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________________ ग्रन्थ-परिचय। इस संग्रहमें प्रायश्चित्त-विषयक चार ग्रन्थ प्रकाशित हो रहे हैं । अभी तक इस विषयका कोई भी ग्रन्थ प्रकाशित नहीं हुआ था और न इस विषयके हस्तलिखित प्रन्थ ही सर्वत्र सुलभ हैं । अत एव जैनधर्मके जिज्ञासुओंके लिए यह संग्रह बिल्कुल ही अपूर्व होगा । इसके द्वारा एक ऐसे विषयकी जानकारी होगी जिससे जैनधर्मके बड़े बड़े विद्वान् भी अपरिचित हैं। छेदपिण्ड, छेदशास्त्र, प्रायश्चित्त-चूलिका और अकलक-प्रायाश्चत्त ये चार ग्रन्थ इस संग्रहमें हैं । 'छेद' शब्द प्रायश्चित्तका ही पर्यायवाची है । १-छेदपिण्ड । यह ग्रन्थ प्राकृतमें है । इसकी संस्कृतच्छाया श्रीयुत पं० पन्नालालजी सोनी द्वारा कराई गई है । ग्रन्थके अन्तकी गाथा (नं० ३६० ) के अनुसार इसका गाथापरिमाण ३३३ और श्लोक ( अनुष्टप्) परिमाण ४२० होना चाहिए, परन्तु वर्तमान ग्रन्थकी गाथासंख्या ३६२ है। जान पड़ता है कि उक्त ३६० नम्बरको गाथाका पाठ लेखकोंकी कृपासे कुछ अशुद्ध हो गया है। उसमें 'तेतीमुत्तर,' की जगह 'वासहित्तर,' या इसीसे मिलता जुलता हुआ कोई और पाठ होना चाहिए। क्यों कि ३२ अक्षरोंके श्लोकके हिसाबसे अब भी इसकी लोकसंख्या ४२० के ही लगभग है और ३३३ गाथाओंके ४२० श्लोक हो भी नहीं सकते हैं । अन्यान्य प्रतियोंके देखनेसे इस भ्रमका संशोधन हो जायगा। इस ग्रन्थका संशोधन दो प्रतियों परसे किया गया है, एक जयपुरके पाटोदीके मंदिरकी प्रतिपरसे-जो प्रायः शुद्ध है-और दूसरी 'डा० भाण्डारकर-ओरियण्टल रिसर्च इन्स्टियूट' पूनकी प्रतिपरसे-जो बहुत ही अशुद्ध है। ग्रन्थके छप चुकने पर श्रीमान् ब्रह्मचारी शीतलप्रसादजीकी कृपासे हमें इन्द्रनन्दिसंहिताकी भी एक प्रति मिली जो उन्होंने दिल्लीसे लिखवा कर भेजी थी । परन्तु वह बहुत ही अशुद्ध लिखी गई है, इस कारण उससे कोई सहायता नहीं ली जा सकी। यह ग्रन्थ इन्द्रनन्दि-पंटिताका चौथा अध्याय अथवा उसका एक भाग है; Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003152
Book TitlePrayashchitta Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Soni
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year
Total Pages200
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size7 MB
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