Book Title: Ghar ko Kaise Swarg Banaye
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घरको कैसे । स्वर्ग बनाएँ हमारे घर-परिवार और रिश्तों में मिठास ਬੋਲੋ ਗੀ ਹੁਕ लोकप्रिय पुस्तक _ ... श्री चन्द्रप्रभ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्यार अपनों से... For Personal & Private Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Full form of FAMILY FATHER AND MOTHER I LOVE YOU For Personal & Private Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवाँ वार : परिवार घर को कैसे स्वर्ग बनाएँ श्री चन्द्रप्रभ मनोज पब्लिकेशन्स For Personal & Private Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ © सर्वाधिकार प्रकाशकाधीन - प्रकाशक : मनोज पब्लिकेशन्स 761, मेन रोड, बुराड़ी, दिल्ली-110084 फोन : 27611116, 27611349, फैक्स : 27611546 मोबाइल : 9868112194 ईमेल : [email protected] वेबसाइट: www.manojpublications.com शोरूम: मनोज पब्लिकेशन्स 1583-84, दरीबा कलां, चांदनी चौक, दिल्ली-110006 फोन : 23262174, 23268216, मोबाइल : 9818753569 भारतीय कॉपीराइट एक्ट के अंतर्गत इस पुस्तक की सामग्री की प्रस्तुति तथा रेखाचित्रों के अधिकार 'मनोज पब्लिकेशन्स, 761, मेन रोड, बुराड़ी, दिल्ली84' के पास सुरक्षित हैं, इसलिए कोई भी सज्जन इस पुस्तक का नाम, टाइटलडिजाइन, अंदर का मैटर व चित्र आदि आंशिक या पूर्ण रूप से तोड़-मरोड़कर एवं किसी भी भाषा में छापने व प्रकाशित करने का साहस न करें, अन्यथा कानूनी तौर पर हर्जे-खर्चे व हानि के जिम्मेदार वे स्वयं होंगे। किसी भी प्रकार के वाद-विवाद का न्यायक्षेत्र दिल्ली ही रहेगा। ISBN : 978-81-310-1540-7 प्रथम संस्करण : 2012 ₹ 80 संपादन श्रीमती लता भंडारी 'मीरा' श्रीमती सीमा दफ्तरी मुद्रक : जय माया ऑफसेट झिलमिल इण्डस्ट्रियल एरिया, दिल्ली-110095 घर को कैसे स्वर्ग बनाएं : श्री चन्द्रप्रभ For Personal & Private Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तुति उनको भी ज़रूरत है अपने लिए तो हर कोई जिया करता है, पर जिसकी रोशनी औरों को भी जीने का रास्ता दे दे वह इंसान नहीं देवता है। श्री चन्द्रप्रभ एक ऐसे देवपुरुष हैं जिन्होंने अपनी शांति, आनंद और साधना को केवल अपने तक सीमित नहीं रखा है, अनगिनत लोगों को अपनी स्नेहिल दिव्यता का स्वाद दिया है। गुरुदेव का सान्निध्य, उनका सत्संग, उनके वचन किसी कमल के फूल की तरह हमारी आँखों को जीवन का आध्यात्मिक सौंदर्य दे जाते हैं, तनमन को नई ताज़गी, नई ऊर्जा संचारित कर देते हैं। प्रसंग चाहे साधना का हो या आराधना का, केरियर का हो या घर-परिवार का, उनकी महान जीवन-दृष्टि हमें स्वस्थ, तनाव-मुक्त और ऊर्जावान बना देती है। ___ 'घर को कैसे स्वर्ग बनाएँ' पुस्तक पूज्य श्री चन्द्रप्रभ के वे प्यारे और रसभीने प्रवचन हैं जो कि हमारे घर-परिवार के माहौल को हर तरह से ख़ुशनुमा बनाते हैं । ईंट, चूने, पत्थर से मकान का निर्माण तो हो सकता है, पर घर For Personal & Private Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SOMETIMES FOR FAMILY परिवार का निर्माण जिन चीज़ों से होता है, यह पुस्तक हमारे सामने उन्हीं सब बातों को पेश करती है। श्री चन्द्रप्रभ कहते हैं कि अपने घर का माहौल इस तरह बनाएँ कि आपकी हर सुबह ईद हो, हर दोपहर होली और हर रात दिवाली की हो । पिता के चेहरे में सदा ईश्वर के दर्शन करें और माँ के चरणों में स्वर्ग का आनंद लें। अपने घर को अपना मंदिर समझें और उसका स्वरूप उतना ही पवित्र और ख़ुशनुमा रखें, जितना कि आप परमपिता परमेश्वर के मंदिर को रखना पसंद करते हैं । को यह बेहतरीन पुस्तक हमारे घर-परिवार ख़ुशनुमा बनाती है, हमारे रिश्तों को एक नई मिठास देती है, बच्चों का भविष्य सँवारती है, जवानी में सफलता का विश्वास देती है और बुढ़ापे की सार्थकता के दमदार गुर सिखाती है । यह पुस्तक अपने आप में घर के आँगन में खिला हुआ वह कल्पवृक्ष है, जिसकी छाया में आप अपने घर का माहौल स्वर्ग जैसा सुखदायी बना सकते हैं । आप सभी के पास पूरे चौबीस घंटे हैं, उनमें से थोड़ा समय सेविंग एकाउंट में डालिए और उसका उपयोग अपने माता-पिता, भाई, बहिन और बीवी-बच्चों के लिए फिक्स कीजिए । For Personal & Private Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | अंदर क्या है.. 1. घर को कैसे स्वर्ग बनाएँ 2. रिश्तों में घोलें प्रेम की मिठास 3. कैसे सँवारें बच्चों का भविष्य 4. माँ ही मंदिर, माँ ही पूजा 5. चिंता छोड़ें, सुख से जिएँ 6. बुढ़ापे की सार्थकता के शानदार नुस्खे 7. कैसे दें रोगों को मात 8. शह भी आपकी, सफलता भी आपकी 9. सकारात्मक सोच की चमत्कारी शक्ति 9-22 23-36 37-51 52-74 75-86 87-108 104-119 120-137 138-144 For Personal & Private Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ be alert for YOUR FAMILY For Personal & Private Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घर को कैसे स्वर्ग बनाएं ? &0000MARA-NAMAR ख़ुशहाल परिवार धरती का स्वर्ग है। यदि कोई पूछे कि स्वर्ग का सुकून कहाँ है तो ज़वाब होगा - वहाँ, जहाँ भाई-भाई हिल मिलकर रहते हैं। अगर कोई यह जानना चाहे कि दुनिया का नरक कहाँ है तो ज़वाब होगा - वहाँ, जहाँ भाई-भाई कुत्ते-बिल्ली की तरह आपस में लड़ते-झगड़ते हैं। माता-पिता के जीते-जी संतानों का अलग हो जाना पारिवारिक दृष्टि से पाप का उदय है, पर माता-पिता की सेवा में संतानों के द्वारा अपने स्वार्थों का त्याग करना निश्चय ही पुण्य का उदय है। खुशहाल परिवार और घर सभी को अच्छा लगता है। हर घर और परिवार का वातावरण ऐसा हो कि सुबह ईद का त्यौहार, दोपहर में होली का फाल्गुनी पर्व और ढलती साँझ में दीवाली का सुख-सुकून हो। अलसुबह भाई-भाई, देवरानी-जेठानी आपस में गले मिलते हैं और माता-पिता के चरण छूने का आनंद लेते हैं उनकी सुबह ईद का त्यौहार है। जिस घर में दोपहर के समय सास-बहू, पिता-पुत्र, भाई-बहिन, देवरानी-जेठानी एक साथ बैठकर भोजन करते हैं, अपना प्रेम एक दूसरे को समर्पित करते हैं, उनकी दोपहर होली का उत्सव है। जहाँ साँझ ढलने पर, घर से बाहर गए 19 For Personal & Private Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोग हँसी-खुशी के साथ घर में प्रवेश करते हैं, और एक साथ हिल मिलकर, एक दूसरे को देखकर अपने जीवन में सुकून और आनन्द लेते हैं तो उनकी साँझ और रात भी दिवाली की तरह सुखदायी हो जाती है। भाई के प्रेम और बड़ों के आशीर्वाद से बढ़कर भला और कौनसी दिवाली होगी। ईंट, चूने, पत्थर से जिसका निर्माण होता है, उसे घर नहीं, मकान कहते हैं। जिस मकान में पत्नी, बच्चे और पतिदेव रहते हैं, उसे घर कहते हैं, पर जिस घर में माता-पिता और भाई-बहिन के लिए भी सम्मान का स्थान होता है जी हाँ, उसे ही परिवार कहते हैं, उसे ही स्वर्ग कहते हैं। हम कुछ ऐसी पहल करें जिससे हमारा घर मकान नहीं बल्कि परिवार बने, धरती का स्वर्ग बने। ___परिवार तो सामाजिक जीवन की रीढ़ है। सामाजिक जीवन का पहला मंदिर परिवार ही है। परिवार बच्चों की पहली पाठशाला है और सामाजिक जीवन का पहला मंदिर। परिवार का माहौल जितना सुन्दर होगा, नई कोंपलें उतनी ही सफल और मधुर होंगी। स्कूल में पुस्तकीय शिक्षा तो प्राप्त हो जाती है, लेकिन सुसंस्कारों की पाठशाला तो उसका अपना घर ही है। सामाजिक चरित्र के निर्माण के लिए, गरिमापूर्ण समाज के निर्माण के लिए, अहिंसक और व्यसनमुक्त समाज के निर्माण के लिए परिवार का अहिंसक, व्यसनमुक्त और गरिमापूर्ण होना आवश्यक है। ___ एक सप्ताह में सात वार होते हैं। मैं एक आठवाँ वार' बताता हूँ और वह वार है 'परिवार' । जहाँ घर के सारे सदस्य एक ही छत के नीचे मिल-जुल कर रहते हैं वहाँ परिवार होता है। जहाँ सातों दिन इकट्ठे होते हैं उसे सप्ताह कहते हैं। इस रहस्य से आप समझ सकते हैं कि आपकी एकता, सद्भावना और समरसता आपके परिवार का आधार बनती है। सात दिनों को एक कर दो तो वह सप्ताह बनता है और सप्ताहों को एक करो तो महिना और महिनों को संयोजित करो तो वर्ष निर्मित होता है। यही मेल-मिलाप परिवार के साथ भी लागू होता है। भाई-बहिन, सास-बहू, देवरानीजेठानी जहाँ मिलते हैं, वह परिवार है। परिवारों की एकता समाज बनाती है। समाजों से ही धर्म, राष्ट्र और विश्व अपना अस्तित्व रखते हैं। अलग-अलग भागों में बँटा हुआ देश, अलग-अलग भागों में बँटा हुआ धर्म, अलग-अलग भागों में बँटा हआ समाज और परिवार कुछ भी नहीं होता। न परिवार, न समाज, न धर्म और न देश। एक सूत्र में रहना ही परिवार को एक रखने का राजमंत्र है। एक-दूसरे के प्रति त्यागपरायणता रखने से ही किसी का भी घर एक रह सकता है। एक सूत्र में बँधे घर से बढ़कर कोई मंदिर या मकान नहीं होता और न स्वर्ग या मधुवन होता है। जहाँ घर के 10 For Personal & Private Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभी सदस्य साथ रहते हैं और एक ही चूल्हे का भोजन करते हैं, यह उस घर का पुण्य है किन्तु जब एक ही माता-पिता की संतानें अलग-अलग घर बना लेती हैं और एक दूसरे का मुँह देखना भी पसन्द नहीं करतीं तो यही कारण उनके पारिवारिक पाप' का बीज बन जाता है। माता-पिता के रहते हुए अगर बेटे अलग हो जाएँ तो यह माँबाप के पाप का उदय है, और उनका साथ रहना दोनों के पुण्यों का उदय है। त्याग परिवार की एक सूत्रता का मूलमंत्र है। बचपन में आपने वह कहानी जरूर सुनी होगी जिसका शीर्षक था सूखी डाली। वह कहानी यह थी कि एक परिवार जो प्राचीन परम्पराओं का संवाहक था, उसमें एक आधुनिक पढ़ी-लिखी लड़की बहू बनकर आती है। घर के संस्कार और वहाँ का वातावरण कुछ इस तरह का होता है कि बह उसमें ढल नहीं पाती। वह अपने पति को समझा-बुझा कर अपना घर, अपना मकान अलग बनाने का निर्णय कर लेती है। जब वे दम्पति अपना सामान बाँधकर जाने के लिए तैयार होते हैं तो घर के बुजुर्ग दादाजी पूछते हैं, क्या बात है बेटा, कहीं बाहर जारहे हो?' ___ बहू आधुनिक थी, पर मर्यादित थी। उसे घर के पुराने सोफे, पुरानी टेबल, कुर्सियाँ, दीवारों का रंग-रोगन आदि पसन्द नहीं था। वह तो दादा के सामने कुछ न बोली, पर उसकी ननद ने कहा, 'भाभी अपना घर अलग बसा रही है।' दादाजी चौंक पड़े, 'अरे, ऐसी क्या बात हो गई? मेरे जीते जी घर का कोई सदस्य क्या अलग घर बसाएगा? मेरे होते हुए इस वटवृक्ष की डाली क्या अलग हो जाएगी? आखिर क्या कारण है कि बहू को इस घर से अलग होने का सोचना पड़ा?' ननद ने बताया कि भाभी को दीवारों का रंग, पुरानी शैली के सोफे, टेबल-कुर्सी आदि अच्छे नहीं लगते। दादा ने सोचा और तत्काल निर्णय लेते हुए अपने बेटे से कहा, 'बेटा, क्या तुम इतनी छोटी-सी बात के लिए वटवृक्ष से अलग हुई डाली बनना चाहते हो? उन्होंने अपने पुत्र के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, 'बेटा, मेरे पास इतना धन तो नहीं है कि मैं घर का पूरा परिवर्तन कर सकूँ फिर भी तुम यह चाबी लो और मेरे पास जो थोड़ा-सा सोना है उसे बेचकर जैसा बहरानी को पसंद हो, वैसा घर में परिवर्तन कर लो पर कम-से-कम घर को तो टूटने मत दो।' घर का अभिभावक होने के कारण बुजुर्ग का यह दायित्व बनता है कि वह बड़े-से-बड़ा त्याग करके भी घर को हमेशा प्रेम, आत्मीयता, भाईचारा और सहभागिता से एक बनाए रखे। घर के बुजुर्गों के रहते हुए भी अगर घर टूट रहा है तो इसमें नई पीढ़ी से अधिक बुजुर्गवार दोषी हैं। पुरानी पीढ़ी को भी नई पीढ़ी के |11 For Personal & Private Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुरूप ढलना होगा और नई पीढ़ी को भी पुरानी पीढ़ी को समझते हुए घर के माहौल में समझौते के हालात बनाने होंगे। न तो हम पुरानी पीढ़ी को इन्कार करें और न ही नई पीढ़ी के प्रति ही अस्वीकार का भाव लेकर आएँ। एक-दूसरे के प्रति रहने वाले त्याग के भाव में ही परिवार की आत्मा समाई रहती है । रामायण त्याग का आदर्श है। मैं तो कहूँगा कि हर घर में 'रामायण' ज़रूर होनी चाहिए। गीता, आगम, पिटक, बाइबिल, कुरान आदि सब शास्त्रों का मूल्य रामायण के बाद है क्योंकि रामायण बताती है कि घर और परिवार को किस तरह से त्याग और आत्मीयता के धरातल पर रखा जा सकता है। रामायण हमारे लिए आदर्श है। मैं महज़ राम-राम रटने की प्रेरणा नहीं दूँगा। मैं राम से, रामायण से घरपरिवार में कुछ सीखने की प्रेरणा दूँगा। मैंने भी राम और रामायण से सीखा है। मेरे माता-पिता ने अपने जीवन में संन्यास धारण किया। उनकी तहे दिल की इच्छा थी कि वे अपने बुढ़ापे को प्रभु के लिए समर्पित करें। हम भाइयों ने मंत्रणा की कि अगर माता-पिता संन्यास लेते हैं तो हम भाइयों में से कोई न कोई भाई उनकी सेवा के लिए संन्यास धारण करेगा और तब हम दो भाइयों ने, मैंने और ललितप्रभ जी ने दीक्षा ली। माता-पिता की सेवा के लिए तो एक भाई पर्याप्त था पर भाई अकेला न पड़ जाए इसलिए दो भाइयों ने संन्यास का मार्ग अख्तियार किया । यह है हमारे घर की रामायण । रामायण इंसान के लिए पहली धार्मिक प्रेरणा है जब कि कुरआन और गीता दूसरी प्रेरणा, पिटक तीसरी प्रेरणा और आगम चौथी प्रेरणा है। रामायण कुंजी है घर को स्वर्ग बनाने के लिए। हो सकता है कि रामायण में कुछ ऐसे पहलू भी हों जो हमें ठीक न लगें, पर दुनिया की कोई भी चीज आखिर हर दृष्टि से 100% सही या फिट हो भी तो नहीं सकती। हर युग की अपनी दृष्टि और मर्यादा होती है, पर रामायण में भी 90% तथ्य ऐसे हैं जो हमारे युग को, हमारे जीवन और समाज को प्रकाश का पुंज प्रदान कर सकते हैं। उन्हीं से हमें यह प्रेरणा मिलती है कि एक बेटा अपने पिता के वचनों का मान रखने के लिए वनवास तक ले लेता है। एक पत्नी अपने पति के पदचिह्नों का अनुसरण करती हुए वन-गमन करती है तो एक भाई अपने भाई का साथ देने के लिए वनवास स्वीकार कर लेता है। एक भाई राजमहल में रहकर भी भाई के दुःख का स्मरण कर राजमहल में भी वनवासी का जीवन व्यतीत करता है। यह सब पारिवारिक त्याग की पराकाष्ठा है। इससे बढ़कर दूसरा शास्त्र क्या होगा ? शायद राजमहल में रहते हुए राम को इतना भ्रातृ-सुख नहीं मिलता जितना वन में रहते हुए 12 | For Personal & Private Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उन्हें लक्ष्मण और भरत से मिला था। राम और सीता को वनगमन करते हुए देख कर लक्ष्मण अपनी माँ सुमित्रा के पास जाते हैं और कहते हैं - 'माँ, भाई राम और भाभी सीता वन की ओर जा रहे हैं। उनके जाने से पहले मैं भी तुमसे एक वचन (आज्ञा) चाहता हूँ।' सुमित्रा ने कहा, 'बेटा, सौतेलेपन के कारण एक नारी ने, एक दीदी ने जो वचन माँगा था उसका यह दुष्परिणाम हुआ कि राम जैसे पुत्र को वनवास झेलना पड़ रहा है और दशरथ जैसे समर्थ सम्राट की पत्नी हो कर भी हमें घोर संकट का सामना करना पड़ रहा है। बेटा, इस समय तुम मुझसे कौनसा वचन माँगना चाहते हो? तुम्हें माँ से कोई वचन चाहिए तो भी इस घटित घटना की वेला को गुजर जाने के बाद कुछ भी मांग लेना।' लक्ष्मण ने कहा, 'माँ, वचन माँगने का यही समय है। आपने एक मिनट की भी देर कर दी तो मेरे पास जीवनभर प्रायश्चित करने के अलावा कुछ न बचेगा।' व्यथित होकर सुमित्रा ने कहा, 'जब सारा घर ही उजड़ चुका है, तब तू भी अपना वचन मांग ले। जब उजड़ना ही है तो यह भी उजड़ने में एक और निमित्त बन जाएगा।' तब लक्ष्मण ने कहा, 'माँ, बड़े भाई राम और भाभी सीता जिस वनगमन के लिए तत्पर हैं, मैं भी उनकी सेवा के लिए चौदह वर्ष का वनवास स्वीकार करना चाहता हूँ।' 'माँ सुमित्रा गद्गद् हो गई। उसने लक्ष्मण को हृदय से लगा लिया और बोली, बेटा, तुमने ऐसा कहकर माँ और कुल का गौरव बढ़ा दिया है। जो भाई, भाई के काम आ गया, वही वास्तव में भाई होता है। आने वाले समय में लोग जितने आदर से राम का नाम लेंगे उतने ही आदर से तुम्हारा नाम भी लेंगे।' समय गवाह है कि लक्ष्मण भी राम के समान आदरणीय हो गए। राम तो संभवत: पिता के वचनों का पालन करने को मज़बूर रहे होंगे, पर लक्ष्मण और भरत तो ऐसा करने के लिए बिल्कुल भी विवश नहीं थे। पर यही तो पारिवारिक भावना है और यही तो सामाजिक चरित्र और मूल्य हैं। सच्चाई तो यह है कि इन्हीं मूल्यों से भारतीय संस्कृति का निर्माण हुआ है। यह संस्कृति जिसके भी घर में है, वही भारतीय है। यदि ऐसा नहीं है तो आप आधे भारतीय और आधे परदेसी हैं। हर व्यक्ति अपनाअपना कर्तव्य समझे। ___ परिवार में पिता अपने और पुत्र अपने कर्त्तव्य समझें। सास अगर अधिकार रखती है तो वह अपने कर्तव्य समझे, बहू भी अपने कर्तव्य निभाए। भाई-भाई अपने कर्तव्य जानें तो देवर-भाभी भी अपने कर्तव्यों का निर्वाह करें। परिवार तो यज्ञ के समान है जिसमें सभी सदस्य यदि अपने-अपने कर्तव्यों का पालन करने के लिए 13 For Personal & Private Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहुति देते रहते हैं तो ही परिवार संयुक्त रह सकता है। परिवार को संयुक्त रखना परिवार के हर सदस्य का पहला कर्त्तव्य और धर्म है। अलग-अलग रहने वाले का तो नमक भी महँगा पड़ता है। एक साथ रहने वालों में अगर चार हैं तो ‘चौधरी' और पाँच हैं तो पंच कहलाते हैं। यदि चार भाई साथ रहते हों और उनमें से किसी एक की किस्मत बिगड़ जाए और उसे हर ओर से घाटा उठाना पड़े तो अन्य तीनों भाई मिलकर उसके कष्टों का निवारण कर देंगे जब कि अकेले रहने वाले को विपत्ति के समय में दर-दर की ठोकरें खाने को मजबूर होना पड़ेगा। जो भाई भाई का नहीं हो सकता वह मित्र का भी नहीं हो सकता। जो भाई मित्र का नहीं हो सकता, वह समाज का भी नहीं हो सकता। यदि तुम किसी का साथ नहीं दे सकते तो तुम्हारा साथ कौन देगा? ___ अगर आप पांच भाई हैं तो उनमें से तीन शहर में और दो गाँव में रह सकते हैं। यदि शहर में तीनों भाई अलग-अलग रहते हों और प्रत्येक भाई ढाई हजार रुपये किराया देता है तो साढ़े सात हजार रुपये लग गए किन्तु अगर साथ में रहते तो चार हजार में ही अच्छा-सा मकान मिल जाता। इससे खर्चा भी कम होता और एकदूसरे के साथ सहभागिता भी अधिक होती। आप जब बीमार हो जाओगे तो पड़ोसी नहीं अपितु आपका भाई ही काम आएगा। एक और एक ग्यारह होते हैं, पर अगर एक और एक के बीच इंटु, प्लस, माइनस लगाते रहे तो यही एक और एक दो हो सकते हैं या जीरो रह सकते हैं। मेरे-तेरे और स्वार्थ के इंटु, प्लस, माइनस हटा दिये जाएँ तो इसी एक और एक को ग्यारह होने से कोई रोक नहीं सकता। भाई-भाई का तो एक ही नारा हो - हम सब साथ-साथ हैं। ____ ज़रा हमारी बात सुनिए । जब हमारे पिता ने संन्यास लिया तो अपने बच्चों से (हम भाइयों से) कहा था, 'बच्चो, तुम्हें जैसा जीना हो वैसा जीना। मैं कोई दखल नहीं दूंगा लेकिन जब तक हम संत माता-पिता जीवित रहें, तुम लोग अलग-अलग मत होना। इसके अतिरिक्त जो तुम्हें करना हो, करते रहना।' हमें संन्यस्त हुए सताईस वर्ष हो गए हैं, पर हमें याद नहीं पड़ता कि इन सत्ताईस वर्षों में हम भाइयों के बीच कभी 'तू-तू-मैं-मैं' हुई हो। अरे, भाई-भाई लड़ने के लिए नहीं होते। हमारे माता-पिता ने हमें कोई लड़ने के लिए थोड़े ही पैदा किया है। जो उन्होंने कहा वह हमें मंजूर और जो हमने कहा वह उन्हें मंजूर, भाई-भाई के बीच प्रेम को अखंड बनाये रखने का यही मूलमंत्र है। 14/ For Personal & Private Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक के कार्य में दूसरा हस्तक्षेप न करे। तुमने अगर गलत किया है तो उसका परिणाम भी सामने आ जाएगा और अच्छा किया है तो उसका परिणाम भी छिपने वाला नहीं है। आवश्यकता पड़ने पर एक-दूसरे की सलाह ले लो। हम दोनों भाई तो तीन सौ पैंसठ दिन एक ही पात्र में एक साथ भोजन करते हैं। एक भाईरोटी चूरता है तो दूसरा भाई उसे आनन्दपूर्वक खाता है। भाई के हाथ से चूरी हुई रोटी का स्वाद ही अनेरा होता है। भाई-भाई का प्रेम तो स्वर्ग के आनंद से भी बढ़कर होता है। ____धर्म वह नहीं है जो शास्त्रोक्त है बल्कि धर्म तो वह है जिसे व्यावहारिक जीवन में धारण किया जा सके। पहले कर्तव्य तो माता-पिता के हैं अपनी संतानों के प्रति, दूसरे कर्तव्य संतानों के हैं अपने माता-पिता के प्रति । मैं चाहता हूँ कि आप लोगों का घर स्वर्ग का प्रवेश-द्वार बन जाए। माता-पिता, बुजुर्ग सभी अपने-अपने दायित्व निभाएँ। न जाने कितनी आस, आरजू से घर में बच्चे का जन्म होता है, उसे मारें-पीटें नहीं, अपने टीटू के कान न मरोड़ें। वह आपका टीटू है, टटू नहीं। अपशब्दों का प्रयोग न करें। शराब, सिगरेट जैसे दुर्व्यसन न करें। ऐसा कुछ भी न करें और न कहें जिनसे बच्चों में गलत संस्कार पड़ें। बच्चों को एक कार ज़रूर दीजिए, पर वह कार किसी मारुति या होंडा की न हो बल्कि संस्कारों की कार हो । अपने बच्चों को संस्कारों की कार दीजिए। बच्चों का जीवन आईने जैसा होता है। वह जो जैसा देखेगा, वैसा ही पुन: आपको दिखाएगा। बच्चे कैमरे की भाँति हर चीज को अपने अंदर उतार लेते हैं और समझ आने पर वापस उसे ही दिखा देते हैं एकदम चलचित्र की तरह ! इसलिए बच्चों के साथ अच्छा कीजिए और अच्छा पाइए। उन्हें लायक बनाइए, पर ऐसालायक भीमत बनाइए किवो आपके प्रति नालायक बन जाए। याद रखिए, समाज का अध्यक्ष बन कर समाज का संचालन करना आसान हो सकता है लेकिन घर का अभिभावक होकर अपने घर के बच्चों का पालन-पोषण करना कठिन होता है। देश के प्रधानमंत्री के लिए शायद देश का संचालन करना सहज हो, पर अपने ही बेटे को सुसंस्कारित करना देश को संचालित करने से भी मुश्किल काम है। पिता इसीलिए तो आदरणीय होते हैं क्योंकि वे हमें अपने पाँवों पर खड़ा होना सिखाते हैं। केवल उपदेशक न बनें, कर्ता बनें। जो शिक्षाप्रद बातें आपने अपने बच्चों, नाती, पोतों से कही हैं उनके उदाहरण स्वयं बनें। जब बच्चे आपको वैसा ही करता हुआ देखेंगे तो वे स्वयं भी वैसा ही अनुकरण करेंगे। बच्चों के लिए सिर्फ पैसा ही खर्च न करें, उन पर अपने समय का भी निवेश करें। आप उन्हें ऐसे संस्कार दीजिए कि सभी उस पर गर्व कर सकें। बच्चों को इतना योग्य बनाइए कि वे | 15 For Personal & Private Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाज की अग्रिम पंक्ति में बैठने के लायक हों । हाँ, अगर आपको लगता है कि बच्चा भटक रहा है तो उसे लताड़ने का भी हक़ रखें । गलत कार्यों के लिए बच्चों को संरक्षण नदें। ऐसा हुआ कि एक अमीर व्यक्ति के घर पर आधी रात के समय पुलिस ने दस्तक दी। मकान-मालिक उठा और उसने घर के बाहर पुलिस को खड़ा देखा। वह चौंक गया कि उसके घर पर पुलिस का क्या काम? उसने दरवाज़ा खोला और पूछा, 'किसलिए आना हुआ?' पुलिस इंस्पेक्टर ने एक फोटो दिखाते हुए पूछा, 'क्या आप इसे जानते हैं?' मकान-मालिक ने कहा, 'यह तो मेरा ही बेटा है। क्यों, क्या हुआ?' इंस्पेक्टर ने बताया, 'आज आपका बेटा इंडिया गेट के पास कुछ लड़कियों से छेड़खानी करते हुए पाया गया, और उसने उनके साथ बदतमीजी की। इसलिए हम उसे गिरफ्तार करने आए हैं। उसके साथ अन्य दो लड़के भी थे जिन्हें हम पकड़ चुके हैं और अब आपके बेटे की बारी है। __ पिता ने सब सुना, गहरी लम्बी साँस भरी और वह बेटे के कमरे में गया। उसने बेटे से पूछा, 'सच-सच बताओ, क्या तुमने किन्हीं लड़कियों के साथ छेड़खानी की थी? बाहर पुलिस खड़ी है, सच-सच बता दो।' बेटे ने शर्म से गर्दन झुका दी। पिता ने फिर दोहराया, 'मैं पूछ रहा हूँ बेटा, क्या तुमने ऐसा किया?' बेटे ने कुछ ज़वाब न दिया। पिता समझ गया। वह बाहर आया और इंस्पेक्टर से बोला, 'मेरा बेटा कमरे में है। जाइए, उसे गिरफ्तार कर लीजिए।' बेटा गिरफ्तार हो गया। बेटे के मन में क्रोध भर गया कि यह कैसा पिता है जो मुझे बचाने की बजाय मुझे जेल भेज रहा है। इंस्पेक्टर के मन में भी विचार आरहे थे कि यह अजीब आदमी है जो अपने ही पुत्र को गिरफ्तार करवा रहा है। लगता है, बाप-बेटे में अनबन है। लेकिन वह क्या करे ! ले चला वह अपने मुजरिम को कि तभी पिता ने आवाज़ लगाई, 'ठहरो। इंस्पेक्टर साहब आप जरा अंदर आइए।' अपनी अलमारी से उसने पांच हजार रु. निकाले और इंस्पेक्टर को देते हुए कहा, 'ये रुपये मैं अपने बेटे को छुड़ाने के लिए नहीं, बल्कि इस बात के लिए दे रहा हूँ कि आज आप इसकी इतनी पिटाई करें कि आज के बाद यह फिर से किसी भी लड़की पर गलत नज़र डालने का साहस न कर सके।' यह पता चलने पर कि बेटा बिगड़ रहा है, माता-पिता होने के नाते, घर का बुजुर्ग और अभिभावक होने के नाते आपका भी यह दायित्व है कि आप उसे पुन: सही रास्ते पर लाएँ। 161 घर को कैसे स्वर्ग बनाएं-1 For Personal & Private Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैसे माता-पिता के दायित्व हैं बच्चों के प्रति, वैसे ही बच्चों के भी कुछ कर्त्तव्य हैं अपने माता-पिता के प्रति । माता-पिता तो किसी पवित्र मंदिर की तरह होते हैं जिनके चरणों में ही स्वर्ग होता है। जो अपने माता-पिता की उपेक्षा करते हैं, वे भूल जाते हैं कि उन पर माता-पिता का कितना ऋण है। इसलिए मैं कहा करता हूँ कि जो व्यक्ति आठ घंटे अपनी पत्नी के साथ बिताता है, वह इतना नैतिक दायित्व ज़रूर रखे कि दो घण्टे अपने माता-पिता के साथ भी रहे, उनके साथ भी दो घंटे बिताए। पतियो, आप यह जान लो कि आप पर किसी भी पत्नी का ऋण नहीं होता और पत्नियो, आप भी समझ लो कि आप पर भी किसी पति का ऋण नहीं होता लेकिन हर पुरुष और महिला पर माता-पिता का ऋण अवश्य होता है। ___ माता-पिता ने हममें अपना भविष्य देखा है। उन्होंने हमारी रचना को सुन्दरतम बनाने का प्रयत्न किया है। क्या वह रचना इतनी निष्ठुर होगी कि रचनाकार को ही दुत्कार बैठे ? जिसने हमें अपना भविष्य समझा, क्या हम उनका वर्तमान नहीं बनाएँगे? ओह, धरती पर तो एक ही ईश्वर है, और वह ईश्वर हमारे अपने मातापिता हैं। जितना उन्होंने हमारे लिए किया, उसका 25% भाग भी आप उनके लिए कर दीजिए तो आप उनकी पुण्यवानी और आशीषों के उत्तराधिकारी हो जाएँगे। कैसी विचित्र बात है कि बचपन में हम अपने माता-पिता का बिछावन गीला करते थे और आज उनकी आँखों को गीला कर रहे हैं। याद करो जब तक हम ठीक से चलने लायक न हुए, वे हमारी अंगुली पकड़ कर हमें चलाते रहे, अंगुली पकड़ कर हमें स्कूल ले जाते रहे। वे तब हमारा सहारा बने हुए थे और आज जब वे अशक्त हैं तो हम भी उन्हें अंगुली थामकर किसी मंदिर अथवा किसी तीर्थ स्थान में ज़रूर ले जाएँ। इसी बहाने शायद उनका थोड़ा-सा ऋण उतर जाए। ऐसा करना जहाँ आपके लिए सुखदाई होगा, वहीं आपको थोड़ा-सा उऋण भी करेगा। माँ, तूने तीर्थंकरों को जन्मा है। संसार तेरे ही, दम से बना है। तू ही पूजा है, मन्नत है मेरी। तेरे ही चरणों में जन्नत है मेरी॥ हे माँ, तुमने तीर्थंकरों को जन्म दिया है। देवराज भी तुम्हें प्रणाम करते हैं। तुम्हारे ही दम से संसार है। तू ही हमारी पूजा है, तू ही हमारी मनौती है। तेरे ही कदमों में हमारी जन्नत है। जो भी माता-पिता के प्रति अपने दायित्वों को, कर्तव्यों को निभाता है, उन्हें सुबह उठकर प्रणाम करता है, उनके साथ भोजन करता है, रात्रि में 17 For Personal & Private Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोने से पूर्व उनकी चरण-सेवा करता है, उसका पुत्र होना भी धन्य है। ____ मैं, महिलाओं से कहना चाहूँगा कि वे अपने पति को उसके माँ-बाप से अलग नकरें, अलग न होने दें। अगर वह अलग ही होना चाहे तो आप उन्हें समझाएँ कि वह माता-पिता से अलग न हो। हर महिला का कर्तव्य है कि अगर उसका पति श्रवणकुमार की भूमिका अदा करना चाहता है तो वह उसका अवश्य ही सहयोग करे। यदि आप श्रवण कुमार की माँ बनना चाहती हैं, तो कृपया अपने पति को श्रवण कुमार बनने की प्रेरणा दें। उसे ऐसा करने का प्रोत्साहन दें। माता-पिता के प्रति अपने कर्तव्यों का पालन करें। ___ घर में सभी समान रूप से अपने-अपने कर्तव्यों का निर्वहन करें,तभी घर स्वर्ग बन सकेगा। सास-बहू परस्पर न लड़ें। मैंने अभी कुछ दिन पहले एक बहू से पूछा, 'आपको हाथ-खर्च कौन देता है? उसने बताया, 'सास देती है।' अच्छा हुआ, उस बह ने सारी सासुओं की लाज रख ली। सास-बहू माँ-बेटी के समान होती हैं। सास हमेशा यही समझे कि बहू, बहू नहीं बल्कि बेटी है और बहू भी सास को माँ ही समझे। घर के सभी सदस्य अगर तरीके से जीना सीख लें तो दुनिया की कोई भी ताक़त घर को नहीं तोड़ सकती। बाप-बेटे अलग नहीं हो सकते। सास और बहू के बीच वैचारिक संतुलन नहीं बन पाने के कारण ही घर टूटा करते हैं। मैं सासुओं से कहना चाहँगा कि आप अपनी बहओं को इतना प्रेम. इतना स्नेह दें कि बहएँ अपने पीहर के फोन नम्बर तक भूल जाएँ। कभी पीहर जाना भी पड़ जाए तो उसे सास रूपी मम्मी की याद आती रहे, और उसे वहाँ से जल्दी ही वापस आने की इच्छा हो। अभी तो हालत उलटी है। यदि बह ससुराल में है तो वह हमेशा ऐसा अवसर तलाशती रहती है कि उसे पीहर जाने का मौका मिले। कुछ भी नहीं तो वह अपने भाई को फोन पर कहेगी, ‘बेटे का जन्म-दिन मना लो, ताकि मुझे पीहर आने का मौका मिल जाए। सासुओ, आप अपनी बहुओं को इतना स्नेह दें कि वे पीहर जाने को इतनी बावली न हों। उनके माता-पिता ने अपनी लड़की को आपके घर भेज दिया है तो उन्हें प्रताड़ित मत करो। क्या आप बहू को अपने घर में लड़ने-झगड़ने के लिए लाए हैं? वैसे भी आजकल तो लड़कियाँ कम हो गई हैं इसलिए लड़के मारे-मारे घूम रहे हैं। तुमने कितनों से सम्पर्क किया होगा, कितनों से कहा होगा तब वह बहू बन कर तुम्हारे घर में आई है और अब आप उससे संतुलन नहीं बिठा पा रहे हैं। सास और बहू का संबंध पवित्र संबंध है। घर में अगर दो जीव सही ढंग से, संतुलित तरीके से रह लें, 18/ For Personal & Private Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तो घर अपने-आप स्वर्ग बन जाएगा। लोग गैले होते हैं जो लड़के-लड़की की जन्म कुंडली मिलाते हैं । अरे भाई अगर कुंडली मिलानी ही है तो लड़के-लड़की की क्या कुंडली मिलाना ? मिलाना ही है तो सास-बहू की जन्म कुंडली मिलाओ क्योंकि इन दोनों की पटरी ठीक बैठ गई तो सारे घर की पटरी ठीक बैठ गई समझो। लड़कालड़की तो जैसे भी हैं गोटी फिट कर ही लेंगे। सास-बहू के संबंधों में ही घर को स्वर्ग बनाने की बुनियाद स्थित है । इसलिए कृपाकर आप एक दूसरे के प्रति प्रेमपूर्ण, समझौता भरा, विश्वास भरा व्यवहार करें। बहुएँ अपनी सास के सम्मान में कभी कमी न आने दें। जब वे मर्यादा में रहेंगी तभी गृहलक्ष्मी और कुलवधु कहलाएँगी । सास-बहू को इतनी स्वतंत्रता अवश्य दे कि वह भी अपने मन से कुछ कर सके । वह बात-बात में दखल अंदाजी न करे । अगर घर के गार्जियन बात-बात में टोका टोकी और हस्तक्षेप करना बंद कर दें तो दुनिया के कोई बेटे-बहू ऐसे नहीं होंगे जो अपने माँ-बाप या सास-ससुर से अपना घर अलग बसाने की सोचे भी । गोस्वामी तुलसीदास जी की चौपाई का एक सुन्दर पद है : सास-ससुर पद पंकज पूजा । - या सम नारि-धर्म नहीं दूजा ॥ सास-ससुर माता-पिता ही होते हैं। ये ही वे सौभाग्यदाता हैं जो नारी को उसका पति प्रदान करते हैं। जिस घर में बहू को गृहलक्ष्मी मानकर इज़्ज़त दी जाती है और सास-ससुर को माता-पिता मानकर सम्मान दिया जाता है, वह घर अनायास स्वर्ग ही होता है । जिस घर में सास-बहू आपस में 'तू-तू, मैं-मैं' करते रहते हैं, वह घर तिनकों की तरह कभी भी बिखर सकता है । संबोधि धाम के अध्यक्ष पारसमलजी भंसाली बता रहे थे कि उनकी पत्नी और माँ के बीच संतुलन का एक सबसे बड़ा राज़ यह है कि अगर मेरी पत्नी को सब्जी भी बनानी है तो वह अपनी सास से पूछकर बनाती है और माँ की ख़ासियत यह है कि मेरी पत्नी जो करना चाहे, बनाना चाहे, उसमें सहज सहमति दे देती है। क्या आप समझे कि सास-बहू के बीच कैसा एडजेस्टमेंट होना चाहिए। बहू सास से पूछकर करे और सास बहू के कार्यकलापों में ज्यादा हस्तक्षेप न करे। सास कंट्रोल रखे, पर एक्स्ट्रा कंट्रोल भी नहीं । एक सास ने मुझे बताया कि बहू के साथ उसकी काफी कलह रहती है। कोई समाधान बताएँ । बहू भी साथ थी। मैंने बहू को दो नुस्खे दिये। पहला यह कि सास के For Personal & Private Use Only | 19 Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामने मत बोलो और दूसरा यह कि वह जो कहे, कर दो । बस, हो गई शान्ति । आप भी इस नुस्खे को अपनाएँ और लाभ उठाएँ । पति-पत्नी के बीच भी संतुलन रखें। दोनों के बीच विश्वास और प्रेम की आत्मा कायम हो । जहाँ दोनों के बीच 'तू-तू, मैं-मैं' चलती रहती है, वहाँ दोनों ही एक-दूसरे से दुःखी रहते हैं । एक पति संतासिंह अपनी पत्नी बंता से इतना अधिक परेशान था कि उसने अपने घर में लेट आना शुरू कर दिया। उसकी पत्नी ने उसे सबक सिखाने की सोची और वह काले कपड़े पहन कर तथा चुड़ैल का मेकअप कर घर के रास्ते में पड़ने वाले कब्रिस्तान के पास खड़ी हो गई । जैसे ही उधर से उसका पति आया तो उसने भयानक आवाज़ निकालते हुए कहा, कौन हो ? कहाँ जा रहे हो ? ठहर जाओ ।' संतासिंह ने पूछा, 'कहिए, मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूँ? बंता ने भयानक आवाज़ में कहा, 'क्या तुम्हें मुझ से डर नहीं लग रहा है? मैं चुड़ैल हूँ ।' पति ने कहा, 'इसमें डरने जैसी क्या बात है? आपकी हमारी तो रिश्तेदारी है। ' चुड़ैल ने पूछा, 'कैसे ?' संतासिंह ने ज़वाब दिया, 'दरअसल मेरी शादी आपकी ही बड़ी बहन से हुई है । ' झगड़ोगे तो दोनों ही परेशान होओगे। प्रेम से रहोगे तो दोनों ही सुखी जीवन जी सकोगे। पति-पत्नी का संबंध तो एक पवित्र सम्बन्ध होता है । यह सम्बन्ध चार बातों पर ही जिया जा सकता है: 1. ट्रस्ट, 2 . टाइम, 3. टॉकिंग और 4. टच । यानी एक-दूसरे पर भरोसा रखिए। एक-दूसरे के लिए समय का भोग दीजिए। आपस में प्रेमपूर्वक बातचीत का सिलसिला जारी रखिए और एक दूसरे को सहयोग देते रहिए । हर पति या पत्नी में चार कमियाँ तो होती ही हैं। यदि आपका पति कोई संत ही होता तो आपसे शादी थोड़े ही करता । और हाँ, पत्नी की आवश्यकताओं और भावनाओं का आप भी ध्यान रखिए। स्त्री का मन कोमल होता है। उसके सिर में दर्द हो तो माथे को सहलाएँ, सिर का बाम लगाएँ, वह इतने से ही अभिभूत हो जाएगी । टॉलस्टाय ने मरने से पहले कहा था कि मेरी पत्नी को तब तक ख़बर न दी जाए, जब तक मैं मर न जाऊँ। क्योंकि अगर वह मेरे सामने होगी, तो वह शांति से मुझे मरने 20 | For Personal & Private Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भी न देगी। जिसने मुझे शांति से जीने न दिया, वह शांति से मुझे मरने कैसे देगी? यह झगड़ालूप्रकृति के दम्पति की कहानी है। वहीं मार्क ट्वेल ने पत्नी को श्रद्धाजंलि देते हुए लिखा है कि वह मेरे साथ जहाँ भी होती, मेरे लिए वहीं स्वर्ग होता। आप एक ऐसी महिला बनिये कि आपके पति भी आपके लिए यही नज़रिया बनाए कि तुम जहाँ हो, वहीं स्वर्ग है। ____अभी देवर-भाभी के संबंध बचे हैं, भाई-भाई के संबंध बचे हैं। ये सभी लोग मिलकर जब परिवार को संचालित करते हैं तो कोई प्रेम, कोई त्याग, कोई आत्मीयता, कोई सहभागिता का अवदान देता है तभी परिवार एकजुट रहकर आदर्श बनता है। क्या आपको भारतीय संस्कृति की मर्यादा का स्मरण है ? जब सीता जी का अपहरण हो जाता है तो राम को वन में उनके आभूषण मिलते हैं। राम सीता का हार लक्ष्मण को दिखाकर पूछते हैं, क्या तुम इसे पहचानते हो?' लक्ष्मण कहते हैं, क्षमा करें भैया, मैं इसे नहीं पहचान पा रहा हूँ।' 'क्या यह सच है कि तुम नहीं पहचान रहे हो?' लक्ष्मण कहने लगे, 'भैया, मैंने तो जब भी देखा, भाभी के चरणों को ही देखा है। हाँ, आप भाभी के पैरों की पायल ले आएँ तो मैं पल भर में पहचान लूँगा। मैंने पाँवों से ऊपर भाभी को नज़र उठाकर कभी नहीं देखा है।' कैसे बतलाऊँ क्षमा करो, भैया यह हार न देखा। मैंने जब भी देखा, भाभी के चरणों को ही देखा। वे लाल वरण, भाभी के चरण, मेरे तीर्थ धाम कहलाए। श्री राम लखन ले व्याकुल मन, कुटिया में लौट जब आए॥ ये सब मर्यादाएँ हैं, जिनमें घर-परिवार के स्वर्ग का रहस्य छिपा है। देवरभाभी, भाभी-ननद, देवरानी-जेठूती - सबके बीच में प्रेम भरा, पारस्परिक सौहार्दपूर्ण व्यवहार हो। चार-दीवारों का मकान घर नहीं होता, पास्परिक प्रेम, त्याग और मर्यादा का नाम घर है। घर का निर्माण, परिवार का आधार भावनाओं की ईंटों से होता है। भावना और कर्तव्य ये दो शक्तियाँ मिलकर ही घर को नन्दनवन बनाती ___घर में सुबह सदा जल्दी उठे। सूरज उगे उससे पहले जग जाएँ। घर को अवश्य सजायें-संवारें। पत्नी का स्वास्थ्य ठीक नहीं है तो उसकी ओर पर्याप्तध्यान दें। यह नहीं कि डॉक्टर बुलाया, पत्नी को दिखाया और अपने काम-धंधे पर रवाना हो गये। नहीं, उसे कुछ समय जरूर दें, भावनात्मक संबल प्रदान करें। शायद आपके धन से अधिक उसे आपके प्यार, आपके दिल और आपकी आत्मीयता की ज़्यादा |21 For Personal & Private Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज़रूरत है। साँझ को जब घर पहुँचो, तो अपनी जेब की तरह अपने दिमाग का कचरा जो आप दुकान या दफ्तर से लेकर आए हैं, उसे भी कचरे की पेटी में फेंक दें तब घर में प्रवेश करें। थोड़ा-सा चिड़चिड़ापन, कुछ-कुछ खीझ, थोड़ी-थोड़ी ईर्ष्या जो दुकान पर ग्राहकों से सिरपच्ची करते वक़्त आपके दिमाग में घुस आई है और आप उसे अपने साथ ले आए हैं पहले उसी को कचरापेटी में फेंक दें, तब ही घर में जाएँ। नहीं तो इस कचरे को आप घरवालों पर डालेंगे और अशांति का वातावरण पैदा करेंगे। घर वाले आपकी प्रतीक्षा करते रहते हैं। आप एक अच्छे बेटे, अच्छे पति, अच्छे पिता बनकर घर जाएँ। घरवालों को आपकी बहुत ज़रूरत है। लेकिन वह ज़रूरत तब अच्छी बनेगी जब आप अच्छे इंसान बनकर घर पहुंचेंगे। ___ घर के सभी सदस्य सप्ताह में कम-से-कम एक दिन अवश्य ही साथ बैठकर भोजन करें। इससे आपस में प्रेम और आत्मीयता बढेगी। परिवार से ही समाज का निर्माण होता है, समाजों से देश का निर्माण होता है। परिवार पहली सीढ़ी है, पहली नींव है। जब हर परिवार सुखी होगा तो पूरा नगर भी सुखी होगा। नगर की खुशहाली ईद की तरह होगी, होली-दिवाली की तरह होगी। आज के लिए बस इतना ही। मेरे प्रेमपूर्ण नमस्कार स्वीकार करें। 22/ For Personal & Private Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रिश्तों में घोलें प्रेम की मिठास आज हम एक ऐसे बिन्दु पर चर्चा कर रहे हैं जो जीवन में सुख, सौन्दर्य और माधुर्य घोलता है। वह बिन्दु है : प्रेम । प्रेम माता-पिता से हो तो वह प्रेम सेवा बन जाता है। प्रेम संतान से हो तो वह प्रेम ममता और वात्सल्य बन जाता है। प्रेम पति-पत्नी से हो तो वह प्रेम जीवन का रस बन जाता है। प्रेम प्रभु से हो तो वही प्रेम भक्ति और समर्पण बन जाता है। मेरे लिए तो प्रेम स्वयं एक साधना है, व्रत है, धर्म है, जीवन जीने का रास्ता है। प्रेम हमारी साधना है, प्रेम हमारा पंथ है। जो भी भरा है प्रेम से, वो ही हमारा संत है॥ मैं प्रेम का पथिक हूँ और अपनी ओर से सभी को प्रेमपूर्वक जीवन जीने का पाठ पढ़ाता हूँ। प्रेम एक ऐसा तत्त्व है जो गूंगे को भी समझ आता है, बहरे को भी उसका अहसास हो जाता है और एक नेत्रहीन व्यक्ति भी प्रेम के सुखद और मधुर स्पर्श का अनुभव कर लेता है। एक नवजात शिशु भी प्रेम की भाषा अवश्य समझ जाता है। बाकी सारे सम्बन्ध जोड़ने के लिए भाषा, शब्द और |23 For Personal & Private Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिव्यक्ति को माध्यम बनाना पड़ता है, पर न जाने प्रकृति ने प्रेम में ऐसी कौन-सी मिठास घोल दी है कि प्रेम की गहराई में भाषा, शब्द और अभिव्यक्ति को माध्यम बनाना पड़ता है, पर न जाने प्रकृति ने प्रेम में ऐसी कौन-सी मिठास घोल दी है कि प्रेम की गहराई में भाषा, शब्द और अभिव्यक्ति तीनों ही मौन हो जाते हैं । हृदय में जब प्रेम का सागर उमड़ता है तो दो प्रेमी आपस में मौन हो जाते हैं और केवल प्रेम में डूबना और खो जाना चाहते हैं। प्रेम की यही सबसे बड़ी खासियत है। एक दार्शनिक अपने दर्शन के अंदाज़ में बोलता है। एक तत्त्व-चिंतक अपने चिंतन को परिभाषित करता है। एक वैज्ञानिक और मनोवैज्ञानिक मन की गुत्थियाँ सुलझाने में उलझ जाते हैं, पर प्रेमी हृदय सारी दुनिया से बेखबर होकर प्रेम के भाव में बिक जाता है। कभी भरत ने राम से प्रेम किया था, तो भरत अपने प्रेम का मोल लिए बगैर राम के चरणों में समर्पित हो गया और उनके खड़ाऊ को राज-सिंहासन का मालिक बना दिया। कभी कृष्ण ने सुदामा से प्रेम किया तो सुदामा के चावल के सत्तु के बदले राजमहल का निर्माण करवा दिया। कभी मीरां ने कृष्ण से प्रेम किया तो राजमहल के सुख छोड़कर वृंदावन की रसिक बन गई। मानो मीरां कृष्ण के हाथों बिक और कष्ण मीरां के हाथों बिक गए हों। सो कहने लगी-माई री मैंने गोविन्द लीन्हों मोल। कोई कहे सस्तो कोई कहे मोहंगो, लियो रे तराजू में तौल। माई री मैंने गोविन्द लीन्हों मोल। प्रेम तो जीवन में रस घोलता है। यह नीरस को भी सरस बना देता है। जीवन के जिस किसी क्षेत्र में प्रेम का रस घुल जाए तो उस क्षेत्र में बढ़ने का उसे जीने का आनन्द ही अनेरा हो जाता है। काम वही किया जाना चाहिए जिस काम को करने में आनन्द आता हो। बगैर आनन्द के किया गया व्यापार, सेवा, धर्म-कर्म, योग-साधना बहुत जल्दी बोझ लगने लग जाते हैं। आदमी ऊब जाता है। जिस काम का परिणाम आनन्ददायी हो उस काम को लम्बे समय तक सहजतया किया जा सकता है। आनन्द तभी आएगा जब किए जाने वाले कार्य के प्रति प्रेम हो, रस हो। ___मैंने कभी कहा था कि अगर तुम एक घंटा के लिए आनन्दित रहना चाहते हो तो जहाँ बैठे हो वहीं झपकी ले लो। एक दिन का आनन्द पाने के 24 For Personal & Private Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिए ऑफिस से अवकाश ले लो। सप्ताह भर का आनन्द पाने के लिए किसी हिल स्टेशन पर मौज मस्ती कर आओ। एक महिने के आनन्द के लिए किसी से शादी रचा लो। अगर पूरे वर्ष भर आनन्द-सुकून पाना चाहते हो तो किसी अमीर आदमी के गोद चले जाओ, पर यदि जीवन भर आनन्दित रहना चाहते हो तो अपने काम से प्यार करो। प्यार से किया गया काम कामधेनु और कल्पवृक्ष बन जाता है, वहीं बेमन से किया गया काम बोझ और बन्धन की बेड़ी बन जाता है। __मैं प्रेम से जीता हूँ और जिस कार्य को भी करता हूँ बड़े प्रेम और आनन्द भाव के साथ करता हूँ। इसलिए मेरे लिए न तो होली साल में एक बार आती है और न दिवाली। मैं जैसे ही आँखें खोलता हूँ मेरे सामने दिवाली के दीप जल जाते हैं और जैसे ही किसी से मिलता हूँ होली के रंग उभर आते हैं। मेरे द्वारा किया गया हर काम गीता का कर्मयोग और ईश्वर का यज्ञ-हवन बन जाता है। क्योंकि मैं जो कुछ करता हूँ वह बड़े प्रेम से करता हूँ, अकर्ता-भाव से करता हूँ। मुझे लगता है जीवन ईश्वर का प्रसाद है और जीवन में किया गया हर कार्य प्रभु की पूजा है। जितने पवित्र भाव से आप ईश्वर की पूजा करते हैं, मैं उतने ही पवित्र भाव से अपना कर्म करता हूँ। आप ईश्वर को केवल मंदिर, चर्च और गुरुद्वारा में देखते हैं, मैं ईश्वर, अल्लाह और अरिहन्त को हर ओर देखता हूँ। उनकी सर्व व्यापकता का अहसास मुझे हर तरफ होता है। पहचान सके तो पहचान, कण-कण में छिपा है भगवान। अगर आपके पास दृष्टि है तो सर्वत्र उसकी सृष्टि है। आपके लिए पुरी और पालीतना में, हरिद्वार और बद्रीनाथ में ही उसका तीर्थ है, मुझे तो सारी पृथ्वी ही उसका तीर्थ नज़र आता है। जैसे सूरज, चाँद, सितारों का नूर पूरी पृथ्वी से नज़र आता है, उन्हें चाहे जिस कोने से देख लो, वैसे ही उस महान् दिव्यशक्ति का तेज भी, उसका अस्तित्व भी पृथ्वी के हर कोने से नज़र आएगा। जिनके पास केवल बुद्धि के तर्क हैं उन्हें ये बात जल्दी से समझ नहीं आएगी, पर जिनके पास प्रेम भरा हृदय है वे तो सर्वत्र उसका अहसास कर लेते हैं, उसका आनन्द ले लेते हैं। आँखें खोलो तो बाहर उसकी व्यापकता नज़र आती है और आँखें बंद करो वह अंतरघट में समाहित लगता है। | 25 For Personal & Private Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैसे भी प्रभु को ज्ञान से नहीं, प्रेम से पाया जाता है। भक्ति प्रेम का ही निर्मल रूप है। मैं ज्ञान का प्रकाश फैलाने का समर्थक हूँ। बगैर शिक्षा और ज्ञान का व्यक्ति नेत्रहीन इंसान की तरह होता है, पर बगैर प्रेम और भावना के ज्ञान नीरस और कंटिला झाड़-झंखाड़ भर होता है। ज्ञान पहला चरण है और प्रेम दूसरा चरण। प्रेम ज्ञान को अमृत बनाता है, प्रेम जीवन को सरस बनाता है। प्रेम मरते हुए इंसान में भी प्राण फूंक देता है। प्रेम उपचार का आधार बन जाता है। एक मरीज को अगर प्रेम का सहारा मिल जाए तो रोग से लडने की उसकी ताक़त दुगुनी हो जाती है। प्रेम के पास आते ही मरीज़ को एक संबल मिल जाता है। उसे लगता है कि कोई है जो उसके दुःख-दर्द को बाँट सकता है, उसकी पीड़ा को हल्का कर सकता है। जिससे व्यक्ति प्रेम करता है अगर वह पास होता है तो ऐसे लगता है जैसे ईश्वर उसके पास है। सचमुच प्रेम रोगों का इलाज करता है। जो प्रेम देता है, प्रेम उसका भी इलाज करता है और जो प्रेम पाता है प्रेम उसका भी उपचार करता है। एक व्यक्ति कैंसर से पीड़ित था। उसे कैंसर की बीमारी हो गई। यह सुनकर वह मानसिक अवसाद से ग्रस्त हो गया। वह डिप्रेशन में चला गया। उस डिप्रेशन के दबाव के कारण उसके दिमाग की कोई सूक्ष्म नाड़ी प्रभावित हो गई और उसे लकवा मार गया। लकवे के कारण उसका सारा शरीर सुन्न हो गया। एक दिन उस व्यक्ति का बेटा मेरे पास आया। अपने पिता के इलाज़ के सिलसिले में । उसने मुझसे समाधान चाहा। मैंने उसे प्रेम और प्रार्थना का रास्ता सुझाया। मेरी बात, न जाने क्यों, उसके गले उतर गई। वह रोज सुबह अपने पिता के पलंग के पास जाता, हाथ जोड़ता,आँखें बंद करता और मन ही मन ईश्वर से अपने पिता के स्वस्थ होने की प्रार्थना किया करता। प्रार्थना पूरी होने पर वह अपने पिता को देखकर मुस्कुराता और अपने लेटे हुए पिता के गले लगता और मुँह से कहता, आई लव यू पापा। चूँकि पिता को लकवा था सो वे वापस जवाब में कुछ बोल नहीं पाते। वे बोलना चाहते थे, पर उनके गले से आवाज़ नहीं निकल पाती। वे भावुक हो उठते, उनका गला भर आता। उनकी आँखों से आँसू टपक पड़ते, पर बेटे ने तो मानो यह क्रम ही बना लिया। रोज सुबह पापा के पास जाना, ईश्वर से प्रार्थना करना और पापा के गले लगकर उन्हें 'आई लव यू' कहना। 26/ For Personal & Private Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस तरह करीब तीन महिने बीत गए। आज बेटे का जन्मदिन था। घर में खुशियों का माहौल था, पर बेटा अपनी रोज की दिनचर्या के मुताबिक अपने पिता के पास गया, प्रार्थना की और गले लगकर प्यार भरे अंदाज़ में कहा'पापा! आई लव यू', 'आई लव यू', 'आई लव यू पापा' । 'पता नहीं प्रेम और प्रार्थना का क्या चमत्कार हुआ। बेटे ने देखा कि पापा का जो हाथ लकवे के कारण सुन्न हो गया था। आज उसमें न जाने कौन से प्राण का संचार हो उठा कि पापा ने अपनी सारी ताक़त लगाकर पलंग पर निढाल पड़े अपने हाथ को ऊँचा उठाया, बेटे की पीठ और माथे पर रखा और आशीर्वाद दिया और टूटे फूटे स्वर में ही सही, पर पापा के मुँह से निकल पड़ा- बेटा ! आई लव यू, बेटा आई लव यू। बेटा खुशी के मारे झूम उठा। उसे लगा कि उसके प्रेम और प्रार्थना का परिणाम उसे मिल गया। पापा के सुन्न हाथ में जान आ गई और रुंधे गले में आवाज़ लौट आई। उसे लगा कि ईश्वर ने उसे उसके हैप्पी बर्थ डे का सबसे अनमोल उपहार दे दिया। प्रेम के साथ प्रार्थना और प्रार्थना के साथ प्रेम जुड़ जाए तो वह प्रेम परमात्मा का प्रसाद बन जाता है। मंदिर में जाकर पुजारी से चार मखाने खाना ईश्वर का प्रसाद नहीं है, वह तो केवल हमारी श्रद्धा की अभिव्यक्ति है। प्रभु से प्रेम करना, उनसे इकतार हो जाना, प्रभु की दिव्यता को अपने में साकार कर लेना ईश्वर का सच्चा प्रसाद है। अच्छा होगा हम प्रतिदिन 15 मिनट प्रार्थना करें और 15 मिनट अपने हृदय-क्षेत्र में ध्यान करें। हृदय में ध्यान धरने से जीवन में निर्मल प्रेम का उदय होता है। हृदय में स्वयं की सत्ता तो है ही, सारे ब्रह्मांड को भी हृदय में आमंत्रित कर लें, इससे आपका प्रेम व्यक्ति-विशेष तक सीमित नहीं रहेगा। आपका प्रेम विराट हो जाएगा, मन में रहने वाली वैरविरोध की जंजीरें स्वतः टूट जाएँगी। प्रार्थना और हृदय पर ध्यान-ये दोनों मिलकर हमारे प्रेम को दिव्य बना देंगे। इससे स्वार्थ और क्षुद्र वृत्तियाँ बिखरेंगी। हम हृदय में, हृदयेश्वर से जुड़ेंगे। तब हमारा प्रेम मीरां के चूँघरूओं की छन-छनहाट देगा, तब हृदय से सूर के गीत फूटेंगे, पाँवों में चैतन्य महाप्रभु का नृत्य साकार करेगा। तब हमें यह सारी धरती, सारा ब्रह्मांड प्रेममय नज़र आएगा। | 27 For Personal & Private Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धरती पर प्रेम है, इसीलिए यह धरती जीने के काबिल है। अगर धरती पर से प्रेम का पानी सूख जाए तो संसार में चार दिन जीना भी दूभर हो जाएगा। जीवन में अगर प्रेम की सरसता, प्रेम की मधुरता है, प्रेम का आनन्द है तो संसार में जिई जाने वाली सौ साल की जिंदगी भी छोटी है। प्रेम ही वह तत्त्व है जो संसार में स्वर्ग का द्वार खोलता है। पति-पत्नी में प्रेम हो तो स्वर्ग धरती पर ही है, भाई-भाई में प्रेम हो तो रामायण का रस यहीं ज़मीन पर ही है । पिता-पुत्र में प्रेम हो तो यह धरती ही बैकुंठधाम है। प्रेम यानी यों समझो जैसे स्वर्गलोक से कोई परी उतर आई हो, किसी गंगा ने अवतार ले लिया हो । प्रेम से ही प्रार्थना का जन्म होता है। प्रार्थना से मौन और शांति साकार होती है । शांति से ही आनन्द की निष्पत्ति होती है और आनन्द ईश्वर का निज स्वभाव है। ईश्वर के तीन गुण हैं - सत् + चित् + आनन्द = सच्चिदानन्द। परिवार में, समाज में, देश में, यहाँ तक कि पूरे विश्व में प्रेम चाहिए। विश्वशांति का आधार विश्व - प्रेम है। प्रेम परिवार को जोड़ता है। समाज में एकता के बीज बोता है। दो राष्ट्रों के बीच सेतु का काम करता है। लड़ने का काम हम लोगों ने अपनी नासमझी के चलते अब तक ख़ूब कर लिया। परिवार, समाज और देश में लड़ाई की नहीं, परस्पर प्रेम और भलाई की ज़रूरत है। रुखसत की नहीं, मोहब्बत की ज़रूरत है। पिछले 2500 सालों से हम लड़ते ही तो आए हैं। एक राजा दूसरे राजा के साथ पानी और नदी के नाम पर, धन-संपत्ति - ख़ज़ाना लूटने के नाम पर, अधिकार - क्षेत्र बढ़ाने के नाम पर । हम केवल 25 सालों के लिए संघर्ष की बजाय अगर भाई-भाई और सच्चाई से मोहब्बत करना शुरू कर दें तो हमारी इस सारी दुनिया का कायाकल्प हो जाए। दुनिया को आपस में जोड़ने के लिए ही विभिन्न धर्मों का जन्म हुआ । धर्मों ने दुनिया को जोड़ा भी होगा, लेकिन धर्म के नाम पर दिए गए उपदेश जब आग्रह और दुराग्रह का रूप ले बैठे तो धर्म ने इंसानियत को तोड़ने का काम शुरू कर दिया। जो धर्म पाँव की पायजेब था वह बेड़ी बन गया। जो हाथों का चिराग था वह हाथों की हथकड़ी बन गया। आज ज़रूरत किसी नए धर्म की नहीं है बल्कि आपस में टूटे हुए इन धर्मों को जोड़ने की है । आज ज़रूरत उस धागे की है जो मानवता के फटे हुए वेश को आपस में साँध सके, जोड़ सके, इंसानियत के लिए अपना स्वरूप उपयोगी बना सके 28 | For Personal & Private Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हमारे देश की गुप्तचर एजेंसी को सीआईडी कहते हैं। मैं सीआईडी को धर्मों को जोड़ने के लिए उपयोग करूँगा। हमारे देश के तीन मुख्य त्यौहार हैं-क्रिसमिस, ईद और दिवाली। सी फॉर क्रिसमिस, आई से जुड़ी है ईद और डी से बनेगा दिवाली। क्रिसमिस, ईद और दिवाली-इसी का शॉर्टफॉर्म बनासीआईडी। जोड़ने का दृष्टिकोण होगा, तो वैसे सकारात्मक पहलू मिल जाएँगे, तोड़ने का दृष्टिकोण रखोगे, तो वैसे नकारात्मक पहलू मिल जाएँगे। इंसान के पास दर्जी की तरह कैंची और सुई-धागा दोनों ही हैं। जिनके पास सकारात्मक दृष्टिकोण है वे सुई-धागे का काम करेंगे, जिनके पास नकारात्मक दृष्टिकोण है वे कैंची चलाने का काम करेंगे। बस, इतना-सा ध्यान रखो कि कैंची काटती है, सुई-धागा जोड़ती है। यह आप सोचिए कि इंसानियत की भलाई परस्पर काटने में है, या कटे-फटे टुकड़ों को जोड़ने में है। हम लोग हिन्दु-मुस्लिम के नाम पर, रामनवमी-ताजिये के नाम पर आपस में गलियों को बाँटते फिरते हैं। अरे, कहीं इन कबूतरों को तो देखो जो कभी मंदिरों पर भी सैर कर आते हैं, तो कभी मस्जिदों पर भी गूटरगूं कर लेते हैं। मुसलमान का अर्थ है : एक में है ईमान, वह है मुसलमान। अब इसमें क्या फ़र्क पड़ता है कि हमने मालिक को ईश्वर का नाम दिया या अल्लाह का। ईश्वर हिंदी का शब्द है, अल्लाह उर्दू का शब्द और गॉड इंग्लिश का, पर अर्थ और संकेत तो तीनों का एक ही है। जैन शब्द का अर्थ है जीतने वाला। जो औरों के दिलों को जीत ले, उसी को जैन कहते हैं। भाई! अच्छा नज़रिया रखोगे, तो सचमुच तुम औरों के दिलों को जीतने में सफल हो जाओगे। बाकी ३६ का आँकड़ा काम का नहीं है। ३६ को उल्टा करो। इन्हें या तो ३३ बनाओ या ६६। भगवान महावीर ने कभी अनेकान्त का सिद्धान्त देकर मानवता को यह समझाने की कोशिश की थी कि तुम अपनी बात प्रेम से कहो, बेझिझक, पर अपनी ही बात सच है इस 'ही' के दुराग्रह को हटा दें और 'ही' के स्थान पर 'भी' को ले आएँ। ऐसा करने से आपकी बात में भी सच्चाई की संभावना नज़र आएगी और दूसरों की बातों में छिपी सच्चाई की सुगन्ध भी आपको अहसास होगी। मुझे जब-जब भी मौका मिला है मैंने हर धर्म सभा में इंसानियत को आपस में जुड़ने की प्रेरणा दी है। टूटे हुए भाइयों और परिवारों को साथ-साथ | 29 For Personal & Private Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेम से रहने का पाठ पढ़ाया है। हमने ईंट-पत्थर के मंदिर तो कम बनाए हैं, पर घर-घर को मंदिर अवश्य बनाया है, हज़ारों घरों को मंदिर-सा सुन्दर बनाया है। मेरा मानना है जो समाज को जोड़े उसी को संत कहते हैं और जो इंसानों को आपस में तोड़े मानवता के मंदिर में वही शैतान होता है। भाई! हम लोग संत बनें, शैतान नहीं। शैतान विध्वंश करता है, संत सृजन करता है। मैं तो प्रेम का पाठ पढ़ाता हूँ जहाँ भी रहता हूँ उस हर वातावरण में प्रेम का रस घोलता हूँ। हमारी बातें लोगों के जेहन में इसलिए जल्दी से उतर जाती हैं क्योंकि उनमें प्रेम, शांति और भाईचारे की मिठास होती है। मैं न तो कोई बहुत बड़ा विद्वान हूँ और न ही कोई बहुत बड़ा पंडित। मैं तो केवल प्रेम का पाठ पढ़ाता हूँ। आप लोगों से प्रेम करता हूँ, सो एक कल्याण-मित्र बनकर आपको प्रेमपूर्वक जीने का पाठ पढ़ा देता हूँ। मैं तो कहूँगा कि आप केवल अपने परिजनों और गैर इंसानों से ही प्रेम-मोहब्बत न करें, बल्कि पशु-पक्षियों से भी प्रकृति की कला कृतियों से भी प्रेम करें, सूरज-चाँद और सितारों से प्रेम करें। अरे, मैं तो कहूँगा कि अपने आलोचकों और दुश्मनों से भी प्रेम करें। जिस दिन भी हम अपने शत्रु से भी प्रेम करने लग जाएँगे तो समझ लेना कि आपका प्रेम साधारण प्रेम न रहा, उसकी अस्मिता असाधारण हो गई। आप डिवाईन लव के मालिक हो गए। हम सोचें ऐसी बातें जिन बातों में हो दम। दुश्मन से भी हम प्यार करें, दुश्मनी हो जिससे कम॥ जिस घर में तूने जनम लिया, वो मंदिर है तेरा। प्रभु की मूरत हैं मात-पिता, उनसे न जुदा हों हम॥ भाई-भाई की ताक़त है, भाई से कैसा बैर, माफ़ी माँगें और गले मिलें, इसमें क्यों रखें शरम॥ महाभारत हमने खूब लड़ा, और खूब लड़े हम-तुम। वो राम-लखन का प्रेम त्याग, क्या अपना नहीं धरम॥ दुनिया में ऐसा कौन भला, जो दूध से धुला हुआ। कमियाँ तो हर इंसान में, फिर क्यों न रखें संयम॥ हमसे सबको सम्मान मिले, सबको ही बाँटें प्यार। बोलें तो पहले हम तौले, मिश्री घोलें हरदम॥ 30 | For Personal & Private Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्थर से ऐसा करें मधुरम् । मधुरम् ॥ काँटों में से ही फूल खिले, और हम भी तो अपने जीवन में, कुछ अधरं मधुरं नयनं मधुरम्, हृदयं कर लो चन्द्रं मधुरं ललितं मधुरं जीवन कर लो हमें उन बातों पर विचार करना चाहिए जो बातें हमारे वैर-विरोध को कम करती हों, कैंची का नहीं, बल्कि सूई-धागे का काम करती हों । महाभारत अब तक ख़ूब लड़ लिया । महाभारत से भारत का भला नहीं होने वाला। शकुनि और मंथराएँ तो हमारे घरों को तोड़ेंगी ही, उजाड़ेंगी ही । हमें केवल राम-लक्ष्मण-सीता की पूजा ही नहीं करनी है, बल्कि राम-लक्ष्मण, भरत के प्रेम, त्याग और मर्यादा को भी जीवन में जीना है । केवल पूजा करना सान्त्वना पुरस्कार है और आदर्शों को जीवन में जीना सच्चा अध्यात्म है। हम लोग प्रेम के उपासक बनें जिनके प्रति वैर-विरोध की गाँठें हैं उन्हें खोलें, क्षमा माँगें या क्षमा करें और फिर से अपने टूटे हुए रिश्तों में मिठास का अमृत घोलें । आज-कल अपन लोगों पर व्यक्तिवाद का प्रभाव बढ़ रहा है। एक माता-पिता की अगर तीन संतानें हैं तो तीनों ही स्वतंत्र रहना पसंद करती हैं। जिन्होंने जन्म दिया, पाला-पोसा बड़ा किया, लोग उनके प्रति अपने दायित्वों से विमुख होते जा रहे हैं। वे संतानें पुण्यशाली हैं जो अपने माता-पिता की सेवा और दायित्व जिम्मेदारी के साथ संभाले हुए हैं। किसी भी व्यक्ति के लिए संन्यासी होना आसान हो सकता है, पर श्रवणकुमार होना कठिन है। मातापिता की सेवा स्वयं ही अपने आप में एक तपस्या है, त्याग है, व्रत है, अनुष्ठान है। महावीर और अरिहंत बाद में बनना, पहले राम और श्रवणकुमार तो बन जाओ। यदि हम माता-पिता से जुड़े अपने कर्तव्यों से विमुख हो जाते हैं तो इसका अर्थ यह हुआ कि हम अपने पर चढ़े मातृ-ऋण और पितृ ऋण से उऋण हुए बग़ैर ही जिए और उऋण हुए बग़ैर ही मरे । पानी । करम ॥ प्रेम को अगर जीना है तो प्रेम की पहली प्रेरणा है : तुम अपने स्वजनों से, परिजनों से प्रेम करो। सास-बहू से, बहू - सास से प्रेम करे। सास बहू में बेटी का, बेटी सास में माँ का रूप निहारे । अब तुम्हारी कोई ससुराल गई बेटी तो तुम्हें संभालने के लिए बार-बार आने से रही । बहू को ही बेटी बना लो, ताकि तुम उसके सुख-दुख का ख़्याल रख सको और वह तुम्हारे सुख-दुख का । मैं For Personal & Private Use Only | 31 Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - I अपनी छोटी बहिनों से कहूँगा सास-ससुर पद पंकज पूजा या सम नारी धर्म नहीं दूजा, सास-ससुर की सेवा प्रभु की पूजा है, सास-ससुर का सम्मान आपके अपने कुल और धर्म का सम्मान है । यह सास ही आपकी वह देवी है, जिसकी कोख में आपका सुहाग पला है । जैसे आप अपने सुहाग की रक्षा के लिए करवा चौथ का व्रत रखती हैं, ऐसे ही जिनकी कोख में आपका सुहाग पला है, जिन्होंने आपके सुहाग को पाल-पोसकर बड़ा किया है, उनकी सेवा करना, उनकी इज़्ज़त करना आप अपने लिए व्रत ही समझें । I हमने देखा : एक महिला हमारे पास आई और कहने लगी- गुरुजी ! थोड़ा पानी मिलेगा ? हमने कहा - अवश्य । उसने दो बाल्टी पानी लिया और हमारे स्थान के बाहर जाकर एक बूढ़ी माँजी के कपड़े बदलने लगी। उसके कपड़े गंदे हो गए थे। उसने कपड़े बदले और गंदे कपड़े धोने लगी । उसने बताया कि माँजी की तबियत ठीक नहीं है । उन्हें दस्त लग जाती है, उन्हें पता भी नहीं चलता । उस बहिन को माँजी की तबियत से सेवा करते हुए देख हमने पूछा - बहिन ! क्या यह आपकी माँ है ? उसने कहा - माँ से भी बढ़कर है । हमने पूछा- माँ से बढ़कर से मतलब ? कहने लगी- यही वह देवी है जिसकी कोख से मेरा सुहाग पला है । हमने बहिन के नज़रिये को साधुवाद दिया। क्या आप अपनी सास के लिए, अपने ससुर के लिए ऐसा कोई सकारात्मक दृष्टिकोण बना सकती हैं ? जब हम प्रेम की बात कर रहे हैं तो प्रेम की पहली अनिवार्यता है कि आप एक-दो-पाँच जितने भाई हैं, उन भाइयों में परस्पर प्रेम हो । एक भाई के दो हाथ होते हैं, दूसरे भाई के भी दो हाथ होते हैं, अगर दो भाइयों में प्रेम हो तो उनके चार हाथ महज चार हाथ नहीं होते, बल्कि उनके चार हाथ चारभुजा नाथ हो जाया करते हैं। भाई अगर जुदे - जुदे हों तो एक और एक दो होते हैं, पर दो भाई साथ हों, सुख दुख में सहयोगी हों, तो वही दो भाई एक और एक ग्यारह हो जाया करते हैं। अगर दो भाई आपस में बोलबर्ताव भी न करते हों तो भले ही एक छत के नीचे क्यों न रहते हों उनका घर-घर नहीं रहता, श्मशान और कब्रिस्तान बन जाया करता है । जैसे कमरों में लोग रहते हैं ऐसे ही कब्रों में भी लोग रहते हैं, पर कब्रों में रहने वाले लोग आपस में बोलते नहीं, एकदूसरे के काम आते नहीं । अगर यही हालत कमरों में रहने वाले लोगों की है तो फिर सोचो कि कमरों में और कब्रों में फ़र्क़ ही क्या रह जाता है ! 32 घर को कैसे स्वर्ग बनाएं - 2 For Personal & Private Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कब्रिस्तान बन जाया करता है। जैसे कमरों में लोग रहते हैं ऐसे ही कब्रों में भी लोग रहते हैं, पर कब्रों में रहने वाले लोग आपस में बोलते नहीं, एक-दूसरे के काम आते नहीं। अगर यही हालत कमरों में रहने वाले लोगों की है तो फिर सोचो कि कमरों में और कब्रों में फ़र्क ही क्या रह जाता है ! भाई-भाई के बीच प्रेम हो । लोग ईद के दिन गले मिलते हैं, भाईचारा को गले लगाते हैं। मैं तो कहूँगा - आप रोज सुबह उठकर भाई-भाई गले मिला करो। अगर रोज मिलते शर्म आती हो तो होली-दिवाली, जन्मदिन - उस दिन तो अवश्य गले मिला करो। भाईचारे का पैग़ाम आम इंसान के लिए है, पर उसकी शुरुआत घर से हो, भाई-भाई को गले लगाने से हो। हम भाई-भाई बहुत प्यार से रहते हैं, एक-दूसरे की बहुत इज़्ज़त करते हैं। भाईचारा कोई उपदेश देने के लिए नहीं है, जीने के लिए है। आप इसी शहर की घटना लीजिए - जोधपुर की। ऑल इंडिया शेयर मार्केट के चेयरमैन रहे हैं - आनन्द जी राठी। बड़े अच्छे सज्जन पुरुष हैं। नींव से शिखर तक पहुँचे हैं। उन्होंने अपनी नई कोठी बनाई। गृह-प्रवेश का कार्यक्रम था। बड़ा आयोजन रखा था। गृह-प्रवेश में सम्मिलित होने के लिए उनका छोटा भाई सुरेश जी राठी मुम्बई से जोधपुर आए। सुरेश जी इज दा ग्रेट मैन । बड़े अच्छे व्यक्तित्व हैं। हमारे विचार और साहित्य को जन-जन में फैलाने में इनकी बड़ी उल्लेखनीय भूमिका है। सुरेश जी बड़े भाई के गृहप्रवेश में शामिल होने आए। कोठी देखी, उन्हें बड़ी पसंद आई। छोटे भाई ने बड़े भाई आनंद जी से कहा - भाई साहब! मकान बड़ा जोरदार बनाया। मेरा तो मकान पर जी लुभा गया है। बड़े भाई ने जैसे ही छोटे की ऐसी सकारात्मक टिप्पणी सुनी, तो बड़े भाई वापस गृह-द्वार पर आये। जिस चाबी से गृह-प्रवेश के समय ताला खोला, उससे चाबी का झूमका निकाला और छोटे भाई के हाथ में थमाते हुए कहा - सुरेश! अगर तुझे ये मकान पसंद आ गया तो ले यह मकान तुझे ही दिया। छोटे ने कहा - अरे, मैंने तो भाई साहब केवल मज़ाक किया था।आप तो....! आनंदजी ने कहा - कोठी में तू रहे या मैं रहूँ, इससे क्या फ़र्क पड़ता है। आज से यह तेरा हुआ। इसे कहते हैं भाई-भाई का प्रेम । सुरेश जी आज भी उसी मकान में रहते | 33 For Personal & Private Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरत-शत्रुघ्न भी बराबर भोगे। भाई-भाई का मतलब है : सुख में भी साथ, दुःख में भी साथ। घर में पति-पत्नी भी प्रेम से रहें। एक-दूसरे परस्पर मनोविनोद भले ही करें, पर तल्ख टिप्पणियाँ न करें। पति-पत्नी दोनों ही एक-दूसरे का सम्मान करें। दोनों ही एक-दूसरे की जवाबदारी निभाएँ, एक-दूसरे की देखभाल करें। पति को परमेश्वर का दूसरा रूप माना गया है, पत्नी पति की इज़्ज़त करे, पर जितना ज़रूरी यह है उतना ही जरूरी यह भी है कि पति भी पत्नी की पूरी सार-सम्हाल रखे। दोनों एक-दूसरे पर विश्वास रखे। शंका-संदेह आपस में दूरी बढ़ाते हैं, तकरार करवाते हैं। भाई! तकरार करके कहाँ जाओगे! आजकल तो पहली भी मुश्किल से मिलती है, अगर तकरार करोगे, तो सावधान ! ढूँढे भी दूसरी नहीं मिलने वाली। अब ज़रा पति-पत्नी की टिप्पणियाँ सुनो तो सही। एक पत्नी अपने पति से बोली-क्या आप सचमुच मुझे बहुत प्यार करते हैं? पति ने जवाब दिया-हाँ! पत्नी बोली-अगर मैं मर जाऊँ तो क्या आप रोएँगे? पति ने फिर जवाब दिया- हाँ! पत्नी ने कहा-मुझे रोकर बताइए, आप कितना रोएँगे? पति ने झट से कहा-पहले तुम मरकर तो दिखाओ। इसी तरह तलाक के मुकदमे में संतासिंह ने पत्नी पर आरोप लगाते हुए कहा-'जज साहब! मेरी इच्छा थी कि मैं लड़के का पिता बनूँ, पर इसने मुझे लड़की का पिता बना दिया।' पत्नी गुस्से में बोली-यह तो मेरा अहसान मानो। तुम्हारे भरोसे तो लड़की भी नहीं होती। एक पतिदेव गर्मी से परेशान होकर गंजे हो गए। सारे बाल कटवा लिए, उस्तरा फिरवा लिया। पत्नी ने इस हालत में देखा, तो चौंककर बोली-हे भगवान! आपने सिर के सारे बाल साफ क्यों करवा लिए? पति ने जवाब दिया-देवीजी! आजकल शहर में सफाई अभियान चल रहा है। कृपया एक-दूसरे पर छींटाकसी मत करो। भगवान ने आपकी जोड़ी बिठाई है तो इसे प्यार से जिओ। एक-दूसरे की इज़्ज़त करो, विनम्र भाषा बोलो, एक-दूसरे की सार-सम्हाल करो और दूसरे की पीड़ा को अपनी पीड़ा समझो–यही चार सूत्र हैं जिनसे पति-पत्नी का रिश्ता स्वर्ग का सुकून दे सकता है। 34 || For Personal & Private Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेम को जीने के लिए दूसरी बात : स्वधर्मी से प्रेम करो, उनका सहयोग करो। अग्रवाल अग्रवाल बंधुओं के लिए करें । ओसवाल ओसवालों के लिए करें। आप अगर समर्थ हैं तो अपने समाज के ज़रूरतमंद भाइयों को ऊँचा उठाने के लिए सहयोग करें। माथुर जी ने अपने माथुर भाइयों को ऊँचा उठाने के लिए पूरा शास्त्री नगर माथुरों के नाम अलॉट कर दिया । स्वरूप कौन-सा होगा, यह आप जानें, पर अपनी जात वालों के लिए, अपने समाज के लिए, अपने सहधर्मी के लिए अवश्य करें। जैसे : पाठ्य पुस्तकें दो, छात्रवृत्ति दो, ऊँचे स्तर की पढ़ाई करवाओ, अपने समाज में आर.एस., आई.ए.एस. तैयार करो । विधवाओं, वृद्धों के लिए हैल्प करो । प्रेम को जीने को तीसरा चरण है : ग़ैरों से प्रेम करो। उनसे प्रेम करो जिनका दुनिया में कोई नहीं है । जिनसे आपका कोई संबंध या स्वार्थ नहीं है, फिर भी आप उसकी मदद कर रहे हैं, तो यह इंसानियत की सेवा हुई, मानवता की सेवा हुई । मनुष्य होकर मनुष्य के काम आना इससे बड़ा कोई धर्म नहीं है । किसी के अनजान अपरिचित होने के बावज़ूद भूखे को रोटी खिलाना, प्यासे को पानी पिलाना यह सबसे बड़ा धर्म है। हमारे अपने ही शहर में एक सज्जन हुए थे - माणकजी संचेती । बड़े अच्छे मार्वलस आदमी । अपने संपन्न सहधर्मी भाइयों से सहयोग लेकर उन लोगों की वे मदद किया करते थे जो विपन्न और अभावग्रस्त थे । प्रतिमाह 700 परिवारों के भरण-पोषण का वे प्रबंध करते थे । सचमुच यह सब दैवीय कार्य है । इसी तरह सुशीला जी बोहरा हैं। देवी महिला हैं । पति गुजर गए : पति का अभाव खलने लगा। दूसरी शादी की नहीं । उन्होंने अपने आपको मानव सेवा के कार्य में लगा दिया। आज वे जोधपुर में 500 नेत्रहीन विद्यार्थियों के भरणपोषण और पढ़ाई-लिखाई की ज़वाबदारी निभा रही हैं । इसी तरह भगवानसिंह जी परिहार लवकुश आश्रम के माध्यम से अनाथ बच्चों को पाल रहे हैं, संत पुरुष हैं। आशुलाल जी वडेरा आस्था के जरिये प्रतिदिन 2 हजार मरीजों के लिए भोजन का प्रबंध करते थे, राजकुमार जी भंडारी 'दिव्य लोक' के जरिए विधवा माताओं के लिए संबल बने हुए हैं। इनके नाम मैं इसलिए ले रहा हूँ ताकि आप भी प्रेरणा ले सकें और यथाशक्ति आप भी इंसानियत के पुजारी बन सकें। लायन्स क्लब, रोटरी क्लब, महावीर इंटरनेशनल, भारत विकास परिषद For Personal & Private Use Only 35 Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैसी संस्थाओं के जरिये भी आप अपनी सेवाएँ, जरूरतमंद लोगों तक पहुँचा सकते हैं। हम छात्र-छात्राओं के लिए प्रतिवर्ष आधे लागत मूल्य पर कॉपीरजिस्टर उपलब्ध करवाते हैं, गरीबों और ज़रूरतमंद लोगों को हार्ट, किडनी, कैंसर, डायलासिस कवाने के लिए दवाइयों में 40 प्रतिशत की राहत दिलवाते हैं। मार्ग कोई भी अपनाया जा सकता है, जो आपके समझ में आए। इंसानियत की सेवा को मैं तो ईश्वर की ही सेवा मानता हूँ। प्रेम को जीने का अंतिम चरण है : उस प्रभु से प्रेम करो जो सबका पालनहार है। सबका मालिक एक। जो सबका मालिक है, उसे सदा याद रखो, दिल में बसाकर रखो। गीता की घोषणा है : योग-क्षेमं वहाम्यहम्। वह हमारे समस्त कुशल-क्षेम का संवाहक है। ईश्वर से अगर प्रेम करना है तो प्राणीमात्र से प्रेम करो, किसी की हिंसा मत करो-अहिंसा परमो धर्मः । लिव एंड लेट लिव-खुद भी सुख से जिओ और दूसरों को भी जीने का अधिकार दो। न केवल अधिकार दो, अपितु उनकी मदद भी करो। यही धर्म है, यही सारसंदेश है। 