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उनका पुराणसार ' नामका एक ग्रन्थ है । वह विक्रम संवत् १०७० का बना हुआ है। उसकी प्रशस्तिमें उन्होंने लिए है कि सागरसेन नामक आचार्यसे महापुराण पढ़कर श्रीनन्दिके शिष्य मुझ श्रीचन्द्र मुन यह ग्रन्थ बनाया। इसी तरह आचार्य वसनन्दिने अपने श्रावकाचारमें भी एक श्रीनान्५ उल्लेख किया है जो उनकी गुरुपरम्परामें थे ।-श्रीनन्दि-नयनन्दि-नेमिचन्द्र और ५ दि। वसुनन्दिका समय बारहवीं शताब्दि है, अतः उनके दादा गुरुके गुरु अवश्य हा नसे १०० वर्ष पहले हुए होंगे और इस तरह संभवतः श्रीचन्द्र के गुरु और वसुना. परदादागुरु एक ही होंगे।
यदि प्रायश्चित्तटीकाके कर्ता श्रीनन्दिगुरु और श्रीचन्द्रके गुरु श्रीनन्दि एक ही हों, तो कहना होगा कि यह टीका विक्रमका ११ वी शताब्दिकी बनी हुई है। और ऐसी दशामें मूल ग्रन्थ उससे भी पहलेका बना हुआ होना चाहिए।
४-प्रायश्चित्त ग्रन्थ । यह प्रन्थ श्रीयुक्त पं० लालारामजी शास्त्रीको लिखी हुई एक प्रतिके आधारसे हो छपाया गया है। इसकी भी कोई दूसरी प्रति नहीं मिल सकी। इसमें केवल श्रावकोंके प्रायश्चित्तका निरूपण है और इसकी श्लोकसंख्या ८८ है । इसमें कोई प्रशस्ति आदि नहीं है। केवल आदि और अन्तमें इसके कर्ताका नाम श्रीमद्भटाकलंकदेव बतलाया गया हुआ है; परन्तु जान पड़ता है कि ये तत्त्वार्थराजतिक आदि महान् ग्रन्थोंके की अकलंकदेवसे भिन्न कोई दूसरे ही विद्वान् होंगे और आश्चर्य नहीं यदि अकलंक-प्रतिष्ठापाठके कर्ता ही इसके रचयिता हों । यह निश्चय हो चुका है कि अकलंकप्रतिष्ठापाठके का १५ वी शताब्दिके बाद हुए हैं। उन्होंने आदिपुराण, ज्ञानार्णव, एकासन्धिसंहिता, सागारधर्मामृत, आशाधर-प्रतिष्ठापाठ, ब्रह्मसरि त्रिवर्णाचार, नेमिचन्द्र-प्रतिष्ठापाठ आदि
(१) बाबा दुलीचन्दजीकी सूची में श्रीनन्दि मुनिके एक ' यतिसार ' नामक सटीक ग्रन्थका उल्लेख है । उसमें यह लिखा है कि यह ग्रन्थ जयपुरमें मौजूद है।
(२) जैनहितैषी भाग १४ पृष्ठ ११८-१९ में बाबू जुगलकिशोरजीने इस विषय पर एक विस्तृत नोट दिया है।
(३ ) देखो जैनंहितैषी भाग १३, पृष्ट १२२-२६ ।
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