिवसात् प्रभृति । स्यात्-भवेत् । चतुर्दिनं-दिनचतुष्टयं । आचाम्लं-असंस्कृतकंजिकभोजनं । नीरसाहारः-निर्गता रसा विकृतयः तिक्तकटु कादयो यस्मादसौ नीरसः स चासौ आहारः निर्विकृतिः, यथासिद्धस्य रूक्षाहारस्य भोजन तक्रेण वा शक्त्यपेक्षया । कर्तव्या-करणीया । चाथवा क्षमा-अथवा क्षमा क्षमणं ॥१३४॥ तदा तस्याः समुद्दिष्टा मौनेनावश्यकक्रिया । व्रतारोपः प्रकर्तव्यः पश्चाच्च गुरुसन्निधौ ॥ १३५ ॥ तदा-तस्मिन् काले । तस्याः-आर्यायाः। समुद्दिष्टा--निगदिता । मौनेन-तूष्णीं भावेन । आवश्यकक्रिया--समतास्तववन्दनाप्रतिक्रमणप्रत्याख्यानकायोत्सर्गाणां षण्णामावश्यकानां करणं । व्रतारोपः-व्रतारोपणं । प्रकर्तव्यः-विधातव्यः । पश्चाच्च -तदनन्तरमस्ति । गुरुसन्निधौआचार्यसमीपे ॥ १३५ ॥ स्नानं हि त्रिविधं प्रोक्तं तोयतो व्रतमंत्रतः । तोयेन स्याद्गृहस्थानां साधूनां व्रतमंत्रतः ॥ १३६ ॥ स्नानं-सर्वाङ्गशुद्धिः शौचं । हि-यस्मात् । त्रिविधं---त्रिभेदं । प्रोक्तं--परिकथितं । तोयतः--तोयेन जलेन । व्रतमंत्रतः-व्रतेन संयमेन विशुद्धध्यानेन, मंत्रतः मंत्रेण परममंत्रपदोच्चारणैश्च विद्यादिभिः कृत्वा । एवं त्रिप्रकारं स्नानं भवति। तत्र, तोयेन-पानीयेन स्नानं । स्यात्-भवेत् । गृहस्थानां-गृहिणां । साधूनां-यतीनां तु । व्रतमंत्रतः व्रतैमैत्रैः स्नानं शौचं भवतीति । इयं परमार्थशुद्धिः । व्यवहारशुद्धिस्तु चाण्डालादि. संस्पर्श सति व्रतं परिपालयद्भिः साधुभिः जलेनापि विधातव्या ॥ १३६ ॥ संयतिका-प्रायश्चित्तं । - - Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायश्चित्तसंग्रहे श्रमणच्छेदनं यच्च श्रावकाणां तदेव हि । द्वयोरपि त्रयाणां च षण्णामर्धार्धहानितः ॥ १३७ ॥ श्रमणच्छेदनं -- श्रमणानां साधूनां छेदनं प्रायश्चित्तं । यच्च यदेव प्रागुपदिष्टं । श्रावकाणां - उपासकानां । तदेव हि तदेव प्रायश्चित्तं भवति क्रमेण । द्वयोरपि - आययोरुभयोश्च । त्रयाणां - - मध्येगतानां च । षण्णां - ततः परं षण्णामपि श्रावकाणां । अर्धार्धहानिक्रमेण । एकादश श्रावका भवन्ति । उक्तं च १५४ दर्शनोऽणुव्रतश्चैव ससामायिक इत्यपि । प्रोषधो विरतचैव सचित्ताद्दिनमैथुनात् ॥ १ ॥ ब्रह्मवती निरारंभश्रावको निष्परिग्रहः । निरनुज्ञो निरुद्दिष्टः स्यादेकादशधेति सः ॥ २ ॥ इति । अत्राययोर्निरुद्दिष्टनिरनुज्ञयोरुत्कृष्टभावकयोः भवति । ततः निष्परिग्रहनिरारंभब्रह्मचारिणां त्रयाणां श्रावकाणां उत्कृष्ट श्रावकप्रायश्चित्तस्यार्धं भवतीत्यभिसम्बन्धः ॥ १३७ ॥ केचिदाहुर्विशेषेण त्रिष्वप्येतेषु शोधनम् । द्विभागोऽपि त्रिभागश्च चतुर्भागो यथाक्रमम् ॥ १३८ ॥ केचिदाहुः केचित् केचन आचार्याः, आहुः ब्रुवन्ति । विशेषेणभेदान्तरेण । त्रिष्वप्येतेषु - एतेषु पूर्वोक्तेषु श्रावकेषु त्रिष्वपि उत्कृष्टमध्यमजघन्येषु । शोधनं -- प्रायश्चित्तं भवति । द्विभागः - । अथानन्तरं त्रिभागोऽपि - तृतीयोऽशः । चतुर्भाग:-- पादः । यथाक्रमं - - यथासंख्यं । साघुप्रायश्चित्तार्थै उत्कृष्ट श्रावकयोर्भवति । श्रमणप्रायश्चित्तस्यैव तृतीयोंऽशो मध्यमानां त्रयाणां भावकाणां भवति । ऋषिप्रायश्चित्तस्यैव चतुर्भागो जघन्यानां षण्णां भवति ॥ १३८ ॥ ――― श्रमणप्रायश्चित्तस्यार्ध षण्णां स्याच्छ्रावकाणां तु पंचपातकसन्निधौ । महामहो जिनेन्द्राणां विशेषेण विशोधनम् ॥ १३९ ॥ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायश्चित्त- चूलिका । षण्णां - - जघन्यानां । स्यात् -- भवेत् । श्रावकाणां - उपासकानां । पंचपातकसन्निधौ — गोवधस्त्रीहत्याबालघातश्रावक विनाशबिंविघात सन्निपाते सति । महामहो जिनेन्द्राणां सर्वज्ञानां च महामहः महामहिमा । विशेषेण विशोधनं-- अतिशयप्रायश्चित्तं भवति ॥ १३९ ॥ आदावन्ते च षष्ठं स्यात्क्षमणान्येकविंशतिः । प्रमादाद्गोबधे शुद्धिः कर्तव्या शल्यवर्जितैः ॥ १४० ॥ आदौ - प्रथमं तावत् । अन्ते च -- अवसाने च । षष्ठं स्यात् षष्ठं प्रायश्चित्तं भवति । मध्ये, क्षमणान्येकविंशतिः -- एकविंशतिरुपवासाः सन्ति । प्रमादात् - कथंचित् । गोवधे – गोहत्यायां | शुद्धिः -- प्रायश्चित्तं । कर्तव्या विधेया । शल्यवर्जितैः निःशल्यैः निदानमिथ्यात्वमायाशल्यविरहितैः सद्भिः ॥ १४० ॥ --- १५५ सौवीरं पानमाम्नातं पाणिपात्रे च पारणे । प्रत्याख्यानं समादाय कर्तव्यो नियमः पुनः ॥ १४१ ॥ सौवीरं - - कांजिकं । पानं-- पेयं । तदा, आम्नातं -- कथितं । तस्य प्राप्तप्रायश्चित्तस्य । पाणिपात्रे च पारणे -- पारणे उपवासावसाने भोजन शौच ? पाणिपात्रे करपुटे भवति । प्रत्याख्यानं - चतुविधाहारनिवृत्तिं । समादाय -- गृहीत्वा । कर्तव्यो नियमः पुनः -- पुनर्भूयश्च, नियमः आवक प्रतिक्रमणं, कर्तव्यो विधातव्यः ॥ १४१ ॥ त्रिसन्ध्यं नियमस्यान्ते कुर्यात्प्राणशतत्रयं । रात्रौ च प्रतिमां तिष्ठेन्निर्जितेन्द्रियसंहतिः ॥ १४२ ॥ त्रिसन्ध्यं --- सन्ध्यात्रये पूर्व मध्यान्हेऽपराह्णे च नियमः कर्तव्यः । नियमस्यान्ते - नियमावसानेऽपि । कुर्यात् — विदध्यात् । प्राणशतत्रयं -- उच्छा सशतत्रयप्रमाणः कायोत्सर्गः करणीयः । रात्रौ च - निशायामपि । प्रतिमां तिष्ठेत् कायोत्सर्गे कुर्यात् । निर्जितेन्द्रियसंहतिः - - संनिरुद्ध पंचेन्द्रियसमूहः सन् ॥ १४२ ॥ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ प्रायश्चित्तसंग्रहे द्विगुणं द्विगुणं तस्मात् स्त्रीबालपुरुषे हतौ। सदृष्टिश्रावकर्षीणां द्विगुणं द्विगुणं ततः ॥ १४३॥ द्विगुणं द्विगुणं-द्विः द्विः प्रायश्चित्तं भवति । तस्मात् ततो गोवधात्सकाशात् । स्त्रीबालपुरुषे हतौ-स्त्री योषित्, बालः शिशुः, पुरुषो मनुष्यः इत्येतेषु विषये हतौ सत्यां घाते सति । सदृष्टिश्रावकर्षीणां-सदृष्टिः अविरतसम्यग्दृष्टिः, श्रावको ब्राह्मणो लौकिकश्चेतरश्च, ऋषिश्च लौकिकः लोकोत्तरश्च, एतेषां विशेषपुरुषाणां हतौ सत्यां । द्विगुणं द्विगुणं ततः-ततः पूर्वोक्तागोवधप्रायश्चित्तात् प्रत्येकं स्त्रीप्रभृतीनां विधाते प्रायश्चित्तं भवति । गोवधात् स्त्रीवधे द्विगुणं प्रायश्चित्तं । स्त्रीवधाद्वालवधे द्विगुणं । बालवधात् सामान्यमनुष्ये द्विगुणं । सामान्यमनुष्यवधात् पाषंडिषु द्विगुणं । पापंडिवधाल्लौकिकब्राह्मणे द्विगुणं । लौकिकब्राह्मणवधादसंयतसम्यग्दृष्टौ द्विगुणं । असंयतसम्यग्दृष्टिवधात् संयतासंयते द्विगुणं । संयतासंयतवधात् निर्ग्रन्थसंयतो विषये द्विगुणं प्रायश्चित्तं भवति ॥ १४३॥ कृत्वा पूजां जिनेन्द्राणां स्नपनं तेन च स्वयम् । स्नात्वोपध्यम्बराद्यं च दानं देयं चतुर्विधम् ॥ १४४॥ प्रायश्चित्तचरणानन्तरं, कृत्वा-विधाय । पूजां-महिमां । जिनेन्द्राणामहतां । स्नपनं.--अभिषेकं च कृत्वा । तेन च स्वयं स्नात्वा-तेन जिनेन्द्रस्नपनोदकेन, स्वयमात्मना, स्नात्वाभिषिच्य । उपध्यम्बरायं च, दानं देयं-उपधिः पुस्तककमण्डलुप्रतिलेखितप्रभृत्युपकरणं, अम्बरं वस्त्रं, आदिशब्देन पात्रप्रमुखं च दानमतिसर्जनं वस्त्यायं दातव्यं । चतुर्विधंअभयदानमाहारदानं शास्त्रदानमौषधदानं चेति चतुष्प्रकारम् ॥ १४४ ॥ सुवर्णाद्यपि दातव्यं तदिच्छूनां यथोचितम् । शिरःक्षौरं च कर्तव्यं लोकचित्तजिघृक्षया ॥ १४५ ॥ Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायश्चित्त-चूलिका। १५७ सुवर्णाद्यपि-सुवर्णहिरण्यवस्त्रयुगलादि च । दातव्यं-वितरणीयं । तदिच्छूनां-तदार्थनां लोकानां । यथोचितं-यथायोग्यं । शिरःक्षौरं च कर्तव्यं-शिरसो मस्तकस्य क्षौरं क्षुरकर्म केशापनयनं, तदपि कर्तव्यं करणीयं । लोकचित्तजिघृक्षया-लोकस्य जनस्य सम्बन्धिनः, चित्तस्य मनसः, जिघृक्षया गृहीतुमिच्छया-सकलजनमनोनुरागकारिणो धर्मानुष्ठानसुख प्रवृत्तेः । ततः स्ववेश्मप्रवेशो भवति ॥ १४५॥ क्षुद्रजन्तुवधे शान्तिः षष्ठमन्यव्रतच्युतौ । गुणशिक्षाक्षतौ क्षान्तिस्रज्ञाने जिनपूजनम् ॥ १४६ ॥ अद्रजन्तुबधे-क्षुद्रमन्तवः द्वीन्द्रियास्त्रीन्द्रियाश्चतुरिन्द्रियाश्च एतेषां वधे विघाते कृते सति । शान्तिः-उपवासः प्रायश्चित्तं । षष्ठमन्यवतच्युतौअन्येषां स्तेयस्वदारसंतोषपरिग्रहपरिमाणवतानां च्युतौ च्यवने भंगे सति षष्ठं प्रायश्चित्तं भवति । (गुणशिक्षाक्षतौ क्षान्तिः--गुणवतानां शिक्षावतानां च क्षती भंगे सति क्षान्तिरुपवासः प्रायश्चित्तं )। दृग्ज्ञाने जिनपूजनंदर्शनं दृक् सम्यक्त्वं तत्वार्थश्रद्धानलक्षणं, अष्टशुद्धिविशुद्धं ज्ञानमागमः तयोविषये जिनपूजनं सर्वज्ञार्चनं प्रायाश्चत्तं भवति । सर्वोऽपि व्रतदोषः पंचषष्ठिभेदो भवति । तद्यथा-- अतिक्रमो व्यतिक्रमोऽतिचारोऽनाचारोऽभोग इति । एषामर्थश्चायमभिधीयते जरद्वन्यायेन, यथा कश्चिज्जरद्वः महासस्यसमृद्धिसम्पन्न क्षेत्रं समवलोक्य तत्सीमसमीपप्रदेशे समवस्थितस्तत्प्रति स्पृहां संविधत्ते सोऽतिकमः । पुनर्विवरोदरान्तरास्यं संप्रवेश्य ग्रासमेकं समाददामीत्यभिलाषकालुष्यमस्य व्यतिक्रमः । पुनरपि तवृत्तिसमुल्लंघनमस्यातिचारः । पुनरपि क्षेत्रमध्यमधिगम्य ग्रासमेकं समादाय पुनरस्यापसरणमनाचारः। भूयोऽपि निःशंकतः क्षेत्रमध्यं प्रविश्य यथेष्टं संभक्षणं क्षेत्रप्रभुणा प्रचण्डदण्डताडनखलीकारः अभोगकारः अभोग इति । एवं व्रतादिष्वपि योज्यं । उपरि १ 'कृतपूजनं' पुस्तके पाठः । २ कंसस्थः पाठः पुस्तके नास्ति किन्तु कल्पितः। Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायश्चित्तसंग्रहे द्वादश व्रतानि अधश्चातिक्रमो व्यतिक्रमोऽतिचारोऽनाचारोऽभोग इत्येते स्थापयितव्याः । संदृष्टिरप्येषामेषा भवति । उच्चारणा विनिश्चीयतेस्थूल कृतप्राणातिपातस्यातिक्रमो व्यतिक्रमोऽतिचारोऽनाचारोऽभोग इति प्रथमाणुव्रतस्य पंचोच्चारणा । एवं शेषैकादशवतेष्वपि पंच पंचोच्चारणा भवन्ति, सर्वव्रतानां सर्वोच्चारणाः संकलिताः षष्ठिर्भवन्ति । मूलोच्चारणाभिः पंचभिः सह पंचषष्ठिरुच्चारणा इति ॥ १४६ ॥ रेतोमूत्रपुरीषाणि मद्यमांसमधूनि च । - अभक्ष्यं भक्षयेत् षष्ठं दर्पतश्चेविषट्क्षमाः ॥ १४७ ॥ रेतोमूत्रपुरीषाणि-रेतः क्षरण, मूत्रं प्रस्रवणं, पुरीषमुच्चारः । मद्यमांसमधूनि च-मद्यं सुरा, मांसं पिशितं, मधु माक्षिकार्दितानि च । अभक्ष्यं--- अभोज्यं रुधिरास्थिचर्मप्रमुखं च यदि । भक्षयेत्-अभ्यवहरति प्रमादेन तदानीं तस्य जघन्योपासकस्य षष्ठं प्रायश्चित्तं भवति । दर्पतश्चेत्-चेद्यदि, दर्पतोऽहंकारात् पूर्वोक्तमझनाति तदानीं द्विषट्क्षमा:-उपवासा द्विषट् द्वादश भवन्ति प्रायश्चित्तम् ॥ १४७॥ पंचोदुम्बरसेवायां प्रमादेन विशोषणं । चाण्डालकारुकाणां षडन्नपाननिषेवणे ॥१४८॥ पंचोदुम्बरसेवायां-पंचोदुम्बराणि वटाश्वत्थोदुम्बरकठूमरविशेषफलानि तेषां दर्पतोऽभ्यवहरणे कृते द्वादशोपवासाः। प्रमादेन च, विशोषणंउपवासः प्रायश्चित्तं । चाण्डालकारुकाणां षडन्नपाननिषेवणे-चांडाला. दीनां कारुकाणां कारूणां वरुटरजकादीनां च अन्नपानयोर्निषेवणेऽनुभवने कृते सति षट् षड्डिशोषणानि भवन्ति ॥ १४८॥ सद्योल्लंघि (बि) तगोधातवन्दीगृहसमाहतान् । ? कृमिदृष्टं च संस्पृश्य क्षमणानि षडश्नुते ॥ १४९॥ १ सदृष्टि इति भूलः पाठः । Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायश्चित्त-चूलिका। १५९ सबो (यो) लंघि(वि)तगोघातप्रहारः (?) गोघ (ह) तिः गोघातः गोधातेन समाहतं यस्य स गोघातसमाहतः तं च, वन्दीगृहसमाहतं वन्दीगृहेण समाहतं यस्य स वन्दीगृहसमाहतः तमपि । कृमिदष्टं च-कृमिक्षतमपि च । संस्पृश्य-स्पृष्ट्वा । क्षमणानि षडश्नुते-षट् क्षमणानि उपवासान् अश्नुते प्राप्नोति । मृतकं उद्घद्धमृतं गोविहितं (?) वन्दीगृहनिपतितं कृमिहतमित्येतान् यदि स्पृशति तदानीं तत्प्रायश्चित्तं भवतीति भावार्थः ॥ १४९ ॥ सुतामातृभगिन्यादिचाण्डालीरभिगम्य च । अनुवीतोपवासानां द्वात्रिंशतमसंशयं ॥ १५ ॥ सुतामातृभगिन्यादिचांडालीः-सुता दुहिता पुत्री, माता जननी, भगिनी स्वसा, आदिशब्देन मातृण्वसास्वश्रूस्नुषा इत्येताश्च, चाण्डालीः चाण्डालमातंगवनिताद्याश्च । अभिगम्य-संसेव्य । अश्नुवीतप्राप्नोति । उपवासानां द्वात्रिंशतं-द्वात्रिंशदुपवासान् । असंशयं-असंदिग्धम् ॥ १५० ॥ कारूणां भाजने भुक्ते पीतेऽथ मलशोधनम् । विशोषा पंच निर्दिष्टा छेददक्षैर्गणाधिपैः ॥ १५१ ॥ कारूणां-कारूणामभोज्यानां । भाजने-पात्रे । भुक्ते--ऽभ्यवहते सति । पीतेऽथ-अथवा पीते च सति । मलशोधनं-प्रायश्चित्तं । विशोषाः पंच-पंच विशोषा विशोषणा । निर्दिष्टा:-कथिताः । छेददक्षैः-प्रायश्चित्तशास्त्रकुशलैः । गणाधिपः-आचार्यवगैः ॥ १५१ ॥ जलानलप्रवेशेन भृगुपाताच्छिशावपि। बालसंन्यासतः प्रेते सद्यः शौचं गृहिव्रते ॥ १५२ ॥ जलानलप्रवेशेन-जलप्रवेशेन पानीये प्रवेशं विधाय प्रेते सति, अनल. प्रवेशेन अग्निप्रवेशेन च प्रेते । भृगुपातात्-पतनात् हेतुभूतात् । शिशा. वपि-जाले च प्रेते । बालसंन्यासतः-बालसंन्यासात् मिथ्यादृष्टिसंन्या सेन च कृत्वा । प्रेते-स्वजने मृते । सद्यः--झटिति । शौचं-शुद्धि Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० प्रायश्चित्तसंग्रहे र्भवति-सूतकं नास्ति । गृहिते-श्रावके च । एतस्मिन् सति तत्क्षणादेव शुद्धिर्भवति ॥ १५२॥ ब्राह्मणक्षत्रविद्रा दिनैः शुद्धयन्ति पंचभिः। दशद्वादशभिः पक्षाद्यथासंख्यप्रयोगतः ॥ १५३॥ ब्राह्मणक्षत्रविट्छुद्राः-ब्राह्मणा विप्राः, क्षत्राः क्षत्रियः, विशो वैश्याः, शूद्रा आभीरकुंभकारतक्षकादयः । दिनैः-दिवसः । शुद्ध्यन्ति-सूतकरहिता भवन्ति । पंचभिः (दशभिः) - ब्रह्मणाः । पंचभिर्दिवसः क्षत्रियाः शुद्धयन्ति । द्वादशभिः-दिवसैः वैश्याः शुद्ध्यन्ति । पक्षात् --पंचदशभिदिवसैः शूद्राः संशु-ट्यन्ति । यथासंख्यप्रयोगतः-यथाक्रमयुक्तया॥१५३॥ कारिणो द्विधाः सिद्धा भोज्याभोज्य प्रभेदतः । भोज्येष्वेव प्रदातव्यं सर्वदा क्षुल्लकव्रतं ॥१५४ ॥ कारिणः-कारवः । द्विविधाः-विभेदाः । सिद्धाः-लोकत एव प्रसिद्धाः । भोज्याः-यदन्नपानं ब्राह्मणक्षत्रियविट्छूद्रा भुंजन्ते । अभोज्याः-तद्विपरीतलक्षणाः। भोज्येष्वेव प्रदातव्या क्षुल्लकदीक्षा नापरेषु॥१५४॥ क्षुल्लकेष्वेककं वस्त्रं नान्यन्न स्थितिभोजनम् । आतापनादि योगोऽपि तेषां शश्वनिषिध्यते । १५५॥ क्षुल्लकेषु-सर्वोत्कृष्टश्रावकेषु । एकक-एकं । वस्त्रं--अम्बरं पटः । नान्यत्--अन्यदितीयं वस्त्रं न भवति । न स्थितिभोजनं-उद्भीभूयाभ्यवहारोऽपि न भवति । आतापनादियोगोऽपि-आतापनवृक्षमूलाभ्रावकाशयोगश्च । तेषां-क्षुलकानां । शश्वत्-सर्वकालं । निषिध्यते-प्रतिषिध्यते ॥ १५५॥ १ अत्र क्षत्रब्राह्मणविट्छुद्राः इत्येवं रूपेण पाठेन भवितव्यं । अन्यथा छेदपिण्डछेदशास्त्र इति शास्त्रद्वयविरोधः स्यात् । २ अत्रस्थः पाठः पुस्तकाच्च्युत इत्यवभाति अतः दशभिः दिवसैः ब्राह्मणा शुद्धयन्ति इत्येवं रूपेण पाठेन भवितव्यम् । Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायश्चित्त- चूलिका | क्षौरं कुर्याच्च लोचं वा पाणौ भुंक्तेऽथ भाजने । कौपीनमात्रतंत्रोऽसौ क्षुल्लकः परिकीर्तितः ॥ १५६ ॥ क्षौरं - क्षुरकर्म शिरोमुण्डनं । कुर्यात् — विदध्यात् । लोचं वा-वालोत्पाटनं वा करोति । पाणौ भुंक्तेऽथ भाजने पाणौ पाणिपात्रे, भुंक्ते वल्भते, अथ अथवा, भाजने कंसपात्र्यादिके भुंक्ते । कौपीनमात्रतंत्रः कौपीनमात्रं तंत्रं यस्य स कौपीनमात्रतत्रः कर्पटखण्डमण्डितकटीतटः । असौ-पूर्वोक्तविधानपरिवर्णितः । क्षुल्लकः -- उत्कृष्टाणुव्रतधारी । परिकीर्तितः -- समुद्दिष्टः ॥ १५६ ॥ - - | सद्दृष्टिपुरुषाः शश्वद्धर्मोद्दाहादि बिभ्यति । लोभमोहादिभिर्धर्मदूषणं चिन्तयन्ति न ॥ १५७ ॥ सदृष्टि पुरुषाः सम्यग्दृष्टिमनुष्याः । शश्वत् — सर्वकालं । धर्मोद्दाहात् - धर्मोपतप्तेः सकाशात् । हि--यस्मात् । बिभ्यति -- अभित्रसन्ति । अतो हेतोः, लोभमोहादिभिर्धर्मदूषणं चिन्तयन्ति न-लोभेन परिग्रहमूर्छया, मोहेन स्नेहेन, आदिशब्देन द्वेषादिभिरपि दोषविशेषैः कृत्वा, धर्मदूषणं शासनकलंकं, न चिन्तयन्ति नाभिवाञ्छन्ति ॥ १५७ ॥ १६१ । प्रायश्चित्तं न यत्रोक्तं भावकालक्रियादिकं । गुरूद्दिष्टं विजानीयात्तत्प्रनालिकयानया ॥ १५८ ॥ प्रायश्चित्तं -- विशोधनं । न यत्रोक्तं --यत्र यस्मिन् दोषविशेषे नोक्तं नाभिहितं । भावकालक्रियादिकं - - भावः परिणामः, कालस्त्रिविधः शीतकालः उष्णकालः साधारणकाल इति, क्रिया करणं सचित्ताचित्तमिश्रद्रव्यप्रतिसेवनं, आदिशब्देन क्षेत्रोत्साहादि च यत्र नोपदिष्टं । गुरूद्दिष्टं विजानीयात्तत्सर्वं गुरूद्दिष्टमाचार्यवर्योपदेशतः विजानीयादधिगच्छेत् । प्रनालिकयानया - अनया एतया प्रनालिकया पद्धत्या दिशा ॥ १५८ ॥ उपयोगाद्वतारोपात् पश्चात्तापात्प्रकाशनात् । पादांशार्धतया सर्वे पापं नश्येद्विरागतः ॥ १५९ ॥ ११ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ प्रायश्चित्तसंग्रहे ___ उपयोगात्-तात्पर्यात् । व्रतारोपात्-स्वस्मिन् व्रताध्यारोहणात् । पश्चात्तापात्-अनुतापात् । प्रकाशनात्-आत्मगतदोषप्रकटीकरणाच हेतोः । पादांशार्धतया-पादांशेन सर्वैरतैः पूर्वोक्तैः कृत्वा कृतदोषस्य चतुर्भागतया विनाशो भवति, अर्धतया कृतदुष्कृतस्य अध(शेन च नाशः स्यात् । सर्व-निःशेषं च । पापं—किल्विषं । नश्येत्-विनश्यति पलायते । विरागतः-विगतो रागो यस्माद्भावात् स विरागः तस्माद्विरागतः विरागात् वैराग्यात् संसारशरीरविषयनिर्वेदादपि विशुद्धभावपरंपराक्शात् सकलमलकलङ्कपरिपातो भवति ॥ १५९ ॥ अवद्ययोगविरतिपरिणामो विनिश्चयात् । प्रायश्चित्तं समुद्दिष्टमेतत्तु व्यवहारतः ॥ १६०॥ अवद्ययोगविरतिपरिणामः-सर्वसावद्यसम्बन्धविनिवृत्तस्य य एव (?) । विनिश्चयात्-निश्चयनयापेक्षया शुद्धनयात् परमार्थोदयादित्यर्थः । प्रायश्चित्तं-मलहरणं । समुद्दिष्टं--अनूदितं । एतत्तु-यत्पुनरालोच्यते प्रदीयते विधीयते च प्रायश्चित्तं तत्सर्व । व्यवहारतः-व्यवहारनयापेक्षया भवति । तौ च व्यवहारनिश्चयनयौ अनादिबद्धावन्योन्यापेक्षौ च सन्तो सम्यग्व्यपदेशमुपलभेताम् ॥ १६० ॥ प्रायश्चित्तं प्रमादेऽदः प्रदातव्यं मुनीश्वरैः। अपि मूलं प्रकर्तव्यं बहुशो बहुशो भवेत् ॥ १६१॥ प्रायश्चित्तं-विशोधनं । प्रमादेऽदः---अदः एतत् आगमविनिर्दिष्टं, प्रमादे कथंचिद्दोषसम्पन्ने सति भवति । प्रदातव्यं-वितरितव्यं । मुनीश्वरैःआचार्यैः । अपि मूलं प्रकर्तव्यं--मूलमपि कर्तव्यं विधातव्यं । बहुशो बहुशः--अनेक शोऽनेकशो दोषमाचरतः सतः साधोः। भवेत् स्यात्॥१६१॥ गृहीतव्यं त्रयाणां न हितं स्वस्मै समीप्सुभिः। नरेन्द्रस्यापि वैद्यस्य गुरोहितविधायिनः ॥ १६२॥ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायश्चित्त- चूलिका | गृहीतव्यं -- गोपयितव्यं । त्रयाणां न त्रयाणां पुरुषाणां गोपनं न भवति । हितं स्वस्मै समीप्सुभिः - आत्महितमिच्छुभिर्मनुष्यैः । नरेन्द्रस्य - राज्ञः । अपि वैद्यस्य – भिषजोऽपि । गुरोः - आचार्यस्य च । हितविधायिनः — हितकारिणः तन्नरेन्द्रादेः ॥ १६२ ॥ यावन्तः स्युः परीणामास्तावन्ति च्छेदनान्यपि । प्रायश्चित्तं समर्थः को दातुं कर्तुमहो ! मते ॥ १६३ ॥ यावन्तः --- यत्परिमाणाः । स्युः - भवेयुः । परीणामाः संप्रवृत्तयः । तावन्ति - तत्परिमाणानि । छेदनान्यपि —- प्रायश्चित्तानि च भवन्ति । अतः कारणात्, प्रायश्चित्तं समर्थः कः कः पुरुषः, प्रायश्चित्तं विशुद्धिं, समर्थः शक्तः । दातुं — वितरितुं । कर्तुं विधातुं च । अहो –आश्चर्यं । मते - शासने आगमे ॥ १६३ ॥ प्रायश्चित्तमिदं सम्यग्युंजानाः पुरुषाः परं । लभन्ते निर्मलां कीर्ति सौख्यं स्वर्गापवर्गजम् ॥ १६४ ॥ प्रायश्चित्तं -- छेदनं । सम्यक् - अनुविधानेन । युंजाना: - सम्बन्धन्तः सन्तः । पुरुषा:- मनुष्याः । परं - - प्रधानमग्रचं च । लभन्ते - अवाभुवन्ति । निर्मलां शुद्धां निष्कलङ्कां । कीर्ति - यशः । सौख्यं - सुखं च लभन्ते । स्वर्गापवर्गजं - अणिमादिकाष्टगुणैश्वर्यसंयुक्तं दिव्यमैन्द्रादि, अपवर्गजं मोक्षजं निखिलकर्ममलपटलविकलस्य सकलविमलकेवलज्ञानादिगुणात्मकस्यात्मनो विशुद्ध रूपावस्थानस्वभावमोक्षोत्पन्नं च सौख्यं लभन्ते ॥ १६४ ॥ - चूलिकासहितो लेशात् प्रायश्चित्तसमुच्चयः । नानाचार्यमतान्यैक्याद्बोद्धुकामेन वर्णितः ॥ १६५ ॥ १६३ ――― चूलिकासहित: -- चूलिकासमन्वितः । लेशात् - अंशात् उद्देशात् संक्षेपात् । प्रायश्चित्तसमुच्चयः - प्रायश्चित्तसमुच्चयाभिधानः प्रायश्चित्तसंक्षेपाख्यो Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ प्रायश्चित्तसंग्रहे ग्रन्थविशेषः । नानाचार्यमतानि-नानाप्रकारसूरिसूर्य ( ?) सामान्यवि. शेषात्मकनयविवक्षावशादाभेहितमतविशेषात्, ऐक्यात-एकत्वेन एकमुखेन । बोडुकामेन । वर्णितः- कथितो बोद्धव्यः ॥ १६५ ॥ अज्ञानाद्यन्मया बद्धमागमस्य विरोधकृत् । तत्सर्वमागमाभिज्ञाः शोधयन्तु विमत्सराः ॥ १६६ ॥ अज्ञानात्--अनवबोधात् भ्रांत्या। यन्मया बद्धं-यत्किंचित्क्षणं मया अनेन बद्धं दृब्धं ग्रंथितं । आगमस्य ---प्रथमानुयोगचरणानुयोगकरणानु योगद्रव्यानुयोगविशेषविशिष्टस्य परमागमस्य शब्दागमस्य युक्तयागमस्य च । विरोधकृत्-विरोधकारि विरुद्धं । तत्सर्व-तत्पूर्वोक्तं सर्व निरवशेष दोषजातं । आगमाभिज्ञाः-आगमकुशलाः । शोधयन्तु--विमलयन्तु । विमत्सराः-विगतमात्सर्या उत्तमक्षमामलसलिलविमलीकृताशयविशेषाः सन्तः सन्तः ॥ १६६ ॥ .. इति श्रीनन्दिगुरुविरचितचूलिकाविवरणम् । यः श्रीगुरूपदेशेन प्रायश्चित्तस्य संग्रहः । दासेन श्रीगुरोर्टब्धो भव्याशयविशुद्धये ॥१॥ तस्यैषाऽनूदिता वृत्तिः श्रीनन्दिगुरुणा दिशा । विरुद्धं यदभूदत्र तत्क्षाम्यतु सरस्वती ॥ २ ॥ प्रवरगुरुगिरीन्द्रप्रोद्गता वृतिरेषा सकलमलकलंकक्षालिनी सज्जनानाम् । सुरसरिदिवशस्वत्सेव्यमाना द्विजेन्द्रैः प्रभवतु जननूना यावदाचन्द्रतारम् ॥ ३॥ (इति) प्रायश्चित्तविनिश्चयवृत्तिः। . Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्भट्टाकलन्देवविरचितः प्रायश्चित्तग्रन्थः। -- -- जिनचन्द्रं प्रणम्याहमकलङ्क समन्ततः । प्रायश्चित्तं प्रवक्ष्यामि श्रावकाणां विशुद्धये ॥१॥ मकारत्रयसेवां यः कृत्वा पश्चाद्विरक्तभाक् । तत्त्यजेत्तस्य जायेत प्रायश्चित्तमिदं स्फुटम् ॥ द्वादशानशनान्येकवारभुक्तानि चापि वै। पंचाशदभिषेकाचा (न्न ) दानानि च पृथक पृथक् । कलशाभिषेकश्चैको गौरेका च प्रदीयते । पुष्पाणां च सहस्राणि चतुर्विंशतिरेव च ॥ तथा द्वे तीर्थयात्रे स्तो गन्धं पलंचतुष्टयम् । संघपूजां च निष्काणि त्रीणि कुर्याद्विचक्षणः ॥ २ ॥ प्रमादात् सेवते यस्तु मकारत्रितयं नरः। प्रायश्चित्तं ब्रुवे तस्य विशुद्धौ पूर्ववत् क्रमात् ॥ अभिषेकाश्च तावन्तः पुष्पपंचसहस्रकं । पलद्वयमितं गन्धं तीर्थयात्रे तथा द्विके ॥ ३॥ पंचोदुम्बरसेवाभाग्यस्तस्य च विशोधनम् । चत्वार उपवासाः स्युादशाश्चैकभुक्तयः॥ कलशाभिषेकाश्चैकोऽभिषेको द्वादशोदिताः। सहस्राणि च चत्वारि कुसुमानि भवन्ति वै ॥ १ लिखितपुस्तके सर्वत्र अस्मादने पलस्थाने फलेति पाठो वर्तते । Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायश्चित्तसंग्रहे पलद्वयं च गन्धं यः पंचाशदोजनानि च ।। तीर्थयात्रा तथा चैका विधेया शुद्धिमिच्छता ॥४॥ मातङ्गतुरुष्कान्तनीचजातिगृहे पुनः। समाचरति यो भुक्तिं तस्य शुद्धिरियं पुनः॥ उपवासाश्च वै त्रिंशत् पंचाशदेकभुक्तयः। द्विशते भुक्तिदानानां तिस्रो गावो भवन्ति हि ॥ कलशाभिषेकाः पंचाभिषेका विंशतिस्तथा। पंचामृतानां गदितः मोक्कूलानां तथा शतं ॥ श्रीखण्डस्य पलानि स्युः विंशतिः कुसुमानि तु । पंचाशञ्च सहस्राणि तीर्थयात्राश्च पंच वै ॥ निष्काणि विंशतिःदद्याद्बुद्धिमान संघपूजने ॥५॥ किरातचर्मकारादिकपालानां च मन्दिरे । समाचरति यो भुक्तिं तत्प्रायश्चित्तमीदृशं ॥ उपवासा भवन्त्यत्र विंशतिश्चतुरुत्तरा । पंचाशदेकभक्तानि शतं चार्द्ध च भोजयेत् ।। द्विगावौ कलशस्तानि त्रीण्येव परिस्फुटं । पंचामृताभिषेकाश्च पंचदश तथा मताः ॥ अभिषेकाः पुनः पंचसप्ततिर्मोक्कूलाः स्मृताः । पंचदश पलानि स्युः गन्धश्च कुसुमानि च ॥ चत्वारिंशत्सहस्राणि तीर्थयात्रा दशोदिताः । संघपूजा प्रकर्तव्या पंचदश सुनिष्ककैः ॥६॥ इहाष्टादशजातीनां यो भुक्तिं सदने पुनः । समाचरति चैतस्य प्रायश्चित्तमिदं भवेत् ॥ नवोपवासास्तस्य त्रिंशत्संख्यकभक्तानि च । Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायश्चित्तग्रंथः । १६७ स्फुटं स्नानानि कलशैस्त्रीणि पंचामृतैस्तथा ॥ अभिषेका मोक्कूलास्ते पंचविंशतिरीरिताः । पंचाशद्भुक्तिदानानि गावस्तिस्रः उदाहृताः॥ पलानि दश गन्धश्च पुष्पपंक्तिसहस्रकं । द्वे तथा तीर्थयात्रे च पूजा स्यात् पंचनिष्ककैः ॥