36 | For Personal & Private Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Amma - m कैसे सँवारें बच्चों का भविष्य प्रत्येक व्यक्ति के जीवन के तीन महत्त्वपूर्ण पड़ाव होते हैं-(1) बचपन, (2) यौवन और (3) बुढ़ापा। बचपन ज्ञानार्जन के लिए है, यौवन धनार्जन के लिए है और बुढ़ापा पुण्यार्जन के लिए है। जिसने अपने बचपन में पर्याप्त ज्ञानार्जन किया है उसके भावी जीवन की नींव मज़बूत हो जाती है। जिसने युवावस्था में धन और सम्पदा अर्जित कर ली है, उसका बुढ़ापा सुखी हो जाता है और जिसने बुढ़ापे में पुण्यपथ पर चलकर पुण्य का अर्जन किया है, उसका परलोक सुधर जाता है। जिनके पास आज केवल बुढ़ापा बचा है, वे वृद्ध और बुजुर्ग अब अपने बचपन को तो नहीं सुधार सकते, किन्तु अपने घर के पोते-पोती, नाती-नातिन को तो अवश्य ही संस्कारित कर सकते हैं। परिवार में बालक का जन्म गणपति-वंदना जैसा है और उसकी एक किलकारी घर को, बगीचे में चहचहाने वाली चिड़िया जैसा आनंद देती है। जिस घर में बच्चे नहीं होते वहाँ शांति तो रह सकती है, पर किलकारियों का आनन्द नहीं मिल पाता। बच्चों के जन्म पर 37 For Personal & Private Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनाया जाने वाला उत्सव, उनके होने से ही घर को आनन्दित कर देता है। घर में जन्मा एक बच्चा भी घर को आनंदमय-स्वर्गमय बना देता है। बालक तो परिवार की आत्मा है। वह समाज का मेरुदण्ड है। बालक विश्व की सबसे छोटी किन्तु सबसे महत्त्वपूर्ण इकाई है। जो लोग अपने जीवन में, बाल-सुलभता रखते हैं वे भले ही बूढ़े ही क्यों न हो जाएँ, बच्चे ही बने रहते हैं। प्रभु यीशू ने कहा था, 'भगवान के राज्य में वे ही प्रवेश पा सकते हैं, जो अपने स्वभाव को बालक जैसा बनाए रखते हैं।' यह इसलिए कहा कि बच्चों में जो सहजता, सरलता, निश्छलता, दूसरों के काम आने की सहभागिता होती है और जो जज़्बा, जिज्ञासा, समर्पण और सद्भाव होता है, वह दूसरों के पास नहीं होता। स्मरण रखें, बच्चा होना कल्याणकारी है, लेकिन बचकानापन बेवकूफी है। स्वभाव में मासूमियत सुकून की बात है, लेकिन बचकानापन मूढ़ता और मूर्खता का पर्याय है। बच्चे तो आने वाले कल के भविष्य हैं। वे भविष्य के निर्माता हैं। वे भारत के भाग्यविधाता हैं। हम क्यों भूल जाते हैं कि मंदिरों में हम जिस भगवान की पूजा करते हैं वह तो मूल रूप से बच्चों में ही विद्यमान होता है। जन्माष्टमी को हम भगवान कृष्ण का जन्मोत्सव मनाते हैं। शायद संसार में कृष्ण ही एक ऐसे भगवत्पुरुष हैं जिनके बालगोपाल रूप की पूजा होती है। कृष्ण बालरूप में ही सबको लुभाते हैं। बड़े होने पर तो वे राजनीति और कर्मनीति के रास्ते अपनाते हैं, पर कृष्ण का बालरूप लीलाधर की लीला है। पर्युषण के दिनों में भगवान महावीर का जन्मवाचन होता है। उस दिन लाखों लोग महावीर का पालना झुलाते हैं। क्यों? क्योंकि बालरूप मनोहारी है। ऐसे ही भगवान राम का बालरूप मन को लुभाता है। बालरूप आह्लादकारी है। वह हमें अधिक रिझाता है। हमारा अपना बच्चा भी बीस वर्ष की आयु में हमें उतना आनन्दित नहीं करता, जितना आठ वर्ष की आयु में करता था। नचिकेता, ध्रुव, प्रह्लाद और अतिमुक्त जैसे बच्चों ने तो मात्र आठ-दस वर्ष की आयु में ही ईश्वरत्व को उपलब्ध कर लिया था। __अगर कोई बालक अपने जीवन में कुछ कर गुजरने का संकल्प ले ले तो उसकी गरीबी या माता-पिता का न होना भी उसकी राह नहीं रोक सकता। बुधिया जैसा बालक भी 65 किमी. की लम्बी दौड़ लगाकर विश्व में अपना 38 । For Personal & Private Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीर्तिमान स्थापित कर सकता है । चिंगारी भले ही तुच्छ होती है, लेकिन वही दावानल का रूप भी धारण कर सकती है। छोटा घाव भी नासूर बन सकता है। बीज छोटा होता है लेकिन जमीन में उतर जाने पर वही विशाल वृक्ष बन जाता है। अणु और परमाणु जब विध्वंसक रूप अख्तियार कर लेते हैं तो हिरोशिमा और नागासाकी को ध्वस्त करने में सफल हो जाते हैं। शिवाजी ने मात्र 16वर्ष की आयु में अपनी ज़िंदगी का पहला किला फ़तह कर लिया था और अकबर ने मात्र 13 वर्ष की आयु में सम्राट् पद पा लिया था। बालक सचमुच तभी तक बालक है जब तक उसके भीतर कुछ कर गुजरने का जज्बा पैदा नहीं हो जाता। जज़्बा पैदा हो जाए तो याद रखो आग सबके भीतर छिपी है। बस उसे जगाने की ज़रूरत है । आपके भीतर जब तक कुछ कर पाने का हौंसला जाग्रत नहीं हो जाता तब तक आप पचपन के होकर भी बचपन में ही होते हैं। उम्र से कभी व्यक्ति का मूल्यांकन नहीं किया जा सकता। उसके कर्म, गुण, महानता, भीतरी विश्वास ही उसे आगे बढ़ाते हैं । आज के दौर में बालकों की बुद्धि इतनी प्रखर, तर्कयुक्त, वैज्ञानिक और इतनी विकासशील है कि पिछले पच्चीस सौ वर्षों में जितना विकास हुआ होगा, उससे सौ गुना ज्यादा विकास वर्तमान पीढ़ी के पास है । आज बारह वर्ष का बच्चा भी आपको सलाह देने में समर्थ है। उसका मस्तिष्क कम्प्यूटराइज्ड है । उसे तो जन्म से ही ऐसा वातावरण मिल जाता है कि आपने जो चौदह वर्ष की आयु में जाना, वह उसे चार साल की आयु में ही जान लेता है। समय बदल गया है । हम अपनी वर्तमान पीढ़ी पर गौरव कर सकते हैं कि वह बदले हुए जमाने के साथ क़दम मिलाकर चलने में सक्षम है। आज की पीढ़ी ज़बर्दस्त प्रतिभाशाली है, वह नित - नवीन शिक्षा, समृद्धि और सफलता की ओर बढ़ रही है । हम जिस युग में पैदा हुए हैं हमारे लिए वही श्रेष्ठ है । वर्तमान में रहकर अतीत की दुहाई देने से काम न चलेगा। राम का समय महान् होगा, महावीर का समय श्रेष्ठ और बेहतर रहा होगा, पर हमारे लिए तो यही युग बेहतर है, जिस युग में हमारा जन्म हुआ है। कुछ दशकों पूर्व तक तो कन्याओं को शिक्षा से वंचित रखा जाता था। सातवीं-आठवीं कक्षा तक पढ़ लीं तो बहुत हो गया, लेकिन आज कन्याएँ आकाश के क्षितिज छू रही हैं, हर क्षेत्र में पुरुषों की हम 39 For Personal & Private Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क़दम होकर नए-नए कीर्तिमान रच रही हैं। विकास की तेज दौड़ में हर व्यक्ति सुख और समृद्धि की ओर बढ़ रहा है। विज्ञान ने बहुत तरक्क़ी की है और उसका प्रभाव हमें अपने रोज़मर्रा के जीवन में भी दिखाई देता है। पर मैं बच्चों को एक बात के लिए सावधान करना चाहूँगा माना कि धन-दौलत, सुख-साधन बहुत हो गए हैं लेकिन कुछ घट गया है तो वह है बच्चों के संस्कार, जीवन के सांस्कृतिक और मानवीय मूल्य। मकान तो बड़े होते जा रहे हैं लेकिन उनमें रहने वाले लोग बहुत छोटे हो गए हैं। बच्चों का वैज्ञानिक और भौतिक विकास तो खूब हुआ है पर पारिवारिक मूल्य क्षीण हो गए हैं। अगर किसी बच्चे को यह कहें कि सुबह उठकर अपने माता-पिता के पैर छुआ करो तो उसे ऐसा करते हुए शर्म आ जाएगी, झिझक लगेगी। अरे भाई, जो व्यक्ति अपने माँ-बाप को प्रणाम करने में संकोच करेगा, उसे फिर अपनी बीवी के ही पाँव छूने पड़ेंगे। जीवन में सबसे बड़ी भूमिका ही माता-पिता की है। वे ही सर्जक हैं, वे ही पालनहार हैं और वे ही उद्धारक हैं। उसको नहीं देखा हमने कभी पर उसकी ज़रूरत क्या होगी? हे मां, तेरी सूरत से अलग, भगवान की सूरत क्या होगी? धरती का भगवान तो घर-घर में है, हमारे अपने ही माता-पिता के रूप में हैं। कृपया अपने माता-पिता की इज्जत कीजिए, श्रवणकुमार को सदा अपनी आँखों में रखिए और अपने कर्त्तव्य पूरे कीजिए। ज़्यादा न सही, पर उतने वर्ष तो माता-पिता के ज़रूर काम आ जाएँ, जितने वर्ष वे हमारे काम आए। पहले घरों के बाहर लिखा रहता था, 'अतिथि देवो भव।' बाद में वक़्त बदला। लोग लिखने लगे-'स्वागतम्', 'वेलकम' और अब लिखा मिलता है- 'कुत्ते से सावधान।' हमारे संस्कारों को यह क्या हो गया है ? एक पिता ने सोचा कि मुझे यह जान लेना चाहिए कि मेरा बेटा बड़ा होकर क्या बनेगा? उसने चार साधन अपनाए। एक तरफ शराब की प्याली रखी, दूसरी तरफ कलम रखी, तीसरी ओर रामायण-गीता रखी और चौथी 40 | For Personal & Private Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओर किसी अभिनेत्री का फोटो रखा । चारों चीज़ें एक पलंग पर रख दीं और अपने पुत्र से कहा, 'जा बेटा, जो तुझे पसंद हो वह तू ले आ ।' बेटा गया, उसने चारों चीज़ों को ध्यान से देखा । फिर सबसे पहले उसने प्याली उठाई और पी गया। पास में देखा कि अभिनेत्री का फोटो है- उसे उठाया और जेब में रख लिया। कलम भी जेब के हवाले कर दी और रामायण और गीता के गुटके हाथ में उठाकर चला गया । पिता ने देखा और जान लिया कि यह तो बड़ा होकर नेता ही बनेगा । नेता पीते भी हैं, जरूरत पड़ने पर रामायण और गीता का उपयोग भी कर लेते हैं, अभिनेत्रियों को भी इकट्ठा कर लेते हैं और कलम भी झूठी - सच्ची चलाते रहते हैं । आज बच्चों की जो नई पौध तैयार हो रही है वह कुछ इसी प्रकार की है। मैं इन तैयार होती हुई कोंपलों को कुछ ऐसे कर्त्तव्य और फ़र्ज़ निवेदन कर रहा हूँ जिससे वे अपना भावी जीवन सुधार सकें, सँवार सकें। कुछ कर्त्तव्य और फ़र्ज़ बड़ों से भी निवेदन करूँगा ताकि दोनों पीढ़ियाँ एक-दूसरे के नज़दीक आ सकें । आज बच्चों और बुजुर्गों में जो वैचारिक और व्यावहारिक दूरियाँ आ गई हैं उन्हें दूर करना पहली आवश्यकता है। दोनों ही जब अपने कर्त्तव्यों के प्रति गम्भीर होंगे तभी वे आने वाले कल का बेहतर निर्माण कर सकेंगे। सबसे पहले बुजुर्गों को ही अपने कर्त्तव्य समझने चाहिए। बुजुर्ग अतीत के उपसंहार हैं और बच्चे वर्तमान की भूमिका हैं। बुजुर्ग अपने अनुभवों से बच्चों के जीवन में रोशनी घोलें और बच्चे बुजुर्गों को घर का बरगद समझकर उनकी छाया में ख़ुद को पल्लवित करें । निश्चय ही, पंछी को उड़ना तो है ही, आज़ादी का जश्न तो मनाना ही है । पर आज़ादी की ओर वह अपने क़दम बढ़ाने के पहले बुजुर्गों की छत्रछाया में इतने परिपक्व हो जाए कि कठिनाइयों से जूझना सीख सके, मुश्किलों से हार न खा बैठे। यहाँ अलगअलग स्कूलों से आए हुए बच्चे भी बैठे हैं अतः मैं बच्चों से भी कुछ बातें निवेदन करूँगा, पर पहले बुजुर्गों से । बुजुर्गों को मेरी नसीहत है कि वे अपने बच्चों को जितना परिपक्व कर सकते हैं, अवश्य करें। बच्चों को घर का गमला न बनाएँ कि एक दिन पानी न मिले तो वे सूख जाएँ। बच्चों को ऐसा पहाड़ी पौधा बनाएँ कि वे खुद अपने बलबूते पर अपने आपको खड़ा कर सकें । आज अगर कोई बच्चा ग़लत 41 For Personal & Private Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निकल जाता है, तो इसका मतलब है कि बच्चों के प्रति पिता लापरवाह रहा। पापा ने बच्चे की पूरी ट्रेनिंग नहीं दी। केवल हो-हल्ला करने से बच्चे नहीं सुधरते। बच्चों के साथ खुद को बच्चा बनना पड़ता है। बच्चों के गुरु ही नहीं, मित्र बनकर भी उनकी कोंपलों को, उनकी कलियों को पुष्पित करना होता है। बच्चे जहाज़ों की तरह होते हैं। जब तक वे किनारे पर रहते हैं, हमें उनकी निगरानी करनी पड़ती है पर जब वे समुद्र में उतर जाते हैं तो उन्हें खुद ही अपना ध्यान रखना होता है। बच्चों को अच्छी से अच्छी शिक्षा ज़रूर दिलाइए, पर उन्हें सदा इस बात की भी प्रेरणा देनी चाहिए कि वे अपने जीवन में ऐसा कुछ न करें जिससे उन्हें शर्मिंदा होना पड़े। भले ही आप अपने बच्चों के साथ रहें या अलग, पर जब भी बच्चों के पाँव लड़खड़ाएँ तो उन्हें सहारा देने के लिए हमें जरूर मौजूद रहना चाहिए। बच्चों के मन में यह विश्वास अवश्य रहे कि अब जब कभी हमारी आँखों में आँसू होंगे तो उन्हें पौंछने के लिए हमारे माता-पिता अवश्य हमारे पास होंगे। मैं एक खास प्रेरक प्रसंग का जिक्र करूँगा, जिसमें अमेरिकी नौ सेना का प्रमुख एडमिरल जापानी सेना से टक्कर लेने के लिए अपने बेड़े को प्रशांत महासागर में भेजता है। बेड़े के रवाना होने के बाद वह अपने बेडरूम में बैठा हुआ आराम से सुस्ता रहा होता है कि तभी रिपोर्टरों ने उससे पूछा कि वह ऐसे समय में आराम कैसे कर पा रहा है जबकि उसके सैनिक तो भीषण समुद्री युद्ध में जूझ रहे हैं। इस पर एडमिरल ने एक विजयी अंदाज़ में कहा कि मैंने अपनी क्षमता के अनुरूप अपने सैनिकों को बेहतरीन प्रशिक्षण दिया है। आधुनिकतम हथियार सौंपे हैं और हर हालात का सामना करने के लिए ज़रूरी हिदायत भी दी है। मैंने वह सब कुछ किया है जो मैं कर सकता था। मुझे अपने सैनिकों के लिए चिंता करने की ज़रूरत नहीं है। चिंता उन्हें करनी पड़ती है जिनकी ट्रेनिंग और टीचिंग कमजोर होती हैं। कुछ सीखने के लिए बड़े बुजुर्गों को यह घटना पर्याप्त है। बड़े लोगों को देखना चाहिए कि उनका बच्चा किसी ग़लत सोहबत के कारण दुर्व्यसन या ग़लत आदतों का शिकार तो नहीं हो गया है। अपने बच्चों को गलत लोगों से बचाएँ। ग़लत लोग और ग़लत आदतें जीवन में नरक का 42 For Personal & Private Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला द्वार हैं। ग़लत सोहबत किसी भी इन्सान को शैतान बनाने के लिए पर्याप्त है। ग़लत आदतें ग़लत सोहबत के कारण ही पडती हैं। जन्म से कोई बुरा नहीं होता और न ही उसमें दुर्व्यसन होते हैं। वह तो संगत का असर होता है। घर में कोई सिगरेट या शराब पी रहा है तो बच्चा कैसे अछूता रह सकता है? झूठ बोलना, चोरी करना, व्यभिचारिता, छेड़खानी करना इत्यादि सब दर्गण ग़लत सोहबत के कारण होते हैं। एक ग़लत सोहबत घर में कंटीले बबूल के बीज बोने के समान है। ये बीज हमारे घर के उपवन को जंगल और उजाड़ बना सकते हैं। बीज ऐसे बोए जाएँ जो हमें यश, गौरव और समृद्धि दे सकें। याद कीजिए महाभारतकालीन कौरवों और पांडवों को। कौरव और पांडव एक ही घर में पैदा हुए, लेकिन कौरवों को शकुनि की सोहबत मिलती है और पांडवों को कृष्ण की मित्रता मिलती है। शकुनि की सोहबत दुर्योधन और दुःशासन बनाती है और कृष्ण की सोहबत युधिष्ठिर और अर्जुन बनाती है। यदि दुर्योधन और दुःशासन को कृष्ण की सोहबत मिलती तो वे भी सुयोधन और सुशासन बनते और इतिहास कुछ और ही होता। आपको वह कहानी याद होगी जिसमें दो तोते होते हैं। एक तोता डाकुओं की संगत में तो दूसरा संत की कुटिया में रहता है। जब वे दोनों ही किसी बहेलिये के द्वारा पकड़ लिये जाते हैं तो एक ही आदमी द्वारा खरीद लिये जाते हैं। वह दोनों तोतों को एक ही पिंजरे में रखता है। सुबह होने पर एक तोता बोलता है 'लूटो-लूटो-लूटो' और दूसरा कहता है-'स्वागतम्-स्वागतम् मंगल प्रभातम्।' खरीददार आश्चर्य में पड़ जाता है कि एक ही बहेलिए से मैंने दोनों तोते खरीदे हैं लेकिन दोनों में कितना अंतर है। वह तफ्तीश करता है तो पता चलता है कि एक तोता डाकुओं के खेमे से आया है और दूसरा संत की कुटिया से। ___सोहबत ही सुधारती है और सोहबत ही बिगाड़ती है। इसलिए बुजुर्गों का दायित्व है कि वे ध्यान रखें कि उनके बच्चों की मित्रता कैसे लोगों से है ? वे कहाँ-कहाँ आते-जाते हैं। बुजुर्ग स्वयं बच्चों के मित्र बनें और उन्हें अच्छे मित्र तलाशने में मदद करें। ऐसा मित्र न बनाएँ जो सरोवर के किनारे आया, दाना-पानी चुगा और उड़ गया। मित्र ऐसा बनाओ जो जल में मछली की तरह साथ रहे। मूर्ख और ग़लत व्यक्ति को मित्र बनाने की बजाय अकेले रहना | 43 For Personal & Private Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज़्यादा श्रेष्ठ है। यदि आपको पता चलता है कि आपका बच्चा ग़लत लोगों की संगत में है तो कृपाकर उसे वहाँ से अलग कर लीजिए। अगर आपने उसे वहाँ से नहीं हटाया तो उसके भविष्य और परिवार के लिए आप ख़तरा पैदा कर रहे हैं। बुजुर्गों का दूसरा दायित्व है कि आप केवल उपदेशक ही न बनें, बल्कि अपने बच्चों के लिए आदर्श बनें। जैसा घर का माहौल होगा, जैसा घर का वातावरण होगा, बच्चा वैसा ही विकसित होगा। जो आप कहना चाहते हैं, वैसा करना शुरू कर दीजिए। गांधीजी ने देखा कि उनके पिताजी सिगरेट पीते हैं तो उनके मन में भी सिगरेट पीने की ललक पैदा हुई। इसलिए जब पिताजी ने सिगरेट पीकर जो टुकड़ा फेंक दिया उसे उठाकर उन्होंने एक कश लगाया। संयोग से ऊपर खड़े पिताजी ने उन्हें ऐसा करते देख लिया। वे तमतमाते हुए नीचे उतरे और उन्होंने गांधीजी की पिटाई कर दी। तब गांधी जी ने उनसे कहा-'आप भी तो सिगरेट पीते हैं।' ___आप झूठ बोलते हैं तो बच्चा भी झूठ बोलना सीखेगा। हम कितना भी कहें कि झूठ नहीं बोलना चाहिए, चोरी नहीं करनी चाहिए, सदा सच बोलना चाहिए लेकिन बच्चा प्रतिदिन देख रहा है कि पापा जब देखो तब झूठ बोलते रहते हैं और मुझसे अपेक्षा रखते हैं कि मैं झूठ न बोलूँ। आपका आचरण ही बच्चे के लिए सबसे बड़ा प्रभावी उपदेश है। ऐसा हुआ–फोन की घंटी बजी, बच्चे ने फोन उठाया तो दूसरी ओर से पूछा गया कि विष्णुगोपाल जी हैं! बच्चे ने पूछा-'सर आप कौन हैं ?' 'मैं रामगोपाल हूँ'- उत्तर मिला। बच्चे ने कहा-'सर, मैं देखकर बताता हूँ कि पापा हैं या नहीं।' बच्चा पापा के पास गया और उन्हें सारी बात बताई। पापाजी ने सोचा, 'अरे, यह वही रामगोपाल है जिससे मैंने दस हजार रुपए लिए थे, वापस मांगता होगा, और उन्होंने बेटे से कहा, 'कह दो पापा घर में नहीं हैं।' बेटे ने रिसीवर उठाया और कहा–'सर, पापा कह रहे हैं कि वे घर में नहीं हैं। जैसे ही पिताजी ने यह बात सुनी, उन्हें गुस्सा आ गया। वे तमतमा कर सीधे बच्चे को चांटा रसीद करते हुए बोले, 'बेवकूफ़, मैंने तुझसे क्या यह कहने को कहा था कि पापा कह रहे हैं कि पापा घर में नहीं हैं ?' अब बच्चे को इससे क्या प्रेरणा मिलेगी? वह तो देखेगा कि सच बोलने 44/ For Personal & Private Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर चाँटा मिलता है और झूठ बोलने पर शाबासी । परिणाम स्वरूप बच्चा अपने आप झूठ बोलना सीख जाता है । अगर आप चाहते हैं कि आपका बच्चा झूठ न बोले तो आप दिनभर बात-बेबात में झूठ बोलना, बहाने गढ़ना बंद कर दें। जॉर्ज वाशिंगटन ने लिखा है कि उन्होंने अपनी ज़िंदगी में कभी झूठ नहीं बोला । तब संवाददाताओं ने उनसे पूछा - ' आप एक राजनेता हैं और आपने कभी झूठ नहीं बोला, यह कैसे सम्भव है ?' उन्होंने बताया कि जब वे छोटे थे तो किसी बात पर माँ के सामने झूठ बोल गए थे । उनकी झूठ पकड़ी गई और माँ ने दो चांटे मारते हुए कहा था कि 'तुम जैसे झूठ बोलने वाले बेटे की माँ कहलाने की बजाय मैं बाँझ कहलाना ज़्यादा पसंद करूंगी'। तब जॉर्ज को प्रेरणा मिली कि झूठ बोलना माँ का अपमान करने के समान है। इसलिए मैं कभी झूठ नहीं बोला। जहाँ ऐसे आदर्श होते हैं वहाँ बच्चे अपने-आप सत्यवादी होते हैं, नैतिक और ईमानदार होते हैं । इसलिए बच्चों को झूठ, चोरी और दुर्व्यसनों से बचाए रखने के लिए स्वयं आप के लिए सत्यप्रिय, नैतिक और व्यसनमुक्त होना पहली अनिवार्यता है । तीसरी बात, अपने बच्चों को आज़ादी दीजिए लेकिन इतनी भी नहीं कि आपका उन पर अंकुश न रहे। बच्चों को लायक बनाएँ, पर सावधान ! उन्हें इतना लायक भी न बनाएँ कि वे आपके प्रति ही नालायक साबित हो जाएँ । उन्हें इतनी ही आज़ादी दें कि वे आपकी बात भी सुन सकें । मारने-पीटने से बच्चे नहीं सुधरते हैं । जब तक आँख की शर्म है, बच्चा मर्यादा में बँधा रहता है और जिस दिन आँख की शर्म गई, उसी दिन से उच्छृंखलता शुरू हो गई। पिता, पुत्र, सास-बहू में जब तक आँख की शर्म बाकी है तभी तक मर्यादा है, अन्यथा जब हर बात में रोक-टोक, हस्तक्षेप और ज़रूरत से ज़्यादा अपेक्षाएँ रखेंगे तो दोनों आमने-सामने खड़े हो जाएँगे । इसलिए आँख की मर्यादा रखनी चाहिए और यह तभी सम्भव होगा जब आप एक सीमा तब बच्चों को आज़ादी दें। बच्चों को प्यार किया जाना चाहिए, उन्हें सम्मान भी दिया जाना चाहिए, लेकिन बच्चा बिगड़ जाए तो उसे रास्ते पर लाने के लिए सख्ती करने में भी संकोच नहीं करना चाहिए। अभी मैं एक घर में था तो वहाँ पिता अपनी व्यथा सुना रहा था कि उनका बच्चा उनके वश में नहीं है । वह अपनी माँ की 45 For Personal & Private Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बिल्कुल नहीं सुनता है। उसके साथ अभद्र व्यवहार करता है। यहाँ तक कि वह मारपीट भी कर देता है। मैंने कहा, 'इसमें आपकी ही भूमिका है।' वे चौंक पड़े। मैंने कहना जारी रखा कि जिस पहले दिन बेटे ने हाथ उठाया था उसी दिन उन्हें उसका हाथ पकड़ लेना चाहिए था और उसे ऐसा दण्ड देना चाहिए था कि फिर वह दुबारा हाथ उठाने की हिम्मत न करता। जिसका हाथ अपने माता-पिता पर उठ गया वह हाथ नहीं, हथौड़ा है। बेटे का हाथ बाप पर उठ जाए, बेटे का हाथ माँ पर चल जाए, तो उस हाथ को मरोड़ने की आप में ताक़त भी होनी चाहिए और अगर वह ताक़त नहीं है तो कृपया संतान पैदा ही मत कीजिए। उस दिन अपनी पुण्यवानी समाप्त समझना जिस दिन आपका बेटा यह कह दे कि वह अलग घर बसाना चाहता है। माँ-बाप के जीते जी उनका खून आपस में बँट जाए तो माँ-बाप के लिए इससे बड़ी पुण्यहीनता और क्या होगी? जीवन में अच्छी सन्तान, अच्छी पत्नी और अच्छा मित्र, ये तीनों बड़े नसीब से मिलते हैं। बहनो, आपने अपने पति से कई बार झगड़ा भी किया होगा। अब मेरे कहने से उनकी ग़लत आदतों के लिए भी उनसे झगड़ो। शराब, सिगरेट, जुआ, सट्टा, गुटका, तम्बाकू, झूठ बोलना जैसी आदतें हों तो एक मर्तबा झगड़ ही लो। कह ही डालो-अपनी बुरी आदतें छोड़ दें, वरना घर में या तो वे रहेंगे या आप। जिस तरीके से आप सुधार सकती हैं वही अपनाएँ। आप पति की अर्धांगिनी कहलाती हैं। वही अर्धांगिनी वास्तविक अर्धांगिनी है जो अपने आधे अंग को सही रास्ते पर ले आए। जिसका आधा अंग खराब हो और आधा सही, तो वह विकलांग ही कहलाता है। आप सोचिए कि क्या आप विकलांगिनी कहलाना पसंद करेंगी? धर्म पत्नी वही कहलाती है जो पति को धर्म के रास्ते पर ले जाए। अगर पत्नी ऐसा नहीं करती तो पत्नी वह है जो पतन की ओर ले जाए। अपने बेटे को सही रास्ते पर लाना माता-पिता का भी फ़र्ज़ है। ऐसा हुआ कि आधी रात को पुलिस ने एक घर पर दस्तक दी। गृहस्वामी ने दरवाजा खोला तो पुलिस ने एक तस्वीर दिखाते हुए पूछा- क्या आप इसे पहचानते हैं ?' गृहस्वामी ने कहा-'हाँ, यह तो मेरे ही बेटे का चित्र है। क्या हुआ?' 'हुआ क्या! अरे आज तुम्हारे लड़के ने समुद्र के किनारे किसी लड़की से छेड़खानी की थी। 46. For Personal & Private Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चार लड़के पकड़े जा चुके हैं। पाँचवाँ तुम्हारा बेटा था, हम उसे पकड़ने आए हैं' पुलिस ने बताया । पिता ने फिर पूछा- 'क्या मेरे लड़के ने शरारत की है ?' पुलिस ने कहा - 'हाँ' । पिता सीधे अपने बेटे के कमरे में गया, उसे जगाकर खड़ा किया और पूछा - 'क्या तुमने आज किन्हीं लड़कियों से छेड़खानी की ?' पुत्र चौंका और उसने शर्म से गर्दन नीचे झुका ली। पिता समझ गए कि उसने ऐसा किया था। वे बाहर आए और पुलिस से कहा- 'मेरा बेटा अंदर है, जाकर उसे पकड़ लीजिए।' बेटे को आश्चर्य हुआ कि पिता ही अपने पुत्र को गिरफ्तार करवा रहा है। पिता तो अपने बेटे को छुड़वाने की कोशिश करता है । यह कैसा पिता है जो अपने ही बेटे को पुलिस को सौंप रहा है ? जैसे ही पुलिस पुत्र को ले जाने लगती है तभी पिताजी पीछे से आवाज़ देकर इंस्पेक्टर को बुलाते हैं, और पाँच हजार रुपए उसके हाथ में रखते हैं । इसलिए नहीं कि बेटे को छुड़ाना है बल्कि इसलिए कि पुलिस उसकी ऐसी खबर ले कि आगे से वह लड़कियों को छेड़ना भूल जाए। पिता ने इंस्पेक्टर से कहा, 'ये पाँच हजार रुपए इसलिए हैं कि आप मेरे बेटे की ऐसी पिटाई करें कि भविष्य में वह कभी ऐसा गलत काम न कर पाए । ' पिता वह नहीं है, जो मात्र संतान को जन्म दे या उसे अपनी संपत्ति का उत्तराधिकारी बनाए। असली तो पिता वह है जो बच्चों के संस्कारों के प्रति वफ़ादार रहे। आप बच्चों के प्रति सजग रहिए, उन्हें बेहतर शिक्षा और संस्कार दीजिए। घर में अच्छा माहौल दीजिए। एक-दूसरे के साथ आदरभाव के साथ पेश आइए । अतिथि का प्रसन्नता से स्वागत कीजिए। बच्चों को प्रेरणास्पद कहानियाँ सुनाइये। उन्हें कहिये कि जब भी जीवन में मुसीबत आए तो उससे घबराना नहीं अपितु अपनी श्रेष्ठ बुद्धि का श्रद्धा के साथ प्रयोग करना जैसा प्यासे कौए ने किया था। एक प्यासे कौए ने देखा कि घड़े में पानी है, लेकिन उसकी चोंच उसमें नहीं डूब रही है। उसने घड़े में कंकड़ डालने शुरू किये वह एक-एक कंकड़ डालता रहा । अंतत: पानी ऊपर आ गया और कौए ने अपनी प्यास बुझा ली। आप उन्हें पंचतंत्र की खूबसूरत कहानियाँ सुनाइए, जिसमें बुद्धि का ख़ज़ाना भरा पड़ा है। बच्चों में ग्राह्यता बहुत अधिक होती है । वे शीघ्र ही बातें समझ लेते हैं, उन्हें ग्रहण कर लेते हैं । उन्हें ऐसी कहानियाँ सुनाइए कि विपरीत परिस्थितियों में भी उन्हें साहस के साथ सामना करने की I | 47 For Personal & Private Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेरणा मिले, जिससे बच्चे जिंदगी में अटकें नहीं, भटकें नहीं और वे सदा आगे बढ़ते रहें, यशस्वी हों, सफल हों । उनके जीवन में सार्थकताएँ फलती फूलती नज़र आएँ। आप अपने बच्चों को खूब आशीर्वाद दें। आपके आशीर्वाद उनकी प्रगति की कुंजी बन जाएँ। अब बच्चो, मैं आपसे भी कहूँगा, जो युवा हैं, किशोर हैं, विद्यालय या महाविद्यालय में भी पढ़ते हैं या नहीं पढ़ते हैं । आप अपने जीवन का बेहतर लक्ष्य निर्धारित करें। ऊँचे लक्ष्य, ऊँचे सपने और कठोर परिश्रम करने का जिनमें जज्बा और साहस होता है, वे ही लोग भविष्य के हस्ताक्षर होते हैं । मेरे प्यारे बच्चो, तुम ऊँचे सपने देखना सीखो अर्थात् ऊँचे लक्ष्य बनाओ, ऊँचे विचार रखो और उन्हें पूरा करने के लिए कठिन मेहनत करो। आपकी सारी सफलता आपकी मेहनत पर ही टिकी है । अर्जुन की तरह लक्ष्य पर ही आपकी निगाह रहे । जिस तरह लक्ष्यसंधान के लिए अर्जुन को केवल चिड़िया की आँख ही दिखाई दे रही थी उसी तरह आप भी अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए जुट जाएँ । लगातार मेहनत करने से पत्थर भी घिसकर गोल हो जाते हैं, फिर आप तो बुद्धिमान हैं, लगन से क्या कुछ हासिल नहीं किया जा सकता ? दूसरी बात कहूँगा कि आप स्वावलम्बी बनें। अपना काम ख़ुद करने की आदत डालें। जो लोग अपना काम ख़ुद नहीं करते उन्हें ही योगासन करने की ज़रूरत होती है, ख़ुद को मेन्टेन करने के लिए जिम में जाना पड़ता है। आप जानते हैं कि मज़दूर को सोने के लिए कभी नींद की गोली नहीं खानी पड़ती। जिन्हें दो कदम चलना भी गँवारा नहीं होता, उन्हीं के लिए बड़े-बड़े अस्पताल हैं। सुबह जल्दी उठें, सूर्योदय के पूर्व जगें । आवश्यक कार्य निपटाकर सबसे पहले घर में बिखरे हुए साजो-सामान को व्यस्थित करें, घर को सँवारेंसजाएँ। लड़कियाँ घर के काम-काज में अपनी माँ की मदद करें। आप पढ़ीलिखी हैं तो भी खाना बनाना तो आना ही चाहिए न् । जब आप अच्छा खाना बना सकेंगी तभी तो नौकर को निर्देश देकर आप उनसे खाना बनवा सकेंगी। सभी किशोर और युवा समझ लें कि पढ़ाई के साथ-साथ जीवन में उनके कुछ और भी दायित्व हैं, जिन्हें अवश्य ही पूरा किया जाना चाहिए । खान-पान, रहन-सहन का सलीका होना चाहिए। मैं देखा करता हूँ कि घर को कैसे स्वर्ग बनाएं - 3 48 For Personal & Private Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाजारवाद का प्रभाव घरों में घुस आया है, जिससे युवा पीढ़ी भटकन के रास्ते पर जा रही है। तन पर वस्त्रों की कमी ने व्यभिचार को बढ़ावा दिया है। आजकल लड़कियों और महिलाओं के ऊपर के वस्त्र नीचे होते जा रहे हैं और नीचे के वस्त्र ऊपर आते जा रहे हैं । बिटियाएँ टाइट जींस और टाइट टी शर्ट पहनकर चलाएँगी स्कूटर, और ये हिन्दुस्तान की सड़कें, ठौर-ठौर पर गड्ढे! अब दिखने में कितना ऑड लगता है। वस्त्र पहनिए गरिमापूर्ण, मर्यादापूर्ण । आप विदेशी संस्कृति का भले ही अनुसरण कीजिए पर कपड़ों के मामले में उनका अनुसरण आपके लिए घाटे का सौदा साबित होगा। आपका सदाचार कम होगा, एड्स जैसे रोग बढ़ेंगे और सांस्कृतिक पतन होगा सो अलग। ___आजकल यौन-शिक्षा का भी प्रचलन बढ़ रहा है। बच्चों को अभी तो पाँचवीं कक्षा से ही यौन-शिक्षण मिलना शुरू हो रहा है, फिर एल.के.जी.. यू.के.जी. से भी शुरू हो जाएगा। हिन्दुस्तान का हाल तो देखो। सुना है, दिल्ली में कत्लखाना, कसाईखाना चलाने की ट्रेनिंग सीखने के भी कॉलेज खुल रहे हैं। छोटे बच्चों को यौन-शिक्षा दी जा रही है जबकि उन्हें तो जीवनविकास की शिक्षा दी जानी चाहिए। पर... जो नेता ये काम कर रहे हैं, जरा उनसे पूछो कि गधे-घोड़ों को कोई यौन-शिक्षा देता है क्या? तुम्हारे अथवा हमारे माँ-बाप को किसी ने यह ट्रेनिंग दी थी क्या? उम्र के विकास के साथ यह ज्ञान तो स्वतः ही हो जाता है। आने वाला कल ख़तरनाक मोड़ ले रहा है। मैं बच्चों से कहूँगा कि वे शिक्षा के प्रति गंभीर हों और बेहतरीन शिक्षा अर्जित करें। जो लोग थर्ड क्लास पास होकर शिक्षा के रास्ते पर आगे बढ़ना चाहते हैं उससे तो कुछ परिणाम नहीं निकलने वाला है, पर यदि आप शिक्षा के प्रति गंभीर हो जाते हैं तो अपने केरियर के निर्माण की बहुत बड़ी भूमिका स्वयं ही बना चुके होते हैं। अच्छी शिक्षा और प्रतिभाएँ जितनी आज आगे बढ़ रही हैं वह अपने आप में आज स्वागतयोग्य है। अच्छे कॉलेज से लड़का पास होकर बाद में निकलता है उससे पहले ही नौकरी के लिए बड़ी-बड़ी कम्पनियों के ऑफर तैयार रहते हैं। कितने बड़े आश्चर्य की बात है कि केट या पी.एम.टी. अथवा सी.ए. युवक को शुरुआती चरण में ही पच्चीस-पच्चीस और पचासपचास लाख के पैकेज मिल रहे हैं। अब अंतर्राष्ट्रीय कम्पनियों के मालिक और शेयर होल्डर्स भी इस बात को समझने लग गए हैं कि यदि अपनी कम्पनी को 49 For Personal & Private Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगे बढ़ाना है, तो भले ही उनके पास प्रतिभा न हों, पर प्रतिभावान लोगों को अपनी कम्पनी सौंप कर उसके दूरगामी विशाल परिणाम प्राप्त किये जा सकते हैं। बच्चों को चाहिए कि वे बेहतरीन शिक्षा प्राप्त करें, अपनी प्रतिभा को निखारें, कठोर ट्रेनिंग लें। आने वाला कल आपका होगा। मैंने कहा कि आप बेहतरीन शिक्षा लें तो इसका मतलब यह नहीं है कि आप किताबी कीड़े बन जाएँ। बेहतरीन शिक्षा व्यक्ति के विकास का एक चरण है। जीवन के अन्य पहलुओं पर भी गौर करें। अच्छा व्यवहार, अच्छी प्रस्तुति, अच्छी भाषा, विनम्रता, लाइफ मैंनेजमेंट, कर्मठता-क्रियाशीलताप्रेजेन्टेशन, स्वास्थ्य, घर और परिवार के साथ सहभागिता और मिलनसारिता जैसे ढेर सारे वे बिन्दु हैं जो आपके व्यक्तित्व और केरियर को बनाते और प्रभावित करते हैं। सदा हँसमुख रहें। आपकी मुस्कान आपकी पहचान बने और आपकी खिलखिलाहट से घर का वातावरण आनन्ददायक हो जाए। आप अपनी कोर्स की किताबों के अलावा भी दूसरी अच्छी किताबें ज़रूर पढ़ें। आप मेरी किताबें तो पढ़ते ही हैं, दुनिया में और भी अच्छे चितंक लोग हैं, उनके गाइडेंस से भी लाभान्वित हों। स्वेट मार्डन, हेलन केलर, जेम्स ऐलन, ओशो, रविशंकर, आचार्य सुधांशु, आचार्य महाप्रज्ञ, मुनि तरुणसागर, प्रमोद बत्रा, शिवखेड़ा जैसे बहुत से लेखक और प्रवक्ता हैं। आप उन्हें भी पढ़ें। अच्छी किताबों को पढ़ने से ज्ञान के प्रति प्यार पनपता है, मस्तिष्क का विकास होता है। ज्ञान के प्रति लगाव ही युवा मस्तिष्क के आवेश और व्यसनों से बचने की गारंटी है। बगैर क़िताबों की ज़िन्दगी तो बिल्कुल वैसी ही ऊमस भरी होती है, जैसे बिना खिड़की के कोई कमरा। आप शालीन और संस्कारित परिवारों के बच्चे हैं। आपको ऐसा कुछ भी नहीं करना चाहिए जिससे आपके परिवार की ओर अंगुली उठे। आप वही करें, जिससे आपकी और आपके परिवार की मर्यादा बनी रहे। सुबह प्रतिदिन माता-पिता, दादा-दादी को प्रणाम कर उनके आशीर्वाद ज़रूर लें। यह आपके जीवन की बहुत बड़ी पूँजी होगी। कभी किसी से ईर्ष्या न करें, स्वयं पर विश्वास रखें। कोई आगे बढ़ रहा है तो ईर्ष्या की अपेक्षा स्वयं पर भरोसा 50 For Personal & Private Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रखकर और अधिक मेहनत करें। बड़ी लाइन को मिटाकर छोटी करने की कोशिश न करें बल्कि अपनी लाइन बड़ी खींचें। ___ याद रखें कि ईश्वर ने हमारे ऊपर महती कृपा कर हमें मानव-जन्म दिया है। जीवन का विकास, व्यक्तित्व का निर्माण, सफलता और समृद्धि, सब आपके पुरुषार्थ का परिणाम है। प्रारब्ध प्रभु के हाथ में है और पुरुषार्थ आपके हाथ में है। हमेशा इस बात को याद रखें कि प्रारब्ध उन्हीं को मिलता है, जो उसे प्राप्त करने के लिए पुरुषार्थ करते हैं। अच्छी तक़दीर + अच्छी तदबीर अर्थात् अच्छा भाग्य + अच्छा पुरुषार्थ = सफलता, श्रेष्ठता, सौभाग्य। | 51 For Personal & Private Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मॉ ही मंदिर, माँ ही पूजा 3015 अपनी बात की शुरुआत एक प्यारे-से प्रसंग के साथ कर रहा हूँ। एक बहुत चंचल और खूबसूरत लड़की थी। लड़की अपनी माँ से बहुत प्यार करती थी, पर ग़लत सोहबत में पड़ जाने के कारण लड़की अपने सदाचार से विमुख हो गई। लोगों के बहकावे में आकर उसने अपने घर का त्याग कर डाला। वह घर से भाग गई, पर बाद में घर से दूर रहकर उसे पछतावा हुआ। जीवन में होने वाले अनाचार से दुःखी होकर जीवन में अपनाए गए पाप के मार्ग से वह आत्मग्लानि से भर गई। उसने अपने आपको खत्म करने का इरादा कर लिया। जिन लोगों के बीच वह फंस चुकी थी, वहाँ से छिपतेछिपाते निकल गई और खुदकुशी करने का तरीका सोचने लगी कि तभी उसके मन में भाव आया कि मैं मरने से पहले जन्म देने वाली माँ का मुँह जरूर देख लूँ। वह अपने मौहल्ले की ओर चल पड़ी। मौहल्ले में और कोई उसे पहचान न ले, इसलिए वह अंधेरे में अपने घर की गली में पहुंची। उसे लगा कि उसके भीतर इतना साहस नहीं है कि वह 52 For Personal & Private Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपनी माँ के सामने जा सके। आखिर कोई भी अपना कलुषित चेहरा लेकर अपने माता-पिता के सामने नहीं जाना चाहेगा। लड़की मन-ही-मन सोच ही रही थी कि माँ सुबह पाँच बजे जगती है, मैं घर की चौखट के पास छिपकर बैठ जाती हूँ और जैसे ही माँ घर से बाहर आएगी तो मैं दूर से ही उसके दर्शन कर लूंगी और यहां से वापस रवाना हो जाऊँगी। लड़की मध्य रात्रि के बाद गली में पहुँची थी। गली में जैसे ही प्रवेश किया तो घर पर नजर पड़ते ही लड़की चौंक पड़ी। घर का दरवाजा खुला हुआ था। लड़की को कुछ अनहोनी का अन्देशा हआ। उसने सोचा कि आखिर रात के एक बजे दरवाजा खुला क्यों है? कहीं मेरी माँ संकट में तो नहीं है? कहीं कोई चोर-उचक्के तो मेरे घर में तो नहीं घुस गए? अपनी माँ को सचेत करने की भावना से उसने चिल्लाकर कहा–'माँ!' तभी अन्दर से आवाज आई- 'बेटा, आख़िर तुम आ गई।' माँ अन्दर से चिराग लेकर बाहर आई। उसने कहा- बेटा, मुझे पूरा विश्वास था कि तुम एक-न-एक दिन जरूर लौटोगी। जो दूर से ही माँ को देखना चाह रही थी, माँ को अपनी आँखों के सामने देखकर वह अपना धीरज न रख पाई। दौड़कर अपनी माँ के आँचल में अपने आपको छिपाने लगी। दोनों की आँखों से आँसू टपक रहे थे। लड़की ने पूछा'माँ, रात को एक बजे घर के दरवाजे खुले होने का रहस्य क्या है ?' माँ ने कहा- 'बेटा, मुझे पूरा-पूरा यक़ीन था कि एक-न-एक दिन तुम लौटकर घर ज़रूर आओगी। जिस दिन से तुम गई हो उस दिन से आज तक ये घर के दरवाजे बन्द नहीं हुए हैं ताकि जब भी तुम घर लौटकर आओ तो इन खुले दरवाजों को देखकर तुम्हें यह अहसास हो कि तुम्हारा इस घर में सदा स्वागत है। हर पल तुम्हारी प्रतीक्षा है। ___ बेटी ने कहा 'माँ, तुमने इतनी बड़ी बात कही दी, किन्तु अब मैं तुम्हारा पवित्र प्रेम पाने के काबिल नहीं रही हूँ।' यह कहते हुए वह फफक पड़ी। माँ ने कहा-'बेटा, किसी माँ की सन्तान चाहे सन्मार्ग पर जाए या कुमार्ग पर, चाहे सन्तान के सौभाग्य का उदय हो या दुर्भाग्य का, माँ का आँचल तो अपने बच्चों के लिए हर समय बिछा रहता है। उसकी बांहें तो हरदम बच्चों को गले लगाने के लिए फैली रहती हैं।' . 'माँ' तो संसार का सबसे खूबसूरत शब्द है। दुनियाँ के सारे शब्द कोषों | 53 For Personal & Private Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में माँ या मदर से ज्यादा प्यारा शब्द और कोई नहीं है। माँ शब्द तो बीज की तरह छोटा है, और बरगद की तरह विशाल। माँ अपने आप में संसार का सम्पूर्ण शास्त्र है जिसमें दुनियाँ भर के सारे शास्त्र और उनका सत्य आकर समाहित हो जाता है। माँ तो अपने आप में मजहबों का मजहब है कि जिसमें दुनियां भर के सारे सारे पंथ और परम्पराएँ आकर सुख और सुकून पाया करती हैं। __माँ तो ममता का महाकाव्य है। माँ से ही पहली तुतलाती बोली शुरू होती है और माँ ही पीड़ा का पहला अल्फाज़ होता है। वह कैसी ज़बान जिस पर माँ की चासनी न लगी हो, वह कैसी किताब जिसमें माँ शब्द का उपयोग न हुआ हो, वह कैसी पीड़ा जिसकी गहराई से 'ओ माँ' न निकला हो। सच तो यह है कि माँ से ही जीवन की शुरूआत है। माँ ही जीवन के हर दुःख दर्द का पड़ाव है और माँ ही अन्तिम शरण स्थली है। जब दुनियां में कोई कहीं भी पनाह न पाए तब धरती पर एक अकेली माँ ही उसे शरण देती है। अपने राह भूले थके हारे बच्चे को अपनी कोमल अंगुलियों के स्पर्श से उसकी थकान को दूर करने वाली पहली और आखिरी शरण माँ ही होती है। 