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ममता सागर की तरह अथाह है, उसके अहसान आकाश की तरह अन्तहीन हैं। माँ अपने आप में पूर्ण है । 'मातृ देवो भवः' के पुण्य जाप से तो देव, दानव और मनुज सभी तिर गए । श्रवणकुमार ने इसी मंत्र के जाप से अनेक सिद्धियाँ हासिल कर ली थीं ।
माँ तो जब तक जीवित रहती है तब तक सरवर, तरुवर और संत की तरह अपने बच्चों पर अपना हर सुख, शांति, प्रेम, वात्सल्य लुटाती रहती है और जब शरीर छोड़कर परलोक सिधार जाती है तो वहाँ बैठे-बैठे ही अपने बच्चों को अपने आशीर्वाद लुटाती रहती है इसलिए माँ महज माँ नहीं वरन हर माँ एक जगदम्बा है।
माँ जब तक हमारी आँखों के सामने है तब तक हमको ईश्वरीय छाया का सुकून देती है और जिस दिन हमें छोड़कर चली जाती है तो अपने देवदुर्लभ आशीर्वादों का कवच पहना जाती है । वह दूर रहकर भी अपने बच्चों के लिए मंगल कामनाएँ किया करती है । माँ सचमुच धन्य है, वह यज्ञ की वेदी है, वह मन्दिर की प्रतिमा है, हर तीर्थ की देवी है । माँ के कदमों में ही जन्नत है । माँ के आंचल में ही कामधेनु का आशीर्वाद है । माँ के होठों में जीवन का गुलाबी सुख है । माँ के हाथों में जादुई स्पर्श है, जो देता है हमें एक अनोखा सुख, सन्तुष्टि, तृति और मुक्ति ।
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यह माँ ही है जो हमें जन्म देने के लिए एक अव्यक्त, अघोषित प्रसूति की भयंकर वेदना सहन करती है । यह माँ ही है जो हमारे धरती पर आने का हमें पहला अहसास कराती है । माँ ही अपनी कोख में हमारी पहली आहट पाती है और वही हमें पहले पदचाप का अहसास कराती है। जन्म लेते ही अपने प्यार भरे चुम्बनों से स्वागतम् स्वागतम् की झड़ी लगा देती है । हमारे लिए ढेर सारी शुभकामनाएँ सागर की लहरों की तरह हम पर उलीच देती है। क्या हम माँ के ऋणों को चुका पाएंगे ? अगर कोई व्यक्ति यह सोचे कि मैं माँ के ऋण से उऋण हो सकता हूँ तो ऐसा सोचना भी माँ के प्रति घृष्टता होगी । भला हम किस-किस ऋण को उतारेंगे ? क्या हम उस ऋण को उतार पाएँगे जो माँ ने हमें नौ माह तक गर्भ में रखकर पीड़ाएँ सहन की थीं? जब माँ हमें अपनी कोख़ में लेकर समाज में आती जाती होगी, जहां लोग उसे तिरछी नज़रों से देखते होंगे, पर उसने लाज का त्याग करके भी हमें पेट में रखा। यदि
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