७॥ अग्निपातादिपंचत्वादपवादे समागते । तद्दोषपरिहारार्थ प्रायश्चित्तमिदं भवेत् ॥ पंचविंशतिः संख्याता उपवासा बुधैरिह । पंचाशदेकभक्तानि द्विशतीं भोजयेज्जनान् ॥ त्रयोऽभिषेकाः कलशैर्गावस्तिस्रः प्रकीर्तिताः । पंचामृताभिषेकाश्च पंचदश निवेदिताः॥ पंचसप्ततिश्चाख्याता मोक्कूलाश्च परिस्फुटं। चत्वारिंशत्सहस्राणि पुष्पाणां चन्दनस्य च ॥ पलं दश समाख्यातास्तीर्थयात्राश्च पंच वै। निष्कैश्च पंचदशभिः संघपूजां प्रकल्पयेत् ॥ ८ ॥ सर्पादिभक्षणाद्वज्रपातादचेतनादपि । घोटकाद्युपरिष्टाच्च पंचत्वे समुपागते । पंचोपवासा जायंते एकभक्तानि विंशतिः। कलशाभिषेको स्यातां दश पंचामृतैस्तथा ॥ पंचविंशतिरुद्दिष्टा मोक्कूलाश्चाभिषेककाः । चत्वारिंशज्जनानां स्यादाहारैः परितर्पणम् ॥ द्वे गावौ दशगन्धस्य पलानि कुसुमानि च । तथा पंक्तिसहस्राणि तीर्थयात्रास्तु पंच वै ॥ निष्कत्रयेण कल्प्येत संघपूजा हितैषिणा ॥९॥ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायश्चित्तसंग्रहे - ब्रह्महत्यादिकं यस्तु कुरुते मनुजः क्षितौ । तच्छुद्ध्यै त्रिंशदेव स्युरुपवासाः श्रुतौ श्रुताः ॥ एकभक्तानि पंचाशदभिषेकद्वयं घटैः । दशामृतैर्मोक्कूलास्तु विंशतिः परिकीर्तिताः ॥ द्वे गावौ भुक्तिदानानि शतं सुमनसां दश । सहस्राणि दशैव स्युः पलं गन्धस्य च क्रमात् ॥ संघाच पंचभिर्निष्कैस्तीर्थयात्रा च पंच वै ॥ १० ॥ ब्राह्मणक्षत्रियवैश्यानां शूद्रादिगृहसंगतः । अन्नपानं भवेन्मिश्रं यदि शुद्धिरियं पुनः ॥ एकोऽभिषेकः कलशैः पंच पंचामृतैस्तथा । मोक्कूला द्वादश (शा) कभुक्तानि त्रिंशदुच्चकैः ॥ अयुतार्ध च पुष्पाणां श्रीखण्डं तु पलद्वयं । एकैकतर्थयात्राया निष्कद्वितयपूजनम् ॥ ११ ॥ मिथ्याहगशु (ग्छूद्र ) मिश्रानपानादि च भवेद्यदि । प्रायश्चित्तं भवेदत्राभिषेकत्रितयं घटैः ॥ पंचामृताभिषेकाः स्युदेश वै पंचविंशतिः । १६८ मोक्कूला गौरिहैका स्यादुपवासा दशोदिताः ॥ एकभक्तानि त्रिंशत्तु पुष्पाणामयुतं भवेत् । श्रीखण्डस्य पलं पंचाहारदानशतं भवेत् ॥ तीर्थयात्राच पंच स्युः पंचनिष्कप्रपूजनम् ॥ १२ ॥ जननीतनुजादीनां चाण्डालादिस्त्रियामपि । संभोगे सति शुद्ध्यर्थे पंचाशदुपवासकाः ॥ भवेत् पंचशती त्वेकभक्तानां तु परिस्फुटं । अभिषेकास्त्रयः कुम्भैः दश पंचामृतैः स्मताः ॥ Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायश्चित्तग्रंथः । पंचाशन्मोक्कूला द्वे च गावौ भुक्तिशतद्वयं । कुसुमानां सहस्राणि पंचाशचन्दनेन तु ॥ पंचदश पलानि स्युस्तीर्थयात्राश्च पंच वै। संघपूजा प्रकर्तव्या सद्भिनिष्कैर्हितेच्छता ॥ १३ ॥ पंचकारुगृहान्तश्चेद्वसेत्तच्छुद्धिरीदृशी। पंचोपवासा दश च सकृद्भक्तानि चामृतैः ॥ दश स्नानानि चान्यानि दश विंशतिभुक्तयः। पुष्पाण्येकसहस्रं स्यान्मुनिभिः परिकीर्तिताः (तं)॥ १४ ॥ तद्गृहे भोजनं चाष्टौ उपवासाः प्रकीर्तिताः । कुसुमानि सहस्राणि पंच स्नानानि विंशतिः ॥ भुक्तिदानानि पंचाशच्छीखण्डस्य पलद्वयं ॥ १५॥ मरणे तु प्रसूतौ च भूतकं पंचवासरात् । क्षत्रियाणां द्विजानां च वासराणि दशैव तु ॥ देनानि द्वादशैव स्यात्रिवर्णानां परिस्फुटं। शूद्राणां पक्षमात्रं तत् परतः शुद्धिरीरिता ॥ १६ ॥ स्नानानि द्वादशोक्तानि एकभक्तानि षट् तथा। ग्लानि त्रीणि गन्धस्य गृहशुद्धिरितीरित' ॥ मुखेऽस्थिदर्शने भुक्तावुपवासास्त्रयः स्मृताः। एकभुक्तानि चत्वारि द्वादशस्तपनानि च ॥ पुष्पाणां च सहस्राणि षष्टिर्गन्धपलद्वयं ॥ १७ ॥ इस्तेऽस्थिदर्शने जातेऽनशनद्वितयं स्मृतं। एकभुक्तानि चत्वारि नपनाष्टकमीरितम् ॥ अष्टावाहारदानानि तथा सुमनसां पुनः। युः सहस्राणि चत्वारि श्रीखण्डस्य पलद्वयं ॥ १८ ॥ Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० प्रायश्चित्तसंग्रहे प्रत्याख्यातं पुनर्भुक्त्वा छर्दिर्भवति चेद्वमेत् । . न चेदेकोपवासः स्यादेकभक्तद्वयं तथा ? चत्वार्याहारदानानि चत्वारि स्नपनानि च । पुष्पाणां त्रीणि सहस्राणि श्रीखण्डस्य पलद्वयं ॥ १९ ॥ गर्भस्य खण्डनाकर्षे गर्भस्य दहने तथा । प्रायश्चित्तं भवेत्तत्र द्वादशानशनानि च ॥ कुंभाभिषेकद्वितीयमेकभक्तानि विंशतिः । पंचामृताभिषेकाश्च पंचान्ये विंशतिः स्मृताः ॥ पंचाशद्भुक्तिदानानि तथा सुमनसां पुनः । सहस्त्राणि द्वादश स्युः गौरेकात्र प्रदीयते । श्रीखण्डस्य पलाः पंच पूजा निष्कत्रयेण सा ॥ २० ॥ यो निहन्ति नरो जीवं तृणभक्षिणमस्य तु । प्रायश्चित्तं प्रजायेत उपवासाश्चतुर्दश ॥ अष्टाविंशतिरुक्तानि सकृद्भुक्तानि देशकैः । कलशाभिषेकौ द्वौ स्तोऽन्ये द्वाविंशतिश्च मोक्कूलाः॥ गौरेकाहारदानानि पंचाशत्कुसुमानि तु । सहस्राणि द्वादः, स्युरिति प्रोक्तं मनीषिभिः ॥ २१ ॥ प्रमादान्मांसभक्षश्चेम्रियते जन्तुरत्र तु। उपवासाः षोडशोक्ता एकभुक्तानि विंशतिः ॥ कलशाभिषेकौ द्वौ स्तोऽमृतैः पंच प्रकीर्तिताः । चत्वारिंशन्मोक्कूलाः स्युर्भुक्तयः स्युः शतत्रयं ॥ गौरेका त्रीणि लक्षाणि पुष्पं गन्धपला नव ॥ २२ ॥ प्रमादान्मियते पक्षी तर्हि शुद्धिरियं भवेत् । उपवासा द्वादशाभिषेक एको भवेद्धटैः ॥ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायश्चित्तग्रंथः। AAAA एकः पंचामृतैः प्रोक्तो मोक्कूला द्वादशोदिताः । एकादशाभिषेकाः स्युः पूजा एकादशाहताम् ॥ कायोत्सर्गाश्च तावन्तः चतुर्विंशतिभुक्तयः। ताम्बूलो पप्रदानानि तावन्त्येव भवन्ति हि ।। २३ ॥ सरटादिनीवधाते प्रायश्चित्तमिदं भवेत् । एकादशोन्सवासाः स्युरेकभुक्तानि षोडश ॥ अभिषेकाः षोडशोक्ता जिनपूजाश्च षोडश । कुसुमानि सहस्राणि षष्टिः षष्टिश्च भुक्तयः॥ षष्टिस्ताम्बूलदानानि विदातव्यानि यत्नतः ॥२४॥ मृतो जलचरी जन्तुर्यदि शुद्धिरियं पुनः । उपवासैकभुक्तानि पृथगेकदशैव हि ॥ २५॥ गृहे वाहे पशूनां तु सरणे शुद्धिरीहशी। एकादशोपवासाः स्युरेकभुक्तानि विंशतिः॥ एको महाभिषेकस्तु कलशेरैष्टाशतैरपि । पंचामृताभिषेकाश्च पंचान्ये विंशतिः स्मृताः ॥ गौरेकाहारदानानि पंच पंचाशदेव हि । पुष्पपंक्तिसहस्राणि चन्दनं पलपंचकं ॥ संघपूजा विधातव्या पंचनिष्कैर्विचक्षणैः ॥ २६॥ महिषी म्रियते तर्हि त्रयोविंशतिरीरिताः । उपवासाश्चतुश्चत्वारिंशदेवैकभुक्तयः ।। एकोऽभिषेकः कलशैः पंच पंचामृतैस्तथा। त्रिंशन्मोक्कूलाभिषेका अष्टाशीतिः प्रभुक्तयः॥ कुसुमानि सहस्राणि विंशतिस्त्रिशताधिकाः ।। त्रयः पलश्चन्दनस्य पण्डितैः परिकीर्तिताः॥ २७ ॥ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ प्रायश्चित्तसंग्रहे www.vamaARANA गृहदाहे मनुष्याणां मरणे शुद्धिरीदृशी। उपवासैकभुक्तानि पृथग्द्वाविंशतिः स्फुटं ॥ कलशाभिषेका वै द्वादश पंच पंचामतैस्तथा । मोक्कूला विंशतिः प्रोक्ता धेनुरेका प्रदीयते ॥ भुक्तिदानानि पंचाशत्सहस्राणि भवन्ति तु । विंशतिः कुसुमानां वै पलं पंचकचन्दनम् ॥ २८ ॥ स्तनभारादिना बालो म्रियते यदि केनाचेत् । पंचादशोपवासाश्च त्रिंशत्पंचाधिकानि तु ॥ एकभक्तानि कलशैरेकैकं स्नपनं भवेत् । दश पंचामृतैश्चान्ये द्वात्रिंशत्परिकीर्तिताः ॥ पलाष्टकं च गन्धस्य कुसुमानि तु विंशतिः । सहस्राणि च धेन्वेका पंच निष्कैः प्रपूजनं ॥ २९॥ प्रायश्चित्तं यः करोत्येतदेवं जाते दोषे तत्प्रशान्त्यर्थमार्यः । राष्ट्रस्यासौ भूमिपस्यात्मनोऽपि स्वास्थावस्थां वा स्थिति सन्तनोति ॥ ३० ॥ इत्यकलङ्कस्वामिनिरूपितं प्रायश्चित्तं समाप्तम् । SOGOOGBOBEBEEG समाप्तोयं ग्रन्थः ॥ MODSDOCOGEeeeefeDE ___ Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छेदापण्डच्छेदशास्त्रयोर्गाथासूत्राणां अकाराद्यनुक्रमणिका। अ. अइबालबुद्धदार अच्छादणं महगवं अजाण चेलधुवणे अण्हं आदिण्णे आ य छबदु दोषिण अ य सत्त य छन्दु अट्ठसयणमोक्कारा अद्यारस वीसदिमा अहियअणेयभुत्ते अण्णाणिमित्तपउंजिद अण्णरिसीणं च दु रिसिं अण्णाणअहंकारेहिं य अण्णाणधम्मगारव अण्णाणवाहिदप्पहि अण्णाणवाहिदप्पे अण्णावि अस्थि अणुगुण अणुकंपा कहणेण पृष्ठम् । अण्णेहि अविण्णादे ४७ अण्णं वि य मूलुत्तर अथिरादावणअब्भो | अप्पप्पणो सलागा अप्पयदपयदचारी अप्पासुगजलपक्खा अप्पासुगे वसंतो अप्फालिऊण हत्थं अप्पाणं विणिवायंति अब्बंभासिणित्थी | अब्बंभं भासंतो झब्भोवगासठाणा अयेउवयरणे णडे अवसेसणिसासमए अवसेसतवसलागा अविरदसुत्तपोधि | अह जइ सत्तिविहीणो अह पडिकमणं ण सुयं | अहवा जत्ताजत्ते अहवा पढमे पक्खे अहवा पयत्तअपयत्त २३ अह्वा समक्खअसमक्ख आ. आगाढाधच्चपय AN अण्णे भणंति एवं " " " " , चाऊ " , जोगा अश्णे वि एवमादी Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदावणादिजोग आदितिगसंघदणो आदीदो चउमज्झे आधाकम्मे भुत्ते ३७ उग्घाडो संतरिदो उबारं पस्सवणं उज्जोए पडिलिहियं ७२ । उहिदणिविट्ठभोजिस्स उत्तरमग्गेण पढमो उत्तरमूलगुणाणं उप्पणं पि कसाए WA ८८ ४ ५५ आयरियस्स दु मूलं आयरियादिसु णिय आयारयादिरिसिहिं आयाम सतिभागं आयंविल णिब्बियडी आयंविलम्हि पादूण Mur उरपरिसप्पादीणं उलुति छुहणं घरसा उवयरणठवण लोहे उवसग्गदो अणारो ९४ | उवसग्गवाहिकारण ३७ । उववास पूंचए वा १३ उध्वत्तण परियत्तण आलोयण तणुसग्गो आलोयण पडिकमणो आलोयणा य काउ आलोयणं सुणित्ता आवासयपरिहीणो ० ६१ आवासयापि मोणेण आसाढे संवच्छर १ एइंदियादि कादं एइंदियादि चीरं एकस्स वत्थुजुयलस्स एक्कम्मि विउस्सग्गे | एक्केक्कदिणुग्घाडं । एक्को काउस्सग्गो एगवराडयकागिणि एगुववासो छ एगं णिसण्ण दीसतु एदं पायच्छित्तं इतिरिया जावकालिय इय इंदगंदिजोइंद इय पंचसहिदोसाण इंदिय समिदि अदंत उक्कस्सेणं छच्छ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० एलायरियम्स दिणा एवं जेत्तिय दिवरा एवं दसविधपाय एवं दसविध साए एवं पायच्छित्तं एवं वितिचउरिध्यि एवं मट्टियजलपारे एसो अवंदणिज्जो ७४ | कोमलहरियतिणंकुर ५३ कोहेण व लोहेण व ५३ | कंटय कलिं च पासा ख. ३७ | खत्तियबभमवइसा | खत्तियवणिमहिलाओ. खत्तियसुद्दत्थीओ खमणं छद्रमदसम ८८८ NN ९ ८९ ४ कट्ठादिवियडिचालण कप्पव्ववहारे पुण कलह काऊण खमा काउस्सग्गुववासा काउस्सग्गो आलो काउस्सग्गो खमणं काउस्सग्गो दाणं काउस्सग्गो सुज्झदि काऊण य जिणपूया कागादिअंतराए गणहरवसहादीण गणिणाचत्तणिहेणव गहिदोगहम्मि विसरि गामादिआसयाणं गिंभे दिवसम्मि तहा | गोइत्थीबालमाणुस गोघादवंदिगहणे गोयरपयस्स लिंगु गंतूण अण्णदेसे ६५ घणहिमसमये गिो घादे एक्कासिं १०१ चउरसयाई बीसुत्तराई चहुविहमेयविहं वा. चउसट्ठी गुरुमासा ४४ चक्खिंदियादिदुप्पीर १४ | चम्मारवरुडछिपिय १०० । चाउम्मासियवरसिय कारुगगिहाणपाणं काश्यपत्तम्मि पुणो कालम्मि असंपहुते कावालियअण्णपाण किरियावंदणाणियमे कुइं खंभं भूमि कुणउ मुणी कल्लाणा केई पुण आयरिया १५ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाउव्वण्णपराधं " चूरेइ हत्थपत्थर चंडाल अण्णपणे चंडालसंकरे सह चंडालादिसु सोलस चंडालादिसु उहि छक्कम्मदेसयरण छ अणुव्वयघादे छ अणुवादे छट्ट लहुमास मासिय छत्तीसारस छण्णं पि सावयाण छ जहम्हि विउस्सग्गे जहूउवरिं चउचउ जदि आयरिओ छेदं जदि एगनिसं वसहिय जदि पुण चंडालादी जदि पुण पक्खादि जदि पुणमुहम्मद जदि पुणविरहिऊणं जदिसंथारसमीवे जलपुप्फक्खयससा जलवदमं हि हवे अहसवणाणं भणियं जाणुपमाणम्मि जले जाणंतस्स विसोही ( 8 ) १९ जादे पायाच्छतं ७४ जावदिया आवसुद्धा ४६ | जावदिया परिणामा जिणपडिमागमपोच्छय ७० २१ जिणभवणंगण ४७. जे गच्छादो संहा जे वय अण्णगणादो ७१ " जो अण्णसिं दव्वं ८७ ६४ जो अपरिमिदपराधो जो अब्भं सेवदि जो एवंविदोस्रो ७१ ५ ७८ १०० ८६ १९८ ५४ २९ "" जोगे गद्दिदम्मि, जो नियमवंदपाण जो दंसणपभो जो पक्खमासचउमा जो मणुयदेवतिरिय जो रतीए चरियं जो रुक्खमूलजोगी ६३ जो सेवदि अब्बभ ३० जं उवहसेज्जपडि २१ जंतारूढो जोणि जं सवाणं वृत्तं जं सवणाणं भणियं ६० ४३ ६६ ६३ ठांणासणादिजोगे ९७ ठिदिभोयणेगभत्ते १७ ९४ उ. ड. डोलियगमणम्मि पुणो २७ ७३ १०२. ३६ ६५ ૨૮ ३६ ३८ १४ ५३ ११ ५८ २९ १२ ३४ २६ १२ १५ २९ ११ ४१ ११ ६१ ९९ २९ ". १७ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरणादिछुरिया अयउवयरणे । णमिऊण य पंच गुरुं ण. णवदस एक्कारसमीय वरि परियायछेदो णवपंच णमोक्कारा नवमी छवीसदिम सुयाउ जेण पक्तिय पाऊण पुरिससत्तं णावियकुलालतेलिय हाणे दंतम्घसणे fugaणं भणिय