'माँ' राहत की सांस है। माँ तो अपने आप में जीवन का महाव्रत है। योगी लोग तो कोई एक व्रत या कोई एक अनुष्ठान करते होंगे पर माँ का तो सम्पूर्ण जीवन ही योगों का योग, अनुष्ठानों का अनुष्ठान और पूजनों का महापूजन __माँ अपने आप में एक अनोखा व्रत है। जीवन में किसी के लिए भी एकादशी के व्रत को ग्यारह साल तक करना आसान है, संवत्सरी पर्व पर तीन दिन के उपवास करने सरल हैं, चातुर्मास के दरम्यान एक महिने का उपवास करके मासक्षमण करना सहज है, पर किसी के द्वारा भी 'माँ' होना और माँ के दायित्वों को निभाना उन समस्त व्रतों, उपवासों व मासक्षमण करने से भी ज्यादा दुष्कर तप है। माँ की ममता, उसके त्याग, उसके अहसान, अपने आप में एक महातप और कुर्बानी की दास्तान है। ___ माँ तो हमारे घर के कुमकुम की रंगोली है। माँ तो हर रोज सूर्य भगवान को दिया जाने वाला आस्था का अर्घ्य है। यह माँ ही है जो कि धैर्य और शान्ति रखने वाले चन्द्रमा का कार्य करती है। सभी देवी-देवताओं के स्वतंत्र 54 For Personal & Private Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन्दिर हैं, पर माँ तो वह मन्दिर है जिसमें ब्रह्मा, विष्णु, महेश कुदरती तौर पर प्रतिष्ठित हैं, जिसकी वाणी में सत्यम् है, जिसकी आँखों में शिवम् है और जिसके हाथों में सुन्दरम् है। ____ कहते हैं ब्रह्मा का कार्य सृजन करना है। हमारा सृजन माँ ने किया इसलिए माँ ब्रह्मा है। हमारा पालन-पोषण माँ करती है इसलिए माँ विष्णु है। अपनी छाती की अमृत बूंदें माँ ने हमारे ज़िगर में उतारी। माँ ही हमारा उद्धार करती है। माँ ही हमें संस्कार देती है और माँ ही हमें अपने पाँवों पर खड़ा करती है। इसलिए माँ महादेव है। तीन देवताओं की अगर एक साथ पूजा करनी है तो माँ को पूजिए। __जीवन में माँ का होना ही काफी है। माँ है तो जीवन में पूर्णता है। जिस दिन व्यक्ति के जीवन से उसकी माँ दूर हो जाती है उसी दिन से उसका जीवन अपूर्ण हो जाता है। पत्नी को अर्धांगिनी बनाकर व्यक्ति अपने जीवन को पूर्णता देने की कोशिश अवश्य करता है किन्तु माँ के बगैर कोई भी व्यक्ति अपने जीवन का दैवीय उपसंहार नहीं कर सकता। माँ है तो जीवन की कविता का अर्थ है, पर माँ ही अगर चली जाए तो जीवन की कविता के कोई मायने नहीं हैं। याद रखिए पत्नी आपकी पसन्द है पर माँ परमात्मा का अनुग्रह है। कहीं ऐसा न हो कि हम अपनी पसन्द के चक्कर में परमात्मा के अनुग्रह को ठुकरा बैठे। जिसने अब तक माँ के प्रेम को न पहचाना, माँ के वात्सल्य और ममता को महसूस न किया वही व्यक्ति कहता है कि पृथ्वी सहनशीला है। जिसने माँ की वत्सलता को न समझा वही यह कहने की जुर्रत कर सकता है कि सागर अथाह है। जिसने माँ के हृदय को न जाना वही कहेगा कि आकाश अनन्त है। जिसने माँ की ममता को जान लिया, अनुभव कर लिया वह जानता है कि सागर की थाह फिर भी पाई जा सकती है, पर माँ की ममता तो सागर से भी ज़्यादा अथाह है। ___माँ के वात्सल्य और त्याग को समझेंगे तो ही समझ पाएंगे कि आकाश का अन्त फिर भी ढूंढा जा सकता है, पर माँ की सहृदयता का अन्त नहीं पाया जा सकता। जहाँ में जिसका अंत नहीं, उसे आसमां कहते है और संसार में जिसका अंत नहीं उसे माँ कहते है। माँ पृथ्वी की तरह सहनशीला है, उसकी 55 For Personal & Private Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ममता सागर की तरह अथाह है, उसके अहसान आकाश की तरह अन्तहीन हैं। माँ अपने आप में पूर्ण है । 'मातृ देवो भवः' के पुण्य जाप से तो देव, दानव और मनुज सभी तिर गए । श्रवणकुमार ने इसी मंत्र के जाप से अनेक सिद्धियाँ हासिल कर ली थीं । माँ तो जब तक जीवित रहती है तब तक सरवर, तरुवर और संत की तरह अपने बच्चों पर अपना हर सुख, शांति, प्रेम, वात्सल्य लुटाती रहती है और जब शरीर छोड़कर परलोक सिधार जाती है तो वहाँ बैठे-बैठे ही अपने बच्चों को अपने आशीर्वाद लुटाती रहती है इसलिए माँ महज माँ नहीं वरन हर माँ एक जगदम्बा है। माँ जब तक हमारी आँखों के सामने है तब तक हमको ईश्वरीय छाया का सुकून देती है और जिस दिन हमें छोड़कर चली जाती है तो अपने देवदुर्लभ आशीर्वादों का कवच पहना जाती है । वह दूर रहकर भी अपने बच्चों के लिए मंगल कामनाएँ किया करती है । माँ सचमुच धन्य है, वह यज्ञ की वेदी है, वह मन्दिर की प्रतिमा है, हर तीर्थ की देवी है । माँ के कदमों में ही जन्नत है । माँ के आंचल में ही कामधेनु का आशीर्वाद है । माँ के होठों में जीवन का गुलाबी सुख है । माँ के हाथों में जादुई स्पर्श है, जो देता है हमें एक अनोखा सुख, सन्तुष्टि, तृति और मुक्ति । 1 1 यह माँ ही है जो हमें जन्म देने के लिए एक अव्यक्त, अघोषित प्रसूति की भयंकर वेदना सहन करती है । यह माँ ही है जो हमारे धरती पर आने का हमें पहला अहसास कराती है । माँ ही अपनी कोख में हमारी पहली आहट पाती है और वही हमें पहले पदचाप का अहसास कराती है। जन्म लेते ही अपने प्यार भरे चुम्बनों से स्वागतम् स्वागतम् की झड़ी लगा देती है । हमारे लिए ढेर सारी शुभकामनाएँ सागर की लहरों की तरह हम पर उलीच देती है। क्या हम माँ के ऋणों को चुका पाएंगे ? अगर कोई व्यक्ति यह सोचे कि मैं माँ के ऋण से उऋण हो सकता हूँ तो ऐसा सोचना भी माँ के प्रति घृष्टता होगी । भला हम किस-किस ऋण को उतारेंगे ? क्या हम उस ऋण को उतार पाएँगे जो माँ ने हमें नौ माह तक गर्भ में रखकर पीड़ाएँ सहन की थीं? जब माँ हमें अपनी कोख़ में लेकर समाज में आती जाती होगी, जहां लोग उसे तिरछी नज़रों से देखते होंगे, पर उसने लाज का त्याग करके भी हमें पेट में रखा। यदि 56| For Personal & Private Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकृति यह अधिकार पुरुषों को दे दे कि तुम्हें नौ महिने तक अपनी संतान को पेट में रखकर, फिर उसे पैदा करना होगा तो दुनियां के 90 प्रतिशत पुरुष संतान को जन्म देना स्वीकार ही नहीं करेंगे। सचमुच माँ, यह तेरी ही ताक़त है कि तू इस संसार को जन्म देती है। हमारा पालन करती है। हमें अपने पांवों पर खड़ा करती है । हमें बेहतर संस्कार देती है। निश्चय ही किसी देश की सरकार को चलाना आसान हो सकता है पर किसी संतान को श्रेष्ठ संस्कार और शिक्षा देकर उसे बेहतर इंसान बनाना सरकार चलाने से भी ज़्यादा कठिन काम है । क्या आप इस महत्व को समझ सकते हैं? भले ही कोई कहे इस संसार की रचना करनेवाला कोई ईश्वर या खुदा है, पर खुली आँखों से अगर सच को कहा जाए तो इस खूबसूरत दुनियाँ और दुनियाँ की हर रचना को बनाने वाली माँ है । भले ही माँ का निर्माण ईश्वर ने किया होगा, पर संसार का निर्माण तो माँ ने किया है। ईश्वर को जबजब भी अपने अपने आपको व्यक्त करना होता है तब-तब वह माँ के रूप में जन्म लेता है । जब कभी ईश्वर को इस दुनियाँ का सृजन करना होता है तब वह माँ के हृदय में उतरता है और माँ की कोमल कोख़ का स्पर्श करते हुए इस संसार का सृजन किया करता है । हममें से कोई भी व्यक्ति माँ के ऋण को नहीं उतार सकता। इस गर्भपात के युग में भी माँ ने हमें जन्म दिया है। क्या उनका यह अहसान भी कम है याद कीजिए अपने बचपन को । हमें नज़र न लग जाए, इसलिए माँ हमारे माथे पर काजल की काली बिंदी लगाती थी । क्या हममें से कोई भी व्यक्ति उन बिंदियों का ऋण उतार पाएगा? हमारे पाँवों में पैंजनियाँ बाँधी जाती थीं और हम ठुमक ठुमक कर चलते थे। क्या हम उन पैंजनियों का ऋण उतार पाएँगे ? याद करो कि आपने अपने नन्हे नन्हे पैरों से अपनी माँ को जब-तब कितनी लाते मारी थीं। माँ फिर भी हमारे गालों को प्यार से सहलाती रहती । क्या हम उस प्यार का ऋण उतार पाएंगे। बच्चे लोग घर में सामान को एक जगह नहीं रहने देते । हम अपने बचपने स्वभाव के कारण माँ के सजाए हुए सामानों को भी बिखेर देते थे। माँ हमें इस पर एक मीठी डांट ज़रूर देती थी पर फिर खुद ही सामान सजा देती। क्या हम उन सामानों को समेटने का ऋण चुका पाएँगे ? जब हम बीमार पड़ जाते तो माँ माथे पर राई की पोटली रखा करती, ताकि हम For Personal & Private Use Only | 57 Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जल्दी से ठीक हो जाएँ। माँ ने हमारे सिरहाने राई का एक-एक दाना हमारे जीवन के कल्याण के लिए, स्वास्थ्य और आरोग्य के भाव के साथ रखे। क्या हम राई के उन दानों का ऋण उतार पाएँगे। जब हम बुखार में तप रहे होते तब माँ ही वह शक्ति होती जो हमारे माथे पर गीली पट्टियाँ रखती और अपनी कोमल-कोमल अंगुलियों से सहलाती हुई कहती, 'बेटा, सो जा रो मत, बीमारी हाथी के चाल से आती है और चीटी के चाल से जाया करती है। मैं मना नहीं करती थी कि ठण्डे पानी में मत नहा, पर तू मानता कहां है, अब हो गए ना बीमार। थोड़ा धीरज रख, सब ठीक हो जाएगा।' क्या हम माँ की इस भाव दशा का अहसास कर पाएंगे? __माँ की उन मीठी-मीठी लोरियों को क्यूं भूल जाते हैं जो वह हमें सोने के लिए सुनाया करती थी। माँ की उन प्यार भरी लोरियों को जरा याद कीजिए, जिनसे फिल्म संसार ने भी अपने को सजाया और संवारा है। माँ गाती थी चन्दा है तू मेरा सूरज है तू। हाँ मेरी आँखों का तारा है तू। चन्दा है तू मेरा सूरज है तू। माँ के मन की मनौतियाँ तो देखिए कि वह हममें ही धरती का फूल देखती है और हममें ही आसमान का चाँद और सूरज देखती है। माँ की लोरियों के सम्बोधन तो देखिए तुझे सूरज कहूं या चँदा, तुझे दीपक कहूं या तारा, मेरा नाम करेगा रोशन, जग में मेरा राज-दुलारा। कितनी मंगल-भरी उछामणी है, कितनी प्यारभरी हिलोर है यह। बेटे को राजदुलारा कहना, उसे घर का चिराग़ कहना माँ की अन्तरभावनाओं को समझने और समझाने का एक तरीक़ाभर है। ज़रा अपने बचपन के 'बर्थडे' को याद कीजिए किस तरह मम्मी हमारे लिए कैक बनाती खीर और लापसी बनाती। बर्थडे मनाते हुए गाया करती ओ नन्हे से फरिश्ते, कैसा ये तुझसे नाता, कैसे ये दिल के रिश्ते, नन्हे से फरिश्ते! हैप्पी बर्थडे टू यू ..... हैप्पी बर्थ डे टू यू! 58 For Personal & Private Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह तो माँ की मंगलकामना की बात है, पर हमारे नखरों की बात ! जरा अपने उन नखरों को याद करें कि माँ, मुझे तो आज अजवाईन वाली रोटी ही खानी है। मुझे तो भिंडी के भाजे और टमाटर की खट्टी मीठी सब्जी ही चाहिए। भिंडी के भाजों से लेकर मक्की के गरम-गरम भुट्टे और वो दही की माखनियाँ लस्सी और ठण्डा-ठण्डा श्रीखण्ड, हममें से कौन ऐसा है जो इन नखरों का ऋण उतार पाए। ओह, मैं क्या-क्या कहूं, क्या-क्या गिनाऊँ ? एक बात तय है जिनके जीवन में माँ है, वे धन्य हैं । उनका जीवन पूर्ण है। जिसे अपनी माँ का अहसास है, वही श्रवण कुमार की भूमिका अदा कर सकता है। जिसने माँ की उपेक्षा कर डाली उसने केवल जन्मदात्री माँ की ही नहीं, माँ के नाम पर धरती के भगवान की भी उपेक्षा कर डाली। ___ मैंने माँ की ममता को समझा है, जाना है। इसीलिए जब-जब माँ की ममता का बखान करता हूँ तब-तब मुझे लगता है कि मैं माँ पर नहीं धरती पर जन्म देने वाले परमात्मा पर बोलता हूँ। जब-जब मुझे परमात्मा के चरणों में चार फूल चढ़ाने होते हैं तब-तब माँ के श्रीचरणों को परमात्मा का मन्दिर समझकर वहीं मत्था नवा लेता हूँ। हम माँ की ममता को, उसके अहोभाव को, उसके अवढर दान को समझें। एक बड़ी प्यारी घटना है। हम एक स्थान पर ठहरे हुए थे। हम बैठे थे कि मेरी नजर एक गिलहरी पर गई जो अपने बच्चों के साथ एग्जोस फेन के आले में रहती थी। किसी को भी इस बात की ख़बर न थी। वहां एक समारोह था। कार्यक्रम में डेढ़ घण्टे तक एग्जोस फेन चलता रहा। कार्यक्रम पूर्ण होने पर मेरी नज़र उस एग्जोस फेन के आले की ओर गई। मैंने देखा कि उस एग्जोस फेन के बन्द होते ही अन्दर से एक गिलहरी बाहर निकलकर आई। मैं चौंक पड़ा। मैंने ईश्वर को साधुवाद दिया कि तेरा लाख-लाख शुक्र है कि आज यह गिलहरी सुरक्षित बच गई। वह गिलहरी वहां से निकली और कुछ ही पलों में घुम-घामकर उसने एक और नए आले को तलाश लिया। गिलहरी वापस उस एग्जोस फेन में चली गई। मैंने बगल में खड़े लोगों को सचेत किया कि इसमें गिलहरी गई है, भूलकर भी पंखा मत चलाना। | 59 For Personal & Private Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दो मिनट बाद उस आले की लोहे की जाली में से खटखट की आवाज आई। मैंने देखा कि उसमें से गिलहरी ने पहले अपनी पूंछ बाहर निकाली और अपनी पीछे की दोनों टांगें और फिर आगे की दोनों टांगें बाहर निकालीं। फिर उसने अपना चेहरा बाहर निकाला। जब चेहरा बाहर निकला तो मैं चौंक पड़ा कि उस गिलहरी के मुँह में उसका बच्चा था। मैंने सोचा कि यह गिलहरी कहीं गिर न जाए इसलिए मैं झट से चदरिया फैलाकर खड़ा हो गया ताकि गिलहरी या उसका बच्चा अगर गिरे तो सीधा मैं अपनी चदरिया में ले लूं। ___ पर वह बड़ी सावधानी से उल्टे चलते-चलते धीरे-धीरे उस सुरक्षित आले तक पहुँच गई। वहां जाकर उसने अपना बच्चा रखा। तब मुझे राहत महसूस हुई, सुकून मिला। गिलहरी वापस बाहर निकलकर आयी तो मैंने आधी रोटी मंगवाई और उस गिलहरी की तरफ डलवा दी। मगर गिलहरी ने उस रोटी पर ध्यान न दिया। आई, सूंघी और वापस उसी एग्जोस फेन वाले आले में चली गई। फिर एक मिनट में बाहर निकलकर आई। एक बच्चा और उसके मुँह में था। उसको भी उसने सुरक्षित पहुँचाया। तीसरा बच्चा फिर वह निकालकर लाई और उसे भी पहुँचाया। चौथी बार उससे चूक हो गई। चूक यह हुई कि अब तक उसने पूंछ को बाहर निकाला था, पर इस बार उसने बच्चे को लिये हुए पहले मुँह को बाहर निकाल दिया। ___गिलहरी के मुँह बाहर निकालते ही वह बच्चा हिला-डुला, चलायमान हुआ कि बच्चा उसके मुँह से गिरने लगा। गिलहरी जाली के छोटे छेद में से अपने शरीर को बाहर निकालने के लिए संघर्ष कर रही थी। मैंने अपनी चदरिया पूरी तरह से फैला दी कि कहीं कोई चूक न हो जाए। जाली का छेद छोटा था इसलिए गिलहरी उस बच्चे को वापस भीतर नहीं ले सकती थी। गिलहरी संघर्ष करती रही। आख़िर उससे बच्चा छिटकने वाला था, मगर गिलहरी ने बच्चे की पूँछ पकड़ ली। मैंने देखा कि बड़ी जद्दोजहद के बाद आख़िर वह बाहर आने में कामयाब हो गई। उसने चौथे बच्चे को भी सुरक्षित आले में पहुँचाया। फिर वह आई उस रोटी के टुकड़े के लिए ताकि अपने भूखे-प्यासे बच्चों को भोजन दे सके। जब उसने अपने मुँह में रोटी उठाई तो मेरे मुँह से निकल पडा- इसे कहते हैं माँ! गिलहरी जैसे छोटे-से प्राणी के भीतर भी ममता की यह उदात्त भावना! 60/ For Personal & Private Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज़रा हम अपनी जननी जन्मदात्री को याद करें और पहचानें कि हमारी ओर से माँ के प्रति जितनी त्याग-भावना रही, माँ की ओर से उससे हजार गुना अधिक त्याग-परायणता हमारे प्रति रही। अब तक हम मंदिरों में जाने के आदी रहे हैं, पर हम यह भूल जाते हैं कि हर किसी इन्सान के घर में एक मंदिर है, और वह की ममता का मंदिर । अगर हम पहले माँ की ममता के मंदिर में धोक लगाकर महादेव के मंदिर में जाएंगे तो वहां जाना सार्थक है । अगर माँ के मंदिर की उपेक्षा करके महादेव, महावीर और मोहम्मद की पूजा कर भी लें तो वे उस पूजा को कभी स्वीकार नहीं करेंगे। आपके बुजुर्ग माता-पिता जो कि अपने हाथों से स्नान नहीं कर पा रहे हैं, अगर आपने उनको नहला दिया तो क्या यह दुनियां के किसी रुद्राभिषेक से कम नहीं है ? माँ के चरणों की धूल क्या किसी मन्दिर के चन्दन की चुटकी की तरह नहीं है ? महावीर के मंदिर में जाकर अनुष्ठान करने वाले लोग अपनी माँ के प्रति उनके दायित्वों के अनुष्ठान को क्यों भूल जाते हैं ? माता-पिता के चरणों की धूल को अपने माथे पर लगाने से क्यों कतराते हैं ? माता-पिता के चरणों की रज तो दुनियाँ के किसी भी गुरु और परमात्मा की चरण-रज से ज्यादा असरकारी होती है । जिस किसी के नौ ग्रह बुरे चल रहे हों, वह जाए अपनी माँ के पास और श्रद्धापूर्वक माँ की तीन परिक्रमा लगाकर उनके चरणों की माटी को रोजाना अपने माथे से लगाए। शायद हम किसी औपचारिकता के नाते गुरु के पाँव छूते होंगे, पर अगर माँ के पाँव हम औपचारिकता से भी छू लेंगे, तब भी माँ का कलेजा तो हमें दुआओं से सराबोर कर देगा । जिस किसी बेटे-बहू ने अपने बुजुर्ग दादा-दादी और माता-पिता की सेवा की है, मैं दावे के साथ कहता हूँ कि उस व्यक्ति की आने वाली पीढ़ी फली - फूली है। मान लो तुम्हारे सास-ससुर या माता-पिता गरीब हैं पर अगर तुमने उनकी दिल से सेवा की है तो याद रखना माइतों की सेवा कभी-भी निष्फल नहीं जाती। यह पुण्याई तुम्हारे सात जन्म काम आएगी। वे जीते जी हमें आशीर्वाद देंगे ही, मरकर भी वे देवलोक से हमें आशीर्वादों के अमृत फल देते रहेंगे। निश्चय ही, एक गंगा वह थी जिसे भगीरथ धरती पर लेकर आए थे 61 For Personal & Private Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और दूसरी गंगा वह माँ है जो देवलोक में रहते हुए भी हम बच्चों के लिए वहीं से दुआओं की गंगाएँ बहाया करती है । याद रखो, रहना है तो भाइयों के बीच रहो, भले ही परस्पर वैर ही क्यों न हो । बैठना हो तो हमेशा छाया में बैठो फिर चाहे वह कैर ही क्यों न हो ? जब भी खाना हो तो माँ के हाथ से खाओ, फिर चाहे वह ज़हर ही क्यों न हो ? कम से कम यह तो सुकून रहेगा कि मुझे ज़हर भी उसने दिया है जिसने मुझे जन्म दिया था । अरे, माँ के हाथ से तो ज़हर भी अमृत बन जाता है। योगियों के योग की भी मातृ - सत्ता के आगे कोई बिसात नहीं है। हम साधु- - साध्वियों के, संत- महन्तों के, सिद्ध अरिहन्तों के कितने भी गुण क्यों न बखान लिए जाएँ पर माँ की महिमा को किसी से कम नहीं किया जा सकता। यह माँ ही है जो राम, कृष्ण, महावीर और बुद्ध को जन्म देने का सामर्थ्य रखती है। यदि दुनियाँ में इस बात का सर्वेक्षण करवाया जाए कि दुनियाँ का सबसे प्यारा शब्द कौनसा है ? तो जवाब होगा - माँ । यह सच है कि राम महान् हो सकते हैं, पर जन्म देनेवाली माँ कौशल्या से बड़े नहीं हो सकते । गणेश प्रथम पूजनीय और कार्तिकेय ज्ञान के दाता हो सकते हैं पर अपनी माँ पार्वती से वे दोनों ही बड़े नहीं हो सकते । चन्द्रप्रभ ने जिस धर्म में संन्यास ग्रहण किया है, उस धर्म की व्यवस्था है कि साध्वी कितनी भी बड़ी क्यों न हो वह साधु-संत से छोटी ही होती है, पर मैं श्रद्धापूर्वक कहना चाहूंगा कि मुझे इस बात का गौरव है कि मैं ऐसे माता-पिता की संतान हूँ जो स्वयं भी संत हैं और जिन्होंने मुझे भी विरासत में संत जीवन ही प्रदान किया है । मेरी माँ भले ही साध्वीजीवन में हो, पर मैं उन्हें सदा अपने पंचांग नमन समर्पित करता हूं । माँ की सेवा को महावीर और महादेव की सेवा मानता हूँ । मेरे लिए पहला मंदिर माँ है और दूसरा मंदिर महावीर और महादेव हैं। जो व्यक्ति इस बात को अपने जीवन में समझ सकेगा वह अपने जीवन में माँ-बाप के प्रति रहने वाले फ़र्ज़ अदा करने में सफल हो सकेगा । यही कारण है कि भले ही प्रकृति ने मुझे संत या गुरु क्यों न बना दिया हो पर मैं आज भी हजारों की भीड़ में भी माँ सामने आती दिख जाए तो बग़ैर किसी संकोच के हजारों लोगों के बीच भी अपना माथा माँ के सामने जाकर झुकाता हूँ। जो व्यक्ति अपनी माता या अपने पिता को भरी पब्लिक के बीच 62 | For Personal & Private Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धोक लगाता है तो इससे माँ-बाप का नहीं, बेटे का गौरव बढ़ता है। यदि लाहोटी जी ने सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधिपति होने की शपथ लेकर सबसे पहले कोर्ट में माँ के चरण छुए तो इससे माँ का नहीं वरन बेटे का गौरव बढ़ा कि इन्सान माँ के चरण छूकर दुनियाँ को यह सन्देश दे रहा है कि आज मैं जो कुछ हूँ माँ की बदौलत हूँ। जो सर माँ के आगे न झुक सका, वह ज़िन्दगी में कभी 'सर' न बन सकेगा। वह और किसी के आगे झुकने का अधिकारी नहीं हो सकता। जो माथा माँ के आगे न नमा, वह गुरुग्रन्थ साहब के आगे नमकर भी सच्चे अर्थ में कहाँ नम पाया! ___ माँ के दिन की शुरुआत चाहे 'नमो अरिहंताणं' से हो, चाहे 'ॐ अस्य श्रीराम रक्षा स्तोत्र' मन्त्र से हो, अथवा 'ला-इलाहे-इल्ललाहु' से हो या फिर चाहे 'ओ-गॉड' से हो, पर माँ के हृदय से दुआओं की सदा एक ही शीतल धारा बहती रहती है- हे मेरे प्रभु, मेरी सन्तान यशस्वी हो, चिरायु हो, वैभवशाली हो। वह अपनी ज़िन्दगी में कभी थके नहीं, रुके नहीं, चूके नहीं। किसी भी सुनहरे अवसर से वंचित न रह जाए। हे प्रभु, मेरे बच्चों को सही-सलामत रखना। मेरा बच्चा फले-फूले, दूधो नहाए पूतो फले। ___ माँ की हर प्रार्थना का सार संतान का हित होता है। जिसका कण-कण, रक्त की हर बूंद, हर रोम-रोम अपने संतानों के हित से जुड़े रहते हैं, उस माँ की तुलना में आखिर हम किसे रख सकते हैं। उसको नहीं देखा हमने कभी, पर उसकी जरूरत क्या होगी? हे माँ, तेरी सूरत से अलग, भगवान की सूरत क्या होगी? भगवान को अगर देखना है तो माँ में देखो। माँ तो भगवान की जीतीजागती तस्वीर है। जिसने माँ को पूजा उसने भगवान को पूजा। जिसने माँ को नज़रअंदाज़ किया उसकी सारी प्रार्थनाएँ और नमाज़ नज़रअंदाज हो गईं। हे कुदरत, तुमने माँ को न जाने कैसी शक्ति दे डाली है कि माँ केवल माँ नहीं है। माँ जीवन का ब्रह्मा है। जिस तरह ब्रह्मा में ब्रह्माण्ड और ब्रह्माण्ड में ब्रह्मा समाए हुए हैं, उसी तरह माँ में पुत्र और पुत्र में माँ समाई हुई है। माँ ब्रह्मा भी है, 163 For Personal & Private Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माँ विष्णु भी है, माँ महेश भी है। ब्रह्मा जन्म देते हैं, विष्णु पालन करते हैं और महेश उद्धार करते हैं। माँ भी जन्म देती है, पालन करती है और बेहतर संस्कार देकर जीवन का उद्धार भी करती है, इसलिए प्यार से बोलो- माँ मेरी ब्रह्मा भी है, माँ मेरी विष्णु भी है, माँ मेरी महावीर और महादेव भी है। बरसों पहले मेरी माँ ने वर्षीतप किया था अर्थात एक वर्ष के उपवास की तपस्या, एक दिन आहार लेना और दूसरे दिन निराहार रहना। अड़तालीस घंटों में से बारह घंटे आहार के लिए और शेष छत्तीस घंटे पूर्णत: उपवास में रहना। वर्षीतप की पूर्णाहुति से पूर्व हमारी साध्वी माँ ने हमें लिखा कि हालांकि आप लोग मुझसे बहुत दूर हैं और इतनी दूर आना आपके लिए दुष्कर, कष्टदायी यात्रा होगी। पर रह-रहकर मेरे भीतर एक ही भाव उठता है कि मैं अपने इस लम्बे तप की पूर्णाहुति अपने संतपुत्रों के हाथों से करूँ। __हमने अपनी सीधी-सरल माँ के ख़त को दो-तीन बार पढ़ा। अपने बचपन को याद किया। हमने उसी समय फैसला कर लिया कि हम अपनी माँ की भावनाओं को पूरा करेंगे। हमने अपने पूर्व निर्धारित सारे कार्यक्रम कैंसल कर दिए। तब हम लोग एक हजार किलोमीटर की पदयात्रा कर अपनी साध्वी माँ के पास पहुँचे और उन्हें अपने हाथों से वर्षीतप का पारणा करवाया। माताजी महाराज को हमारे आने से बेहद प्रसन्नता थी और हमें उनकी भावना को पूर्ण करने की प्रसन्नता थी। हम सभी आनन्दित और भावविह्वल थे। इस कार्यक्रम में हमारे साथ शेरे हिन्द दारासिंह जी भी शामिल हुए। माँ के तप की पूर्णाहुति के करीब एक सप्ताह बाद मैं अपनी माँ के पास अकेला बैठा था। मैंने माँ से अपना बचपन जानना चाहा। मैंने पूछा- साध्वी माँ, मुझे बताओ मेरा वह बचपन, वे बिफिक्री के दिन कैसे बीते? ___माँ को जितना जो याद आता गया वे सुनाती रहीं। उन्होंने तो कई घटनाएँ सुनाईं, उन्हीं में से एक घटना है। माँ ने बताना शुरू किया, यह घटना तब की है जब तू डेढ़ वर्ष का था। हम सब लोग ननिहाल में थे, कोई विशेष महत्त्व का दिन था। इस पर ननिहाल वालों ने अपनी सारी बाई-बेटियों को बुलाया था। खीर पक रही थी। रसोइया खीर बनाने में लगा था। भट्ठी पर कड़ाही के नीचे चार छोटे-छोटे ईंट के टुकड़े रखे हुए थे। रसोईया जोर-जोर से खीर हिला रहा था ताकि खीर पैंदे में चिपक न जाए। कुदरत का संयोग। तुम्हारे 64 घर को कैसे स्वर्ग बनाएं-4 For Personal & Private Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन में ऐसी कोई होनी होनी थी कि अचानक उन ईंट के टुकड़ों में से एक टुकड़ा खिसक गया और कढ़ाई में रखी हुई खीर बाहर छलक पड़ी। तुम पास ही लेटे हुए थे। वह खीर सीधी तुम्हारी छाती पर आकर गिरी। मैं माँ के यह कहते ही चौंक पड़ा। माँ ने कहा-बेटा तुम्हारे पूरे हाथ, तुम्हारा पेट, तुम्हारी छाती जल गई। तत्काल तुम्हें अस्पताल ले जाया गया। उस समय हम जहाँ रहते थे वहाँ इतनी अच्छी चिकित्सा-व्यवस्था नहीं थी कि जिससे उचित उपचार मिल सके। साध्वी माँ ने कहा- बेटा, उस समय मैंने दो साल तक तुम्हें अपने हाथों में रखा। डॉक्टर ने कह दिया था कि अगर बच्चे का एक भी फफोला फूट गया तो ज़िन्दगी भर के लिये दाग रह जाएंगे। बेटा, उस दौरान मैं सो नहीं पाई, ढंग से खा नहीं पाई। लम्बे अर्से तक केवल तुम्हें ही सहेजती रही। हरदम यही ख्याल रहता था कि मेरे बेटे की छाती पर कहीं दाग न रह जाए। बेटा, फिर भी कुछ फफोले फूट ही गए। तुम्हारी छाती और पेट पर छोटे-छोटे दाग रह ही गए हैं। अगर हो सके तो बेटा उन दागों के लिए मुझे माफ करना। ओ माँ, तेरी भी क्या महानता है कि तू बेटे को बेदाग़ रखने के लिए इस तरह खुद को कुर्बान करती रही। ओ माँ, ओ माँ, तू कितनी सुंदर है, तू कितनी शीतल है, तू प्यारी-प्यारी है, ओ माँ, ओ माँ...। ये जो दुनिया है, जीवन है कांटों का तु फुलवारी है, ओ माँ, ओ माँ .... । दुःखने लगी माँ ये तेरी अँखियाँ, मेरे लिए जागी है तू, सारी-सारी रतियाँ। मेरी निंदिया पे, तेरी निंदिया है, तू बलिहारी है, ओ माँ, ओ माँ...। अपना नहीं तुझे सुख-दुख कोई, मैं मुस्काया, तू मुस्काई, मैं रोया, तू रोई, मेरे हंसने से, मेरे रोने से, तू बहलाती है, ओ माँ, ओ माँ...। 165 For Personal & Private Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माँ बच्चों की जां होती है, वे होते हैं किस्मत वाले जिनके माँ होती है, तू कितनी सुन्दर है, तू कितनी शीतल है, तू प्यारी-प्यारी है, ओ माँ, ओ माँ...। अच्छी किस्मत उन्हीं की है, जिनकी किस्मत में माँ की लकीर है। सच्ची मस्कान उन्हीं की है जिनकी मुस्कानों में माँ की दुआएँ हैं। जीना उसी का जीना है जिनके माथे पर माँ की छाया है, मरना उन्हीं का मरना है जिनकी जां माँ के चरणों में हैं । सांस चाहे आए, चाहे जाए, सांस के हर सुरताल में एक ताल जरूर होना चाहिए और वह है माँ। माँ तूने तीर्थंकरों को जन्मा है, यह संसार तेरे ही दम से बना है, तू पूजा है, मन्नत है मेरी, तेरे ही चरणों में जन्नत है मेरी, माँ तू धन्य है, कृतपुण्य है, तूने तीर्थंकरों को जन्मा है, अवतार और पैग़म्बरों को पैदा किया है। राम और रहीम तुमसे हैं, कृष्ण और कबीर भी. तुमसे हैं, महावीर और मोहम्मद भी तुम्हीं से हैं। सचमुच, स्वर्ग अगर कहीं है तो माँ के चरणों में हैं। मोहब्बत का अगर कहीं कोई सच्चा चिराग़ जलता है तो वह माँ के आँचल में है। माँ के आँचल में सरज की रोशनी है. चाँद की चाँदनी है, तारों की टिमटिमाहट है, फूलों की खुश्बू है, झरनों का कलरव है, कोयल के गीत हैं, हिमालय की शीतलता है, सागर की गहराई है, धरती की सहनशीलता है। माँ सचमुच तू माँ है। तुझसे ही नारीजाति धन्य है। सोचो अगर दुनियाँ में माँ न होती! तुम और हम कहाँ से होते। इस गर्भपात के युग में भी माँ ने अपन सब लोगों को जन्म दिया है, हे माँ तुम्हारी इससे बड़ी हमारे लिए दौलत और अमानत क्या होगी? तुम्हारा धन हमारी विरासत नहीं है, तुम्हारी सम्पत्ति हमारी अमानत नहीं है वरन हम स्वयं ही तुम्हारी विरासत हैं और तुम्हारी अमानत है। इसीलिए तुम हमारी मोहब्बत भी हो और इबादत भी। तुम हमारी खुदा भी हो और ख़िदमत भी। तुम हमारी ईश्वर भी हो और हमारी प्रार्थना भी। माँ तो हमारे जीवन को जन्म देने वाली केवल जननी और कोख में धारण करने वाली धरित्री ही नहीं है, वरन् वो तो हमारे जीवन की गुरु और 66 For Personal & Private Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिक्षिका भी है। अपने बच्चों को बेहतर संस्कार देकर उन्हें बेहतर इंसान बनाना किसी भी देश की सरकार को चलाने से भी अधिक चुनौतीपूर्ण है। चाहे पौराणिक काल की पार्वती हो या त्रेता युग की सीता अथवा द्वापर युग की कुंती या यशोदा, चाहे राजा-महाराजाओं के युग की जीजाबाई या अहिल्याबाई हो अथवा हमारे युग की मदर टेरेसा हो अथवा मेरी और आपकी माँ हो, अपने द्वारा दी जाने वाली ममता, मोहब्बत, बेहतर संस्कार और बेहतर जीवन के कारण ही सदा-सदा पूजनीय रहती है, जॉर्ज वाशिंग्टन ने लिखा है कि मैं अपने जीवन में झूठ कभी भी इसलिए नहीं बोल पाया क्योंकि बचपन में एक बार झूठ बोलने पर माँ ने यह कहते हुए झन्नाटेदार चांटा मारा था कि मैं झूठे बेटे की माँ कहलाने की बजाय बांझ कहलाना ज्यादा पसंद करूंगी। माँ तो ममता की महादेवी है। माँ तो सहनशीलता की प्रतिमूर्ति है। माँ बस माँ नहीं, संस्कारों को देने वाली शिक्षिका और गुरु भी है। माँ अपने आप में त्याग का यज्ञ है, कुर्बानी का ज़ज्बा है। हमने अब तक साधना-केन्द्र तो देखे होंगे, मगर समता और समाधि का ऐसा मन्दिर नहीं देखा होगा जो कि माँ के रूप में आपके घर में है। एक सच्ची घटना है। एक हँसता-खिलता परिवार था। परिवार बहुत प्रेम से रह रहा था कि कुदरत का कहर बरपा। पिताजी का असमय निधन हो गया। पीछे बच गई माँ और उसका अकेला बेटा। पिता की यह तहेदिल की इच्छा थी कि उसका बेटा डॉक्टर बने। पिता के देहावसान के पश्चात माँ पर अपने बच्चे का सारा दायित्व आ गया था। उसे रह-रहकर अपने पति की ख्वाहिश याद आती। माँ सोती तब भी उसे अपने पति के शब्द याद आ जाते। उसने ठान लिया कि मैं पति की इच्छा पूरी करूँगी और बच्चे को डॉक्टर बनाऊँगी। बेटे का भविष्य बनाने के लिए वह लोगों के यहाँ काम करने के लिये जाती। जो आमदनी होती उससे अपने बच्चे को पढ़ाती-लिखाती। जो थोड़ा बहुत गहना था उसे बेचा, मकान भी बेच डाला, एक झुग्गी-झोपड़ी में आकर रहने लग गई। पर जैसे-तैसे उसने अपने बेटे को अन्ततः डॉक्टर बना ही दिया। समय बीता, बेटे की शादी हुई। बहू भी डॉक्टर मिली। फिर शुरू हुआ पुरानी और नई पीढ़ी के बीच असन्तुलन का सिलसिला। सास को बहू का | 67 For Personal & Private Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रहन-सहन रास न आया तो कभी माँजी कह दिया करती थी- बेटा, सिर ढक लो। बहू को यह टोकाटोकी पसन्द न आई और बहू ने तब यह फैसला कर लिया कि वह अपनी सास से अलग हो जाएगी। ___बहू ने अपने पति से कहा- मैं अब किसी भी हालत में इस घर में नहीं रहूंगी। आप या तो माँजी को अलग करो या मुझे। बेटे ने पत्नी को समझाने की कोशिश की कि- कुछ तो सोचो मेरी माँ ने मेरे लिए कितनी कुर्बानियाँ दी हैं, कितनी कठिनाइयों से मुझे पाला-पोसा और डॉक्टर बनाया है। आज मेरी जो भी हैसियत है उसमें मेरी माँ का ही हाथ है, पर बहू न मानी। बेटे को आख़िर बहू के आगे झुकना पड़ा, बीवी का गुलाम जो ठहरा। माँ को 'अपना घर' में पहुँचाया गया। बहू भी साथ में छोड़ने आई। बेटे ने माँ से कहा- माँ, तुम यहीं वृद्धाश्रम में रहो। यहां और भी बूढ़े लोग हैं। यहां तुम्हारा मन भी लग जाएगा। मैं जब-तब आता रहूंगा। तुम्हें कोई तकलीफ़ न हो, इसलिए मैं तुम्हें पाँच सौ रुपए हर महिने भिजवाता रहूँगा। ___ माँ ने अपना घर' को देखा। सोचने लगी कि जिस घर में पैदा हुई थी वह भी अपना न बन पाया। जिस बेटे को पढ़ा-लिखाकर तैयार किया, वह भी अपना बेटा न रह पाया। जिस बहू को इतनी मनौतियाँ करके लाई, वह भी अपनी बहू नहीं बन पाई। अब तो यहाँ जो अन्तिम शरण मिली है यही मेरा अपना घर हो जाए। माँ ने वृद्धाश्रम को देखा, फिर बेटे को एक नज़र देखा और कहा- ठीक है बेटा, जिसमें तुम लोगों को सुख मिले, वैसा ही करो। बुढ़िया वृद्धाश्रम में रहने लगी। हर महिने पांच सौ रुपए आते रहे। बेटा छ: महिने में एक बार मिलने के लिए आ जाता तो कभी-कभार बहुरानी लोक-लाजवश वहां चली जाती। इस तरह कोई ढाई वर्ष बीत गए। एक दिन वृद्धाश्रम के संचालक का बेटे के पास फोन आया- डॉक्टर साहब, आपकी माँ नाजुक हालत में है। आप तत्काल यहाँ पहुँच जाइए। आपकी माँ जाने से पहले आपसे मिलना चाहती है। बेटे ने कहा- मेरे पास कुछ मरीज हैं । बस, उन्हें निपटा कर आता हूँ। उसी माँ की बेटी अमेरिका में रहती थी, उसको भी सूचना मिली। वह तो अगले दिन पहुँच गई। अगले दिन बेटा अपनी पत्नी और अपने दो बच्चों को साथ लेकर वृद्धाश्रम में पहुँचा। देखा कि वहां पर पूरा गमगीन माहौल है। 