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दर्शन कराने ले जाएँ। शायद इसी बहाने सही, माँ के थोड़े कर्ज़ उतारने का अवसर मिल जाए। माता-पिता के मरने के बाद जीमणवारी करना या हरिद्वार जाकर उनके फूलों को विसर्जित करना महज़ रूढ़ता की लकीरों को पीटने की तरह है, माँ के जीते-जी तुम कुछ ऐसा करो कि तुम्हारे कारण उनकी सद्गति का प्रबंध हो जाए। और इसकी शुरूआत करने के लिए हर रोज़ अपनी माँ को मंदिर दर्शन कराने ले जाओ। माँ की अंगुली पकड़कर उतने साल तो मन्दिर अवश्य ले जाएँ जितने साल तक माँ हमारी अंगुली पकड़कर हमें विद्यालय लेकर गई। ____ मैंने सुना है कि भारतीय संस्कृति में पुत्रों का जन्म इसलिए महत्वपूर्ण होता है कि वे अपने माता-पिता का तर्पण कर सके। उनकी गति सद्गति कर सके। मरने के बाद तो हम ब्राह्मणों को भोज दे देंगे, उनके नाम से प्याऊ भी बना देंगे। मुझे नहीं पता कि यह कितना सार्थक तर्पण होता है। अगर हम जीते-जी उनकी गति और सद्गति की व्यवस्था करते हैं तो यही पुत्र होने की सार्थकता है। मरना तय है, सबके शरीर यहीं छूट जाने वाले हैं, पर माता-पिता मरें, उससे पहले हम उनकी सद्गति की व्यवस्था करें। भले ही हम कहीं अन्यत्र अपना अलग घर क्यों न बसा चुके हों पर माँ की अन्तिम सांस जब निकले, तब हम उनके पास ज़रूर हों। मेरे मित्र, ईश्वर से इतनी प्रार्थना अवश्य करना कि माता-पिता के जब प्राण निकले तो हम सारे पुत्र उनके क़रीब हों, उन्हें कंधा देने वाले हों, उन्हें तर्पण देने वाले हों, उनकी मुक्ति का प्रबंध करने वाले हों।
हाँ, एक और कर्त्तव्य यह है कि साल में एक दफा अपनी घर-गृहस्थी या बिजनेस से छुट्टी लेकर अपने बुजुर्गों को सात दिन के लिए तीर्थयात्रा के लिए ज़रूर ले जाएँ। मेरी बहनों, अपने पति को केवल पति ही मत बनाओ, अपने पति को श्रवण कुमार बनने की भी प्रेरणा दो। आप किसी घर की पत्नी ही नहीं उस घर की कुलवधु भी बनें। कुलवधु वह नहीं होती जो अपने पति को लेकर घर अलग बसा लेती है। कुलवधु वह है जो मरते दम तक अपने सास-ससुर की सेवा किया करती है। बहिनो, यदि आप अपने बूढ़े सास-ससुर की सेवा करेंगी तो निश्चय ही आपके पति के नवग्रह अनुकूल होंगे और आपकी सात पीढ़ियां फलेंगी-फुलेंगी। बहू चाहे गोरी हो या सांवली इससे क्या 72 |
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