भुत्ते णियगच्छादो णिग्ग यि जुत्तस्स पुणो णियसमयजादिकुल निव्वियडी पुरिमंडल " "" निव्वियडी आदिया जे जिंदणगरहणजुत्तो हारइ तेसु अणु दीसर पक्खठिय तणचारीमंसासी तणमंसा सिविहंगा तत्थ रिसिसमुदा तरुमूलजोग भग्ग तरुमूलथिरादाव तरुमूलब्भोवासय त ( ५ ) ४६ ३६ ७६ ५१ ६१ ३ 19 ८ तम्हा थूलदिचारा तव भूमिमदिक्कतो तस्सीसाणं सोही ५० २४ तित्थयरगणधराण २ तित्थयरादीणमवण्ण ४७ २७ तिरियाई उवसग्गे तिविहाहारविवज्जण तिविहं च होइ पहाणं २७ ५२ तिहि अदिकंते पक्खे १२ तेण वि अण्णत्वं तेणायरिएणय सो तेहि सव्वपयारेण २ ४३ तेत्तियकालेप्रमाणा ४९ तेस असणादे ६० | तेसिं विसेससोही २८ तो णियभवणपो २५ ८१ ५६ २८ २८ २९ तस्सीसाणं सुद्धी तह य सुवणादीर्ण ताण कमेण यछेदो ताण वधे संजादे तिछणवबारसगुणिदा तो तं मुंडियसीसं तो संतरगमणं तो पडिकमणपुरोगं तो वि महापातकदो तो से तवसा सुद्धी तंपि अ अणुपद्रवण तं पुण सपरगट्टिय ७४ ५१ ५२ ५४ १०२ ७८ ६ ४ ५८ ३४ ८३ ७२ ९९ ९१ ५७ ५७ ६६ ५२ 5 १०० ६६ ६६ ३१ ..१५ ६४ ५३ ५५ ५९ Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दगुण चिंतिदूण य दर्दू हवेज तो सो दिजदि तवो वि संठा दिवसियरादियगोयर दिवसियरादियपक्खिय देवगुरुसमयकज्जेहिं दोण्डं तिण्हं छण्हें दोण्हं भासंताण दंतवणण्हाण्होंगे ता पणयं च भिष्णामा सो पण सत णवय बारस पण्णारसगुणिदाणं परगणअणुपदवगो परमसुद्धिववहार परिणामपच्चएणं परिसरसघाणचक्ख पहरेणेक्केण खया पाओ लोओ चित्तं पादोसणियभरहिए पायच्छित्तं कमसो पायच्छित्तं छेदो थिरअथिरा अजाए थिरआर्थिराणजाणं थिरजोगाणं भंगे पायच्छित्तं द्रिणं 70 नालीतिगस्स मज्झे १७ पक्खं पडि एक्के पक्खिय अहमियं वा पक्खियचाउम्मासिय पञ्चक्खियअगाणे पच्छण्णए पर पच्छण्णेण अधिच पच्छिमगाणणा वि पुणो पढम दुइज्ज तइज्जा पंढमे पक्खे पणगं पढमो तेसु अदिक्कम पढमो शुद्धो सोलस पण दस बारस णियमा पार अंचदि परदे पासस्थादी चउरो पासत्थादीहि समं पासंडा तब्भत्ता पिच्छं मोत्तूण मुणी पिंडोवधिसेजाओ पुध पुध वा मिस्सो वा पुप्फवदि पुप्फवदिए पुप्फवदी जदि णारी पुप्फवदी जदि विरदी पुरिदो धारिदऽचेलय पुव्वपदिण्णं पाय पुन्वायरियकयाणि य ४९ पुव्वं जहुत्तचारी १०२ । पूजारंभ जोका ४५ १०३ Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ भ ० ३ भग्गम्मि वरिसकालिय भविया जं अल्लीणा भावेइ छेदपिंड भासंताणं मज्झे पात्थयाजणपाडमाआ पोत्थयपिच्छकमंडलु, पोत्थियलिहावणथं, पंचतिचउविहाई पंचमउगतीसदिमा पंचमहव्वदभट्टो पंचसु महव्वएसु पंचुंवरादि खायदि पंचेंदिया असणी. पंथादिचारपमुहा mr mor : फागुणचाउम्मासिय ६ १०१ मट्टियजलप्पमाणं मज्जारपदप्पमाणं मज्झिमपक्खेसु पुणो मणवयणकायदुप्पार मणसुद्धिहाणिवयभंगि मणिबंधचरण महु मजं मंसं वा मादसुदादिसजोणी मादुपिदादीहि सजो मासचउकं लोचो मासं पडि उववासो मुट्रिपमाणं हरिदा मुक्त बीसे रेदे मूलखिदी बोलीणो मूलगुणावि व दुविहा मूलगुणं संठाणं मूलुत्तरगुणधारी मेसासिमहिसखरकर बड्डम्मि अंतराए बहुवारे गुरुमासो बहुवारेसु य छेदो बहुवारेसु य पणगं २३ १०१ बहुसो वि मेहुणं जो बारस अट्ट य चउरो बारसछच्चदुतिण्हं बारहजोयणमज्झे वारिसवरिसाणेवं बालादिधादिपाय. बालिच्छीगोघादे बु९तएसु णावा बंभणखत्तियमहिला बंभणखत्तियवइसा बंभणघादे अद्रय बंभणवणिमहिलाओ बंभणमुहित्थीओ VV रत्ति गिलाणभत्ते रयणि विरामे सज्झा रादि णियमे सुत्तो रादो दिया व सुविणं रायापराधकारी ििससावयमूलुत्तर रिसिसावयवालाणं ७२ । रेदं पस्सदि जदि तो ५८ Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लावाविजइ जइसा लोइयसूरत्तविही लोचणहछेदसुमिणि लोचाहियासविरहे लोचो वि जदि ण दिण्णो ८१ WW.. व ...W २५ २१ 0.. ४ विंति परे एदेसु व वेति परे तिदु तिदु १०२ वंदणियमविरहिद सइपञ्चक्खपरोक्खे सइ सुण्णम्हि समक्खे सज्झायणियमवंदण सज्झायणियमसहिदे सज्झायदेववंदण सज्झायरहियकाले सण्णासणकाले पुण सत्तारसमी एगुण सत्तावीसदिमावि य सपडिवकमणुववासु सपडिक्कमण, मासिय सप्पंडयाणमुवरिं सपरणिमित्तपउंजिद समिर्दिदियखिदिसयणे सयलं पि इमं भणियं सल्लेहणस्स पक्खे ससिणिद्धभूमिगमणे सामाचारो कहिओ सालोयणविउसग्गो सावधिगे परिचत्ते सिक्खंतो सुत्तत्थं सिद्धंतसुणणवक्खा सुणे पच्चक्खे सुक्कं (शुक्र) मुत्तपुरीसं सुत्तत्थचोरियाए सुत्तत्थं देसंतो सुत्तत्थमुवदिसंतो सुत्तो पदोससमये २० सुद्धम्मि अण्णपाणे .. वईतरायगे सं वडतरायजाद वदर्दसणा दु भेटे वयससुभासुभपरिणा वरवारिएहि समं वरसियचाउम्मासिय वलयगजदंतपिच्छ वसहिय दुवारमूले वाणियसुहित्थीओ वायामगमणमुणिणो वालत्तणसूरत्तण वासारत्ते दिवसे वाहिपडिकारहेढुं विक्खाददाणगहणं विच्छिण्णकम्मबंधे विजाचोजणिमित्तं. विज्जामंते चोय विण्णादे अणुकमसो वियडितणकटचालण विडैि तिणकटं वा वियलिंदियाण घादे विरदाणं पि महन्वय विरयाणमुत्तमलहर विरदो व सावओ वा बिसमपयवमिद . WWW m m .5M. rrs - Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ hter सुद्धेण युद्धेण य सेवडर प्रववंदग सेसुवर विणासे सेसुवर। ण सो पुपाहिगिलाणो सोलसावीसदिमा सो विहिणं मज्झिम संथारवहंतो १६ हरिदतणंकुरबीजा ६ हरियादिबीज उवरि ३६ हेमंते वि हु दिवसे ९७ संका कंखा य तहा संघाहिवस्स मूलं संजदपायच्छित्तं ५८ संतरमेदं देयं संतो रोयक्कतो | संथारमसोहिं प्रायश्चित्तचूलिका-प्रायश्चित्त-- ग्रन्थयोरकाराद्यनुक्रमणिका to अग्निपार be ४ १०६ ३२ ११८ १५९ १६१ १०८ ६८ १३१ १२७ १५० ८ १६७ इहाष्टादशजाती अजाना दोषो १०९ १४५ अज्ञानाधितो ५३ १२५ उत्तरमूलसंस्थेषु अज्ञादाम या बद्धं १६६ १६४ | उपधेः स्थापना अथ धान भयत्नेषु ५ १०७ उपयोगाद्वतारोपात् अनादिर चेत्सूरि १११ १४६ उपवासास्त्रयः षष्ठं अब्रह्मसाता क्षिप्र १२४ १५० उपसर्गादुजो हेतो भवद्ययो विरति १६० १६२ / उभयोरपि नो नाम असकृन्मसिक साधो १६ ११२ असन्तंन्थ सन्तं वा १०१ १४३ ऊर्ध्व हरिततृणादीनां असंयम नज्ञातं ४६ १२३ भस्थित्याक संभुक्ते ७० १३२ | एकेन्द्रियादिजन्तूनां एकं ग्राम चरे सागन्तुनश्च वास्तव्या १३९ एतत्सान्तरमाम्नातं चार्यसोपधेरहीं ११३ एवंविधि समुल्लंध्य १५५ १४० क. साधाकरणि