68 For Personal & Private Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामने बहिन को खड़े पाया तो और चौंका । उसने पूछा- माँ कहाँ है ? सबके चेहरे लटके हुए थे। चेहरे बयां कर रहे थे कि माँ नहीं रही। बेटे को अपनी ग़लती का अहसास हुआ। उसे अपना अतीत याद हो आया। उसे लगा कि उसने अपनी माँ के साथ ठीक व्यवहार नहीं किया। आगे बढ़ा तो देखा कि सामने सफेद चादर में लिपटी माँ की लाश पड़ी थी। बहन ने टोका- भैया, तुम्हारे हाथ इस काबिल नहीं हैं कि तुम दिवंगत माँ के पाँव छुओ। जो व्यक्ति जीते जी अपनी माँ के काम न आया वह माँ के मरने के बाद उसके हाथ लगाने के भी काबिल नहीं रहता। बहिन की इस कटाक्ष भरी बोली को सुनकर आक्रोश भरी नज़रों से बहिन को देखा। उसने वृद्धाश्रम के संचालक से पूछा- क्या आखिरी सांस लेने से पहले माँ ने मुझे याद किया था? संचालक ने दर्दभरी आवाज में कहा- डॉक्टर, पिछले ढाई सालों में तुम्हारी माँ केवल तुम्हें ही याद करती रही। मरने से पहले भी उसकी यही अन्तिम इच्छा थी कि वह मरने से पहले अपने बेटे का मुँह देख ले, लेकिन तुम न आए तो न ही आए। हाँ तुम्हारी माँ ने जाने से पहले तुम्हारे लिए ये दो लिफाफे दिए हैं। उसने देखा कि एक लिफाफा पतला था और दूसरा मोटा। उसने लिफाफे हाथ में लिये और पतला लिफाफा खोला। उसमें माँ का लिखा एक ख़त था। लिखा था ___ "मेरे प्यारे बेटे, आख़िर तुम आ गए। मुझे विश्वास था कि तुम ज़रूर आओगे। जब मैं यह ख़त लिखवा रही हूँ तो मैं अपनी अन्तिम भावना व्यक्त कर रही हूँ कि मैं मरने से पहले तुम्हारी शक्ल जरूर देखू। बेटे, तुम कितने अच्छे बेटे थे कि तुमने हर महिने मुझे पाँच सौ रुपए भिजवाए। तुमने मेरी देखभाल करवायी। मुझे इस घर में कोई तक़लीफ नहीं हुई। जितना सुख मुझे ससुराल या पीहर में नहीं मिला, उससे ज्यादा सुखशान्ति मुझे 'अपना घर' में मिली है। बेटा, मुझे यहां एक पैसा भी खर्च करने की ज़रूरत ही नहीं पड़ी। मैं जो साड़ियाँ अपने साथ लाई थी उसी में ही मेरे ढाई वर्ष निकल गए। खाना-पीना मुझे यहाँ पर मुफ्त में मिलता था तो एक पैसा भी काम न आया। बेटा, तुमने हर महीने पाँच सौ रुपए भेजे जो ढाई वर्ष में पन्द्रह हजार रुपए हो गए। मैं मरने से पहले ये पन्द्रह हजार रुपए इस | 69 For Personal & Private Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिफाफे में डलवाकर जा रही हूं। बेटा, जैसे मैं बूढ़ी हुई हूँ ऐसे ही एक दिन तुम भी बूढ़े हो जाओगे। तुम तो मेरे बहुत अच्छे, बहुत प्यारे बेटे हो जो तुमने पाँच सौ रुपए हर महीने मुझे भेज दिए। लेकिन बेटा, ज़माना बदल रहा है। एक दिन तुम भी बूढ़े होओगे, हो सकता है तुम्हें भी ऐसे ही किसी 'अपना घर' में रहना पड़े। मुझे नहीं पता उस समय तुम्हारा बेटा तुम्हें पाँच सौ रुपए भी भेज पाएगा या नहीं। उस समय तम्हें पैसों की दरकार रहेगी। ये पन्द्रह हजार रुपए मैं तुम्हारे उस समय के लिए छोड़कर जा रही हूँ।" माँ, तुम सचमुच माँ हो। त्याग का यज्ञ हो। माँ इस त्याग के यज्ञ को पूरा करना तुम्हारी ही ताक़त के बलबूते पर है । हम पुत्रों के बल पर यह त्याग का यज्ञ पूरा नहीं किया जा सकेगा। शायद दुनियाँ का बड़े से बड़ा करोड़पति भी रोजाना दान नहीं देता होगा पर माँ तो रोजाना दान देती है। सरवर, तरवर और संतजन की तरह निष्पृह दान देती है। जितना उसने हमसे लिया है उससे कईकई गुना अधिक उसने हमें लौटाया है। माता-पिता दिन-भर में बेटे की चार रोटियाँ खाते होंगे, पर वे दिनभर तुम्हारे बच्चों को सहेज-सम्भालकर संस्कार देते रहते हैं। माँ-बाप तो घर के मुफ्त के चौकीदार हैं। बूढ़े माँ-बाप तो उस बढे पेड की तरह होते हैं जो फल भले ही न दे पर जो भी उनके पास आकर बैठते हैं उन्हें अपनी शीतल सुखद छाया तो देते ही हैं। माता के तो बहुत सारे अवढ़र दान हैं। लेकिन अब जरूरत आ पड़ी है कि हम अपनी ओर से माँ के प्रति रहने वाले दायित्वों को किस तरह निभाते हैं, यह सोचो। सोच-सोचकर सोचो। जो माँ के साथ हैं वह सोचें, जो माँ से अलग हैं वह सोचें, जिनकी माँ ऊपर जा चुकी है वे भी सोचें कि हमने अपनी ओर से उनके प्रति कितने दायित्व और फ़र्ज़ अदा किए हैं, या अदा कर रहे हैं अथवा अदा करेंगे। माँ के प्रति अपने फ़र्ज़ अदा करने हैं तो पहला कर्त्तव्य यह निभाओ कि सुबह उठते ही अपने माता-पिता को प्रणाम अवश्य करो। हमारी आँख खुले तो सबसे पहले माँ के चरणों के दर्शन हों। उनसे मिली हुई दुआएँ जगदम्बा से मिली हुई दुआएँ हैं। माँ के चरणों में जाकर अपना मत्था टेकें। पंचांग नमन करें। दो घुटने, दो हाथ, चारों ज़मीन पर टिकाकर, करबद्ध होकर मस्तक उनके पाँवों में झुकाकर उनके हाथ को अपने माथे पर रखाओ। माँ के हाथ से 70 | For Personal & Private Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जो आभामण्डल, जो किरणें हमारी पीठ और हमारे माथे पर बरसेंगी वो हमारे लिए प्रकाश का, रक्षा कवच का, भाग्योदय का काम करेगा। सुबह - सुबह माता-पिता को किये जाने वाले प्रणाम के साथ अपने दिन की शुरुआत करना श्रेष्ठ पुरुषों का, श्रेष्ठ बहु-बेटियों का पहला संस्कार है। यदि आप अपने माँबाप को प्रणाम करेंगे तो आपके बच्चे आपको भी प्रणाम करेंगे, इस तरह आपके पूरे परिवार के हर दिन की शुरुआत प्रेमभाव से, प्रणामभाव से, शुभकामनाओं से होगी । बासी मुंह बड़े-बुजुर्गों के आशीर्वाद लेना कुलीन घर-घरानों की बहु-बेटियों का, कुलीन बच्चों का पहला दायित्व है। माँ के प्रति फ़र्ज़ अदा करने के लिए दूसरा काम यह करें कि चौबीस घंटों में से एक समय भोजन माता-पिता के साथ बैठकर अवश्य करें, ताकि हमें यह विश्वास रहे कि मेरी माँ को आख़िर वही भोजन मिल रहा है जो मैं, मेरे बच्चे, मेरी पत्नी और मेरे भाई लोग स्वीकार करते हैं । अभी कुछ दिन पहले की घटना है । हमारे पास एक महानुभाव आये । उन्होंने बताया कि एक दिन मैं खाना खाने बैठा तो मैंने अपने बेटे की बहू से कहा— आज थोड़ा दही दे दो। बहू ने कहा- पापा, दही तो नहीं है। खैर जो कुछ भी था, मैंने खाया और घर से निकल गया। अमुमन खाना खाने के बाद मैं घर लौटकर नहीं आता, पर उस दिन पता नहीं क्या संयोग था कि मैं लौटकर आया तो देखा कि मेरे बेटे की थाली में दही की कटोरी रखी थी । ऐसी घटना न घटे इसके लिए ही यह हिदायत दे रहा हूँ कि चौबीस घंटें में एक बार माता-पिता के साथ बैठकर खाना अवश्य खाएँ। इससे एक-दूजे के प्रति मोहब्बत भी बढ़ेगी, माँ-बाप बच्चों के साथ खाना खाकर खुश होंगे और बच्चे, भी माँ-बाप के साथ खाना खाकर सुकून पाएँगे । तीसरा काम यह करें कि रात को सोने के लिए जाने से पहले माता-पिता के पास जाकर इतना-सा पूछ लें कि मम्मी-पापा कोई सेवा की ज़रूरत है ? अगर कोई काम हो तो कर दीजिए । फिर अपने कमरे में जाएँ। अगर उनके शरीर के किसी भाग में दर्द है तो उनके हाथ-पैर - कमर दबा दें। दर्द से राहत पाते-पाते उनकी हमारे लिए जो दुआएँ निकलेंगी वही हमारे लिए मुस्कान का काम करेंगी। चौथा काम यह करें कि अलसुबह अपनी बुज़ुर्ग माँ को मंदिरजी के 71 For Personal & Private Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शन कराने ले जाएँ। शायद इसी बहाने सही, माँ के थोड़े कर्ज़ उतारने का अवसर मिल जाए। माता-पिता के मरने के बाद जीमणवारी करना या हरिद्वार जाकर उनके फूलों को विसर्जित करना महज़ रूढ़ता की लकीरों को पीटने की तरह है, माँ के जीते-जी तुम कुछ ऐसा करो कि तुम्हारे कारण उनकी सद्गति का प्रबंध हो जाए। और इसकी शुरूआत करने के लिए हर रोज़ अपनी माँ को मंदिर दर्शन कराने ले जाओ। माँ की अंगुली पकड़कर उतने साल तो मन्दिर अवश्य ले जाएँ जितने साल तक माँ हमारी अंगुली पकड़कर हमें विद्यालय लेकर गई। ____ मैंने सुना है कि भारतीय संस्कृति में पुत्रों का जन्म इसलिए महत्वपूर्ण होता है कि वे अपने माता-पिता का तर्पण कर सके। उनकी गति सद्गति कर सके। मरने के बाद तो हम ब्राह्मणों को भोज दे देंगे, उनके नाम से प्याऊ भी बना देंगे। मुझे नहीं पता कि यह कितना सार्थक तर्पण होता है। अगर हम जीते-जी उनकी गति और सद्गति की व्यवस्था करते हैं तो यही पुत्र होने की सार्थकता है। मरना तय है, सबके शरीर यहीं छूट जाने वाले हैं, पर माता-पिता मरें, उससे पहले हम उनकी सद्गति की व्यवस्था करें। भले ही हम कहीं अन्यत्र अपना अलग घर क्यों न बसा चुके हों पर माँ की अन्तिम सांस जब निकले, तब हम उनके पास ज़रूर हों। मेरे मित्र, ईश्वर से इतनी प्रार्थना अवश्य करना कि माता-पिता के जब प्राण निकले तो हम सारे पुत्र उनके क़रीब हों, उन्हें कंधा देने वाले हों, उन्हें तर्पण देने वाले हों, उनकी मुक्ति का प्रबंध करने वाले हों। हाँ, एक और कर्त्तव्य यह है कि साल में एक दफा अपनी घर-गृहस्थी या बिजनेस से छुट्टी लेकर अपने बुजुर्गों को सात दिन के लिए तीर्थयात्रा के लिए ज़रूर ले जाएँ। मेरी बहनों, अपने पति को केवल पति ही मत बनाओ, अपने पति को श्रवण कुमार बनने की भी प्रेरणा दो। आप किसी घर की पत्नी ही नहीं उस घर की कुलवधु भी बनें। कुलवधु वह नहीं होती जो अपने पति को लेकर घर अलग बसा लेती है। कुलवधु वह है जो मरते दम तक अपने सास-ससुर की सेवा किया करती है। बहिनो, यदि आप अपने बूढ़े सास-ससुर की सेवा करेंगी तो निश्चय ही आपके पति के नवग्रह अनुकूल होंगे और आपकी सात पीढ़ियां फलेंगी-फुलेंगी। बहू चाहे गोरी हो या सांवली इससे क्या 72 | For Personal & Private Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फ़र्क पड़ता है। ठीक है, गोरी बहू आँखों को अच्छी लगती है पर तुम उसे आखिर कितना चाटोगे ? जीवन में रंग का नहीं जीने के ढंग का महत्त्व है। घर में बहु का आदर रंग के कारण नहीं वरन उसके गुणों के कारण होता है। आप एक बड़े बाप की बेटी हैं और एक बड़े घर की बहु । स्वयं को एक अच्छी कुलवधु साबित कीजिए । आप साल में एक बार अपने सास-ससुर को तीर्थयात्रा कराने के लिए अवश्य ले जाएँ और भाइयो, हो सके तो आप महिने में जितना कमाते हैं, उसका एक अंश अपने माता-पिता को ले जाकर अवश्य दें। उनसे कहें कि आप धर्म में खर्च करें, गौशालाओं के लिए उपयोग करें, दीन-दुखियों की मदद करें। जिस प्रकार हम अपने बच्चों की फीस, बीवी की साड़ी, घर का सामान, घर का किराया चुकाते हैं तो क्या हम कुछ हिस्सा माता-पिता को नहीं दे सकते ? आखिर भाई उनकी भी कुछ ख़्वाहिशें हैं, वे भी धर्म में कुछ खर्चा करना चाहते हैं, अपने पोते-पोतियों और दोहिते - दोहितियों का लाड़ करना चाहते हैं। और यह सब तभी संभव होगा जब तुम अपनी कमाई का एक चाराना उन्हें दोगे। जब हम असहाय थे तो उन्होंने हमें थामा था और अब जब वे बुजुर्ग हो चुके हैं तो हमारा फ़र्ज़ बनता है कि हम उनकी अंगुली थामें उन्होंने हममें अपना भविष्य देखा । हम उनमें अपने वर्तमान को सजाएं -संवारें । याद रखिएगा जो अपने माँ-बाप का न हो सका वो किसी बीवी या दोस्त का क्या होगा । I माता-पिता के प्रति अपने फ़र्ज़ अदा करने के लिए भाई-भाई सब साथ रहो । रोटी दो हो और खाने वाले चार, तब भी सब मिल - बांट कर खाओ । भाइयों को हंसते-खिलते देखकर ही माइतों को खुशी होती है। सच्चाई तो यह है कि माँ-बाप के आँचल में ही दुआओं का वह ख़ज़ाना भरा हुआ है जिसे तुम जितना लूटना चाहो, लूट लो । याद रखो, माँ-बाप को भूखा रखकर अगर वृद्धाश्रम में दान भी दोगे तो ऐसा करना दान का अपमान कहलाएगा। माँ-बाप के भोजन की व्यवस्था न करके अगर कोई कबूतरों को दाना भी डालता है तो कबूतर भी ऐसे दानों को स्वीकार करने से परहेज़ रखेंगे। मंदिर की देवी को चुनरी ओढ़ाने से पहले कृपया अपनी देवी माँ की फटी हुई चुनरिया को बदलो तभी जगदम्बा मंदिर में चढ़ाई गई चुनरिया को स्वीकार करेगी । For Personal & Private Use Only 73 Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरे भाई जीवन में एक ऐसा मंदिर अवश्य बनाना जिसके गर्भ गृह में परमात्मा की प्रतिमा हो और जिसके प्रवेश द्वार पर करबद्ध अवस्था में दो मूर्तियाँ और हों जो सदा याद दिलाती रहें आपको अपने माँ-बाप की। मेरी दुनिया है माँ तेरे आँचल में, शीतल छाया तू दुख के जंगल में॥ मेरी राहों के दीये, तेरी दो अंखियाँ, मुझे गीता से बड़ी, तेरी दो बतियाँ। युग में मिलता जो वो मिला है पल में, मेरी दुनिया है माँ तेरे आँचल में॥ मैनें आँसू भी दिए पर तू रोई ना, मेरी निंदिया के लिए बरसों सोई ना। ममता गाती रही ग़म के हलचल में, मेरी दुनिया है माँ तेरे आँचल में। काहे ना धोके पियें, ये चरण तेरे माँ, देवता प्याला लिए तरसे खड़े माँ। अमृत छलका है, इसी गंगाजल में, मेरी दुनिया है माँ तेरे आँचल में॥ 74/ For Personal & Private Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4? चिंता छोड़ें, सुख से जिएँ मारे जीवन के दो प्रबल शत्रु हैं - क्रोध और चिंता । ये दोनों भाई-बहिन की तरह हमारे साथ रहते हैं । जिनके जीवन में क्रोध और चिंता नहीं हैं उनका दिन तो चैन से बीतता ही है उनकी रातें भी मंगलमय होती हैं। क्रोध से जहाँ व्यक्ति अपने आपे में नहीं रहता, उसके स्वास्थ्य पर बुरा असर होता है और आपसी रिश्तों में खटास आती है वहीं चिंता मानसिक संतुलन को आघात पहुँचाती है, स्वभाव को चिड़चिड़ा बनाती है, व्यापार और व्यवसाय को प्रभावित करती है, मानसिक शांति और केरियर दोनों ही क्षतिग्रस्त होते हैं । क्रोध से तो दूसरों पर बुरा असर अधिक होता है लेकिन चिंता से स्वयं पर ही घातक प्रभाव पड़ता है । क्रोध से शांति का नाश होता है तो चिंता से सौन्दर्य का । क्रोध से विवेक का विनाश होता है तो चिंता से मनोबल का । कुल मिलाकर ये दोनों ही हमारे दिलोदिमाग़ के दुश्मन हैं, रोगों के जनक हैं । वैसे सभी को कभी-न-कभी क्रोध भी आता है और चिंता भी सताती है । | 75 For Personal & Private Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ये दोनों ऐसे रोग हैं जो न केवल धार्मिक को बल्कि नास्तिक को भी परेशान करते हैं। धर्म अलग-अलग हो सकते हैं, लेकिन चिंता और क्रोध मनुष्य मात्र को होते हैं। छाया की तरह चिंता और क्रोध व्यक्ति के साथ लगे रहते हैं । सास को बहू की, बहू को सास की, पति को पत्नी की, पत्नी को पति की, पिता को पुत्र की, पुत्र को पिता की चिंता किसी-न-किसी रूप में लगी रहती है। बच्चे के जन्म के साथ ही माता-पिता की चिंता शुरू हो जाती है । बच्चा थोड़ा-सा बड़ा हुआ कि स्कूल भेजने की चिंता, स्कूल जाने लगे तो पढ़ाई की चिंता, पढ़ने लगे तो परीक्षा की चिंता, परीक्षा हो जाए तो परीक्षाफल की चिंता । बच्चा थोड़ा-सा बड़ा हो जाए तो क्या विषय लेकर आगे पढ़ना है, किस कॉलेज में एडमीशन लेना है इसकी चिंता । मनपसंद विषय मिल जाए तो फीस की, छात्रवृत्ति की चिंता । कॉलेज की शिक्षा पूर्ण हो जाए तो केरियर बनाने की चिंता, नौकरी की चिंता । नौकरी मिल जाए तो शादी की चिंता, शादी हो गई तो बच्चों की चिंता यानी चिंता का चक्र अनवरत गति से चलता रहता है। सड़क पर चले तो स्कूटर पाने की चिंता, कार पाने की चिंता, चिंताओं का जाल फैलता चला जाता है। बुढ़ापा आने पर बच्चे सेवा करेंगे या नहीं और मरने पर स्वर्ग मिलेगा या नरक, इसकी चिंता भी सताती रहती है । 1 इस मुगालते में न रहें कि आप पत्नी या पति के साथ जी रहे हैं, आप सिर्फ़ क्रोध और चिंता के साथ जीते हैं वही आपका पति या पत्नी है । आप स्वयं अपनी ओर देखिए और अपना मूल्यांकन कीजिए कि किस तरह आपको चिंता सताती है। चिंता का पहला दुष्प्रभाव व्यक्ति के मन और सेहत पर होता है। मनुष्य का दिमाग़ उसके जीवन की सबसे बड़ी पूँजी है । लेकिन चिंताओं के बढ़ने के साथ तनाव बढ़ता है और मन अस्थिर होता चला जाता है। जिसके जीवन में तनाव ने अपना स्थान बना लिया है उसका मन उस मिट्टी की तरह हो जाता है जो तालाब का पानी सूख जाने पर मिट्टी का होता है । गर्भवती स्त्री यदि चिंतित रहे तो गर्भस्थ शिशु में ख़ून की कमी हो जाएगी । चिंता से व्यक्ति की स्मरण-शक्ति प्रभावित होती है, नेत्र - ज्योति क्रमशः कम हो जाएगी, स्वादग्रंथि की क्रियाशीलता कम हो जाएगी, उसके बोलने के तरीके पर प्रभाव पड़ेगा, बोलने में असम्बद्धता आएगी। गले में हमेशा खरास बनी रहेगी । चिंता के कारण ब्रेन हेमरेज हो सकता है, चिंता से स्वास्थ्य के साथ-साथ व्यापार I 76 | For Personal & Private Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवसाय, परिवार-समाज में आपसी संबंधों पर भी दुष्प्रभाव पड़ता है। इसीलिए व्यक्ति को चाहिए कि वह सबसे पहले अपने क्रोध और चिंता पर विजय प्राप्त करे। जो क्रोध और चिंता से लड़ना नही जानते, जिन्हें इन पर विजय प्राप्त करने की कला नहीं आती, वे अकाल-मृत्यु के शिकार बनते हैं। __भगवान महावीर ने ध्यान के चार रूप कहे थे-आर्त-ध्यान, रौद्र-ध्यान, धर्म-ध्यान और शुक्ल-ध्यान। जो व्यक्ति लगातार चिंता से घिरा रहता है वह आर्त-ध्यान का शिकार होता है और जो सतत क्रोध करता रहता है वह रौद्रध्यान में मशगूल रहता है। लेकिन जो चिंता की बजाय चिंतन करता है वह धर्म-ध्यान का अनुयायी होता है, पर जिसके मन में न चिंता है और न ही चिंतन, जो चित्त की हर उठा-पटक से मुक्त होता है वह शुक्ल ध्यान का अधिकारी होता है। आर्त और रौद्र ध्यान से घिरा व्यक्ति जीवन भर इन्हीं के चक्रव्यूह में फँसा रहता है। बाहर से तो लगता है कि वह मंदिर जा रहा है, सामायिक कर रहा है लेकिन पता नहीं चित्त में कितनी उधेड़बुन चलती रहती है। न तो दान देने से स्वर्ग मिलता है और न ही चोरी करने से नरक, बल्कि अपने मन के शुभ और अशुभ परिणामों के अनुसार व्यक्ति स्वर्ग या नरक का अधिकारी बनता है। __हम सभी अपने मन को देखें कि वहाँ कैसी उधेड़बुन चल रही है। चिंता घुन है और चिंतन धुन। जैसे घुन गेहूँ को भीतर-ही-भीतर खोखला कर देती है, वैसे ही चिंता जिसे लग जाती है वह उसे चिता के रास्ते ले जाती है। चिंता और चिता में मात्र एक बिंदी का फ़र्क है लेकिन चिता तो एक बार ही जलाती है और चिंता जीवनभर जलाती रहती है। एक बार मरना आसान है लेकिन रोज़-रोज़ का मरना और जलना व्यक्ति के लिए आत्मघातक है। कोई भूतकाल की बातों को लेकर चिंतित है तो किसी को भविष्य की बातों की चिंता है। चिंता से उबरना है तो अपने वर्तमान-जीवन के मालिक बनिए, इसी का आनंद लीजिए। जो बीत गया सो बीत गया। क्या आप बीते हुए समय को लौटा सकते हैं? हाँ, और जो आया नहीं है उसके लिए भी कैसी चिंता! जो कल दिखाएगा वह उसकी व्यवस्था भी देगा। जिसने चोंच दी है वह चुग्गा भी देगा। जिसे न किसी बात की चिंता है, न किसी बात की चाह और न किसी | 77 For Personal & Private Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बात का डर है उसे ही रात में चैन की नींद आएगी। वह सहज जीएगा और सहज सोएगा। कहते हैं: चाह गई चिंता मिटी, मनवा बेपरवाह। जिनको कछु न चाहिए, ते शाहन के शाह॥ जिसकी कोई तलब नहीं, तड़फ नहीं, लालसा नहीं, वही तो जीवन का बादशाह है। जो आया नहीं उसके बारे में क्या सोचना? जब आएगा, तब सोचेंगे, सामना करेंगे। लोग प्राय: मुझसे पूछते हैं, 'आपको चिंता नहीं सताती।' तब मैं कहा करता हूँ-'चिंता सताती थी, लेकिन जब से जीवन की समझ विकसित हुई, जीवन की समझ मिली तब से चिंता गायब हो गई।' और यही समझ अगर आप अपने जीवन से जोड़ लें तो आपके पास से भी चिंता का टेम्प्रेचर डाउन हो सकता है। सौ प्रतिशत नहीं तो अस्सी प्रतिशत तो आप चिंताओं से मुक्त हो ही सकते हैं। आप जानते हैं बच्चा बाद में जन्मता है उसके पहले माँ का आँचल दूध से भर जाता है। वह विधाता सारी व्यवस्थाएँ करता है। आप कल के लिए बहुत-सा जमा करके रखते हो, लेकिन अगर उसने कल ही न दिया तो! उसे अगर कल देना होगा तो कल की व्यवस्था भी देगा। ___मेरे परिचित एक सरकारी अधिकारी हैं, उनकी सेवा-निवृत्ति छह माह बाद होने वाली थी। इसी बीच दीपावली आ गई, चूँकि बड़े अधिकारी थे, सो हर वर्ष की तरह इस बार भी उन्हें लोगों ने उपहार और मिठाइयाँ दी थीं। वे खाना खा रहे थे, उनकी निगाहें उपहार और मिठाइयों के ढेर पर गई और अचानक उदास हो गए। पत्नी ने उदासी का कारण पूछा तो कहने लगे कि अभी तो वह अफसर हैं लेकिन अगली दीपावली के पहले ही रिटायर हो जाएँगे तब भी क्या लोग इसी तरह मिठाइयाँ और उपहार देंगे? ऐसी चिंता करना व्यर्थ है, जो भविष्य की चिंता में वर्तमान को नष्ट कर देता है वह मूर्ख ही होता है। आप आज जो है उसका आनन्द लीजिए। आज इंसान के पास पहनने को तो डायमंड सेट है, बैठने को सोफासेट है, देखने को टी.वी. सेट है, पर माइंड अपसेट है। दिमाग़ में चिंता का महाभारत चल ही रहा है। वह निराश और हताश ज़्यादा है। थोड़ा-सा भी नुकसान वह बरदाश्त नहीं कर पाता। उसकी बजाय जो खो गया, उसकी चिंता 78 For Personal & Private Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न करें। जो है, उसका आनंद लें। अरे, अगर दो दाँत टूट भी गए, तो क्या हुआ, तीस तो बाकी हैं। दो अंगुली कट गई तो क्या हुआ? आठ तो बाकी हैं। दो की याद में शेष को दरकिनार करना बाकियों का अपमान है। चिंता की वजह क्या? ज़्यादा पैसा, जल्दी पैसा, किसी भी ज़रिये से पैसा। यही है दुःख और चिंता का कारण। ज़्यादा हाय-हाय मत करो। शांति से जिओ। कमाई करो, पर गलाई मत करो। चिंता अगर करनी ही है तो ख़ुद के कल्याण की करो। प्रभु-भक्ति की चिंता करो, धर्म-आराधना की चिंता करो। बच्चों की ज़्यादा चिंता मत करो। बीवी की ज़्यादा चिंता मत करो। वे कोई लंगड़े-लूले नहीं है, जो हम उनके लिए ऐसी-वैसी चिंता करते रहें। हमसे बीबी-बच्चों की जो सेवा सहज में बन जाए, कर लो, बाकी मस्त रहो। चिंता को कम करने के लिए हमे चार प्रश्नों पर विचार करना चाहिए - 1. समस्या क्या है ? 2. समस्या की वज़ह क्या है? 3. समस्या के सभी संभावित साधन क्या है ? 4. समस्या का सर्वोत्तम समाधान क्या है ? ये वे चार प्रश्न हैं, जिन पर चिंतन करने से चिंता को कम या दूर किया जा सकता है। वैसे कई दफ़ा सूर्य भी बादलों से ढंक जाता है। बड़ों को भी कई दफ़ा संकट से गुज़रना पड़ता है। विश्वास रखिए, प्रभु आपके साथ है। कहते हैं ताओ का एक शिष्य था-चुअंगत्सी। एक बार उसकी पत्नी मर गई। हुइत्से मिलने गया। जब वह मिलने गया तो वह गीत भी गा रहा था और अपना बाजा भी बजा रहा था। लोगों ने उससे पूछा-शोक की वेला में यह गाना-बजाना कैसा? हुइत्से ने कहा-ऋतुओं की तरह चोला बदल जाता है। इसमें रोनाधोना कैसा? जीवन की यह दृष्टि ही शांति और मुक्ति की दृष्टि है। जो हो गया वह होना ही हुआ। होनी में कैसा हस्तक्षेप! हमारी वज़ह से समस्या हुई है तो उसका समाधान कर लो, जो प्रभु-प्रदत्त है, प्रकृति और नियतिकृत है, उसक लिए रोना कैसा? चिंता कैसी? सहज रहो, मस्त रहो। मुस्कुरा कर जिनको ग़म का यूंट पीना आ गया, यह हक़ीक़त है, जहां में उनको जीना आ गया। जिनको ग़म का चूंट पीना आता है उनकी छाती हमेशा छत्तीस इंच चौड़ी होती है। मज़बूत दिल के लोग कमज़ोर नहीं होते। उनका आत्मविश्वास बुलंद | 79 For Personal & Private Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होता है। वे चिंता नहीं करते। चिंता की वज़ह को समझते हैं और उसका सामना करते हैं। वे चिंतन करते हैं, चिंतन की चेतना को उपलब्ध होते हैं। मैं चिंतामुक्त होने के कुछ सूत्र सुझाव के रूप में दे रहा हूँ, जिन्हें अपनाकर आप और हम अवश्य ही चिंतामुक्त हो सकते हैं - पहली बात कहूँगा-सहज जीवन जियें। न तो कुटिल, न कृत्रिम और न आरोपित-अपना सहज जीवन जीने का प्रयास करें - सहज मिले सो दूध सम, माँगा मिले सो पानी, कह कबीर वह रक्त सम, जामे खींचातानी। जो सहज में मिलता है वह दूध के समान श्रेष्ठ है। माँगने से अगर दूध मिले तो वह पानी के समान है, पर जो कलह करके, मनमुटाव करके, ज़बरदस्ती हासिल किया जाए वह तो रक्त के समान ही है। सहज में जो मिल गया वह आनन्द भाव से प्रेमपूर्वक स्वीकार कर लें। मझे कोई बता रहा था कि उनकी दुकान के सामने ही एक अन्य दुकानदार है जिसकी किसी दिन कम ग्राहकी होती है तो उस दिन बहुत खीजता हुआ रात में शटर गिराता है। मैं सोचता हूँ जिस दिन अधिक कमाया उस दिन तो प्रसन्न नहीं होता। बस कम कमाया उसकी चिंता में नींद ज़रूर ख़राब कर लेता है। अरे भाई, हानि का ही सोचते रहोगे तो लाभ का आनन्द नहीं उठा सकोगे। जो लाभ का आनन्द उठा सकता है वह होने वाली हानि के लिए अधिक चिंता नहीं करता। वह सोचेगा घाटा लग गया, तो क्या कमाई भी तो इसी से हो रही है। ऐसा व्यक्ति सहज जीवन जी सकेगा। प्रकृति-प्रदत्त देह को अनावश्यक कृत्रिम रूप से शृंगारित न करें। इससे आपकी त्वचा, नख, बाल, चेहरा ख़राब होता है-सहज रहें । खानपान पर भी ध्यान रखें। समय से खायें-पियें। यह क्या कि देर रात तक खा रहे हैं, मटरगश्ती कर रहे हैं। ऐसा करके आप स्वयं को नुकसान पहुँचा रहे हैं। दिन-रात भागमभाग में न लगे रहें। आप अधिक जमा कर भी लेंगे तो क्या? भाग्य से अधिक आपके पास टिकेगा नहीं। ___ दशरथ के भाग्य में संतान नहीं थी। लेकिन ज़िद पकड़ ली कि यज्ञ करके ही सही, संतान अवश्य प्राप्त करूँगा। यज्ञ किया, संतान भी हो गई, लेकिन उन्हें कभी भी संतान का सुख प्राप्त न हो सका। हमारे परिचय में एक 80 | घर को कैसे स्वर्ग बनाएं-5 For Personal & Private Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुश्राविका है। हमसे स्नेह रखती हैं, आदर भी करती हैं। उन्हें विवाह के पश्चात् सुदीर्घ समय तक संतान प्राप्ति नहीं हुई। वे हमसे बस एक ही बात कहतीं कि उन्हें संतान हो जाए ऐसा ही आशीर्वाद चाहिए। उन्हें अन्ततः पुत्र हुआ और वह बड़ा होने लगा। चौदह वर्ष का हो गया और उसे डेंगू बुखार हो गया। तबीयत ज़्यादा बिगड़ी, उसे दिल्ली ले जाया गया और कुछ समय बाद समाचार आया कि अस्पताल में उसका देहान्त हो गया। मुझे उस समय केवल एक ही विचार आया कि जिस चीज़ को भगवान नहीं देना चाहता उसे तुम किसी तरह प्राप्त भी कर लो तो भी उसका सुख तुम्हें नहीं मिल सकता। इसलिए सहज में जो मिल जाए उसमें आनन्द और न मिले तो भी ग़म नहीं। प्राप्त हो जाए तो भी प्रसन्न और प्राप्त न हो तो भी प्रसन्न। जिसमें इस तरह जीने की कला आ गई वही चिंतामुक्त और निश्चित जीवन जी सकता है। सम्मान मिले तो ठीक और कोई अपमान दे दे तो उसे अपने सम्मान की कसौटी समझिये। विपरीत वातावरण में आप अपने चित्त की सहजता को बनाए रखने में सफल हो जाते हैं तो यही आपके जीवन की वास्तविक सफलता है। अगर आप स्वयं को शांत और स्थिर चित्त समझते हैं तो मैं चाहूँगा कि कभी-कभी आपके साथ ऐसा घटित होता रहे जिससे आपकी शांति, समता, सहजता और समरसता की कसौटी होती रहे। ऐसा हआ, एक संत हुए भीखणजी। वे प्रवचन कर रहे थे कि भीड़ में से एक युवक खड़ा हुआ, उनके पास आया और उनके सिर पर दो-चार ठोले मार दिए। सारे लोग हक्के-बक्के रह गए। युवक को पकड़ लिया और पीटने को उद्यत हो गए। भीखणजी ने कहा-उसे छोड़ दो। लोगों ने कहा-यह आप क्या कह रहे हैं? भीखणजी ने कहा-जो हो गया सो हो गया, आप लोग उसे छोड़ दें। भीड़ ने कहा-'अरे, इसने आपको पीटा है, हम इसे सबक सिखाकर रहेंगे।' तब उन्होंने कहा-इसने मेरी पिटाई नहीं की थी, यह तो मेरा शिष्य बनने आया था और ठोंक बजाकर परख रहा था कि यह आदमी गुरु बनाने लायक है भी या नहीं। अरे, बाजार में चार आने की हंडिया लेने जाते हैं तो उसे भी ठोकबजाकर देखा जाता है कि काम की है या नहीं। और जब गुरु बनाना है तो यह साधारण काम नहीं है, जीवन भर की बात है। इसने मेरी केवल परख भर की है। 81 For Personal & Private Use Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह कसौटी है। संत की कसौटी समता की कसौटी, शांति की कसौटी, सकारात्मकता की कसौटी। जो कसौटी में ख़रा उतरा, वही ख़रा। बाकी सब सान्त्वना पुरस्कार भर है। चिंतामुक्त जीवन जीने के लिए दूसरी बात है -प्रकृति और परमात्मा की व्यवस्थाओं में विश्वास रखिये। व्यक्ति के किए ही सब कुछ नहीं होता। प्रकृति भी कुछ व्यवस्थाएँ करती है और प्रकृति का धर्म है परिवर्तनशीलता। यहाँ ऋतुएँ बदलती हैं, मौसम बदलते हैं, दिन-रात बदलते हैं, हानि-लाभ बदलते हैं। संयोग-वियोग बदलते हैं, जनम-मरण बदलते हैं। दुनिया में कुछ भी ऐसा नहीं है जो नहीं बदलता। कलकत्ता में एक प्रसिद्ध मंदिर है। वह मंदिर कलकत्ता के दर्शनीय स्थलों में से एक है। उसका निर्माता एक अरबपति व्यक्ति था। उसमें सभी चीजें आयातित वस्तुओं से निर्मित हैं। उसके बारे में कहा जाता है कि जब वह न्यायालय में किसी मकदमे के सिलसिले में जाता तो वकीलों को फीस के बतौर हीरे देता था और कहता अपनी फीस लेकर बाकी बचे हीरे उसके घर पहुँचा देना। आज उसकी पाँचवीं-छठी पीढ़ी के लोग उस मंदिर के फोटो बेचकर अपना जीवन-यापन कर रहे हैं। यह सब परिवर्तनशीलता का परिणाम है। मैंने यह भी देखा है कि जो व्यक्ति प्रतिमाह बमुश्किल पाँच सौ रुपये कमाता था वह आज देश का महान् उद्योगपति है। वह उद्योगपति धीरूभाई अंबानी के नाम से जाना जाता है। जी.डी. बिरला अल्पशिक्षित थे, लेकिन देश के सर्वोच्च उद्योगपति बन गए। जो कल ग़रीब था आज अमीर हो जाता है। प्रकृति सबको देती है और सबका परिवर्तन करती है। इसीलिए प्रकृति और परमात्मा में विश्वास रखिए कि वह वही करता है जो उसे करना होता है। लाभ मिला उसकी कृपा, हानि हो गई उसकी कृपा क्योंकि इसमें भी उसकी कोई-न-कोई व्यवस्था है। हम नहीं जानते प्रभु हमसे क्या चाहते हैं, क्या कहना और क्या करना चाहते हैं? सुख-दुःख दोनों रहते जिसमें, जीवन है वो गाँव। कभी धूप तो कभी छाँव। कभी सुख तो कभी दुःख! ऊपर वाले के पासों को हम नहीं समझ सकते। हम केवल शिकवा और शिकायते करते रहते हैं। एक बार बादशाह 82 For Personal & Private Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकबर राजसभा में बैठे हुए थे कि बोले-आज बहुत बुरा हो गया, मैं सुबह आम और तरबूज काट रहा था कि अँगुली में चाकू लग गया और खून निकल गया, अरे अँगुली ही कट गई। दरबारियों ने कहा-बहुत ही बुरा हो गया, महाराज! बीरबल चुप ही रहा तो अकबर ने पूछा-बीरबल, तुमने कुछ नहीं कहा। बीरबल ने कहा-महाराज, मैं क्या कहूँ? मैं तो इतना ही जानता हूँ कि जो होता है अच्छे के लिए होता है। बादशाह ने कहा-क्या? यहाँ तो मेरी अँगुली कट गई, दर्द के मारे छटपटा रहा हूँ और तुम कह रहे हो यह अच्छे के लिए हुआ, 'महाराज, मैं इस बारे में क्या कहूँ, मैंने तो अभी तक यही जाना है कि जो होता है अच्छे के लिए होता है,' बीरबल ने कहा। सम्राट क्रोधित हो गया और उसे कारागार में डालने का हुक्म दे दिया। कुछ दिन बीत गए। अकबर अपने अंगरक्षकों के साथ शिकार पर गया। वह अपने साथियों से आगे निकल गया कि वहाँ उसे आदिवासियों ने घेर लिया और पकड़कर अपने राजपुरोहित के पास ले गए क्योंकि उन्हें बत्तीस लक्षणोंयुक्त किसी भद्र इंसान की बलि अपनी कुलदेवी के समक्ष देनी थी। राजपुरोहित ने अकबर का पूरा परीक्षण किया तो पता चला कि उसकी एक अँगुली कटी हुई है। राजपुरोहित ने आदिवासियों से कहा कि यह व्यक्ति बलि के योग्य नहीं है। क्योंकि इसकी एक अँगुली कटी हुई है। सम्राट को छोड़ दिया गया। बादशाह को याद आया कि बीरबल ने ठीक ही कहा था कि जो होता है अच्छे के लिए होता है। बादशाह वापस नगर में पहुँचा और बंदीगृह में कैद बीरबल को मुक्त कर दिया। लेकिन पूछा-बीरबल, मेरे संदर्भ में तो यह अच्छा हुआ कि मेरी अंगुली कटी थी और मेरी बलि नहीं हो सकी। लेकिन मैंने जो तुझे कैदखाने में डाल दिया यह तुम्हारे लिए कैसे अच्छा हुआ? बीरबल ने कहा-महाराज, यह तो बहुत ही अच्छा हुआ कि आपने मुझे कारागार में डाल दिया। वरना आप शिकार पर जाते हुए मुझे भी साथ में ले जाते और अँगुली कटी होने के कारण आप तो बच जाते, पर बलि का बकरा मैं बन जाता। विपरीत स्थितियों के बनने पर आर्त और रौ-ध्यान न करें, बल्कि प्रकृति की व्यवस्था मानकर स्वीकार कर लीजिए। होनी होकर रहती है, अनहोनी कभी होती नहीं। याद रखिए-जब जो जैसा होता है तब वो वैसा होना होता | 83 For Personal & Private Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है, तभी ऐसा हुआ करता है। इसलिए न तो किसी को श्रेय दीजिए, न ही उपालंभ दीजिए। बड़े-बड़े पंडित-पुरोहितों से जन्म-पत्री मिलवाकर आपने अपने लड़की की शादी की थी, लेकिन ढाई वर्ष के अनंतर वह विधवा हो गई। आप क्या कर सकते हैं? क्योंकि ऐसा होना था, हुआ। ___ एक बात और स्मरण रखें, जब कोई कार्य अपने किए पूरा नहीं हो पा रहा है तो उसे भी ईश्वर पर, वक़्त पर छोड़ दें। आपने अपनी ओर से पूरी कोशिश कर ली, अब उसे भगवान पर छोड़ दें। वह अपनी व्यवस्था के अनुरूप सब कुछ करेगा। एक वृद्ध महिला को ज्ञात हुआ कि उसे कैंसर हो गया है। डॉक्टरों ने कहा कि चार दिन बाद ऑपरेशन किया जाएगा। उसने अपने दोनों बच्चों को बुलाया। अपनी वसीयत तैयार की और बच्चों को बता दिया कि इतना धन बैंक में है और अमुक-अमुक स्थान पर मकान वगैरह हैं। बच्चों ने पूछा, 'मम्मी, आज अचानक आपको क्या हो गया?' उसने कहा, 'बेटा, जिंदगी का क्या भरोसा, कब तक रहूँ, इसलिए सारे काग़जात तैयार कर दिए।' बच्चों ने सोचा, जैसी मम्मी की मर्जी। वे लोग एक दिन रुके और वापस चले गए। चार दिन बाद वह महिला अस्पताल पहुंच गई और डॉक्टर से कहा- ऑपरेशन कर दीजिए। डॉक्टर चकित हुआ। इतना बड़ा ऑपरेशन और परिवार का कोई व्यक्ति साथ नहीं। डॉक्टर ने कहा-आप अपने परिवार के सगे-संबंधी किसी को तो बुलवा लीजिए। उस महिला ने कहा-बुला लिया। डॉक्टर ने पूछा-किसे? उसने बताया-ऊपरवाले को। उसने कहाडॉक्टर साहब, आप मेरे बेटे की तरह ही हैं, आप मेरे साथ हैं न्! आप ऑपरेशन कीजिए। डॉक्टर ने सोचा शायद इसका कोई रिश्तेदार नहीं है सो उसने अपने ऊपर ऑपरेशन की सारी जिम्मेदारी ले ली। महिला जब ऑपरेश थियेटर में जाने लगी तो उसने हाथ जोड़े, ईश्वर को याद किया और कहा'हे प्रभु! मैं अपने आपको तुम्हें समर्पित कर रही हूँ।' बताते हैं महिला का ऑपरेशन सफल रहा। पन्द्रह दिन बाद जब उसे अस्पताल से छुट्टी मिलने वाली थी तो डॉक्टर ने कहा – तुम्हारा कोई दूर का रिश्तेदार भी हो तो बता दो, उसे बुलवा लेते हैं, वह आकर ले जाएगा। महिला ने कहा, दूर के रिश्तेदार की ज़रूरत नहीं है। मेरा अपना लड़का और लड़की हैं। डॉक्टर चौंका-तो तुमने ऑपरेशन से पहले उन्हें क्यों नहीं बुलाया। 84 | For Personal & Private Use Only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महिला ने कहा – उसकी ज़रूरत नहीं थी। खैर, दोनों बच्चों को बुलाया गया। जब उन्हें मालूम पड़ा कि माँ के स्तन कैंसर का ऑपरेशन हो चुका है, दोनों बहुत नाराज़ भी हुए। पर माँ ने कहा-बेटा, मैंने स्वयं को; तुम लोगों को नहीं, प्रभु को सुपुर्द किया था। तुम लोग मुझे बहुत प्रिय हो, लेकिन सचाई यह है कि तीस साल पहले जब तुम्हारा जन्म होने वाला था, मेरी हालत बहुत बिगड़ गई थी। डॉक्टर ने तुम्हारे पिता से कहा-माँ या बच्चा दोनों में से किसी एक को ही बचाया जा सकता है। तब तुम्हारे पिता ने काग़ज़ों की खानापूर्ति करते हुए कहा था जिसे भी बचा सकते हों बचा लें। और मैं ऑपरेशन थियेटर में ले जाई जा रही थी। बेटा, मुझे लगा अब भी एक सहारा बचा है और तब मैंने ईश्वर को याद किया और कहा-हे प्रभु! मैं स्वयं को तुम्हें समर्पित कर रही हूँ। मैं भी बच जाऊँ और मेरा बच्चा भी बच जाए। बेटा, तब ऊपर वाले के भरोसे तु भी बचा और मैं भी बची। तब भी ऊपरवाले के भरोसे मैं बची और आज भी उसी ने जीवनदान दिया है। ऊपरवाले के हाथ हज़ार हैं, उसके नैन हज़ार हैं-वह किस रूप में आकर हमें थाम लेगा कहा नहीं जा सकता। चिंतामुक्त जीवन जीने का एक सरल मार्ग यह भी है कि -बीती ताहि बिसार दे। जो हो गया सो हो गया अब वह लौटकर आने वाला नहीं है। बीते का चिंतन न कर, छूट गया जब तीर, अनहोनी होती नहीं, होती वह तक़दीर। अगर हमें याद रखना है तो अच्छी चीज़ों को याद रखें और बुरी चीज़ों को भूल जाएँ। ___ भीतर आती साँस अच्छी यादों को अन्दर लेने की प्रेरणा देती है, बाहर निकलती साँस बुरी यादों को बाहर उलीचने का बोध देती है। साँस के साथ अच्छाइयों को अंदर लो, साँस के साथ बुराइयों को बाहर छोड़ो। मीरा तो विपरीत वातावरण के बावजूद यूँघरू बाँधकर नाच उठी, फिर हम ही क्यों बेड़ी बाँधकर बैठे रहें। बचपन में सुना हुआ वो गीत सदा अपने पल्ले बाँध लें-समझौता ग़मों से कर लो, जिंदगी में ग़म भी मिलते हैं। पतझड़ आते ही रहते हैं, कि मधुबन फिर भी खिलते हैं। समझौता ग़मों से कर लो...। जिंदगी में समझौतावादी नज़रिया होना चाहिए। प्रकृति की व्यवस्थाओं में राज़ी रहने की आदत होनी | 85 For Personal & Private Use Only Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाहिए। हम जैसा चाहते हैं, हमारी नियति हमें वैसा ही नहीं देती। तब फिर निराश होने की बजाय क्यों न जो नियति और प्रकृति हमें देती है, हम उसमें राज़ी होना सीख जाएँ। जीवन में शांति लाएँ, नई उम्मीद जगाएँ, नया उत्साह जगाएँ, नई ऊर्जा के साथ शांति, सफलता और मुक्ति के रास्ते पर अपना क़दम बढ़ाएँ। 86 | For Personal & Private Use Only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुढ़ापे की सार्थकता के शानदार नुस्खे 25000 M इंसान के बुढ़ापे का संबंध उसके तन की अपेक्षा मन के साथ अधिक होता है। अगर उसके मन में आशा, उत्साह, ऊर्जा और उमंग हो तो वह सत्तर वर्ष की आयु में चालीस वर्षीय व्यक्ति की तरह क्रियाशील रह सकता है। नहीं तो निराशा और कुंठा से घिरा हुआ व्यक्ति चालीस वर्ष की उम्र में ही सत्तर के तुल्य हो जाता है। मज़बूत मन का व्यक्ति उम्र को जीत लेता है। नब्बे बंसत देखकर भी पिकासो चित्रकारी किया करते थे। महान् दार्शनिक सुकरात सत्तर वर्ष की उम्र में भी मानवजाति के समक्ष अपने दर्शन का प्ररूपण किया करते थे। बहत्तर वर्ष की आयु में भगवान महावीर लगातार चौबीस घंटे तक उपदेश और धर्म मार्ग का प्ररूपण करने में समर्थ थे। मन का युवा होना ज़रूरी है। मन डूबा तो नाव डूबी । जो लोग बुढ़ापे को कारागार समझते हैं या चारदीवारी में रहकर दमघोंट्र संघर्ष समझते हैं उनसे अनुरोध है कि वे बुढ़ापे को जीवन का स्वर्ण-शिखर समझें। प्रकृति की | 87 For Personal & Private Use Only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवस्था के मुताबिक जिनका जन्म हुआ है उन्हें मृत्यु के द्वार से गुजरना ही पड़ता है, जो फूल खिलता है उसे मुरझाना भी पड़ता है। धरती पर आज तक कोई ऐसा दिन नहीं आया जब सूरज उगा तो हो, पर अस्त न हुआ हो। संयोग के साथ ही वियोग भी है। अगर व्यक्ति प्रकृति की इस व्यवस्था को प्रेम से स्वीकार कर ले तो उसके जीवन की आपाधापी ख़ुद-ब-ख़ुद समाप्त हो जाए। __व्यक्ति की अस्सी प्रतिशत समस्याएँ तो प्रकृति की व्यवस्था को स्वीकारते ही कम हो जाती हैं। जिस पेड़ पर कोंपल लगती है, पत्ते हरे होते हैं, पीले पड़ते हैं और झड़ जाते हैं, पर इसके बावजूद पेड़ को कोई शिकायत नहीं होती, ताप और संताप नहीं होता। अगर हम इस तथ्य को समझ लें तो किसी का प्रेम हमारे लिए राग और मोह का अनुबंध न बनेगा और किसी का विरोध हमारे लिए द्वेष का आधार नहीं बनेगा। अनुकूलता, प्रतिकूलता में जीवन स्थिर रहेगा। जीवन की असली साधना यही है कि व्यक्ति अनुकूल और प्रतिकूल दोनों ही स्थितियों में सहज रहे । यहाँ मित्र ही शत्रु और शत्रु ही मित्र बन जाते हैं। प्रकृति के साथ तालमेल करके जीने से जीवन बहुत ही सहजता से जीया जा सकेगा। जीवन को सहजता से जीना ही जीवन की सार्थकता और सफलता का मंत्र है। ____ हम सभी जानते हैं कि गई हुई जवानी और आया हुआ बुढ़ापा लौटाया नहीं जा सकता। बालों को रंगकर बुढ़ापे को छिपाया तो जा सकता है, पर हटाया नहीं जा सकता। बुढ़ापा जीवन का जन्म जैसा ही सत्य है। राम हो या रहीम, कृष्ण हो या कबीर, महावीर हो या मोहम्मद हर किसी को जन्म, यौवन, रोग और बुढ़ापा इन चारों गलियारों से गुज़रना पड़ता है। बुढ़ापे का कोई अपवाद या विकल्प नहीं है। इसलिए बुढ़ापे को समस्या न समझें। यह तो हक़ीक़त है। यौवन हक़ है तो जरा हक़ीक़त। हम हक़ीक़त को स्वीकार करें। अगर हँसकर स्वीकारेंगे तो मृत्यु दस वर्ष दूर रहेगी और रोते-बिलखते काटेंगे तो मृत्यु दस वर्ष पूर्व ही आ जाएगी। हम पूछ सकते हैं : क्या मौत को आगेपीछे किया जा सकता है ? नहीं, यह तो संभव नहीं है, लेकिन ख़ुश रहकर आप हर ओर ख़ुशियाँ बिखेर सकते हैं। तब सब आपके साथ होंगे और आपका जीवन खुशनुमा रहेगा और मृत्यु दूर ही दिखाई देगी अन्यथा विलाप 88 | For Personal & Private Use Only Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करने से आप तो दु:खी होंगे ही, सबको दु:खी कर डालेंगे और प्रतिपल मृत्यु की कामना करते हुए उसे नज़दीक बुला लेंगे। मृत्यु चाहे जब आए, जिस जीवन का प्रारंभ हुआ है उसका समापन तो होगा ही। दुनिया में सात ही वार होते हैं। इन्हीं में किसी एक दिन जीवन की शुरुआत होती है और इन्हीं में से किसी एक दिन जीवन का समापन होता है। सोमवार को हम जन्म लेते हैं तो मंगलवार को स्कूल जाते हैं। बुधवार को केरियर बनाते हैं तो गुरुवार को शादी करते हैं, शुक्रवार को बच्चे होते हैं तो शनिवार को बूढ़े हो जाते हैं और इस तरह रविवार को कहानी ख़त्म हो जाती है। इन सात दिनों में से हम किसी भी दिन अपने जीवन की यात्रा प्रारंभ कर सकते हैं और किसी भी दिन बुढ़ापे के सत्य से रू-ब-रू हो सकते हैं। ___हम बुढ़ापे को समस्या न समझें। हमने अपनी लापरवाही और असजगता से बुढ़ापे को समस्या बना लिया है। बुढ़ापा समस्या नहीं है, यह नैसर्गिक शारीरिक प्रक्रिया है। व्यक्ति ज्यों-ज्यों बूढ़ा होता है उसके अंदर अशांति, उद्वेग, तनाव और असुरक्षा की भावना हावी होती जाती है। बचपन में अज्ञान और अबोधता रहती है। युवावस्था में अशांति और उन्माद चढ़ जाता है तो बुढ़ापे में परिग्रह और असुरक्षा सबसे अधिक रहती है। मेरी समझ से बुढ़ापा अशांति और असुरक्षा का पड़ाव नहीं है, वरन् शांति का धाम है। आपने अपना जीवन कैसा जीया, बुढ़ापा उसकी परीक्षा है। अगर आप बुढ़ापे को समस्या समझेंगे तो हर उम्र एक समस्या है। बचपन भी, यौवन भी और बुढ़ापा भी, पर अगर इसे प्रकृति की व्यवस्था समझें तो बुढ़ापा न कोई रोग है, न अभिशाप । बुढ़ापा तो शांति, मुक्ति, समाधि और कैवल्य का द्वार है। अपने घर और आसपास रहने वाले बुजुर्गों को देखें कि एक बूढ़ा-बुजुर्ग व्यक्ति तो परिपक्वता की निशानी है। वह ज्ञान और अनुभव का विशाल भंडार है। वह तो जीवन के उपन्यास का सार है, उपसंहार है। बुढ़ापे से वही व्यक्ति घबराएगा जिसने बचपन और यौवन दोनों को कचरापेटी में डाल दिया। अब भला स्कूल जाने से आखिर वही बच्चा तो डरेगा न् जिसने अपना होमवर्क पूरा नहीं किया। आयकर अधिकारियों से वही व्यापारी घबराएगा जिसके बही-खाते ठीक नहीं होंगे और मौत को क़रीब आते देखकर वही रोएगा-धोएगा जिसने केवल भोग किया, पर योग का द्वार न खोला। जिसने | 89 For Personal & Private Use Only Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन की धन्यता के लिए कुछ न किया, उसका बुढ़ापा सूना है, पर जो मंदिर-दर्शन, गुरु-सान्निध्य, सत्संग-प्रेम और दूसरों की भलाई के लिए समर्पित रहा उसका तो बुढ़ापा भी सोना ही है। बुढ़ापे में बाल सफेद हो जाते हैं। सफेद बाल निवृत्ति के प्रतीक हैं । बाल सफेद हो गए, यानी भोग और भोजन पूरा हुआ। अब नई यात्रा शुरू करें। अब प्रभु के रास्ते पर चले आओ। अब गाड़ी छटने वाली है। अब संसार के पचडे छोड़ो और स्वाध्याय, सत्संग, प्रभु-भजन और आत्म-ध्यान में खुद को समर्पित करो। सोचो, अगर अब भी न किया तो क्या मरने के बाद करोगे? दो मुट्ठी राख होने के बाद? बुढ़ापा तूने लिया रे जकड़ी।। हाथ में आ गई लकड़ी॥ बचपन खेला राग-रंग में, चढ़ी ज़वानी अंग-अंग में। भोग और भोजन के संग में, उलझ गई रे मकड़ी॥ कोड़ी-कोड़ी दमड़ी जोड़ी, मगर धरम से ममता तोड़ी। अब तो हाथ-पाँव भी काँपें, कमर गई है अकड़ी॥ रोटी खाऊँ तो पचती नहीं है, खिचड़ी खाऊँ तो रुचती नहीं। रोग ने घेरा, मोह अनेरा, चिंता बढ़ गई तकड़ी॥ दिन में छोरे करते हाँसी, रात-रात भर चलती खाँसी। दाँत भी टूटे, मोह न छूटे, खा न सके अब ककड़ी॥ प्रभु को भूला, अधर में झूला, मोह-माया में पकड़कर फूला। पर अब बाजी जाए हाथ से, जम ने चोटी पकड़ी॥ जिस पलने में खेले वो लकड़ी, कुर्सी, माचा, फेरा लकड़ी। हाथ में लकड़ी, साथ में लकड़ी, अर्थी होगी लकड़ी॥ गाड़ी छूट रही है पगले, चढ़ना है तो अब भी चढ़ ले। प्रभु को भज ले, सत्संग कर ले, छोड़ दे पचड़ा-पचड़ी॥ राम नाम ही एक सत्य है, बाकी सारी बात खपत है। 'चन्द्र' प्रभु के चरण-कमल में, रख लो अपनी पगड़ी॥ अपने बूढ़े तन में भी मन को मज़बूत करो और शेष जीवन को पूरा 90 | For Personal & Private Use Only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सार्थक और आनंद-भाव से जीकर जाओ। बुढ़ापे को लेकर रोओ मत, बुढ़ापे को सार्थक करो। ज़्यादा लफड़ों में हाथ मत डालो। कुछ ऐसा करो कि बुढ़ापा धन्य हो। हमारा बुढ़ापा स्वस्थ भी हो, सार्थक भी हो, सुरक्षित भी हो और औरों के लिए आदर्श भी हो, यह निहायत ज़रूरी है। बुढ़ापे में हमें किन-किन समस्याओं का सामना करना पड़ता है, इसकी तैयारी अभी से कर लो। अपन नब्बे वर्ष की उम्र में भी युवा रह सकते हैं बशर्ते संयमित जीवन जिएँ। संतुलित आहार, उचित व्यायाम और प्रात:कालीन भ्रमण करते हुए आप हर आयु में स्वस्थ एवं युवा बने रह सकते हैं। मन कभी बूढ़ा नहीं होता। स्वयं को बूढ़ा मानना छोड़ दो। जब तक जीएँगे ऊर्जा के साथ जीएँगे। जीवन के अंतिम क्षण तक ऊर्जा, उत्साह और उमंग बनाए रखेंगे। जो ऐसा नहीं जी पाते हैं उन्हें ही बुढ़ापे की समस्याओं का सामना करना पड़ता है। बुढ़ापे में सबसे पहली समस्या शारीरिक होती है। स्मरण-शक्ति कम हो जाती है, दृष्टि कमज़ोर हो जाती है, श्रवण-क्षमता भी कम हो जाती है, दाँत गिरने लगते हैं, चमड़ी में झुर्रियाँ पड़ने लगती हैं, बोलना चाहें तो ठीक से बोला न जाए, रक्तचाप असामान्य रहने लगता है, साँस फूलने लगती है। पाचनक्षमता घट जाती है। कमर भी झुकने लगती है, हाथ में लाठी आ जाती है, घुटने दर्द करने लगते हैं। बहुत प्रकार की बीमारियाँ घर करने लगती हैं। दूसरी समस्या मानसिक होती है। बूढ़े व्यक्ति की चाह बढ़ती जाती है। चिंताएँ और चिड़चिड़ाहट भी बढ़ने लगती है। वह छोटी-से-छोटी चीज़ भी समेटने लगता है कि काम आएगी। उन्हें चिंता सताती है कि जब वे बूढ़े हो जाएँगे तो उन्हें कौन संभालेगा! उनके हाथ-पाँव नहीं चलेंगे तो कौन उनकी देखभाल करेगा! आज के युग की संतानों से माता-पिता का विश्वास उठ गया है। चिंता क्यों करते हो? पशु-पक्षियों की सेवा कौन करता है? हाँ, अगर तुम्हारी सेवा हो जाए तो समझ लेना पुण्याई अभी तक बची हुई है। बूढ़े लोग कोई-न-कोई चिंता अवश्य पालकर रखते हैं। कुछ नहीं तो यही फ़िक्र कि अगर वे बीमार हो गए तो उनकी सेवा, चिकित्सा ठीक से होगी या नहीं, चिकित्सा हो जाए तो ठीक, न हो पाए तो फ़िक्र कैसी? क्योंकि प्रकृति का नियम है कि हर हरा पत्ता पीला पड़ता है और फिर झड़ जाता है। जन्म के 91 For Personal & Private Use Only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साथ ही मृत्यु तय हो गई है फिर आप जन्मते ही मर जाते हैं या सत्तर वर्ष के होकर मरते हैं कोई फ़र्क नहीं पड़ता। आपका जन्म लेना ही मरने के लिए पर्याप्त है। बूढ़े व्यक्ति का स्वभाव भी चिड़चिड़ा हो जाता है, क्योंकि अब उसके नियंत्रण में कुछ नहीं रहता। छोटी-छोटी बातों पर झुंझला उठते हैं। बूढ़ों को जितना गुस्सा आता है उतना जवानों को नहीं आता। क्योंकि उनके हाथ-पाँव चलते नहीं, मस्तिष्क की शक्ति क्षीण हो गई, सहनशीलता रहती नहीं है, तो एक मिनट में ही पारा चढ़ जाता है। वे चाहकर भी अपना मोह छोड़ नहीं पाते। हम सभी को राजा ययाति की कहानी मालूम है जिसने अपने जीवन के सौ वर्ष पूर्ण कर लिए थे। इन सौ वर्षों में सौ रानियों के साथ ऐश्वर्य का उपभोग किया था। उनके सौ-सौ राजमहल और सौ ही पुत्र थे। जब सौ साल पूर्ण हो गए तो मृत्यु उन्हें लेने आ पहुँची और यमराज बोले, 'चलो ययाति, तुम्हारा आयुष्य पूर्ण हो गया।' ययाति ने कहा, 'अरे, मृत्यु तुम तो बहुत जल्दी आ गई। अभी तुम जाओ, थोड़े दिन बाद आ जाना। अभी तो जीवन के कई इन्द्रधनुष देखने बाकी हैं। ' मृत्यु किसी के द्वार आ जाए तो खाली हाथ वापस नहीं जाती, सो मृत्यु ने कहा, राजन् अगर तुम्हारे स्थान पर तुम्हारे परिवार का कोई व्यक्ति मरने को तैयार हो जाए तो तुम्हें सौ वर्ष की आयु और मिल सकती है। राजा ने अपने पुत्रों की ओर देखा। निन्यानवें पुत्रों ने तो मरने से इंकार कर दिया, पर सबसे छोटा पुत्र मरने को तैयार हो गया। उसने कहा, 'मेरे मरने से अगर मेरे पिता को सौ वर्ष की आयु मिलती है तो मैं यह कुर्बानी देने को तैयार हूँ।' मृत्यु छोटे पुत्र को ले जाती है। ययाति दो सौ वर्ष की आयु पा लेता है। पुनः सौ वर्ष बाद मृत्यु का पदार्पण होता है, पुन: वही नाटक होता है, पुनः सबसे छोटा बेटा अपनी आहुति देता है। इस तरह दस बार राजा बार-बार बेटे की क़ीमत पर एक हज़ार वर्ष जी लेता है, लेकिन उसकी कामनाएँ-तृष्णाएँ अपूर्ण ही रहती हैं। वह चाहता है कि कुछ और उपभोग कर ले, राजसत्ता भोग ले।मौत कहती है राजन् बहुत जी लिए, पर राजा ने कहा, तुम अगर मेरे बेटे से खुश हो जाती हो तो मेरे सौ बेटे हैं। निन्यानवें से काम चला लूँगा। दसवीं बार 92 For Personal & Private Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फिर सबसे छोटा बेटा तैयार होता है, मृत्यु उसे ले जाने के लिए आगे बढ़ती है तो वह कहता है, मौत! बस एक मिनट के लिए ठहरो, तुम तो जानती हो मैं कौन हूँ ? मैं वही बेटा हूँ, जो दस बार इस घर में जन्म लेकर बचपन में ही मरता रहा हूँ लेकिन आज मरने से पहले पिता से एक सवाल ज़रूर करना चाहूँगा। तब उसने पिता से पूछा, 'पिताजी! आपने एक हजार वर्ष का जीवन जिया है, लेकिन क्या अभी तक तृप्त हो पाए हैं ?' पिता ने कहा, 'बेटा, यह जानने के बाद कि तुम ही वह मेरे पुत्र हो जिसने दस बार अपना जीवन गंवाया, यही कहूँगा कि सच्चाई तो यह है कि एक हजार वर्षों के भोगोपभोग के बाद भी स्वयं को अतृप्त अधूरा ही समझता हूँ।' छोटे बेटे ने कहा, 'मृत्यु, मुझे मेरे प्रश्न का उत्तर मिल गया। अब मैं तुम्हारे साथ आराम से चल सकूँगा। यद्यपि पहले भी नौ बार जा चुका हूँ लेकिन तब मेरे मन में थोड़ी दुविधा रहती थी कि मैं तो जीवन जी भी न पाया और जाना पड़ रहा है, लेकिन आज मन में संतोष है कि जो पिता एक हज़ार साल का जीवन जीकर भी असंतुष्ट और अतृप्त रहा तो मैं सौ साल जीवित रहकर भी कौन-सा तृप्त हो जाऊँगा? अब मैं तुम्हारे साथ बिना शंका-संदेह के प्रेम से चलूँगा' और कहते हैं तब मृत्यु ने युवा बेटे को छोड़ दिया और ययाति को लेकर चली गई, क्योंकि जो व्यक्ति तृप्ति का अहसास कर चुका है मौत उसे छू नहीं पाती। ___ वृद्धावस्था में तीसरी समस्या पारिवारिक होती है, क्योंकि परिवार में बूढ़े लोगों की इज़्ज़त करने वाले कम ही लोग होते हैं। जैसे बैल के बूढ़े होने पर किसान उसे कसाईखाने भेज देता है उसी तरह आजकल लोग अपने बुजुर्गों को वृद्धाश्रम भेजना पसंद करते हैं, क्यों? क्योंकि बुज़ुर्ग घर में हद से ज़्यादा हस्तक्षेप शुरू कर देते हैं। बात-बात में टीका-टिप्पणी, टोका-टोकी करते रहते हैं। मैं कहना चाहूँगा कि अगर बुजुर्ग लोग अधिक बोलने की आदत से छुटकारा पा लें, जुबान को नियंत्रित कर लें तो घर का कोई भी सदस्य उन्हें अवांछित नहीं समझेगा। धन के कारण नहीं अपितु परिवार में उचित संतुलन न होने से परिवार टूट जाया करते हैं। इसलिए पारिवारिक संतुलन बनाए रखें। बुज़ुर्ग परिवार के साथ सामंजस्य बनाए रखें, समस्याएँ स्वयं सुलझ जाएँगी। बूढे-बुजुर्गों को चाहिए कि वे नपा-तुला बोलें अथवा मौन रहें। बेटे-बहू के - 93 For Personal & Private Use Only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीच में ज़्यादा टोका-टोकी करोगे तो वे तुमसे पिंड छुड़ाना चाहेंगे। वहीं अगर तुम उन्हें केवल आशीर्वाद दोगे तो वे तुम्हें सिर पर बिठाकर रखेंगे। बच्चे भी घर में बुजुर्गों के साथ सहयोग करें। बूढ़ों की केवल एक ही ख्वाहिश होती है कि बुढ़ापे में बेटा उनका सहारा बन जाए। जैसे जब बेटा बच्चा था तो उन्होंने हाथ थामा था और आज जब वे बूढ़े हो गए हैं तो बेटा हाथ थाम ले। बुढ़ापा तो बचपन का पुनरागमन होता है। तभी तो युवा और बुज़ुर्ग एक-दूसरे के लिए सार्थक हो सकेंगे और इसी बहाने उनका हमारे ऊपर रहने वाला फ़र्ज़ कुछ कम हो सकेगा। कम-से-कम उतने वर्ष तक तो उनकी अँगुली थामें जितनी उन्होंने हमारे बचपन में थामी थीं। यह न समझें कि आप केवल अपनी मेहनत के बलबूते पर पनप रहे हैं, जितनी आपकी मेहनत है उससे कहीं अधिक आपके माता-पिता के आशीर्वाद हैं जो आप प्रगति की सीढ़ियाँ चढ़ रहे हैं। उन्हीं की दुआओं से अगली सात पीढ़ियाँ भी फलतीफूलती हैं। जिन्हें माँ-बाप की दुआएँ नहीं मिलतीं वे तक़दीर के कितने भी सिकंदर क्यों न हों, पर कभी-न-कभी तो वे विडम्बना और निराशा के गर्त में गिरते ही हैं। __मैं एक परिवार से परिचित हूँ। बात तब की है जब उस घर में नई-नई शादी हुई बहू आई थी। वह अपनी दादी सास के पास बैठी हुई थी, उसके लिए जो खाना आया उसमें कुछ रूखी-सूखी-सी कड़क रोटियाँ, पतली-सी दाल और दिखने में बेस्वाद-सी सब्जी थी। बहू को बहुत अटपटा लगा कि बूढ़ी दादी जिसके मुँह में दाँत भी नहीं हैं उन्हें ऐसा खाना ! दूसरी बार जब सास रोटी देने आई तो उसने देखा कि बहू रोटियाँ उलट-पलट कर देख रही है। सास ने पूछा, 'क्या देख रही है ?' उसने कहा, 'कुछ नहीं मम्मीजी, बस देख रही हूँ कि आपके घर का रिवाज़ क्या है ? जब मेरी शादी हुई तो विदाई के वक़्त मेरे पापा ने कहा था इस घर में जो रिवाज़ चलते थे उन्हें भूल जाओ और जहाँ जा रही हो वहाँ के रिवाज़ अपनाना, वही सीखना, उन्हीं को निभाना। तो मैं देख रही हूँ कि जो आप दादी माँ के साथ निभा रही हैं, वही मुझे आगे निभाना है।' सास ने पूछा 'मतलब'। बहू ने कहा, 'मतलब क्या, रिवाज़ सीख रही हूँ। मम्मीजी मैं कुछ नहीं कर रही सिर्फ इस घर का संस्कार सीख रही हूँ।' सास ने कहा 'यानि तू मुझे ऐसी रोटियाँ खिलाएगी।''नहीं मम्मीजी मैं तो आपको 94 | For Personal & Private Use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देखकर इस घर की परम्परा निभाऊँगी ।' उसे धक्का लगता है और वह इतना ही कहती है, 'तुझे नर्म रोटी खिलानी है तो तू बनाकर खिला दे ।''कोई बात नहीं मम्मीजी मैं बनाकर खिला दूँगी। जब मुझे बनाना है तो अपनी बूढ़ी दादी सास के लिए भी खाना बनाने में कहाँ तक़लीफ़ है । ' एक समझदार बहू के कारण अगले दिन से बूढ़ी दादी को नर्म रोटी मिलनी शुरू हो गई। दूसरे दिन जब वह दादी की थाली उलट-पलट कर देखती है तो सास पूछती है, क्या देख रही है । बहू जवाब देती है, 'देख रही हूँ जब आप बूढ़ी हो जाएँगी तो स्टील की थाली लगानी है या मिट्टी की ।'' तो " क्या तू मुझे मिट्टी के ठीकरों में खाना खिलाएगी ?' 'मैं कहाँ खिलाऊँगी, मैं तो बस आपके घर का रिवाज़ सीख रही हूँ । थाली बदलती है। बूढ़ी दादी के फ़टे-पुराने, मैले-कुचैले वस्त्र भी बदल जाते हैं, टूटी-फूटी चारपाई की जगह अच्छा पलंग और बिस्तर लग जाते हैं। कमरा सुव्यवस्थित हो जाता है और जब उसका अंत समय निकट आता है तो वह अपने पोते की बहू को इतना आशीर्वाद देकर जाती है कि आज भी बहू अपनी दादी सास को याद कर अश्रु बहाती है, श्रद्धा समर्पित करती है कि उनके आशीर्वाद से ही आज परिवार दिन-ब-दिन सुख-समृद्धि की ओर निरंतर प्रगति कर रहा है । जो इंसान अपने बच्चों की ख़ुशी के लिए अपनी पाई-पाई लुटा देता है, वही बच्चे अपने बूढ़े माँ-बाप को कतरा भर रोशनी देने से क्यों कतराते हैं ? जिन कंधों पर बैठकर हमने कभी ज़िंदगी के मेले देखे थे आज जब वे कंधे झुक गए हैं तो मेरे भाई, उन्हें अपने कंधे का सहारा देने से क्यों बचते फिरते हो ? निश्चय ही आज की पीढ़ी बहुत समझदार हो गई है, पर जितनी समझदार हुई है उतनी ही ख़ुदगर्ज़ भी । माँ-बाप के साथ ऐसा व्यवहार करते हैं मानो उनके सामने वे निरे-बुद्ध हों। बच्चों को लगता है कि जो उन्होंने कह दिया वह अप-टू-डेट है, माँ-बाप जो कहते हैं वो तो आउट-ऑफ-डेट है। भाई याद रखो, जो बुढ़ापा आज उन्हें है, कल वह तुम्हें भी होगा । बुढ़ापा सभी को आने वाला है। अगर आप चाहते हैं कि बुढ़ापे में आपकी सेवा हो सके तो कृपा कर अपने बुज़ुर्गों की उपेक्षा न करें । प्रकृति की व्यवस्था तो हम सभी जानते हैं कि हम पर वापस वही आएगा, जो हम करेंगे या करने वाले हैं। अच्छा करो, अच्छा पाओ; सेवा करो, सेवा पाओ । For Personal & Private Use Only | 95 Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुढ़ापे में चौथी समस्या आर्थिक होती है। बूढ़े आदमी के पास धन है तो बच्चे भी सेवा करेंगे और बच्चे न भी करें तो धन के द्वारा वह खुद अपनी व्यवस्था बैठा सकता है। आजकल वृद्ध लोगों के रहने के लिए देश में अनेक शहरों में काफ़ी बेहतर आराम तलब स्थान बने हुए हैं। जयपुर में भी है, हरिद्वार में भी है, कोयम्बतर में भी है, जोधपुर में भी बन रहा है और भी शहरों में हैं। व्यक्ति को चाहिए कि वह अपने बुढ़ापे की सुरक्षा के लिए अपनी आय का एक हिस्सा ज़रूर बैंक में रखे। बच्चों के मोह में पड़कर सारा धन उन्हीं के लिए न लुटा दें। किसी ने मुझे एक फिल्म की कहानी सुनाई है। कहानी बड़ी दिलचस्प है, इंसान को सोचने के लिए मजबूर करती है। फिल्म का नाम है : बागवान। यानि एक पिता ने किस तरह अपने बच्चों को पढ़ाने-लिखाने में अपना सारा धन खर्च किया, पर वही बच्चे किस तरह माँ-बाप का ही बँटवारा कर लेते हैं। माँ एक बेटे के पास रहेगी और पिता दूसरे बेटे के पास। जबकि व्यक्ति ने किसी अनाथ बच्चे को मदद दी, तो वही बड़ा होकर उनको पिता या संरक्षक नहीं, साक्षात् भगवान मानता है। ___मैं आगाह करना चाहूँगा कि बागवान की वह घटना कहीं आपके साथ ही घटित न हो जाए इसलिए अपने सुखी और सुरक्षित बुढ़ापे के लिए अभी से जागरूकता बरतें। ध्यान रखें अपना सारा धन केवल बच्चों को ही न दें, वरन् उसका कुछ हिस्सा उस स्कूल में जाकर ज़रूर डोनेट करें जिसमें कभी आप पढ़े हैं। उस अस्पताल में भी ज़रूर दें, जहाँ आपने स्वास्थ्य-लाभ लिया है। उन गरीबों के लिए भी डोनेट करें जो भूखे-प्यासे-नंगे अशिक्षित हैं। हम अपने बुढ़ापे को कैसे आरोग्यमय बना सकते हैं। उसे कैसे सार्थकता का आयाम दें और किस तरह ज़िंदादिल इंसान की तरह जी सकते हैं, इस हेतु कुछ सूत्र निवेदन कर रहा हूँ। बुढ़ापे को दूर करने का पहला मंत्र : बुढ़ापा स्वस्थ्य और निरोगी हो। हम शरीर और मन से स्वस्थ रहें-इसके लिए ज़रूरी है-सदा सात्विक, संतुलित और सीमित आहार लीजिए। संतुलित आहार आपको निरोगी बनाएगा। अब यह आपका पेट है, कोई कोठी नहीं कि उसमें कुछ भी डालते जाएँ। जैसा भोजन आप करेंगे वैसा ही रक्त, वैसा ही भाव, वैसी ऊर्जा उत्पन्न होगी। जैसे-जैसे उम्र बढ़ती है पाचन-क्षमता कम होती जाती है, लेकिन खाने की 96 घर को कैसे स्वर्ग बनाएं-6 For Personal & Private Use Only Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाहत में पेट पर अतिरिक्त भार पड़ता है और बीमारियों का आक्रमण शुरू हो जाता है। याद रखिए : बीमारियों का रास्ता पेट से होकर गुज़रता है। आप एक काम करें-आप एक सुव्यवस्थित चार्ट बनाएँ जिसमें पौष्टिक आहार की प्रधानता हो। खनिज, लवण, विटामिन से भरपूर भोजन करें, हरी सब्जियों का, फलों और दूध का प्रयोग करें। कभी-कभी स्वाद बदलने के लिए चटखारे ले सकते हैं, पर सावधान ! इसे आदत न बनाएँ। सुबह हल्के नाश्ते के साथ एक गिलास दूध लें। ग्यारह बजे के आसपास सादा भोजन करें, पर मिठाई से परहेज रखें। दो-तीन फुलकों के साथ हरी सब्जियाँ, दाल खाइए, थोड़ा-सा चावल भी ले सकते हैं। खाना खाने के बाद छाछ ज़रूर पीजिए। दोपहर में फल या फलों का रस लीजिए। चाय-काफी की आदत से निजात पाइए। ये मीठे ज़हर हैं। सूरज ढलने के पूर्व भोजन करने का प्रयास कीजिए ताकि सोने से पूर्व आपको चार घंटे पानी पीने के लिए मिल सकें। अगर खाना खाकर तुरंत सो जाएँगे तो भोजन कैसे पच पाएगा और नतीज़ा? दूसरे दिन अपच हो जाएगा। खट्टी डकारें आएँगी, गैस बनेगी। हाँ, अगर रात में भूख का अहसास हो तो गाय का दूध अथवा आधा-पौन गिलास मलाई उतरा दूध पिया जा सकता है। इससे आप स्वस्थ रहेंगे। गाँधीजी बकरी का दूध लेते थे। बकरी का दूध हलका होता है। जल्दी पच जाता है। वैसे गाय का दूध सहज उपलब्ध हो जाता है। आप गाय का दूध लीजिए। प्राणायाम अवश्य कीजिए। प्राणायाम के लिए श्यास लेने की सही विधि सीखिए। आपने किसी बच्चे को श्वास लेते हुए देखा होगा और न देखा हो तो उसे गौर से देखें। शिशु पेट से साँस लेता है। श्वास लेते समय उसका पेट ऊपर नीचे होता रहता है। श्वास लेने का यही सही तरीक़ा है। हम एक मिनट में 16 साँस लेते हैं। अगर हम ग़लत साँस लेते हैं तो ध्यान रखिए कि हम हर दिन में तेईस हज़ार बार गलती करते हैं । साँस को कभी जल्दी या झटके से न छोड़े। बल्कि उसमें लयबद्धता बनी रहे। शांत, लम्बी और गहरी सांस ही श्वास लेने की सही विधि है। सुबह-सुबह खाली पेट उषापान कीजिए अर्थात् रात को तांबे के लोटे में या मिट्टी के घड़े में पानी भरकर रख दीजिए और सुबह उठकर दो-तीन 97 For Personal & Private Use Only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Personal & Private Use Only Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Personal & Private Use Only Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाएँ। वहाँ सप्ताह-दो सप्ताह ज़रूर रहें। अब इन्हीं को देखिए- रामगोपाल जी राठी को। बयासी वर्ष के बुजुर्ग हैं। पर रोज दस-बीस कि.मी. चल सकते हैं। प्रभु की भक्ति में थिरकने शुरू हो जाएँ तो तीन घंटे तक नृत्य करते रहते हैं। इनका बुढ़ापा यानी बच्चों की तरह खिलखिलाता हुआ, गुनगुनाता हुआ, थिरकता हुआ। आप भी अपने बुढ़ापे को ऐसे ही गाते-झूमते-नाचते हुए जीने का मानस बना लें। बुढ़ापे को बनाइए शांति, मुक्ति और कैवल्य का द्वार। हिम्मत न हारिए, प्रभु ना बिसारिए, हँसते-मुस्कुराते हुए ज़िंदगी गुजारिए। हँसते-मुस्कुराते हुए जीना जिसको आ गया। टूटे हुए दिलों को सीना जिसको आ गया। ऐसे देवताओं के चरण पखारिए। हँसते-मुस्कुराते हुए ज़िंदगी गुजारिए। काम ऐसा कीजिए जिससे हो सबका भला। बातें ऐसी कीजिए जिसमें हो शहद घुला। मीठी वाणी बोल सबको गले से लगाइए। हँसते-मुस्कुराते हुए ज़िंदगी गुजारिए। मुश्किलों-मुसीबतों का करना हो जो ख़ात्मा, हर समय कहते रहिए : शुक्र है परमात्मा। गिले-शिकवे करके अपना हाल ना बिगाड़िए, हँसते-मुस्कुराते हुए ज़िंदगी गुजारिए। जीवन में हिम्मत रखिए। दुनिया में सारा चमत्कार हिम्मत का ही है। हिम्मत है तो जीवन है, हिम्मत टूटी कि बाज़ी हाथ से गई। जीवन में हिम्मत रखो और सदा हँसो और हँसाओ, न फँसो, न फँसाओ। ख़ुश रहो, ख़ुशी बाँटो। न दुखी रहो, न दुखी करो, न दुख बाँटो। जब आप ख़ुद ख़ुश रहेंगे तो आपके पास आने वाले सभी ख़ुश होकर जाएँगे। जीवन में एक नियम तो सबके ही होना चाहिए कि मैं हर रोज़ कम-से कम चार लोगों को तो अवश्य हँसाऊँगा। बुढ़ापा आ गया है तो धंधा-पानी छोड़ो। अपन कोई धंधा करने के लिए ही पैदा नहीं हुए हैं। पचास या साठ वर्ष की उम्र तक व्यापार कर लीजिए, फिर व्यापार बच्चों को संभलाकर ख़ुद हरि-भजन में लग जाइए। जैसे जीवन 100 | For Personal & Private Use Only Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के शुरुआती पच्चीस वर्षों को शिक्षा-दीक्षा के लिए लगाया, वैसे ही अगले पच्चीस-तीस वर्ष घर-गृहस्थी और व्यापार में लगाइए, पर जिस दिन 60 वर्ष की उम्र हो जाए, घर-गृहस्थी से मोह - ममता कम करने लग जाएँ और तब संसार में भी संतों की तरह जिएँ । न कोई चाह, न कोई चिंता । बस मस्त रहें । सबसे प्रेम करें, सबको प्रेम बाँटें । बस, यही आपका स्वभाव बन जाए। साठ की उम्र के बाद भी यदि घर-गृहस्थी और धंधे में उलझे रहेंगे तो जीवन की ख़ुशी छिन जाएगी और आपका बुढ़ापा अशांतिमय हो जाएगा। आपकी ज़िंदगी केवल घसीटाराम होकर रह जाएगी । अरे भाई, जीवन तो प्रभु का प्रसाद है। इस प्रसाद का प्रसाद - भाव से भी कुछ आनंद लो। आख़िर कब तक हम चक्की में पिसते रहेंगे। थोड़ी ख़ुद की भी सुध लीजिए। ख़ुद का भी कल्याण कीजिए । बचपन ज्ञानार्जन के लिए सौंपिए, जवानी धनार्जन के लिए और बुढ़ापा पुण्यार्जन के लिए। आप दो क़दम प्रभु की ओर बढ़ाते जाइए, प्रभु चार क़दम आपके क़रीब आते जाएँगे । मैं एक देव- - पुरुष का उल्लेख करूँगा । नाम है : धर्मपाल जी जैन। हाई लेवल के एडवोकेट रहे हैं। पिछले करीब 15 वर्षों से वानप्रस्थ जीवन जीते हैं, लगभग 50 वर्ष की उम्र में ही यह संकल्प ले लिया था कि वे जिस दिन 60 वर्ष के होंगे, प्रेक्टिस छोड़ देंगे । बस, 61 वें वर्ष में प्रवेश करते ही वे मुक्त हो गए। पहले वकालात की प्रक्टिस छोड़ी, धीरे-धीरे सत्संग और स्वाध्याय का शौक लगा, संतों के सान्निध्य में जाने लग गए। आज वे संसार में रहते हुए भी संत हैं । शांति, विनम्रता और आनंद की प्रतिमूर्ति । मुझे तो वे देवतुल्य ही नज़र आते हैं। ऐसा जीना भी धन्य है । बचपन दिया ज्ञान के लिए, यौवन दिया गृहस्थी और धन के लिए और अब बुढ़ापा समर्पित कर रहें स्वयं के मोक्ष के लिए। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष - चारों पुरुषार्थ पूरे हुए। 50-60 वर्ष की उम्र तक अर्थ और काम- पुरुषार्थ ठीक है। 60 के बाद तो धर्म और मोक्षपुरुषार्थ ही सबका ध्येय हो । आज वे दो माह घर पर रहते हैं, दो माह हरिद्वार रहते हैं, दो माह हमारे पास संबोधि-धाम में सत्संग-साधना करते हैं। पूरी तरह आत्मसमर्थ, आत्मनिर्भर । बुढ़ापे की व्यवस्था के लिए धन की पूरी व्यवस्था कर रखी है। पर 31 मार्च तक जितना बैंक - ब्याज आया, उसे आना - पाई सहित ख़ुद पर और परोपकार पर लगा देते हैं । For Personal & Private Use Only | 101 Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Personal & Private Use Only Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Personal & Private Use Only Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :2aSEBEER कैसे दें रोगों को मात स्वस्थ रहना जीवन की सबसे बड़ी दौलत है। स्वास्थ्य शांति और समृद्धि का आधार है। जैसा तन होगा वैसा ही मन होगा। इसे विपरीत भी कहा जा सकता है कि जैसा मन होगा वैसा तन होगा। स्वस्थ तन में ही स्वस्थ मन का निवास होता है और एक स्वस्थ मन ही स्वस्थ तन का आधार होता है। मानसिक रूप से सदा चिंतित रहने वाले का ब्लड प्रेशर हाई और लो होता रहता है। जो चिड़चिड़े और गुस्सैल स्वभाव के व्यक्ति होते हैं, उनके हार्ट में जब तब दर्द उठ आता है। मानसिक तनाव जीवन में सभी रोगों का कारण बनता है। इसके विपरीत अगर मन में प्रेम, शांति, आनन्द और मुस्कान भाव रहे, तो तन की 80 प्रतिशत बीमारियाँ अपने आप ही कट जाती हैं। देह की स्वस्थता के लिए दिमाग़ और मन की स्वस्थता अनिवार्य है। हमारा जीवन वीणा के तारों की तरह है जिन्हें यदि संतुलन के नियम के आधार पर चलाया जाए तो वीणा के तार अद्भुत सुकून और संगीत दे सकते हैं। तारों को अधिक कस दिया जाए तो कर्कश संगीत-ध्वनि निकलेगी और ढीला छोड़ 104 For Personal & Private Use Only Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देने पर भी बेसुरी आवाज़ ही आएगी। इन्सान को वीणा के तारों से प्रेरणा लेनी चाहिए और वीणा के तारों के समान ही व्यक्ति को अपने तन और मन को भी साधना चाहिए। हमारी देह केवल नश्वर नहीं है बल्कि नूर की तरह जगमग है और ईश्वर या रब या अल्लाह के रहने का स्थान भी है। जैसे मंदिर या मस्जिद में सिगरेट चढ़ाना पाप समझा जाता है उसी तरह व्यक्ति अपने शरीर के प्रति भी मंदिर का भाव रखे तो उसके लिए इस शरीर को ग़लत चीज़ों का आदी बनाना दूभर हो जाएगा। यह हमारे ग़लत नज़रिए का परिणाम है कि हमने भगवान को मंदिर, मस्जिद, गिरज़ा और गुरुद्वारे तक ही सीमित कर दिया है, जबकि हर प्राणी में, प्राणिमात्र में, सम्पूर्ण प्रकृति में ही ईश्वर विराजमान है । जब मंदिरों में पत्थर की प्रभु-प्रतिमा को माखन-मिश्री चढ़ाना 'भोग' कहलाता है तो अपने ही घर में काम करने वाले नौकर को माखन-मिश्री चढ़ाना क्या यह भोग नहीं होगा? जो मंदिर में जाकर तो भोग लगाते हैं लेकिन घर पहुँचकर अपने बेटे की छोटी-सी ग़लती पर उसे माफ़ न करके थप्पड़ जड़ देते हैं तो यह थप्पड़ उस बच्चे को नहीं मंदिर में रहने वाले कान्हा को लगता है। जरूरी है कि व्यक्ति अपने शरीर के प्रति थोड़ा-सा जागरूक हो जाए तो वह अपने स्वास्थ्य के लिए बेहतर इंतज़ाम कर सकता है। हम सभी जानते हैं कि पंचतत्त्वों से इस देह का निर्माण होता है। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश-जीवन और जगत के मूल बुनियादी पाँच तत्त्व हैं। इनका मिलन और संतुलन ही जीवन है और इनका बिखरना या बिगड़ना ही व्यक्ति के लिए रोग और मौत है। जो लोग रोज़-ब-रोज़ बीमार पड़ते हैं, जिनके कभी घुटनों में, कभी कमर में, कभी पीठ में दर्द रहता है या किसी को गैस ट्रबल है, हार्ट पेशेंट है, दिमाग़ बोझिल रहता है, वे लोग शरीर के इन पाँच तत्त्वों के असंतुलन का शिकार होते हैं। व्यक्ति इन पाँच तत्त्वों का संतुलन स्थापित करके अपना उपचार कर सकता है। इसलिए रुग्ण व्यक्ति को चाहिए कि वह सबसे पहले प्रकृति के सान्निध्य में जाए। जब आपको अहसास होता है कि आप बीमार हो रहे हैं तो सबसे पहले आप अपना खानपान बदलें और हवा-पानी बदलने के लिए किसी दूसरे स्थान | 105 For Personal & Private Use Only Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Personal & Private Use Only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Personal & Private Use Only Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अगर आपको लगता है कि आपके घुटने दुखते हैं या कमर दर्द करती है तो जल तत्त्व की शरण में जाइए। एक बाल्टी पानी गरम कीजिए, एक बाल्टी ठंडा पानी भी रखिए और जो भाग दर्द करता है उसे तीन मिनट पहले गरम पानी में रखिए और फिर तीन मिनट ठंडे पानी में रखिए। पाँच बार इस क्रिया को दोहराइए। गरम-ठंडे पानी के साहचर्य से नसों में रुका हुआ खून फिर ठीक से चलने लगेगा और शरीर का दर्द शनैः शनैः ठीक हो जाएगा। हम स्नान क्यों करते हैं ? जल तत्त्व के सम्पर्क में रहने के लिए। प्रतिदिन साबुन भी न लगाएं। सप्ताह में एक या दो बार ही साबुन का प्रयोग करें। गीले तौलिये से शरीर को थोड़ा रगड़ते हुए पौंछिए। एक तो इससे रक्तप्रवाह अच्छी तरह होगा। दूसरा जो रोम-छिद्र धूल और पसीने से अवरुद्ध हो गए हैं, वे खुल जाएँगे। पसीना तो निकलना ही चाहिए तभी तो दूषित तत्त्व बाहर निकलेंगे। स्नान करने से ताज़गी आती है और शरीर की उत्तेजनाएं, विकार तथा दोष अपने आप शांत हो जाते हैं। सरोवर में स्नान करने के बजाय, बहते पानी में स्नान करना अधिक लाभदायक है। पानी के वेग से विद्युत उत्पन्न की जा सकती है, तो ऐसा वेगवान पानी जब हमारे शरीर से टकराता है तो ऊर्जा उत्पन्न होती है। यह ऊर्जा हमारे शरीर को ऊर्जस्वित करती है। दस बाल्टी पानी से स्नान करने की अपेक्षा नदी में एक बार डुबकी लगाना ज़्यादा लाभदायक है। शरीर के शैल्स को चार्ज करने के लिए जल-तत्त्व आवश्यक है। हमारे शरीर में तीसरा तत्त्व है : अग्नि। अग्नि-तत्त्व को अपने शरीर के साथ जोड़ने का सबसे बेहतरीन माध्यम सूर्य है। हममें से प्रत्येक को प्रभातकालीन सूर्य के समक्ष कम-से-कम पन्द्रह मिनट तक अवश्य ही बैठना चाहिए। आपने देखा है कि हमारे देश में सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है, क्यों? इसीलिए कि इस बहाने ही सही, कम-से-कम तीन मिनट तो सूर्य के सामने खड़े रह सकेंगे। सौर-ऊर्जा से तो आज चूल्हे जल रहे हैं, गाड़ियाँ चल रही हैं, पवनचक्कियाँ अपना काम कर रही हैं। यानी सूर्य अग्नि का पिंड है। अग्नि ही खाना पकाती है, इंजन चलाती है। शरीर में ग्रहण किया गया भोजन भी जठराग्नि में ही पचता है। आप भी शरीर की जगड़न और शरीर के दोषों को 108 | For Personal & Private Use Only Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूर करने के लिए सूर्य या ऊष्णताप्रधान तत्त्वों का उपयोग कर सकते हैं । कई दफ़ा ऐसे भी प्रयोग देखने को मिले हैं कि कमर, पीठ या गर्दन में दर्द होने जाने पर, चनक़ पड़ जाने पर या लचक पड़ जाने पर बिस्तर को तेज धूप में रख दिया जाता है और फिर उस पर आधे घंटा लेट जाने की सलाह दी जाती है । धूप में बिस्तर की रुई गर्म हो जाती है और उस पर सोने से शरीर की सिकाई हो जाती है। आपने देखा है कि मैग्नीफाइंग ग्लास द्वारा जब सूर्य की रोशनी को फोकस कर काग़ज़ पर डाला जाता है तो वह काग़ज़ जल उठता है । हमारी देह तो उसे अपने संपूर्ण रूप में ग्रहण करने में सक्षम हैं। एक गुजराती भाई हैं। उनके शरीर का तो सूर्य की किरणों के साथ ऐसा तालमेल है कि वे मात्र सूर्य की आधे घंटा आतापना लेकर चौबीस घंटे निराहार रहते हैं और ऐसा वे पूरे सालभर कर सकते हैं । वे जब मुझसे मिले तो मुझे बताया गया कि उन्होंने पिछले दो साल से सूर्य रश्मियों के अलावा अन्य किसी भी प्रकार के अन्नजल का उपयोग नहीं किया है। हिमालय में भी संत लोग नियमित सूर्य - आतापना लिया करते हैं । एक संत हुए हैं : स्वामी विशुद्धानंद जी । वे अपनी कुटिया के बाहर बैठे हुए थे । तभी देखा कि एक घायल चिड़िया जमीन पर गिरी है। उन्होंने उस चिड़िया को अपने पास मंगवाया । उनके पास तरह-तरह के मैग्नीफाइंग ग्लास थे। उन्होंने उन विभिन्न ग्लासों से चिड़िया के विभिन्न अंगों पर सूर्य की रोशनी को फोकस किया। थोड़ी देर में वह चिड़िया फड़फड़ाने लगी और जब उसकी चोंच में दो बूंद पानी डाला तो चिड़िया में जान आ गई और वह फर्र से उड़ गई । आपने विदेशियों को देखा होगा। वे हमारे यहाँ आते हैं और गोवा के समुद्रतट पर धूप में पड़े रहते हैं, 'सन बाथ' लेते हैं । वे प्रतिदिन चार-छः घंटे धूप में बिताते हैं । इससे उनके त्वचा संबंधी रोग ठीक हो जाते हैं। पृथ्वी और अग्नि तत्त्व के साहचर्य से व्यक्ति का लकवा रोग भी ठीक किया जा सकता है । राजस्थान के रेगिस्तान में जो बालू रेत पाई जाती है उसके आठ-दस बोरे मंगवा लीजिए। उसे धूप में तीन-चार घंटे रखिए, फिर लकवाग्रस्त व्यक्ति को 109 For Personal & Private Use Only Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Personal & Private Use Only Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Personal & Private Use Only Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राणायाम को सरलतापूर्वक करने के लिए आप क्रियायोग कीजिए या सुदर्शन क्रिया कीजिए । आजकल कपाल भाति का भी ख़ूब प्रचलन हो रहा है। प्राणायाम करवा कौन रहा है, यह कम महत्वपूर्ण है । प्राणायाम आप कितने मन से कर रहे हैं यह ख़ास है । पहले दिन आप पाँच मिनट से शुरुआत कीजिए । धीरे-धीरे उसमें एक-एक मिनट का समय बठाते रहिए । जिस दिन आप सहज में पन्द्रह मिनट तक पहुँच जाएँ, आप अपने तन-मन का निरीक्षण कर सकते हैं। आप पाएँगे कि आपके तन-मन में पूर्वापेक्षा काफ़ी सुधार हुआ है, तन-मन के विकार कम हुए हैं, ताज़गी मिली है। आप ऊर्जावान हुए हैं । अंतिम तत्त्व है : आकाश । इसे साधने के लिए हम ध्यान करते हैं । ध्यान में हम विचार नहीं करते। जैसे आकाश खाली, वैसे ही अपने मन को पूर्णरूपेण खाली करने का प्रयास करते हैं और केवल एक ही बोध रखते हैं कि मैं अपने मन को, दिमाग को शून्य और शांतिमय बना रहा हूँ । 