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मनाया जाने वाला उत्सव, उनके होने से ही घर को आनन्दित कर देता है। घर में जन्मा एक बच्चा भी घर को आनंदमय-स्वर्गमय बना देता है।
बालक तो परिवार की आत्मा है। वह समाज का मेरुदण्ड है। बालक विश्व की सबसे छोटी किन्तु सबसे महत्त्वपूर्ण इकाई है। जो लोग अपने जीवन में, बाल-सुलभता रखते हैं वे भले ही बूढ़े ही क्यों न हो जाएँ, बच्चे ही बने रहते हैं। प्रभु यीशू ने कहा था, 'भगवान के राज्य में वे ही प्रवेश पा सकते हैं, जो अपने स्वभाव को बालक जैसा बनाए रखते हैं।' यह इसलिए कहा कि बच्चों में जो सहजता, सरलता, निश्छलता, दूसरों के काम आने की सहभागिता होती है और जो जज़्बा, जिज्ञासा, समर्पण और सद्भाव होता है, वह दूसरों के पास नहीं होता। स्मरण रखें, बच्चा होना कल्याणकारी है, लेकिन बचकानापन बेवकूफी है। स्वभाव में मासूमियत सुकून की बात है, लेकिन बचकानापन मूढ़ता और मूर्खता का पर्याय है।
बच्चे तो आने वाले कल के भविष्य हैं। वे भविष्य के निर्माता हैं। वे भारत के भाग्यविधाता हैं। हम क्यों भूल जाते हैं कि मंदिरों में हम जिस भगवान की पूजा करते हैं वह तो मूल रूप से बच्चों में ही विद्यमान होता है। जन्माष्टमी को हम भगवान कृष्ण का जन्मोत्सव मनाते हैं। शायद संसार में कृष्ण ही एक ऐसे भगवत्पुरुष हैं जिनके बालगोपाल रूप की पूजा होती है। कृष्ण बालरूप में ही सबको लुभाते हैं। बड़े होने पर तो वे राजनीति और कर्मनीति के रास्ते अपनाते हैं, पर कृष्ण का बालरूप लीलाधर की लीला है। पर्युषण के दिनों में भगवान महावीर का जन्मवाचन होता है। उस दिन लाखों लोग महावीर का पालना झुलाते हैं। क्यों? क्योंकि बालरूप मनोहारी है। ऐसे ही भगवान राम का बालरूप मन को लुभाता है। बालरूप आह्लादकारी है। वह हमें अधिक रिझाता है। हमारा अपना बच्चा भी बीस वर्ष की आयु में हमें उतना आनन्दित नहीं करता, जितना आठ वर्ष की आयु में करता था। नचिकेता, ध्रुव, प्रह्लाद
और अतिमुक्त जैसे बच्चों ने तो मात्र आठ-दस वर्ष की आयु में ही ईश्वरत्व को उपलब्ध कर लिया था। __अगर कोई बालक अपने जीवन में कुछ कर गुजरने का संकल्प ले ले तो उसकी गरीबी या माता-पिता का न होना भी उसकी राह नहीं रोक सकता। बुधिया जैसा बालक भी 65 किमी. की लम्बी दौड़ लगाकर विश्व में अपना 38 ।
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