सव्याधे ५७ १२६ कलहेन परीताप लोच तनत्सर्गः ७७ १३५ काकादिकान्तरायेऽपि ६२ १२८ १०५ आ. ५९ १२० १० १०९ २१ ११४ ४७ १२३ ५५ १२६ Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) ६ १६६ " कायोत्सर्गः क्षमा शान्तिः ११६ १४७ । कारूणां भाजने भुक्ते १५१ १५९ जनज्ञातस्य लोचस्य ४८ १२३ काष्टादि चलयेत्स्थानं ६१ १२८ जननीतनुजादीनां १३ १६८ कारिणो द्विधाःसिद्धाः. १५४ १६० । जलानलप्रवेशेन १५२ १५९ किरातचर्मकारादि जातिवर्णकुलोनेषु __ ९३ १४० कुड्याद्यालम्ब्य ५४ १२५ ९४ १४१ कुलीनक्षुल्लकेष्वेव ११३ १४६ जानानस्यापि संशुद्धिः ७८ १३५ कृत्वा पूजां जिनेन्द्राणां १४४ १५६ । जानुदघ्ने तनूत्सर्गः ३९ १२० केचिदाहुर्विशेषण १५४ जिनचन्द्रं प्रणम्याह ११६५ क्रियात्रये कृते दृष्टे २३ ११४ ज्ञानोपध्यौषधं वाथ ९६ १४१ क्षत्रियाणां द्विजानां च ५२ १६९ क्षान्त्या पुष्पं प्रपश्यंत्या १३४ १५३ तत्प्रतिष्ठा च कर्तव्या ७४ । क्षुद्रजन्तुवचे क्षान्तिः १४६ १५७ तदा तस्य समुद्दिष्टा १३५ १३ क्षुल्लकानां च शेषाणां ११२ १४६ तद्गहे भोजनं चाष्टौ १५,१६९ क्षुल्लकेष्वेकं वस्त्रं १५५ १६० | तद्दोषभेदवादोऽपि १२५. १५० क्षारं कुर्याच लोचं वा १५६ १६१ तरुणी तरुणेनामा १२१.१४९ तरुण्या तरुणः कुर्यात् २६ ११५ गर्भस्य खंडनाकर्षे २० १७० तस्यैषा नूदिता वृत्तिः गृहीतव्यं त्रयाणां न १६२ १६२ तारुण्यं च पुनः स्त्रीणां १२. १५ गृहे वाहे पशूनां २६ १७१ तृणकाष्ठकवाटानां २८ १७१ गृहदाहे मनुष्याणां तृणमांसात्पतत्सर्प १४ ११ ग्रामादीनामजानानो ७६ १३५ त्रिषु वर्णेष्वेकतमः + १४५ त्रिसन्ध्यं नियमस्यान्ते १४२ १५५ घननीहारतापेषु दक्षेण गणिना देयं ४२ १२१ दण्डैः षोडशभिर्मेये ४० १२१ चतुर्मासानथो वर्षे ६७ १३१ दन्तकाष्ठे गृहस्थाह ६९. १३१ चतुर्वर्णापराधाभि ५२ १२४ दशमादष्टमाच्छुद्धो चतुर्विधं कदाहारं ९७ १४२ दर्पण संयुताभार्या १२३ १४९ चतुर्विधमथाहारं ९५ १४१ । दर्शनोऽनुव्रतश्चैव . + १५४ चूलिका सहितो लेशात् १६५ १६३ दीक्षा नीचकुलं जानन् १०८ १४५ दृष्टा योषामुखाद्यङ्गं ३० ११७ छिन्नापराधभाषाया ५१ १२४ । दोषानाले चितान् पापो १०३ १४४ ११९ Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११) ७ १०८ १७ १४ द्रव्यं स्तगं किंचि १३० १५१ । ब्राम्हणक्षत्रियवैश्यानां ११ १६८ दुमूलणी स्थास्नु ७२ १३३ ब्रम्हवती निरारंभ + १५४ द्विगुणं गुणं तस्मात् १४३ १५६ । ब्रम्हहत्यादिकं यस्तु १० १६८ निमि देकसेवायां ८१ १३६ नियममणे स्यातां २४ ११५ | भाषासमितिमुन्मुच्य ४५ १२२ निष्प्रमः प्रमादी च भूरिमृजलतः शौचं १०० १४३ नीचः तन्ययुष्टस्य ११२ भंजने स्थिरयोगानां ७३ १३३ न्यक्कुानामचेलैक १०७ १४५ भ्रातरं पितरं मुक्त्वा १३२ १५२ पक्षबासे कृतेः षष्ठं ६६ पाषंडनां च तद्भक्त १२ ११० मकारत्रयसेवां यः २ १६५ पुटी विडालपयमेत्त + १४८ मद्यमांसमधुस्वप्ने २५ ११५ पंचारुगृहान्तश्चे मरणे तु प्रसूतौ च १७ १६९ पंचेद्रियाणि त्रिविधं + १०६ महिषी म्रियते तर्हि २७ १७१ ई. दुम्बरसेवाभाग ४ महान्तरायसंभूती ५६ १२६ दम्बरसेवायां १४८ १५८ शतगतुरुष्कान्त "य परमात्मानं १ १०४ | मियादग्छूद्र १२ १६८ प्रम दात् सेवते यस्तु ३ १६५ । मुरतं क्षालयतो ८९ १३९ प्रमादान्मांसभक्षश्चे २२ १७० | मूलीत्तरगुणेष्वीष १०४ प्रमादान् नियते पक्षी ६९ १७० । मुखऽस्थिदशेने ५४३ १६९ प्रतिमासमुपोषः स्यात् २३ १३० । मृजलादिप्रमां ज्ञात्वा ११७ १४८ प्रवरगुरुगिरीन्द्र + १६४ । मृतो जलचरो जन्तु २५ १७१ प्रत्यक्षे च परोक्षे च १५ १११ प्रत्याख्यातं पुनर्भुक्त्वा १९ १६९ | यतिरूपेण वाच्याप्ता, १२६ १५० प्रायश्चित्तमिदं सर्व १६४ १६३ (यश्च प्रोत्साह्य हस्तेन ५० १२४ प्रायश्चित्तं न यत्रोक्तं १५८ १६१ याचिता याचितं वस्त्रं १२० १४१ प्रायश्चित्तं प्रमादेदः १६१ १६२, यावन्तः स्युः परीणामाः १६३ १६३ प्रायश्चित्तं यः करोत्ये ३० १७२ युग्यादिगमने शुद्धिं ४३ १२२ येन केनापि तल्लब्धं १३१ १५२ बहार पक्षाच भासांश्च ४३ १५२ योगिभिर्योगगम्याय १ १०४ वामहणक्षत्रविद्र . १३ ११० यो निहन्ति नरो जीवं २१ १७० योऽप्रियङ्करणं कुर्या ८६ १३८ पाणः क्षत्रिया वैश्या ०६ १४४ | यः परेषां समादसे १०५ १४४ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (12) यः श्रीगुरूपदेशेन + 164 | सप्तपादेषु निष्पिच्छ 465122 सप्रतिक्रमणं मूलं 38 120 रात्रौ ग्लानेन भुक्ते | समितीन्द्रियलोचेषु 71 132 रूपाभिधातने चित्त 138. सरटादिजीवघाते 24 171 रेतोमूत्रपुरीषाणि 147 158 सल्लेखनेतरे ग्लाने 79, 136 सदिभक्षणात् लोहोपकरणे नष्टे 84 137 सर्वस्वहरणं तस्य 20:114 सर्वे स्वामिवितीर्णस्य 2013 वस्त्रस्य क्षालने 148 साधूनां यद्वदुद्दिष्टं 114147 वस्त्रयुग्मं सुबीभत्स 119 148 सांधूपासकबालस्त्री. 1109 विधिमेवमतिक्रम्य 91 140 सामाचारसमुद्दिष्ट 115 47 वियणेणं वीयंतो + 148 / सुतामातृभगिन्यादि 150 59 वैयावृत्यानुमोदेऽपि 98 142 सुवर्णाद्यपि दातव्यं 145 56 वंजण मंगं च ___ + 136 सूत्रार्थदेशने शैक्ष्ये 82 37 वंदनानियमसे 12.9 सौवीरं पानमाम्नातं 141:55 व्यायामगमने मार्गे 118 संस्तराशोधने देये स्तनभारादिना बालो शपथं कारयित्वाथ 129 स्त्रीगुह्यालोकिनो 31 117 शश्वद्विशोधयेत्साधुः 88 139 स्त्रीजनेन कथालापं 27 116 शिलोदरादिके सूत्र 28 116 शिष्ये तस्मिन् परित्यक्ते 110 146 स्नानं हि त्रिविधं प्रोक्तं 136 153 शूद्राणां पक्षमात्रं तत् 53 169 स्थातुकामः स 2916 श्रमणच्छेदनं यच्च 137 154 स्पर्शादीनामतीचारे 6329 स्यात्सम्यक्त्त्वव्रत 8036 षण्णां स्याच्छावकाणां 139 137 स्वच्छंदशयनाहारः 99 142 षट्रिशन्मिश्रभावार्क स्वपरार्थप्रयुक्तैश्च 121 षष्ठं मासो लघुर्मुलं 9 108 स्वकं गच्छं विनिर्मुच्य 104 144 स्वाध्यायरहिते काले 60 27 सकृच्छून्ये समक्ष 18 112 स्वाध्यायसिद्धये साधो 58127 सकृत्प्रासुकासेवे 75 134 सदृष्टिपुरुषाः शश्व 157 161 हस्तेऽस्थिदर्शने 18 169 सद्योलंबितगोघात 149 158 हस्तेन हन्ति पादेन / स नीचोऽप्यश्नुते शुद्धि 128 151 ' हिमे क्रोशचतुष्केणा 37 92 540 6 107 41 2