'अंतरमन को शांतिमय बना रहा हूँ' यह धारणा रखते हुए हम पहले दिन तीन मिनट, दूसरे दिन चार मिनट, इस तरह क्रमशः एक-एक मिनट बढ़ाते हुए अड़तालीस मिनिट तक पहुंचते हैं और स्वयं को आकाश तत्त्व के साथ जोड़ते हैं । ध्यान धरना यानी भीतर से आकाश हो जाना है। हालांकि आकाश में भी बादल घुमड़ते हैं, आँधी-तूफ़ान चलते हैं, औस- कोहरा घिरता है, पर इसके बावज़ूद ऐसा वक़्त भी आता है जब आकाश सबसे निष्पृह और मुक्त होता है। हमें हमारी अंतस्- सत्ता में भी आकाश की तरह ही विचार और कल्पनाओं की धूल उड़ती नज़र आती है, पर धीरे-धीरे, ज्यों-ज्यों हम धैर्य धारण करते हैं, भीतर में ध्यान और शांति दोनों ही साकार होते चले जाते हैं । तो पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश - ये वे पाँच तत्त्व हैं जिनके जरिए हम स्वस्थ और आनंदमय रहते हैं । इनसे हमारे दिल, दिमाग और शरीर का संतुलन स्थापित होता है। शरीर का प्रत्येक अंग महत्त्वपूर्ण है। देह की दृष्टि से हर व्यक्ति करोड़पति है । अगर एक आँख की कीमत दस लाख है तो दूसरी आँख भी दस लाख की है। एक गुर्दा दस लाख का तो दूसरा गुर्दा भी दस लाख का है। इस प्रकार चालीस लाख से आप लखपति हो गए। अरे, शरीर का हर अंग बेशक़ीमती है। इसे नश्वर मत समझो, व्यर्थ मत समझो। यह घर को कैसे स्वर्ग बनाएं - 7 112 | For Personal & Private Use Only Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तो कुदरत का बहुत बड़ा करिश्मा है, बहुत बड़ी दौलत है। इसे संजोइए और इसे स्वस्थ रखिए। लोग लाल बत्ती वालों के पीछे घूमते रहते हैं, जबकि सारे मंत्रालय हमारे पास हैं। पाँव यातायात-मंत्री हैं, हाथ श्रम मंत्री है, पेट खाद्य-मंत्री है, हृदय गृह-मंत्री, श्वास स्वास्थ्य-मंत्री, आँखें दूरसंचार मंत्री, जीभ सूचनाप्रसारणमंत्री, कान कानून-मंत्री, दिमाग शिक्षा मंत्री, प्राण प्रधान-मंत्री और आत्मा राष्ट्रपति है। सभी तो हममें समाया हुआ है। आप अपने शरीर के ख़ज़ाने को समझें। शरीर को नश्वर कहना छोड़ें। जिनका शरीर बेडौल हो गया है, पेट बाहर आ गया है, कूल्हे निकल रहे हैं, वे अपने शरीर के प्रति थोड़े सचेत हो जाएँ तो सभी स्वस्थ, निरोगी और छरहरे हो सकते हैं। हमारे स्वास्थ्य का सीधा संबंध हमारे रसोईघर से भी है। देख लीजिए कि आपके रसोईघर में कही छिपकली तो नहीं चल रही है। खिडकी, दरवाजों में मच्छरजालियाँ लगी हैं या नहीं लगी हैं? मच्छर, मक्खियाँ तो नहीं भिनभिना रही हैं? सम्भव है रसोईघर में जो सामान रखा है, उसके आसपास कॉकरोच चलते हों। रसोईघर हमारे स्वास्थ्य का नियंत्रणकक्ष है। रसोईघर अपने आप में सम्पूर्ण चिकित्सालय है, आरोग्यशास्त्र है। रसोईघर अग्निदेव को पूजित पोषित करने का मंदिर है। चाहे श्रावण की तीज हो या दीपावली की अमावस, होली का दिन हो या रक्षाबंधन की पूनम, हर त्यौहार को मनाने की वही शरणस्थली है। हम कितनी भी जीमणवारियों में जीम कर क्यों न आ जाएँ, पर अन्ततः अपने ही घर की रसोई की शरण में आना होता है। आख़िर सबसे बड़ा देवता तो अन्न देवता ही है। इस अन्न देवता का निवास हमारे रसोईघर में होता है। रसोईघर में जो चीज जिस भाव से बनेगी, आगे वैसा ही परिणाम निकलेगा। शुभ भाव से रसोई बनाने का परिणाम भी अच्छा निकलेगा। रोते, झींकते, जैसे-तैसे खाना बनाओगे तो उसका परिणाम भी वैसा ही आएगा। आपका बच्चा चिड़चिड़ करता है, दिन भर रोता रहता है तो यह न समझें कि उसका स्वभाव चिड़चिड़ा है बल्कि उसे खाना ही उस तरह का मिल रहा है। खाना बनाने में मन नहीं लगता, देवरानी-जेठानी में झगड़ा है, उखड़े मन से खाना बनाया जा रहा है तो उसका प्रभाव भी वैसा ही होगा। घर में मिलजुलकर खाना बनाएँ तो घर वालों 113 For Personal & Private Use Only Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में भी प्रेम का संचार होगा । हँसते - खिलखिलाते खाना बनाएँ । कहते हैं न् 'जैसा खावे अन्न वैसा रहे मन' । जैसे आपके मन के भाव होंगे वैसा ही खाने का परिणाम आएगा और वैसा ही प्रभाव तन और मन पर होगा । रसोईघर में सफाई रखें। सुबह, दोपहर, शाम को क्लीनिंग करें ताकि जीव-जंतु - कीटाणु पैदा न हों। सफाई पहली आवश्यकता है तो सामग्री दूसरी आवश्यकता । डिब्बे भरे हुए रखें, पर ऊपर ढके हुए रखें। गृहलक्ष्मी वही है जो रसोईघर को भरपूर रखे। जिस घर में खाना खाने से पहले अतिथियों को खाना खिलाया जाता है उस घर की माटी भी मंदिर के चंदन के तुल्य होती है । जिस घर में अतिथियों का सम्मान नहीं होता, मेहमानों की आवभगत नहीं होती, वहाँ कम-से-कम हम जैसे लोग तो आहार लेना पसंद नहीं करते । पहले घरों में 'अतिथि देवो भवः' लिखा जाता था, जमाना बदला 'स्वागतम् या वेलकम' लिखने लगे, और जमाना बदला, अब लिखा जाता है ' कुत्तों से सावधान।' यह हमारी संस्कृति की गिरावट है । रसोईघर में स्वास्थ्य के लिए जो उपयोगी और ज़रूरी साधन हैं, उन्हें अवश्य रखियेगा। सबसे पहले, अजवाइन ज़रूर रखें और किसी-न-किसी बहाने रोज़ाना एक चुटकी अजवाइन ज़रूर खा लीजिएगा । जिन्हें गैस की प्रॉब्लम रहती है, वे अधकचरी आधी चम्मच अजवाइन में एक चुटकी काला नमक मिलाकर फाँक लें, ऊपर से गुनगुने पानी में नींबू डालकर पीलें। गैस की प्रॉबल्म में राहत मिलेगी। अपने भोजन में लौंग का प्रयोग भी ज़रूर करें क्योंकि लौंग से पित्त का प्रकोप नष्ट होता है। ज़्यादा पित्त पड़ते हों तो रात में दस लौंग पानी में भिगो दीजिए और सुबह उन्हें पीसकर मिश्री का पाउडर मिलाए और शर्बत बनाकर पी लीजिए। लगातार तीन दिन तक इसका सेवन करें, पित्त गिरना बंद हो जाएगा। साबुत धनिये में कैल्शियम और अन्य खनिज लवण होते हैं । अतः इसका प्रयोग करना भी न भूलें । कालीमिर्च का भी उपयोग करें। कालीमिर्च कफ की बीमारी में फ़ायदेमंद होती है। गला भारी हो जाए तो खोल देती है । जब भी खाँसी -: - ज़ुकाम के कारण गला बैठ जाए तो झट से दो कालीमिर्च और मिश्री का एक टुकड़ा मुँह में रख लीजिए । गला साफ़। 114 For Personal & Private Use Only Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भोजन बनाएँ तो बघार में हींग भी डालें । इस तरह की चीज़ें शरीर में उपस्थित वायु, पित्त और कफ नाशक होती हैं । प्रतिदिन दाल भी बनाएँ । आलस्य या कंजूसी न करें कि कौन बनाए, कुछ भी खा लेंगे। नहीं, केवल पेट ही नहीं भरना है, बल्कि पूरे शरीर को एनर्जी देनी है। खाने में दाल, सब्जी, सलाद ज़रूर बनाएँ, खाने में दही भी लें या खाना खाकर एक गिलास छाछ ज़रूर पीएँ। भोजन के बाद छाछ पीना अमृत के समान है पर खाना खाते ही पानी पीना ज़हर के समान है । खाना खाने के एक घंटा बाद ही पानी पीने की आदत डालें । सुबह-सुबह दूध पीएँ । खाली पेट चाय न पीएँ। चाय पीना ही है तो दोपहर में एक कप पीएँ । सूखे मेवों का प्रयोग करें - अगर सम्भव हो तो । गर्मी के दिनों में मेवा पहले पानी में दो-चार घंटे भिगोकर रखें। बाद में उपयोग करें। वैसे हर रोज़ दस बादाम रात को भिगोकर सुबह चबा-चबाकर या पीसकर खाना दिमाग़ी सेहत के लिए फ़ायदेमंद टॉनिक है । भोजन ही ब्रह्म है, अन्न ही प्राण है, जीवन का आधार है। सौ काम छोड़कर भोजन कीजिए और हज़ार काम छोड़कर स्नान कीजिए । यहाँ अपने देश में खूब गर्मी होती है अतः लोग रोज़ाना नहा लेते हैं, किन्तु विदेशों में जहाँ ठंड ज़्यादा पड़ती है, सुना है कि सात-सात दिन तक लोग नहाते ही नहीं हैं । वैसे स्नान कर लेने से केवल शरीर शुद्धि ही नहीं होती है, अपितु शरीर का प्रमाद दूर होता है और तन - मन में ताज़गी आती है । T इसके अलावा, घर में सामूहिकता बनाए रखें, मिलजुलकर काम करें I एक पर ही सारा वज़न न डालें। यदि एक पर ही भार रहेगा तो उसकी कमर टूट जाएगी। मिलजुलकर खाना बनाने से काम भी जल्दी ख़त्म हो जाएगा और खाने का परिणाम भी अच्छा निकलेगा । जिन भावों से भोजन बनाएँगे, भोजन भी अपना वैसा ही परिणाम देगा । आप यदि हिंसा का भाव लिए हुए भोजन बनाएँगे तो भोजन खाने वाला हिंसक प्रवृत्ति का हो जाएगा, वहीं यदि प्रेम, शांति अथवा प्रभु- सुमिरन करते हुए भोजन बनाएँगे तो आपका भोजन भी लोगों पर वैसा ही रंग लाएगा। ऐसा हुआ, एक दिन सीताजी खाना बना रही थीं और हनुमान जी से 115 For Personal & Private Use Only Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहा, 'आ जा, खाना खिला दूं।' हनुमान ने कहा, 'रहने दो मांजी।' सीताजी बोली, 'नहीं, नहीं, आ जा, आज मैं ख़ुद खाना बना रही हूँ, तू आ जा? हनुमान जी ने सोचा, पता नहीं कब सीता मैया के हाथ का खाना मिले, तो बैठ गए खाने के लिए और खाते गए, खाते ही चले गए। सारे नौकर थक गए, चार लोगों के लिए जो खाना बनाया था वह ख़त्म हुआ ही, रसोई खाली हो गई। सीता जी भी बनाते-बनाते थक गईं, पर हनुमान थे कि रुके ही नहीं। अब तो सीता जी दौड़ी-दौड़ी राम जी के पास गईं, सारा हाल सुनाया। राम ने पूछा, 'तुमने उन्हें क्या खिलाया?' सीताजी बोलीं 'खाना'। राम ने हँसते हुए कहा, 'अरे उन्हें तो प्रसाद खिलाओ। वह खाना खिलाने के काबिल नहीं हैं। उसे तो बस प्रसाद दो। यह लो तुलसी के चार पत्ते, कहना रामजी का प्रसाद है।' सीता ने तुलसी उन्हें दे दी। हनुमान तृप्त हो गये और बोले, 'अरी माँ, ये प्रसाद पहले क्यों नहीं खिलाया?' अपने घर के भोजन को भी प्रसाद बना लो और जब पहला कौर खाओ तो यह न सोचो कि मैं खा रहा हूँ, सोचो कि भीतर जो भगवान बैठे हैं, उन्हें भोग चढ़ा रहा हूँ। मंदिर के भगवान को आप गंदी चीजें नहीं चढ़ाते हैं फिर भीतर के भगवान को कैसे चढ़ा सकते हैं ? हम सभी के भीतर भी तो भगवान विराजमान हैं। अगर आप यह मानसिकता बना लें तो आपसे भी तंबाकू, जर्दा, सिगरेट, शराब, गुटखा अपने शरीर को चढ़ न पाएगा। पता नहीं, शिवभक्त शिवरात्रि को भांग घोट-घोट क्यों चढ़ाते हैं ? अरे, ख़ुद को पीना है तो शिव को बीच में क्यों लाते हो? अगर चढ़ाना ही है तो अपनी पीने की लत को चढ़ा दो। यह बुरी लत भगवान को चढ़ाओ कि 'हे प्रभु, हम जो भांग पीते रहे हैं, आज तुम्हारे द्वार पर आया हूँ और आज से इस बुराई का त्याग करता हूँ'। यह होगी असली शिवरात्रि अथवा शिवभक्ति। भोजन भी दो प्रकार का होता है-1. प्रेयकारी और 2. श्रेयकारी। जो भोजन खाने में प्रिय लगे वह प्रेयकारी और जो परिणाम में सुखदायी होता है वह श्रेयकारी । ज़्यादा तेल, मिर्च, मसाले का भोजन प्रियकारी तो होता है, पर श्रेयकारी नहीं होता। आजकल लोग शादी-विवाह में इतने आइटम बनाते हैं कि अगला उकता जाता है कि किसे खाए और किसे छोड़े। एक तो खाना 116 | For Personal & Private Use Only Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रसोइयों के हाथ का बना हुआ । ऊपर से डालते हैं ज़बरदस्त घी - तेल - मिर्चमसाले । रढ़ा हुआ दूध, पनीर, काजू-किशमिश, न जाने सब्जियों में आजकल क्या-क्या डालना शुरू कर चुके हैं ? अरे भाई, न तो खिलाने वाला राजामहाराजा है और न ही खाने वाला । आजकल वैसे भी लोग मेहनती कम हैं। सब कारों में घुमने वाले हैं। अब ऐसा राजशाही भोजन करोगे तो शरीर की आंतरिक व्यवस्था चरमराएगी नहीं तो और क्या होगा। इन रसोइयों के हाथ का भोजन अगर आदमी लगातार सात दिन कर ले तो कैलोरी इतनी बढ़ जाएगी कि उसका असर हार्ट पर कब पड़ जाए कुछ कहा नहीं जा सकता । भाई, डॉक्टर सादा भोजन करने की सलाह दे उससे पहले ही आप अपने भोजन को सादा कर लीजिए। जो आदमी नमक कम खाता है, मिठाई से परहेज़ रखता है, तली हुई चीज़ों का भूल कर भी उपयोग नहीं करता, अपना दावा है कि वह आदमी भोजन के कारण कभी भी बीमार नहीं पड़ेगा। भोजन भी ऐसे करो कि जैसे भजन करते हो । ख़ूब धीरज से, शांति से, पवित्रता से । भोजन जितना सात्विक और सुपाच्य होगा, आप उतने ही स्वस्थ और तदुरुस्त रहेंगे । भोजन सदा सात्विक करें । थाली में उतना ही खाना लें जितना खा सकें। जूठा छोड़ना अन्न देवता का अपमान है। यदि खाना बनाने में कोई कमी रह जाए तो उसमें मीन-मेख निकालने की बजाय या तो शांतिपूर्वक अपना सहज भोजन ले लीजिए या फिर नमक कम है तो नमक डाल लीजिए और यदि नमक ज़्यादा है तो सब्जी में एक घूँट पानी या दही मिला लीजिए। भोजन करते वक़्त न तो अपना 'भेजा' ख़राब कीजिए और न ही अपनी घरवाली का । सौदा तो प्यार और शांति का ही अच्छा होता है । अच्छा होगा मौनपूर्वक भोजन करें। खाना खाते समय न टी.वी. देखें और न ही अखबार पढ़ें । खाना खाते समय केवल खाना खाएं, दिमाग़ में दूसरा कचरा ग्रहण न करें। एक काम, एक मन । जब भी कोई काम करें, पूरी तन्मयता और एकाग्रता से करें । हमारे देशवासियों की यह बुरी आदत पड़ गई है कि हम सुबह की चाय पीते वक़्त अख़बार पढ़ते हैं और शाम को खाना खाते वक़्त टी.वी. देखते हैं। अब अख़बारों में अच्छी चीज़ें तो आती नहीं हैं। वही राजनीति, वही झूठ |117 For Personal & Private Use Only Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साँच, वही दुर्घटनाएँ, वही हत्याएँ, वही बलात्कार । रोज़ इस तरह के समाचार ही अखबार में भरे रहते हैं और इसी तरह टी.वी. में अच्छी चीजें तो कम आती हैं। इस डिब्बे में कचरा कुछ ज़्यादा ही आने लग गया है। टी.वी. में रिसर्च कम, सैक्स ज्यादा है। प्रेरणा कम, खूनखराबा ज़्यादा आता है। अब अगर आप टी.वी. के सैक्सी सीन देखते हुए भोजन करेंगे, तो मानसिकता पर सैक्स ही हावी होगा। बलात्कार का समाचार पढ़ते हुए सुबह की चाय पीएंगे, तो दिमाग की तरंगें भी वैसी ही प्रभावित होंगी। अरे, सुबह की शुरुआत तो प्रभु की प्रार्थना से कीजिए, और रात की शुरुआत माँ-बाप, भाई-बहिन और बच्चों के साथ आमोद-प्रमोद में बिताइए। पढ़ना है तो अच्छी किताबें पढिए और देखना है तो अच्छे धारावाहिक देखिए, पर सावधान ! खाते-खाते न पढ़िए और न देखिए। स्वास्थ्य के लिए आहार-शुद्धि का पूरा-पूरा ध्यान रखें। जब भी बाजार से चीजें लाएं, उनकी साफ-सफाई का, स्वच्छता का ध्यान रखें। धर्मशास्त्र तीन प्रकार की शुद्धि का उल्लेख करते हैं : एक विचारशुद्धि, दूसरी भावशुद्धि और तीसरी आचारशुद्धि। मैं चौथी शुद्धि की बात करता हूँ वह है आहारशुद्धि। जो व्यक्ति तामसिक, गरिष्ठ भोजन करेगा वह संयमित न रह सकेगा। स्वाद के लिए खाना नासमझी है, जीने के लिये खाना समझदारी है। संयम की रक्षा के लिए भोजन करना साधना है इसलिए आहारशुद्धि और शरीरशुद्धि का विवेक रखें। हाथ-धोकर ही खाना खाने बैठें, नाखून बढ़े हुए न हों। जब खाना पकाएँ तब भी ध्यान रखें कि नाखून कटे हुए हों अन्यथा नाखूनों में जमा कचरा और गंदगी भोजन में जाएगी, खाते वक़्त भी और बनाते वक़्त भी। यह गंदगी रोगों को आमंत्रण देगी। खाना खाने के आधा घंटे पूर्व और एक घंटे बाद ही पानी पीना चाहिए। भोजन के बाद पानी न पीएं। यदि पीने की ज़रूरत पड़े तो एक गिलास छाछ पीएं। वह भोजन को पचाने में सहायक होगी। संतुलित भोजन करें। भोजन के द्वारा ही हमें आवश्यक पोषक तत्त्व मिलते हैं, जो शरीर का निर्माण करते हैं व ऊर्जा प्रदान करते हैं। इसीलिए हमारे भोजन में प्रोटीन, कैल्शियम, खनिज लवणों की प्रचुरता वाले खाद्य पदार्थ शामिल हों। चर्बीयुक्त पदार्थों का सेवन न करें। दिनभर खाते न रहें। 118 | For Personal & Private Use Only Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जब भूख लगे, तब ही खाएँ। भूख से थोड़ा कम भोजन करें। अधिक खाने से प्रमाद होता है, आलस्य आता है। पेट भी ख़राब होगा और जेब भी। क्योंकि यदि हम बीमार पड़े तो डॉक्टर के पास भी जाना पड़ेगा। अत: डॉक्टर से बचने का एक ही उपाय है शुद्ध, सात्विक और संयमित आहार। स्वस्थ रहने के गुर आपके अपने पास हैं। स्वास्थ्य की कुंजी, स्वास्थ्य की चाबी आपके अपने साथ है। उपयोग कीजिए और स्वास्थ्य के बंद ताले खोलिए। प्रकृति के साथ जुड़िए। पाँच तत्त्वों से बने हुए इस शरीर को पाँच तत्त्वों के साथ जोड़कर रखिए। पाँच तत्त्वों का संतुलन ही स्वास्थ्य का आधार है। सात्विक भोजन लीजिए और अपने रसोईघर को साफ, स्वच्छ और सौम्य रखिए। संयमित और संतुलित आहार ही स्वास्थ्य का राज़ है। | 119 For Personal & Private Use Only Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शह भी आपकी, सफलता भी आपकी पृथ्वी-ग्रह पर किसी का भी जन्म निरुद्देश्य नहीं होता। प्रत्येक के जन्म की अहमियत एवं सार्थकता है। हमारा जीवन कीड़े-मकोड़ों की तरह अर्थहीन नहीं है। हमारा जन्म और जीवन दोनों उद्देश्ययुक्त हैं। जीवन के प्रति उद्देश्यपूर्ण और सकारात्मक दृष्टि अपनाने पर व्यक्ति अपने प्रत्येक दिन को सार्थक और धन्य करने के लिए प्रयत्नशील हो जाता है। व्यक्ति की मानसिकता के अनुसार ही जीवन और जीवन जीने के मार्ग निर्धारित होते हैं। मानसिकता विचारों को प्रभावित करती है और विचार ही व्यक्तित्व का निर्माण करते हैं । व्यक्तित्व-निर्माण ही जीवन का धन है। बेहतर विचारों से ही बेहतर मानसिकता और बेहतर व्यक्तित्व निर्मित होता है। यह ज़रूरी है कि हम सभी अपनी मानसिक शक्ति को पहचानें। असाधारण व्यक्ति अपनी मानसिक शक्ति और आध्यात्मिक शक्ति का प्रयोग करके ही असाधारण बनते हैं। शारीरिक कमज़ोरी तो चल जाएगी, लेकिन मानसिक कमज़ोरी जीवन में कामयाबी के पथ पर न पहुँचा सकेगी। 120 | For Personal & Private Use Only Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कमज़ोर शरीर और मज़बूत मन तो चल जाएगा, लेकिन कमजोर मन और बलिष्ठ शरीर किसी काम का न रहेगा। जीवन के विकास के रास्ते शरीर से नहीं, मन से तय होते हैं। कसरती शरीर वाले देखें कि शरीर को मज़बूत करने के साथ ही क्या वे मन को भी मज़बूत बना रहे हैं? जीवन में कामयाबी के लिए चेहरे की सुन्दरता तो 15 प्रतिशत उपयोगी है, जबकि मज़बूत मन तो 85 प्रतिशत कारगार हुआ करता है। मन की मज़बूती से तो इंसान बड़े-से-बड़े रोग को, बड़ी-से-बड़ी बाधा को, अपाहिज हो चुकी जिंदगी को भी जीत सकता है। ____ मुझे याद है, एक युवती जिसकी उम्र मात्र उन्नीस वर्ष थी, तब उसकी माँ की मृत्यु हो गई और छ: माह बाद ही उसके पिता भी चल बसे। उसके चाचा-चाची ने उसकी शादी की और डेढ़ वर्ष बाद ही उसका पति एक बेटी देकर दर्घटना में मारा गया। ससुराल वालों ने उसे मनहूस कहकर उसका तिरस्कार किया और उसे घर से बाहर निकाल दिया। उस युवा स्त्री ने स्वयं जीने के लिए तथा बच्ची के पालन-पोषण के लिए प्राइवेट स्कूल में चपरासी की नौकरी स्वीकार कर ली।आजीविका कमाने के साथ ही विकट परिस्थितियों में उसने अपनी पढ़ाई भी शुरू की। उसने इंटर से आगे की भी पढ़ाई की। बी.ए. किया तीन साल में और उसे टीचर की नौकरी मिल गई। उसने पढ़ाई जारी रखी और एम. ए. किया। हाई स्कूल में उसकी पदोन्नति हो गई। धीरेधीरे उसने पी.एच.डी भी कर ली और कॉलेज में लेक्चरार हो गई। उस महिला का पुनर्विवाह भी हो गया। आज उसके दो बच्चे हैं। कल्पना कीजिये कि अगर वह अपने को निराश कर लेती तो शायद आत्महत्या ही करती। मन को मज़बूत बनाकर, आत्म-विश्वास के सहारे आज वह महिला सम्मानपूर्वक जीवन जी रही है। कन्या का जन्म लेना कोई अभिशाप नहीं है और न ही स्त्रीजाति इससे कमज़ोर होती है। अपाहिज और विकलांग भी अपने मन को अपाहिज और विकलांग न होने दें। जीवन में महान् लोगों को आदर्श बनाएँ और जीवन में कुछ-न-कुछ कर दिखाने का जज़्बा संजोकर रखें। अपनी ग़रीबी का अफ़सोस मत कीजिए। पाँव में जूते नहीं हैं तो मन छोटा मत कीजिए क्योंकि दुनिया में हज़ारों लोग ऐसे हैं जिनके पाँव ही नहीं हैं। आज यदि आपके पास खाने को | 121 For Personal & Private Use Only Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरी सब्जी नहीं थी, तो इसका गम मत कीजिए, क्योंकि दुनिया में ऐसे भी लोग हैं, जिन्हें आज खाने को सूखी रोटी भी नसीब न हुई हो। आपकी स्थिति उनसे तो बेहतर है। मन को छोटा नहीं, विश्वास भरा बनाइए। अपनी हर साँस को आशा और विश्वास से लीजिए । प्रकृति ने हमें कुछ करने के लिए जन्म दिया है, इसलिये अपने मन को कभी कमजोर और अपाहिज न होने दीजिए। हैवी वेट उठाने वाले दो पहलवानों कहा जाता है और दूसरा जीत जाता है। क्या कभी आपने इसका कारण सोचा है ? दोनों अपनी कला में माहिर होते हैं, दोनों का शरीर बलिष्ठ होता है फिर भी जीत किसी एक को ही मिलती है। जीतता वह है जिसके मन में जीतने जब होता है। अपने शरीर के बलवान होने का जिसे सिर्फ़ अहसास होता है वह मन की मज़बूती के बग़ैर हार जाता है । आज हमारे सामने शारीरिक और सामाजिक समस्याएँ उतनी नहीं है जितनी कि मानसिक समस्याएँ हैं क्योंकि मनुष्य मन से खिन्न, निराश और नपुंसक है। मैं ऐसे लोगों को जानता हूँ जो भले ही अपाहिज और विकलांग रहे हों, पर उन्होंने जीवन के विकास के सर्वोच्च शिखरों को छूआ है। याद कीजिए उस अंधी, गूंगी और बहरी महिला को जिसने कन्या के रूप में जन्म लिया और जो मात्र दो-ढाई वर्ष की उम्र में निमोनिया से पीड़ित होकर अपनी वाणी, श्रवण - शक्ति और नेत्रज्योति गँवा बैठी । क्या आप ऐसी लड़की का कुछ भविष्य देख सकते हैं ? लेकिन सलीवान जैसी शिक्षिका के मिलने के कारण वह अंधी, गूंगी, बहरी लड़की विकास के ऐसे द्वार खोलती है कि आज हम उसे श्रद्धा से याद करते हैं और उसकी लिखी हुई पुस्तकों का अध्ययनअध्यापन करते हैं। वह आदरणीय महिला थी हेलन केलर, जिसने जन्म से जीवन का कोई स्वाद नहीं चखा किंतु उसने ऐसी अद्भुत पुस्तकों की रचना की जो महान् चिंतकों और दार्शनिकों के लिए भी प्रेरणास्तंभ हैं। अपने ही देश के एक संगीतकार नेत्रहीन हैं, लेकिन जिनके संगीत ने दुनिया भर में धूम मचा दी है। उनके संगीत से सजी फिल्मों और टी.वी. धारावाहिकों की सर्वत्र चर्चा होती है । वे हैं रवीन्द्र जैन जिन्होंने दुनिया को बता ही दिया कि अभावों में पलकर, नेत्रहीन होकर भी जीवन की ऊँचाइयों का स्पर्श किया जा सकता है। जो अपने जीवन में प्रबल पराक्रम और पुरुषार्थ करता है वह 122 | For Personal & Private Use Only Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नेत्रहीन होकर भी महान् संगीतकार बन सकता है। अभिनेत्री सुधा चन्द्रन का नाम तो आपने सुना ही है। उसके दोनों पाँव नहीं हैं फिर भी वह कुशल नृत्यांगना है। दोनों पाँव कट जाने के बावजूद भी उसने हिम्मत नहीं हारी और कृत्रिम पाँवों से जयपुर फुट के सहारे नृत्य सीखा और अपने आपको स्थापित किया। नृत्य सीखते समय उसके घुटने छिल-छिल जाते थे, खून बहने लगता था, लेकिन असह्य दर्द के बावजूद उसने नृत्य सीखा और जयपुर के रवीन्द्र मंच पर ही ऐसी पहली बेहतरीन प्रस्तुति दी कि कोई जान भी न पाया कि उसके पैर कृत्रिम हैं। भरत-नाट्यम् प्रस्तुत करके उसने बता दिया कि मज़बूत मन के साथ यदि व्यक्ति कोई भी काम करना चाहे तो उसे कामयाबी ज़रूर हासिल हो सकती है। एक सजन और हैं जिनके दोनों हाथ कट चुके थे। ऐसे जवान अपंग की परिवार में क्या हालत होती है, यह आप समझ सकते हैं। अपमान, तिरस्कार और निराशा से भरा हुआ वह युवक आत्महत्या के इरादे से ट्रेन की पटरियों पर जाकर लेट गया। ट्रेन आने में समय रहा होगा कि उसके मन में विचार चलने लगे। उसकी आत्मा ने उसे झकझोरा कि उसका जन्म क्या यूँ ही मर जाने के लिए, आत्महत्या करने के लिए हुआ है ? उसके दोनों हाथ नहीं हैं तो क्या हुआ, उसके पाँव तो सलामत हैं ! इन्हीं पाँवों के बल पर वह फिर उठ कर खड़ा हो सकता है। उसने संकल्प किया और चल पड़ा। रास्ते में एक ग्वाला मिला जो दूध बेचने जा रहा था। उसने विनती की कि वह उसे चार किलो दूध उधार दे दे, वह बेचेगा। ग्वाले ने आश्चर्य से कहा, 'पर कैसे?' युवक ने कहा, 'हाथ नहीं हैं तो क्या हुआ, कंधे तो हैं।' दोनों कंधों पर दो-दो किलो की थैलियाँ लटका दो।' ग्वाले ने उसका आत्मविश्वास देखकर उसकी सहायता की और दोनों कंधों पर दो थैलियाँ टाँग दी। युवक चल पड़ा, दूध बेच-बेचकर उसने भैंस खरीद ली। धीरे-धीरे उसका व्यवसाय बढ़ने लगा और अब वह एक डेयरी का मालिक है और आठ-दस लोग उसके काम में हाथ बँटाते हैं। ___ हाल ही में एक पिक्चर रिलीज़ हुई है : ब्लैक। भाई श्री संजय जी, लीला भंसाली ने बनाई है। अद्भुत फिल्म है यह। मैं ऐसी सुन्दर फिल्म के लिए संजय जी का अभिनन्दन करता हूँ। आज की कचरा-छाप फिल्मों में यह फिल्म एक आदर्श है। अगर मेरे हाथ में होता तो मैं इस सुन्दर कार्य के लिए | 123 For Personal & Private Use Only Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संजयजी को नोबेल पुरस्कार दिलाना पसंद करता। आप इसे ज़रूर देखें । इस फिल्म की कहानी एक अंधी, गूंगी-बहरी और मंदबुद्धि बालिका पर केन्द्रित है । उसके माँ-बाप ने उसके साथ वही व्यवहार किया जो किसी विक्षिप्त व्यक्ति के साथ किया जाता है, पर मिस्टर सहाय नाम के एक टीचर ने आखिर उसे अपने कठोर अनुशासन, कठोर मेहनत और महान् लक्ष्य के साथ उसे वह स्थान दिलाया जो कि किसी भी सम्पूर्ण शिक्षित व्यक्ति को मिला करता है । जॉन नाम की वह बच्ची संसार को आखिर यही संदेश देती है जिस डिग्री को हासिल करने में आपको बीस साल लगते हैं, उसे हासिल करने में मुझे चालीस साल लगे, पर कुदरती अभावों के बावज़ूद यदि व्यक्ति विकास करना चाहे तो वह भी ऊँचाइयों को छू सकता है । लोग समझते हैं कि ब्लैक का मतलब अंधकार। पर मेरे गुरु ने मुझे बताया है कि अंधापन ब्लैक नेस नहीं है, वरन् मन की ही भावना और निष्क्रियता ही इंसान का अंधापन है । लोगों ने धरती पर ईश्वर एक ही माना है, पर मैंने धरती पर दो ईश्वर देखे हैं । एक तो वह जिसने मेरे अंधे होने के बावज़ूद मेरे पत्थर को तराशा और मुझे अंधी - बहरी- गूंगीमंदबुद्धि बालिका को पोस्ट ग्रेजुएट होने का गौरव प्रदान किया। उस बच्ची ने कहा - यदि ईश्वर मुझसे कहे कि तुम्हें आँख मिल जाए तो तुम सबसे पहले क्या करोगी, तो मेरा ज़वाब होगा मैं अपने टीचर के रूप में आए भगवान को देखना पसंद करूँगी । जब अपाहिज व्यक्ति अपने संकल्प के साथ आगे बढ़ सकता है तो आपके पास तो सही सलामत देह है 1 कंधे - कंधे मिले हुए हैं, कदम-कदम के साथ हैं, पेट करोड़ों भरने हैं, पर उनसे दुगुने हाथ हैं। I भगवान की ओर से पेट तो एक ही मिला है पर हाथ तो दो हैं । यदि व्यक्ति अपने पुरुषार्थ को जगा ले तो कमजोर - से- कमजोर व्यक्ति भी अमीर बन सकता है। हमारे आस-पास ही ऐसे अनेक लोग मिल जाएँगे, जिन्होंने संघर्ष करते हुए आज वह मुकाम हासिल कर लिया है जो प्रेरणा प्रदान कर सके। मज़बूत मन का ही नाम सच्चा यौवन है । निराश, हताश, खिन्न युवा अठारह वर्ष की आयु में ही बूढ़ा हो जाता है और जो अस्सी वर्ष का है लेकिन मन उत्साह, ऊर्जा, उमंग से भरा है वह देह से बूढ़ा होकर भी युवा मन है । 124 | For Personal & Private Use Only Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रामगोपाल जी राठी को ही लीजिए। डोकरा बयासी वर्ष की उम्र में भी छोकरों की तरह नृत्य करता है। उनमें ग़ज़ब की फुर्ती है, शरीर में ग़ज़ब का लोच है। नाचने की आदत कोई जीवन भर से नहीं है। पिछले दो-तीन वर्षों से भक्ति का रंग लगा और बस भजनों के साथ थिरकने लगे। उनके जीवन में भी क्या मस्ती है ! सचमुच, जिनके भीतर हौंसला और हिम्मत जग जाती है, वे आने वाले कल के लिए हस्ती बन जाते हैं। मेरी समझ से वे बूढ़े तन में भी नाचते हुए युवा हैं । यौवन का सम्बन्ध तन से नहीं, मन से है। मन मज़बूत तो तन भी मज़बत। मन मरा कि गया काम से। ऐसे लोग फिर आलसी टट्ट हो जाया करते हैं। जीवन के विकास का पहला द्वार ही साहस और आत्म-विश्वास है। आत्म-विश्वास उन्नति की पहली सीढ़ी और प्रगति का द्वार है; वह जीवन की शक्ति और भीतर का मित्र है। आत्मविश्वास से भरे व्यक्ति के लिए कुछ भी असंभव नहीं है। उसके लिए नामुमकिन कुछ भी नहीं है क्योंकि 'ना' को हटाकर, नकारात्मकता को हटाकर उसने सब कुछ मुमकिन बना लिया है। आप वृद्ध होने पर निष्क्रिय और अकर्मण्य न बनें। गीता का भी यही सारसंदेश है कि व्यक्ति स्वयं को सदा कर्त्तव्य-पथ पर सन्नद्ध रखे। भगवान ने यही अर्जुन से कहा था कि 'तुम अपनी नपुंसकता का त्याग करो और कर्तव्यों के लिए खड़े हो जाओ। मैं तुम्हारे साथ हूँ।' कर्त्तव्यशील व्यक्ति के साथ भगवान सदा रहते हैं। अपने आत्म-विश्वास को जगाइए। जो भी व्यक्ति महान् बन पाए उनके पीछे बुनियादी कारण रहा उनका आत्म-विश्वास। महज़ क़िस्मत और भाग्य का आलम्बन मत लीजिए। आपने भगवान महावीर के वे चित्र देखे होंगे जिनमें ग्वाला उनके कानों में कीलें ठोंक रहा है या उन्हें हंटर और बेंत से पीट रहा है। जब देवराज इन्द्र ने यह प्रत्यक्ष में देखा तो उसने आकर प्रभु से विनती की, 'भगवन् आपके साधनाकाल में अनेक कष्ट, उपसर्ग और संत्रास आएंगे, आप मुझे आज्ञा दें कि आपकी निर्विघ्न साधना के लिए मैं इन उपसर्गों से आपकी रक्षा कर सकूँ।' तब भगवान ने कहा, 'वत्स, व्यक्ति अपने जीवन का विकास अपने ही बलबूते पर करता है। अगर किसी को आत्मज्ञान भी पाना है तो दूसरों के द्वारा नहीं, बल्कि अपने ही विश्वास के बल पर वह केवलज्ञान या आत्मज्ञान के शिखर छू | 125 For Personal & Private Use Only Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सकता है।' महावीर इन्द्र की सहायता लेने से इन्कार कर देते हैं और अपने ही बलबूते पर साधना करते हैं। बुद्ध की प्रेरणा है, 'अप्पदीपो भव'। अपने दीप खुद बनो। दूसरों के दीये दिखने में अच्छे होते हैं, किंतु आख़िरकार तो वे ही दीपक काम आएँगे, जो आपने ख़ुद ने बनाए हैं, जलाए हैं। जो अपने बलबूते पर साधना को फलीभूत नहीं कर सकते वे ही घाटघाट भटककर और गुरुओं के पास जाकर अपना मत्था टेकते रहते हैं। राम ने रावण के विरुद्ध युद्ध का शंखनाद किया। रावण अपार शक्तियों का स्वामी था। कहते हैं कि एक बार उसने अपनी काँख में ब्रह्मा, विष्णु, महेश को दबा लिया था। कुबेर उसकी सेवा में था, ऐसे रावण को चुनौती देना क्या सामान्य बात थी? रावण के पास राक्षसों की सेना थी और राम के पास बंदरों की सेना, पर इसके बावजूद राम को रावण से युद्ध करना था। रीछ, भालू, बन्दरों को लेकर राम ने रावण की सोने की लंका पर चढ़ाई कर दी। ज़रा सोचिए कि वह क्या था, जिसके बलबूते पर राम रावण पर चढ़ाई कर सके? वह था आत्मविश्वास, जिसके आधार पर, जिसकी ताक़त के सहारे राम रावण पर हमला करते हैं और विजयश्री का वरण भी करते हैं। जीत उन्हीं की होती है जिन्हें भरोसा है कि वे जीतेंगे और अन्ततः वे जीत ही जाते हैं। महज़ राम-राम जपने से नैया पार नहीं लगती, बल्कि रामायण से प्रेरित होकर आत्म-विश्वास जगाने से ज़रूर नैया पार लग जाती है। ज़रा आप सोचें कि आप किस नाम, कुल, गौत्र और माता-पिता की संतान हैं और आपने ऐसा क्या काम किया है कि आपका समाज और आपके मातापिता आप पर गर्व कर सकें? कोलम्बस नई दुनिया की खोज के लिए निकला था। उसके सारे साथी लम्बी समुद्री यात्राओं से थक-ऊबकर वापस चले गये। वह भी छत्तीस बार यात्राएँ कर चुका था, लेकिन उसने हार नहीं मानी और छत्तीसवीं बार वह भारत तो न खोज सका, लेकिन उसने अमेरिका को ज़रूर खोज निकाला। यह क्या था? केवल साहस और आत्म-विश्वास तथा दृढ़ निश्चय और खोज निकालने का जज्बा । वह कौनसी ताक़त है जिसके कारण व्यक्ति समुद्र की गहराइयों में उतर जाता है ? आज तो दिशासूचक यंत्र है, लेकिन उस समय समुद्री रास्ते से किसी देश को खोज निकालना ज़बरदस्त दुस्साहस का कार्य 126 For Personal & Private Use Only Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ था । पियरे ने उत्तरी ध्रुव की खोज आत्म विश्वास के सहारे की थी। गैलीलियों ने झूलते लैम्प का आविष्कार आत्म-विश्वास के बल पर ही किया था। आत्म-विश्वास के बल पर ही मात्र सोलह वर्ष की आयु में शिवाजी ने पहला किला फतह कर लिया था । उन्नीस वर्ष की आयु में वाशिंगटन अमेरिका का सेनापति बन गया था। जीवन की हर जीत के पीछे आत्म-विश्वास बंद मुट्ठी का काम करता है । आत्म-विश्वास से पहला फ़ायदा यह है कि व्यक्ति अपने लक्ष्य का निर्धारण करने में सफल होता है। दूसरा लाभ यह है कि वह अपने निर्णय स्वयं ले सकता है। तीसरा फायदा - व्यक्ति का प्रेजेंटेशन भी बेहतर होता है। चौथी बात, वह लोगों के सामने दब्बू बनकर जीने को मजबूर नहीं होता । पाँचवी बात, वह स्वाभिमान और इज़्ज़त की ज़िंदगी जी जाता है। कौन कहता है, आसमान में छेद नहीं हो सकता ? एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो ! तुमने अपनी मानसिकता, विश्वास और आध्यात्मिक शक्तियों को कमजोर कर डाला तो आसमान में तो क्या ज़मीन पर कुल्हाड़ी चलाने से भी छेद नहीं होने वाला। यदि कोई महावीर या बुद्ध, कृष्ण या कबीर, गाँधी या नेल्सन, बिल क्लिंटन या बिल गेट्स बनते हैं तो वे हाथ पर हाथ रखकर बैठने से नहीं बनते बल्कि पुरुषार्थ और आत्म-विश्वास के बल पर बनते हैं। विद्युत् बल्ब के आविष्कारक थॉमस अल्वा एडीसन लगातार सोलह वर्षों तक असफल होते रहे । उसके साथ कार्यरत वैज्ञानिक उसका साथ छोड़कर चले गए। पत्नी ने भी कह दिया कि 'पागल हो गए हो। न जाने कौनसा भूत सवार है कि सोलह सालों से प्रयत्न कर रहे हो फिर भी कुछ हासिल नहीं हुआ।' तब भी एडीसन निराश नहीं हुआ। उसने अपनी कोशिशें जारी रखीं और जब वह सफल हुआ तो दुनिया दूधिया रोशनी से नहा उठी । आत्म-विश्वास संकट मोचक है । आत्म-विश्वास धैर्य की ताक़त है I आत्म-विश्वास अन्तर्मन की ऊर्जा और जीवन की चमक है । यह वह शक्ति है जिसके कारण शरीर में स्फूर्ति होती है, आनंद छा जाता है, चेहरे पर तेज आ जाता है, फुटपाथ पर रहने वाला भी महलों तक पहुँच जाता है। आत्मविश्वास रखने वाला व्यक्ति अवसर के क्षण तुरंत पकड़कर प्रगति के पथ पर 127 For Personal & Private Use Only Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगे बढ़ जाता है। वह उनका सही प्रयोग कर डालता है । जिस व्यक्ति के मन में आत्मविश्वास है उसको किसी और शक्ति या साधन की आवश्यकता नहीं है। हृदय सदा विश्वास से भरा होना चाहिए। मुझे प्रसन्नता है कि लोग मुझे इतने प्यार से सुनते हैं और अपनी खो चुकी ऊर्जा को फिर से जीवन्त कर लेते हैं। यानी मैं तो सेल-चार्जर हूँ | प्रेरणादायक पुस्तकें आत्म विकास में बहुत सहायक होती हैं । वे आपको आपके आदर्शों और लक्ष्य की याद दिलाती रहती हैं । आप ज्यों-ज्यों स्वयं को पहचानते जाएँगे, आपकी सोई हुई शक्तियाँ जगती जाएँगी। आत्मविश्वास को जगाने के लिए आप अपने हर दिन की शुरुआत स्वस्थ मन और मुस्कान के साथ करें, योग एवं प्राणायाम करें। जो सीखा है वह एक दिन के लिए नहीं है, उसे अपने जीवन में उतारें। तभी आपका पूरा दिन ऊर्जामय, उत्साहमय और उमंग से भरा होगा । प्रातः काल उठने के साथ ही देह व मन की जकड़न दूर हो जानी चाहिए। काम चाहे थोड़ा करें, पर पूरी ऊर्जा के साथ करें। पूरी ऊर्जा के साथ अगर काम किया जाएगा तो अंबानी और आदित्य, टाटा या बिरला होना किसी एक के ही हाथ की बात नहीं है । हममें से हर व्यक्ति विकास करके उन ऊँचाइयों को छू सकता है। जिसने भी विकास किया है उसके पीछे संघर्ष और आत्म-विश्वास की कहानी होती है । मैंने कभी कलेक्टर लक्ष्मीकांत भारतीय की कहानी पढ़ी थीं । कहते हैं उनके पिता स्वतंत्रता-सेनानी हुए हैं - कृष्णानंद भारती । महात्मा गाँधी के आज़ादी-आंदोलन से प्रभावित होकर उन्होंने अपना जीवन देश के लिए समर्पित कर दिया। अपने पिता के पदचिह्नों का अनुसरण करते हुए लक्ष्मीकांत भारती ने भी अपने आपको आज़ादी के समर में झौंक दिया। जब अदालत का घेराव करते हुए वे पकड़े गए तो माँ को खबर लगी कि बेटा कारागृह में डाल दिया गया है तो वह रो पड़ी। वह कारागार में बेटे के पास पहुँची और बोली, 'तुम्हारे पिता ने देश के लिए प्राण उत्सर्ग कर दिए। उनकी और मेरी दोनों की यही अभिलाषा है कि तुम भी देश के काम आओ । मेरा सपना था कि तुम कलेक्टर बनोगे लेकिन तुम तो बेड़ियों में जकड़कर कारागार में आ गए हो।' पुत्र ने कहा, 'माँ ये हथकड़ियाँ देश की आज़ादी के लिए हैं। अंग्रेजों की हथकड़ी से मुक्त होने के लिए मैंने ये हथकड़ी पहनी हैं। माँ, तुम विश्वास I 128 | घर को कैसे स्वर्ग बनाएं - 8 For Personal & Private Use Only Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रखो, एक दिन तुम्हारा सपना ज़रूर पूरा होगा, तुम्हारा बेटा कलेक्टर ही बनेगा | वह युवक बंदीगृह से मुक्त होकर अपने अध्ययन में जुट जाता है और तत्कालीन आई.ए.एस. की डिग्री प्राप्त करता है । माँ के चरणों में प्रणाम करते हुए कहता है, 'माँ मैं कलेक्टर बन गया हूँ, पर पराधीन भारत का नहीं, स्वतंत्र भारत का ।' वे स्वतंत्र देश के पहले कलेक्टर बने और उनकी पहली ड्यूटी मदुरै में लगी थी। आप किसी भी उम्र के क्यों न हों, बस संकल्प करें और साहस और आत्मविश्वास से जुट जाएँ । सफलता एक न एक दिन आपके क़दमों में होगी। समय कितना भी लग जाए लेकिन आपके भीतर कुछ बनने का जज़्बा होगा, हिम्मत होगी तो आप वह बन जाएंगे। जन्म से कोई भाग्य लेकर नहीं आता, पुरुषार्थ के द्वारा भाग्य जगाया और बनाया जाता है । हम भी साहस और आत्मविश्वास के द्वारा मज़बूत मन के मालिक बन सकते हैं। आत्मविश्वास के मालिक बनने के लिए हीनभावना दूर कीजिए। ज़राज़रा सी बात पर खीझना, चिड़चिड़ाना, बिलबिला जाना, भयभीत रहना ये सब असफलता के लक्षण हैं । हमेशा प्रसन्न रहिए, खीझिए और झुंझलाइए नहीं । दिमाग़ के आले में जमे हीनभावना के जाले को निकाल फेंकिए । 'मैं गरीब आदमी, छोटी जाति का, मैं क्या कर सकता हूँ, मेरी क्या औकात है, इन सब बातों को मन से हटा दीजिए और सोचिए कि मैं क्या नहीं कर सकता ? मैं सब कुछ, जो चाहूँ, कर सकता हूँ। मैं कुछ बनना चाहूँ और न बन सकूँ यह कैसे मुमकिन हो सकता है ? ' अपने रंगरूप को देखकर मन छोटा न कीजिए। सुकरात और सिकंदर भी सांवले थे, देश के महान् कवि मलिक मोहम्मद जायसी भी काने थे। रंग से काला या साँवला होना कोई बात नहीं है । यह तो प्रकृति की दी हुई चीज़ है, पर आप अपने मन को तो उजला बना सकते हैं। चेहरे को रंग देना प्रकृति का काम है, पर अपने मन को रंग देना तो आप ही के बस में है । मैं एक ऐसे डॉक्टर को जानता हूँ जो हमारे बहुत क़रीब सम्पर्क में हैं। मैं इस घटना का पहले भी उल्लेख कर चुका हूँ। आज फिर इसलिए कहना चाहता हूँ कि आप प्रेरणा ले सकें। हाँ, वह डॉक्टर एकदम काला और चेचक के दागों वाला है। घर को कैसे स्वर्ग बनाएं - 9 | 129 1 For Personal & Private Use Only Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शायद उसे देखकर ही हम अपनी नज़र घुमा लें, लेकिन उसकी पत्नी बेहद खूबसूरत है। इतनी सुंदर कि देखते रह जाएँ। एक बार मैंने उनसे पूछा, (बहुत करीबी है इसलिए पूछ सका), बहिन, एक बात बताओ।' 'फरमाइये' उसने कहा। मैंने कहा, 'एक बात बताओ बहिन आपकी पहली शादी है या दूसरी'। 'पहली ही शादी है', क्यों?' उसने सवाल किया। मैं थोड़ा चौंका, 'पहली शादी और इतना बदसूरत पति।' मैंने कहा, 'क्या शादी से पहले माता-पिता ने लडके को देखा नहीं था?' 'यह शादी माँ-बाप ने नहीं की, यह मैंने खुद की है, हमारी लव-मैरिज है', उसने बताया। अब तो मैं और अधिक चौंक गया, यह तो ग़ज़ब हो गया, फिर भी कहा, 'बहिन, बात समझ में नहीं आई। आप तो कह रही हैं कि यह लव-मैरिज है, ऐसा कैसे हो सकता है?' बहिन ने बताया, 'हम लोग कॉलेज में पढ़ते थे, पढ़ाई के दौरान ही मैं इनके सम्पर्क में आई। कॉलेज में दो हज़ार विद्यार्थी थे, आप सुनकर ताज्जुब करेंगे कि उन दो हज़ार विद्यार्थियों के बीच यही एक ऐसे इन्सान थे जिनके गुणों ने, सीरत और स्वभाव ने मुझे प्रभावित किया। मैंने महसूस किया कि व्यक्ति रंग से काला है तो क्या हुआ किन्तु यह अपने चरित्र और गुणों से तो महान् है और मैंने शादी का प्रस्ताव रख दिया। यह मेरी पसंद है, मैंने स्वयं ही इनसे शादी की है। हकीकत तो यह है कि मैंने इनके रंग-रूप से नहीं बल्कि इनके गुणों से शादी की है।' मैंने सुना और खूब आनन्दित हुआ। थोड़ी देर बाद उसके पति भी हमारे पास आए। बातें चल रही थीं, तभी मैंने उनसे भी पूछा, 'एक बात बताएँ आपका ऐसा काला रंग है, मोटी नाक और चेचक के दाग हैं, कभी आपको गिल्टी फील नहीं हुई।' उन्होंने कहा, 'बचपन में गली-मोहल्ले के सारे बच्चे मुझे 'कालूकालू' कहकर पुकारते थे। जब वे मुझे कालू कहते तो मुझे बहुत तकलीफ़ होती थी। तभी उन दिनों मैंने यह संकल्प कर लिया था – 'ए कालू, तू अपना रंग तो नहीं बदल सकता, लेकिन अपने जीने के ढंग को तो जरूर बदल सकता है। बस तब मैं अपनी शिक्षा और जीवन के प्रति गंभीर हो गया और वह भी इतना कि आज मैं शहर का सम्मानित डॉक्टर माना जाता हूँ। लोग मेरे चेहरे को नहीं देखते, वरन् मेरी प्रेक्टिस, मेरी पारंगतता, मेरे अच्छे गुणों से प्रभावित होकर मेरे पास आया करते हैं। 130 For Personal & Private Use Only Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यही बात मैं आप लोगों से कहना चाहूँगा कि व्यक्ति के रंग पर न जाएँ, उसकी ग़रीबी का मज़ाक न बनाएँ क्योंकि हमारे प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री भी अत्यंत गरीबी में पैदा हुए थे। हमारे वर्तमान राष्ट्रपति अब्दुल कलाम भी गरीब घर में जन्मे थे। ग़रीबी जीवन के विकास में बाधक नहीं बनती। इसलिए मैं कहूँगा कि करोड़पति का बेटा अगर करोड़पति है तो क्या ख़ासियत? हाँ, ग़रीब का बेटा करोड़पति हो गया तो यह उसकी विशिष्टता है। वह बधाई का पात्र है, क्योंकि अपने बलबूते पर उसने यह मुकाम हासिल किया है। तुम ख़ुद कुछ बने, यह तुम्हारी योग्यता की तारीफ़ है। सकारात्मक सोचें। सुबह उठकर सोचें कि आज मैं यह कर सकता हूँ, बिल्कुल कर सकता हूँ। मैं ख़ुशनसीब हूँ। मैं वह सब काम कर सकता हूँ जो कि कोई दूसरा कर सकता है। बस, मुझे थोड़ी मेहनत करके काम का तजुर्बा लेना होगा। आपको यह भी सकारात्मक सोच विकसित करनी चाहिए कि मैं किसी से कम या कमज़ोर नहीं हूँ। मेरा यह फैसला है कि मैं भयमुक्त, चिंतारहित और तनाव विहीन जिंदगी जीऊँगा। ध्यान रखिए मनुष्य जैसा सोचता है, वैसा ही बन जाता है। अपनी सोच में साहस और आत्मविश्वास को जगह दीजिए, आपके जीवन में हर परिस्थिति का सामना करने का सामर्थ्य ख़ुद ही आ जाएगा। किसी कम्पनी में से एक कम्प्यूटर ऑपरेटर को निकाल दिया गया। वह बोला, 'मैं आराम से अपना इस्तीफा दे देता हूँ, क्योंकि यहाँ रहकर छल, कपट, प्रपंच, झूठ का सहयोगी नहीं हो सकता।' जब वह जाने लगा तो मैनेजर ने कहा, 'तुम तो ऐसे नौकरी छोड़कर जा रहे हो जैसे अमेरिका कमाने जा रहे हो। तुम्हारे लिए क्या नौकरी तैयार पडी है?' बिल्कुल सर, 'जब मैंने कल इस्तीफ़ा देने के बारे में सोचा था तो यही निर्णय किया कि यहाँ से मैं अमेरिका ही जाऊँगा।' 'अमेरिका! अरे वहाँ पर तुम्हें रखेगा कौन?' उसने कहा, 'प्रश्न यह नहीं है कि वहाँ मुझे कौन रखेगा, सवाल यह है कि वहाँ मुझे रखने से कौन इन्कार करेगा? मेरी योग्यता मेरे जीवन का धन और प्रतिष्ठा है।' आप कहाँ रहते हैं, इससे अधिक मूल्यवान है आप अपनी प्रतिभा का मूल्यांकन करते हैं या नहीं। आपके आँखे हैं या नहीं, इससे भी ज़्यादा महत्त्वपूर्ण यह है कि आपमें, आपके पास उजाला है या नहीं! अगर अपनी योग्यता कम 131 For Personal & Private Use Only Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समझते हैं तो आप हीनभावना से ग्रस्त हैं। अगर आपको लगता है कि आप कुछ नहीं कर सकते तो आप हीनभावना से पीड़ित हैं। कोशिश कामयाबी का आधार है। पहले चरण में ही हार न मानें। पहला चरण तो आत्म-विश्वास से भरा हुआ होना चाहिए। कोशिश ही कामयाबी का द्वार है। एक बात और, अपने जीवन में आलोचना सहने की आदत डालिये। कोई आपकी आलोचना करे तो परवाह मत कीजिए। दुनिया में किस आदमी की आलोचना नहीं हुई? जो बातों से घबरा जाएगा वह कभी भी अपनी मौलिक स्थापना नहीं कर पाएगा। बनी हुई लकीरों पर मत चलो। लीक पर चलना सुरक्षित तो होता है लेकिन उसमें अपनी मौलिकता नहीं होती। अपने पुरुषार्थ से अपने रास्ते ख़ुद बनाओ। कुछ अलग करने की उमंग रखें, तभी आप आगे बढ़ने में सफल हो सकेंगे। देखो कि आलोचना में कौनसी अच्छी बात है, उसे अपना लो, लेकिन अपने संकल्प से पीछे मत हटो। जो आज आलोचना कर रहे हैं, कल वे ही जब आप लक्ष्य हासिल कर लेंगे तो तारीफ करने को तत्पर हो जाएंगे। जब तक कोई चीज लक्ष्य और मंजिल तक नहीं पहुँच पाती है तभी तक उसकी आलोचना होती है और लक्ष्य हासिल होते ही लोग करवट बदल लेते हैं, प्रशंसा करने में जुट जाते हैं। दोस्त दुश्मन और दुश्मन दोस्त हो जाते हैं। आज जो तुम्हें पचास रुपये उधार देने से कतराते हैं, कल वे ही तुम्हें मुकाम पर पहुँचा देख कर लाख रुपया लगाने को तत्पर हो जाते हैं क्योंकि उन्हें पता है कि अब उनकी पूँजी तो कम से कम सुरक्षित ही रहेगी। ___ आलोचना तो महावीर की भी हुई थी, नहीं तो कानों में कीलें क्यों ठोकी जातीं? आलोचना तो राम की भी हई थी, नहीं तो सीता जी को वनवास देने की क्या जरूरत थी? जीसस की भी आलोचना हुई थी तभी तो उन्हें सलीब पर चढ़ना पड़ा। आलोचना के कारण ही सुकरात को जहर का प्याला पीना पड़ा। मंसूर की आलोचना में उनके हाथ-पाँव काट दिये गए। आलोचना से घबराएँ नहीं। चलेंगे तो गिरेंगे भी। जो गिरने से डरता है वह कभी चलना नहीं सीख सकता। दो मित्रों ने संकल्प लिया कि प्रतिवर्ष होने वाली तैराकी प्रतियोगिता में वे भी भाग लेंगे। दोनों को तैरना नहीं आता था। फिर भी संकल्प लिया कि तैरना 132 | For Personal & Private Use Only Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सीखेंगे और प्रतियोगिता में ज़रूर भाग लेंगे। दो माह बाद जब वे पुनः मिले तो एक ने दूसरे के हालचाल पूछे। पहले ने कहा, 'मैंने बहुत अच्छी तैराकी सीख ली है। ढेर सारे तैराकी के गुर भी सीख लिए हैं। मुझे तो उम्मीद हो गई है कि मैं तैराकी में जीत भी सकता हूँ। तुम्हारा क्या चल रहा है ?' दूसरे ने कहा, 'मैंने तो अभी तक कुछ शुरू ही नहीं किया है।' 'क्यों?' 'क्योंकि डर लगता है कहीं डूब गया तो?' जिसे डूबने का डर है वह कभी घर से बाहर नहीं निकल सकता। मन में आशंका रखकर चलने पर बच्चा कभी चलना ही नहीं सीख पाएगा। गिर-गिर कर ही व्यक्ति संभलता है। ठोकर लग-लग कर ही आदमी का निर्माण होता है। कोई घड़ा केवल ऊपर के प्यार के कारण नहीं बनता। एक तरफ प्यार होता है तो दूसरी तरफ थाप होती है, तब कोई घड़ा बनता है। अपने बच्चे को घर का पौधा मत बनाओ। उसे जंगल का वृक्ष बनाओ ताकि उसे पानी न भी मिले तब भी वह अपने बलबूते पर खड़ा रहे। माता-पिता अपने बच्चे को इतना मजबूत बनायें कि वह सर्दी, गर्मी के थपेड़े सहन कर सके। ग़रीबी में रहना पड़े तो रह सके यदि भाई दगा कर जाये तो उसे सहने का भी जिगर उसके पास हो। पता नहीं चलता, दुनिया में कब किसके साथ क्या हो जाए? बच्चों को आत्मनिर्भर बनाएँ, ताकि वे अपना काम ख़ुद कर सकें। अपने बच्चों को पढ़ाई के साथ-साथ काम करने की भी शिक्षा दें। ___ कभी हमारी भी आलोचनाएँ हुई थीं। लोग हमारे मुँह पर हमसे कहते थे कि हमने पंथ बदल लिया है, धर्म बदल लिया है, न जाने वे किस-किस तरह की आलोचनाएँ करते थे? लेकिन आज हमें छत्तीस कौम मानती हैं, छत्तीस कौम के लोग हमें सुनते हैं। क्या यह कोई मामूली बात है कि आज इस शहर में जनमानस को संबोधित करते हुए हमें पूरे पचास दिन हो गए हैं, फिर भी रोज दस हजार श्रोता उपस्थित रहते हैं। यह सब विराटता का परिणाम है, समन्वय का परिणाम है। हाथ में अगर तूलिकाएँ अच्छी हैं और रंग भी पूरे हैं तो फिर कैनवास भी बड़ा ही रखना होगा। लेकिन जो पहले ही चरण में घबराकर बैठ गया वह जीवन में कुछ नहीं कर सकता। कुछ बनना है तो आलोचनाओं को भी झेलना होगा। याद रखिए : दुनिया में किसी का अनुयायी होना सामान्य बात है। कोई | 133 For Personal & Private Use Only Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाज भी किसी का अनुयायी बन सकता है पर अनुयायी मार्ग का अनुसरण भी कर सकता है, नये मार्ग का निर्माण नहीं कर सकता। लीक लीक गाड़ी चले, लीक से चले कपूत। लीक छोड़ तीनों चले सायर, सिंह, सपूत॥ आप भी आलोचनाओं को परे रखकर आगे बढ़िए। ईश्वर सदा सत्य के साथ है। हाथी को देखकर कुत्ते भौंकते ही हैं। अगर हाथी कुत्तों की परवाह करना शुरू कर दे तो वह अपनी मस्ती से वंचित रह जाएगा। वह चल ही न सकेगा। चुनौतियों का सामना करो। मुसीबत और मुश्किलों का सामना करना सीखिए। प्रकृति परिवर्तनशील है। हर व्यक्ति के जीवन में उतार-चढ़ाव आया ही करते हैं। उसी व्यक्ति का विकास होता है, जो चुनौतियाँ झेलने में समर्थ होता है। मैं तो मानता हूँ कि जिसकी आलोचना न हुई, जिसे चुनौतियाँ न मिलीं वह व्यक्ति, जीवन में कुछ बन ही नहीं सकता। थपेड़े और ठोकरें खाने से ही इन्सान कुछ बन पाता है। कालिदास को चुनौती मिली, तुलसीदास को भी चुनौती मिली। चन्द्रप्रभ को भी चुनौती मिली। कालिदास की पत्नी ने व्यंग्य किया था, ताना मारा था कि 'विदुषी महिला का इतना गंवार, अनपढ़ पति! अगर मेरा पति कहलाना चाहते हो तो एक दिन मेरे सामने विद्वान् बनकर आओ, तब मैं गौरव से कह सकूँगी कि तुम मेरे पति हो।' कालिदास जो एक गड़रिया था, पत्नी के ताने सुनकर घर से चला जाता है और जब घर लौटता है तो संसार का एक महाकवि बनकर ही लौटता है। तुलसीदास को भी पत्नी ने कहा था, 'जो प्रेम तुम मुझसे करते हो अगर श्रीराम से करो तो वे तुम्हें साक्षात् मिल जाएँगे।' तुलसी भी पत्नी की बातों से आहत होकर चले गए और जब लौटे तो लिखा चित्रकट के घाट पर, भई संतन की भीर। तुलसीदास चंदन घिसें, तिलक करै रघुवीर॥ हर हालत में हिम्मत और साहस रखें। हिम्मत से व्यक्ति स्वावलंबी बनता है। हिम्मत से ही पाँच पाँडव सौ कौरवों से युद्ध करने का साहस कर सके, नहीं तो लोग गली के कुत्ते और घर के चूहे से भी डरते हैं। मुझे बचपन में कुत्तों से बहुत डर लगता था किन्तु अब तो उन्हें प्यार करता हूँ। एक दिन मैं 134 | For Personal & Private Use Only Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छत पर खड़ा था, सामने की छत पर एक कुत्ता था। मैंने सोचा कि बीच में गली है सो कुत्ता मेरे पास तो आ नहीं सकता। इधर से मैं, उधर से कत्ता मझे घूरने लगा। हम दोनों बहुत देर तक एक-दूसरे को घूरते रहे। बीच-बीच में वह भौंक भी लेता था, पर कुछ कर न सका। तब मुझे लगा कि जब तक हम डरते रहेंगे, कुत्ते पीछे पड़े रहेंगे। जब निर्भय हो जाएँगे, तो कुत्तों को साइड कर देंगे। जहाँ हिम्मत है, वहाँ चमत्कार है, जहाँ हिम्मत है वहीं जीवन में विकास की क्रांति है। हिम्मत न हारिये, प्रभु ना बिसारिये, हंसते-मस्कराते हए जिंदगी गुजारिये। एक पल के लिए भी मन में दुर्बलता का, पराजय का, अकर्मण्यता का, असफलता का भाव या विचार न आने दीजिए। यदि आप हीन-भावों को मन में जगह देंगे तो ये भी आशा को बाहर धकेल देंगे। दृढ़ निश्चय कीजिये, संकल्प करिये कि आप अपने मन में हीनता की भावना कभी नहीं आने देंगे। आप संकल्प कीजिए कि आप जो करेंगे, वह श्रेष्ठतम होगा। निरन्तर यह विश्वास रखिये कि आपका परिश्रम सफल होकर रहेगा, इच्छा पूरी होकर रहेगी, आशाओं के फूल खिलकर रहेंगे, आकांक्षाओं के फल मिलकर रहेंगे। प्रयत्न करते जाइये, पूर्ण शक्ति, योग्यता, कुशलता और सामर्थ्य से अपने उद्देश्य के प्रति निष्ठावान होकर कार्य करते रहिए, सफलता निश्चय ही आपकी होगी। ___आप अपना आत्मविश्वास जुटाएँ, जीवन में सफलता पाएँ। आशंकाओं के बारे में किसी प्रकार मत सोचिए, उन्हें भुलाने या भगाने की अपेक्षा मन को दूसरी ओर लगा दें। अच्छी प्रेरणास्पद पुस्तकें पढ़ें। घबराइये नहीं, आपसे भी पहले उन लोगों के जीवन में कठिनाइयाँ आई थीं जो आज सफलता के उच्च शिखरों पर खड़े हैं। साहस के साथ आगे बढ़ते रहिए, निर्भीकतापूर्वक, निश्चित होकर। आत्मविश्वास में बड़ा चमत्कार है। यही मनुष्य की वास्तविक शक्ति का भंडार है। याद रखिए, जीवन में सुख, शांति और सफलता के मंगल गीत तभी गाए जा सकते हैं जब आपका अपने आप पर विश्वास हो। ख़ुद पर होने वाला 135 For Personal & Private Use Only Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्वास ही मेरे अपने जीवन की ताक़त है। मैं जो कुछ आप लोगों से कहता हूँ वो मेरी बातें मेरी अंतरात्मा की प्रेरणाएँ हैं और अंतरात्मा की प्रेरणाओं के पीछे ईश्वरीय प्रेरणाएँ काम किया करती हैं। अपने आप पर होने वाला विश्वास ही आपको आपकी ओजस्विता का अहसास कराता रहेगा । बग़ैर ओजस्विता के तो इंसान हार की ढलान पर फ़िसलता रहेगा । आप अपने आप को उत्साह, उमंग और ऊर्जा से भरिए और जीवन की सफलता तथा धन्यता के लिए प्रयत्नशील हो जाइए। दुनिया की सारी ख़ुशियाँ तुम्हारे लिए हैं। 'ख़ुश रहो, हर ख़ुशी है तुम्हारे लिए । ' 1 ख़ुशियों को पाने की सही वज़ह यही है : जीओ शान से, शुरुआत मुस्कान से । आपकी मुस्कान ही आपकी जीवन्तता की पहचान है । ज़िंदे और मुर्दे में यही तो फ़र्क़ है कि मुर्दा लटक सकता है पर ज़िंदा मुस्कुराते हुए मस्तक ऊँचा कर सकता है । अपने जीवन का उपयोग कीजिए, उस हर अवसर का जो आपको सुख, सुकून और ख़ुशियाँ दे सके। रुडयार्ड किपलिंग की इन पंक्तियों को सदा याद रखिए –यदि तुम कभी लौटकर न आने वाले इस एक मिनट के साठ सैकेंड सार्थक कर लेते हो तो यह समूची धरा तुम्हारी है; इस धरा पर विद्यमान सभी कुछ तुम्हारा है। विश्वासपूर्ण ज़िंदगी के लिए, अपने हर आज को सार्थक बनाने के लिए कुछ बातें निवेदन कर रहा हूँ, जिन्हें अपने जेहन में उतार लें और इनसे प्रेरणा भी लेते रहें जो 1. — हुआ, किसी-न-किसी दृष्टि से अच्छा ही हुआ । जो हो रहा है वह भी अच्छा ही हो रहा है। जो होगा वह भी अच्छा ही होगा । 2. मैं अपने जीवन का सम्मान करूँगा । शरीर से व्यायाम भी करूँगा और इसका पोषण भी। न मैं इसका दुरुपयोग करूँगा और न ही इसकी उपेक्षा। 3. मैं अपने मन-मस्तिष्क की शांति, स्वस्थता और प्रसन्नता पर ध्यान दूँगा। गुस्सा और आवारागर्दी नहीं करूँगा । मस्तिष्क की समृद्धि के लिए कुछ ऐसा भी पढूँगा जिससे मेरे प्रयास और विचार प्रभावशाली हो । 4. आज के दिन में अच्छा रहूँगा, अच्छा पहनूँगा, अच्छा व्यवहार करूँगा । धैर्य और विनम्र स्वर में बात करूँगा । औरों की प्रशंसा में उदारता बरहूँगा । दूसरों की कमियों पर टिप्पणी नहीं करूँगा । 136 For Personal & Private Use Only Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ____5. मैं सुबह उठते ही दैनिक कार्यक्रम शुरू करने से पहले किस घंटे में मुझे क्या करना है यह तय करूँगा। जल्दबाजी और अनिर्णय की स्थिति को टालने के लिए हर कार्य धैर्य और दृढ़ता के साथ करूँगा। 6. आज के दिन मैं आधा घंटा शांति, साधना और आराधना के लिए समर्पित करूँगा। मैं ईश्वर का ध्यान करूँगा ताकि अपने जीवन में कुछ नये अर्थों का भी समावेश किया जा सके। 7. मैं आज सहज प्रसन्न रहूँगा। वातावरण विपरीत बन जाने पर स्वयं पर संयम रखूगा और पूरे दिन प्रेम तथा सद्व्यवहार का आनंद लूँगा। आपकी यह सकारात्मकता और रचनात्मकता ही आपको उत्साह और विश्वास से भरी रखेगी। यदि आप अपने 'आज' से खुश नहीं हैं तो दुःखी मत होइए, अपनी मानसिकता बदलिए, जीवन प्रभु का प्रसाद है इसका आनंद लीजिए। अपना रास्ता खुद तलाशिए और ख़ुद ही उस रास्ते के चिराग़ बनिए। 1137 For Personal & Private Use Only Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सकारात्मक सोच की चामत्कारी शक्ति इंसान की हर ऊँचाई के पीछे इंसान की सकारात्मक और रचनात्मक सोच ही सीढ़ी का काम करती है। आप अपनी सोच को पॉज़िटिव और क्रिएटिव बनाकर देखें तो सही आप आसमान में भी सीढ़ी लगाने में सफल हो जाएँगे। जहाँ दुनिया के लिए सारी खिड़कियाँ बंद हो चुकी होंगी वहाँ आपके लिए प्रगति की एक खिड़की अवश्य खुल जाएगी। किस्मत के भरोसे मत रहिए, कर्मयोग का भरोसा कीजिए। इंसान का कर्म वह कामधेनु है जिससे अतीत में कभी राजा दिलीप ने वरदान पाया था, वर्तमान में आप उससे वरदान पा सकते हैं। इंसान की सफलता का पहला पायदान सकारात्मक सोच है। सकारात्मक सोच से जहाँ इंसान की मानसिकता स्वस्थ और प्रसन्न रहती है, वहीं उसका कैरियर, व्यापार और रिस्तों-नातो में भी पॉज़िटिव असर आता है। सकारात्मक सोच के अभाव में चिंता और तनाव में बढ़ोतरी होती है। सकारात्मक सोच आदमी के मिजाज को ठीक रखता है, उसके व्यवहार को विनम्र बनाता है, हर समस्या के बीच समाधान का दीप जलाता है। 138 For Personal & Private Use Only Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सकारात्मक सोच के मायने हैं : दूसरों के प्रति अच्छी मानसिकता, काँटों में भी फूलों को ढूँढ़ निकालने की कला। दूसरे के द्वारा ओछा और अपमान भरा व्यवहार करने के बावज़ूद हमारी ओर से प्रेम और मिठास भरा व्यवहार करने का ज़ज़्बा रखना सकारात्मक सोच है । सकारात्मक सोच हमारे भीतर यह अंतरप्रेरणा जगाती है कि कमियाँ देखना कमीनों का काम है और खूबियाँ देखना खूबसूरत लोगों का । विपरीत हालात में चिंतित और अधीर तो कोई भी हो सकता है, लेकिन धैर्य और शांति रखना ही व्यक्ति की आत्म-विजय है, लेकिन गाली के बदले में ग़ाली तो कोई भी निकाल सकता है, लेकिन ग़ाली के बदले में भी गुलाब शरबत का प्याला पिला देना यही है इंसान की सही समझदारी और इस समझदारी का नाम है सकारात्मक सोच । महानताएँ न तो आकाश से टपक कर आती हैं और न ही ज़मीन को फोड़ कर निकलती हैं । महानताओं के दीप हमें स्वयं को जलाने पड़ते हैं । महानता का मतलब है विचार, वाणी और व्यवहार का महान् होना। हालाँकि यह कोई ज़रूरी नहीं है कि हम सब लोग महात्मा गाँधी की तरह महान् बनें, लेकिन यह तो ज़रूरी कि हम अपने मित्रों से अच्छा व्यवहार करें, किसी के साथ दुश्मनी न रखें। सास-बहू, पिता-पुत्र, भाई-भाई अगर सोच को सकारात्मक नहीं रखेंगे तो नई पीढ़ी और पुरानी पीढ़ी रोज़ टकराती रहेंगी। आम इंसान की तो छोड़ो, घर वालों के बीच भी दूरियाँ बढ़ जाएँगी। यही वज़ह है कि मैं सबको सकारात्मक सोच की प्रेरणा देता हूँ । मेरे देखे सकारात्मक सोच के जरिये जीवन की नब्बे प्रतिशत समस्याओं का हल निकाला जा सकता है । और तो और, पॉज़िटिव थिंकिंग के फार्मूले से मानसिक रोगों पर भी विजय प्राप्त की जा सकती है। परिवार और भाई-भाई के बीच निरन्तर आ रही दूरियों को पाटा जा सकता है। अब दूरी कैसे बनती है, सो समझिए । आज कल की लड़कियों को साड़ी पहनना माथा-पच्ची का काम लगता है। अच्छा होगा जब आप पढ़ी-लिखी बहु घर ला रहे हैं तो नए युग की लड़की के साथ नई विचार - धारा भी लेकर आएँ । यदि साड़ी पहनने का ही आग्रह है तो गाँव की और कम पढ़ी-लिखी लड़की लाएँ । अपनी पढ़ी-लिखी बहु को सलवार सूट और जिंस पहनने की छूट दें। आप बहु तो लाए हैं एम. बी. ए. । आपकी यह भी ख़्वाहिश है कि वह कमा कर भी लाए और ऊपर से यह भी कि वह अपने सास-ससुर के आगे घूँघट निकाले । अगर आप इस तरह का व्यवहार करेंगे तो बिचारी नई पीढ़ी की बहु का तो दम 139 For Personal & Private Use Only Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ही घुट जाएगा। मेरे जैसा ससुर हो तो बहु को सोने की चूड़ी बाद में दिलाए पहले उसकी मनपसंद जिंस दिलाए । अरे भाई! बहु है तो क्या हुआ, अपनी बेटी ही है। अब बच्चे जिसमें राजी,अपन हो जाएँ उसमें राजी। घर के वातावरण को खुशहाल रखना अपन सब लोगों पर निर्भर करता है। बहु की खुशियों का ध्यान अगर सास-ससुर नहीं रखेंगे तो कौन रखेगा। ऐसे ही सास-ससुर की सेवा और उनके सुख-दुख का ध्यान बहु नहीं रखेगी तो किसी और से तो होने से रही। वातावरण चाहे घर-परिवार का हो या कैरियर का, वातावरण कभी बोझिल नहीं होना चाहिए। जैसे आसमान में इन्द्रधनुष निकल आए तो आसमान सौ गुना ज़्यादा सुन्दर हो जाता है, ऐसे ही हमारे घर-आँगन में भी सब लोग हँसे-खिलें, साथ हिलमिल कर रहें तो हमारा घर स्वर्ग जैसा सुन्दर हो ही जाएगा। आइए, हम लोग अपने नज़रिए को ठीक करें और ऐसा करने के लिए हम पॉज़िटिव थिकिंग का मंत्र अपनाएँ। सोच को पॉज़िटिव बनाने के लिए हम पाँच मंत्र अपनाते हैं। पहला है : आधा गिलास भरा देखिए । सकारात्मक सोच का पहला उसूल है : हमेशा दूसरों की खासियत देखिए, खामियाँ नहीं। अगर कमियाँ देखने जाएँगे तो दुनिया में ऐसा कौन व्यक्ति है जिसमें किसी न किसी तरह की दो-चार कमियाँ न हों। अगर नज़रिया कमियाँ देखने का हो तो आपको मुझमें भी चार कमियाँ नज़र आ जाएँगी। मुझे तो छोड़ो, रामजी और महावीरजी में भी कमियाँ देखने वाला तो उनमें भी कमियाँ निकाल ही लेगा। कमियाँ देखना कमीनों का काम है। पॉज़िटिव थिकिंग का फलसफा तो यह है कि हमेशा सबके गुण देखो।अब तक अगले ने हम पर जो उपकार किया है उसे याद रखो। पिता ने आज अगर डाँट लगा दी तो उसे लेकर घर में आग मत लगाओ क्योंकि यही वह पिता है जिन्होंने अब तक सौ बार हमें संभाला है। सास ने हमें टोक दिया तो उसे लेकर अपना घर अलग मत बसाइए, क्योंकि यही वह सास है जो बड़ी आशा और उम्मीद के साथ हमें इस घर में ब्याह कर लाई है। यही वह देवी है जिसने हमें हमारा सुहाग पाल-पोसकर आज हमें सौंपा है। ___ पॉज़िटिव थिकिंग का सिद्धांत हमें बताता है कि आधा गिलास हमेशा भरा 140 For Personal & Private Use Only Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुआ देखें। अगर हम गिलास के खाली भाग पर गौर करेंगे तो सामने वाले की हमसे टीका-टिप्पणी होने लग जाएगी। वहीं भरे हुए भाग पर गौर करेंगे तो सामने वाले की तारीफ़ और अभिवंदना करने की चाहत जगेगी। मूल्य हमेशा गुलाब को दीजिए, काँटों को नहीं। ईश्वर को यह कह कर शिकायतें मत कीजिए कि प्रभु तुमने मुझे कुछ नहीं दिया, बल्कि यह सोचकर शुक्राना अदा कीजिए कि शहर में दस हज़ार लोग हमसे ज़्यादा संपन्न हुए तो क्या हुआ, एक लाख लोग ऐसे भी हैं जो मुझसे काफ़ी दीन हालत में हैं। पॉज़िटिव थिंकिंग रखोगे तो हमेशा प्लस वाला बिन्दु नज़र आएगा। दूसरा है : मिजाज को ठण्डा रखिए। पॉज़िटिव थिकिंग का उसूल हमें समझाता है कि हमें अपना मूड नहीं बिगाड़ना चाहिए और मिजाज को उग्र नहीं होने देना चाहिए। लोग घरों में तो एयर कंडिशनर लगाते हैं, पर दिमाग में हीटर फिटिंग किए रहते हैं। अरे भाई! घर से कहीं ज़्यादा ज़रूरी है दिमाग का कूल होना। पुरानी कहावत है – 'पाँव गरम, पेट नरम, माथा जिसका ठण्डा; घर में आए डॉक्टर तो मारो उसको डण्डा।' सिर को गरम करने से ही डॉक्टर की ज़रूरत पड़ती है। जो अपने दिमाग को सहज व शीतल प्रकृति का रखते हैं उन्हें कभी किसी डॉक्टर से चिकित्सा करवाने की ज़रूरत नहीं पड़ती। जो बात आप तैश में आकर कहते हैं अगर उसी को प्रेम से कहने की आदत डाल लें तो बगैर किसी प्रयास के आप अपने गुस्से को जीतने में सफल हो जाएँगे। मिजाज अगर गरम होगा तो आदमी बेशर्म होगा। गरम मिजाज हर समय आदमी को आउट ऑफ कंट्रोल रखता है। अच्छा होगा, हम सभी लोग एक खास फार्मूला अपना लें - K.E.P. यानी क्या फ़र्क पड़ता है। कभी कोई टेढ़ा शब्द बोल दे, तब भी यही सोचो – K.E. P. 'क्या फ़र्क पड़ता है।' विपरीत वातावरण बन जाने पर K.E. P. का सिद्धांत व्यक्ति की सोच को सकारात्मक बनाए रखने में सफल हो सकता है। पत्नी ने गुस्से में आकर पति से कहा तुम तो निरे जानवर हो। पति ने मुस्कुराते हुए कहा - तुमने ठीक कहा, तू मेरी जान, मैं तेरा वर। संत तुकाराम से उसकी पत्नी ने खेत से गन्ना तोड़ लाने को कहा। तुकारामजी गन्ने लेकर भी आए, पर चौपाल पर बच्चों ने माँग लिया, सो उनको बाँट दिया। केवल एक गन्ना लेकर घर पहुँचे। पत्नी को गुस्सा आया। गन्ना | 141 For Personal & Private Use Only Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेकर तुकाराम की पीठ पर दे मारा। गन्ने के दो टुकड़े हो गए। तुकाराम ने परिस्थिति को संभालते हुए कहा - तू कितनी साध्वी महिला है, सो मेरे बिना कहे एक के दो कर दिए। ले, एक तू चूस ले, एक मैं चूस लेता हूँ । इसको कहते हैं परिस्थिति पर विजय, ठण्डा मिजाज । अपने आपको जब भी गुस्सा आ जाए तो कोका कोला या थम्स अप का विज्ञापन याद कर लिया करो और खुद को ही भीतर से प्रेरित कर लिया करो - कूल-कूल मिस्टर ! कूलकूल। तीसरा मंत्र है : प्रगतिशील चिंतन के मालिक बनिए। पॉज़िटिव थिंकिंग का सिद्धांत हमें सिखाता है कि पुराण पंथी और दकियानुसी विचारों से चिपके मत रहिए । हम प्रगतिशील युग में जी रहे हैं तो अपनी प्रेक्टिकल लाइफ में अपनी मानसिकता को भी प्रगतिशील बनाइए । खान-पान, रहन-सहन और बोल - बरताव और पहनावे के प्रति यदि अपनी विचारधारा को पॉज़िटिव और प्रगतिशील बनाने में सफल होते हैं तो आप निश्चित तौर पर नई पीढ़ी और पुरानी पीढ़ी के बीच में आ रहे दुराव को कम करने में समर्थ होंगे। आप संतों की भाषा मत बोलिए, आप घर के अभिभावक अथवा घर के जिम्मेदार सदस्य हैं । आपकी पहली जिम्मेदारी यही है कि घर का माहौल प्रेम भरा और खुशहाल रहे । छोटीछोटी बातों को लेकर अगर आप टी.टीं करते रहेंगे तो घर वालों की आजादी छीन लेंगे और वे घर की बजाय स्वयं को कारागार में कैद समझने लगेंगे । हम जिस युग में पैदा हुए हैं हमें उस युग की फितरत को समझना होगा । सौ साल पुराने लबादे को आज ओढ़वाने की जिद करना आपकी दकियानूसी ही कलाएगी। मैं तो कहूँगा आप भी आज़ाद रहो और अपने बच्चों और बहुओं को भी आज़ादी का आनन्द लेने दो । आखिर लक्ष्मण-रेखाओं का एक सीमा तक ही पालन हो सकता है। अब न आप राम रहे हैं, न वह सीता । आप भी प्रगतिशील युग में जी रहे हैं तो अपने विचारों और जीवन-शैली को भी प्रगतिशील रखिए । एक घर में सभी लोग पुरानी परम्पराओं का निर्वाह करते हुए जी रहे थे । पोते ने लव मेरीज की । घर के कुछ सदस्यों ने विरोध दर्ज किया, पर दादाजी ने कहा, अगर मेरा पोता इस बहु से खुश है तो मैं इस नई बहु को स्वीकार करता हूँ । बहु स्वीकार तो हो गई, पर घर की पुरानी डाइनिंग टेबल, सोफे, बहु को रास न आए तो दादा ने अपने आपको पुरातत्व - प्रेमी बनाने की बजाए घर के सोफे ही 142 For Personal & Private Use Only Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बदल दिए। अपनी जमा पूँजी बहु की खुशी के लिए खर्च कर दी। घर के कुछ सदस्यों ने जब आपत्ति करनी चाही तो दादाजी ने कहा- मुझे यह जमा पूँजी कौनसी अपने साथ ले जानी है। जो संपत्ति संतति के काम न आ सके वो संपत्ति कैसी ! जैसे उस दादीजी ने अपने घर को टूटते हुए बचा लिया, वैसे ही अगर आप भी ऐसी कोई सकारात्मक पहल करते हैं तो आपके घर में भी हर रोज़ होली, दिवाली की खुशियाँ आ सकती हैं। चौथा मंत्र है : स्वयं को हँसमुख एवं शांतिप्रिय बनाएँ। पॉज़िटिव थिंकिंग का फार्मूला हमें इस बात के लिए प्रेरित करता है कि शांत स्वभाव स्वर्ग का जनक होता है, अशांत स्वभाव नरक की खान । शांत स्वभाव का व्यक्ति तो दुश्मन को भी प्रिय लगता है। सच्चाई तो यह है कि जिसके स्वभाव में शांति के फूल खिले हुए रहते हैं उसका कोई दुश्मन भी नहीं होता । उसका मूड और मिजाज हमेशा पॉज़िटिव रहता है । नेगेटिव स्वभाव वालों को ही क्रोध ज़्यादा आता है। अगर हम लोग विश्व-शांति में विश्वास रखते हैं तो हमें स्वयं को शांतिप्रिय बना लेना चाहिए। मैं तो कहूँगा आपका नाम जो कुछ हो, आप अपना उपनाम शांतिप्रिय रख लें। शांत नेचर का आदमी बुरा करने वालों के प्रति भी शुभकामना और सद्भावना से भरा हुआ रहता है। दुश्मन के प्रति भी सद्भावना रखना इसी का नाम है पॉज़िटिव थिंकिंग । सदा सर्वदा मुस्कुराते रहो। प्रभु के आशीर्वाद आपके साथ हैं । अच्छा होगा आप अपनी गाड़ी के काँच पर यह मंत्र लिखवा ही लीजिए - 'स्माइल प्लीज ।' जेब में भले ही न हो मोबाइल पर चेहरे पर ज़रूर रखिए स्माइल । ज़रा मुस्कुराइए तो...! देखा, कैसा गुलाब का फूल खिल उठा। बहुत ज़्यादा भी मत मुस्कुराइएगा, नहीं तो यह गुलाब का फूल गोभी का फूल बन जाएगा। चलिए, थोड़ा मुस्कुरा लेते हैं । एक आदमी तीन मंज़िले मकान के नीचे से गुजर रहा था कि तभी उसके सिर पर थोड़ा-सा पानी आकर गिरा। उस आदमी ने चिल्ला कर कहा - अरे, पानी क्यों फैंक रहे हो? तीसरी मंज़िल पर खड़ी औरत ने कहा- पानी कहाँ गिरा रही हूँ। मैं तो पोते को पेशाब करवा रही हूँ । एक लड़का एक साथ दो-दो रोटियाँ खा रहा था। यह देख दूसरे लड़के ने 143 For Personal & Private Use Only Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उससे कहा - अरे! तू एक साथ दो-दो रोटियाँ क्यों खा रहा है? पहले लड़के ने ज़वाब दिया - डॉक्टर ने मुझे डबल रोटी खाने को कहा है। अंतिम बात : अच्छे लोगों की संगत कीजिए और अच्छी किताबें पढ़िए। ग़लत लोगों की संगत में रहोगे तो विचार और मानसिकता दोनों ही ग़लत होंगी और अच्छे लोगों की संगत में रहोगे तो विचार और मानसिकता दोनों ही अच्छी रहेंगी। उन दो तोतो की कहानी याद करो जिनमें एक तोता डाकुओं के अड्डे में रहकर लूट-खसोट की भाषा बोलने लगा वहीं दूसरा तोता पुजारी के घर रहकर राम-राम गुनगुनाने लगा। स्वाभाविक है फिल्म हॉल में जाकर बैठोगे तो वैसा असर आएगा और यहाँ हमें सुनने के लिए आओगे तो हमारे जैसा असर पड़ेगा। भोगी की संगत से व्यक्ति भोगी बनता है और योगी की संगत से व्यक्ति योगी। भोगी तो हम हैं ही, योगी की संगत करो। संभव है उनकी संगत हमें कंकर न रहने दे, कंकर को हीरा बना दे। अच्छी किताबें पढ़ो। एक अच्छी किताब इंसान के लिए गुरु का काम करती है। जैसे जूते-चप्पल-कपड़े-नमकीन-मिठाई खरीदने की आदत रखते हो, वैसे ही अच्छी किताबें खरीदने की भी आदत रखो। शरीर की पौष्टिकता के लिए तो हम अच्छे से अच्छा खाना खाते हैं, खिलाते हैं, पर बुद्धि की पौष्टिकता के लिए हम आलसी और लापरवाह रह जाते हैं। बुद्धि की खुराक है अच्छी किताबें, अच्छे विचार। अच्छी किताबें अपने घर लाओ, उनसे आपको हीरेमोती मिलेंगे। कम्प्यूटर-प्रणाली का सिद्धांत है : गुड इन, गुड आउट; रोंग इन रोंग आउट। अच्छा डालोगे तो अच्छा पाओगे। ग़लत डालकर सही को नहीं पाया जा सकता। जीवन को आनन्द-उत्सव का पर्व बनाना है तो एक ही बीज मंत्र याद रखो :बी पॉज़िटिव । हँसते रहो और सकारात्मक रहो । बस, इतना काफी है। सबके लिए अमृत प्रेम, नमस्कार। For Personal & Private Use Only Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपने बच्चों को कार नहीं, संस्कार दीजिए। घर में प्यार के ऐसे पौधे लगाइए, जिनसे हँसी-खुशी के ढेर सारे फूल खिलें। 'घर को कैसे स्वर्ग बनाएं' पुस्तक पूज्य श्री चन्द्रप्रभ के वे प्यारे और रसभीने प्रवचन हैं, जो हमारे घर-परिवार के माहौल को हर तरह से खुशनुमा बनाते हैं। ईंट, चूने, पत्थर से मकान का निर्माण हो सकता है, पर घर-परिवार का निर्माण जिन चीजों से होता है, यह पुस्तक हमारे सामने उन्हीं सब बातों को पेश करती है। श्री चन्द्रप्रभ कहते हैं कि अपने घर का माहौल इस तरह बनाएं कि आपकी हर सुबह ईद हो, हर दोपहर होली हो और हर रात दीवाली हो। पिता के चेहरे में सदा ईश्वर के दर्शन करें और मां के चरणों में स्वर्ग का आनंद लें। अपने घर को अपना मंदिर समझें और उसका स्वरूप उतना ही पवित्र एवं खुशनुमा रखें, जितना कि आप परमपिता परमेश्वर के मंदिर का रखना पसंद करते हैं। ___ यह बेहतरीन पुस्तक हमारे घर-परिवार को खुशनुमा बनाती है, हमारे रिश्तों को एक नई मिठास देती है, बच्चों का भविष्य संवारती है, जवानी में सफलता का विश्वास दिलाती है और बुढ़ापे की सार्थकता के दमदार गुर सिखाती है। यह पुस्तक अपने आपमें घर के आंगन में खिला हुआ वह कल्पवृक्ष है, जिसकी छाया में आप अपने घर का माहौल स्वर्ग जैसा सुखदायी बना सकते हैं। ISBN 978-81-310-1470-7 मनोज पब्लिकेशन्स 97881310014707 / / Rs80 For Personal & Private Use Only